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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

26 जनवरी 2016

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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू की तरह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के पहली पंक्ति के नेता थे। पर अपने आप को भारत माता पर उत्सर्ग करने की आतुरता में उनकी तुलना शहीद भगत सिंह जैसे वीरों से ही की जा सकती है। उनका नाम सुनते ही हमारे अंदर जिस तरह का जोश और स्फूर्ति जगती है वह विलक्षण है। 1941 के जनवरी महीने में नेताजी द्वारा अपनी मातृभूमि को छोड़ने की तुलना महात्मा बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण से की जा सकती है। यह एक ऐसी यात्रा थी जिसमें अंततः उनकी जान चली गयी। पर यह कितनी बहादुरी की बात थी इसका अंदाजा लगाना सरल नहीं है। आधी रात में अंग्रेजी शासन की गिद्ध दृष्टि के बचकर उन्होंने कलकत्ता से पेशावर तक की यात्रा की और वहाँ से भारत से बाहर निकल गए। यह अत्यंत जोखिम भरी यात्रा थी।  कई देशों से होते हुए नेताजी सिंगापुर पहुंचे जहाँ उन्होंने भारत की आजादी के लिए आजाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की।

नेताजी ने भारत से बाहर रह रहे भारतीयों में आजादी की लड़ाई के लिए ऐसा जोश भरा कि सभी अप्रवासी भारतीय इकट्ठे हो गए और जी-जान से लड़ाई के मैदान में कूद पड़े। उनके नेतृत्व में जो सांप्रदायिक सद्भाव कायम हुआ वह आश्चर्यजनक रूप से काबिलेतारीफ था।  यह सद्भाव महात्मा गांधी द्वारा किये गए प्रयास से कहीं अधिक सफल था। उनकी नेतृत्व क्षमता बेमिसाल थी। उन्होंने सिंगापुर में भारत की स्वतंत्र सरकार बनाई जो वाकई एक सरकार की तरह कार्यरत थी।  कई देशों से मदद लेकर उनके नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज ने भारत को आजाद करने के लिए भारत पर हमला किया। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली।  अंडमान-निकोबार को उनकी फ़ौज ने जीत लिया और पूरे देश की आजादी से पहले ही  वहाँ के लोगों ने आजादी का पहला स्वाद चखा।

1941 से 1945 तक उन्होंने जैसी वीरता, नेतृत्व क्षमता, शौर्य और पराक्रम का उदाहरण पेश किया वह सासे विश्व के इतिहास में प्रेरणा दायक है। अगस्त  1945 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गयी इसलिए यह कहना कठिन है कि इतिहास की गति वह कैसे प्रभावित करते।  पर इतना तो स्पष्ट है कि आजाद हिन्द फ़ौज के हमलों ने अंग्रेज सरकार की चूलें हिला दीं। देश में 1942 के  बाद  से कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ था।  लेकिन उनके हमले और बाद में अंग्रेजों द्वारा पकडे गए आजाद हिन्द फौजियों के खिलाफ चलाये गए मुकदमों ने ऐसा माहौल तैयार किया जिसका असर अंग्रेजों के अधीन काम कर रही सेना पर पड़ा जिसने विद्रोह कर दिया। 1947 में ही अंग्रेजों ने भारत क्यों छोड़ा इस प्रश्न पर क्लेमेंट एटली ने उत्तर दिया था कि जब भारतीय सेना ने  विद्रोह  कर दिया तब हमें भारत छोड़ना पड़ा। दरअसल सेना अंग्रेजी सरकार का आखिरी सम्बल थी।  जब उसने ही साथ छोड़  दिया तो उनके लिए शासन करना लगभग असंभव था।  

इतने महती योगदान के बावजूद उन्हें इतिहासकारों ने अपेक्षित सम्मान नहीं दिया। उन्हें फासिस्टों का साथ देनेवाला और राष्ट्रीय आंदोलन के स्थान पर बंगाल या कलकत्ता की राजनीति करने वाला कहा गया। इसी तरह शहीद भगत सिंह पर भी अनर्गल आरोप लगाए गए और उन्हें आंतकवादी कहा गया। पर देश की आजादी के लिए जैसा त्याग और बलिदान इन दोनों ने किया उसी का परिणाम है देश कि के जन-जन  के ह्रदय में जैसा भाव इनके लिए है वह दुर्लभ है। देश की आत्मा को जगाने के लिए जब भी भारत के वीरों की चर्चा होगी तब इन दोनों के नाम सबसे ऊपर रहेंगे।

नेताजी ने जो सरकार बनाई थी उससे यह साबित नहीं होता है कि वह तानाशाह होते।  ही जर्मनी तथा जापान के साथ उनकी बातचीत से कहीं ऐसा जाहिर होता है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान या हित से कोई समझौता किया हो। इसके उलटे हमें तो यह दिखता है कि उनके नेतृत्व में सांप्रदायिक सद्भाव पनपा और कायम हुआ, महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ी, देश की आजादी की लड़ाई को गति मिली जिससे हमें आजादी मिली और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से हमारा संबंध बना।  इस संबंध को यदि नजरअंदाज नहीं किया गया होता तो शायद हमें एक आर्थिक ताकत बनने में और भी मदद मिली होती। नेताजी ने एक संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के महत्त्व को बखूबी समझा था और इसका जितना प्रयोग और वकालत उन्होंने की थी वह अतुलनीय है।

इसलिए  उनकी  शौर्य  गाथा  इतिहासकारों  की  मोहताज  नहीं  है  क्योंकि  समय  पर  उनके    छोड़े  निशान  इतने  गहरे  हैं  कि  उन्हें भले  इतिहासकार  देखें  या  न  देखें देश के जन -जन अवश्य देखते  हैं।

लेखक प्रसार भारती में अपर महानिदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

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नेताजी का अमूल्य योगदान इतिहासकारों का मोहताज नहीं

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