आजकल हर एक का ही तो
ओट में छिपा हुआ अस्तित्व,
पर सच संग चलने का यहाँ,
कोई ना उठा पाता दायित्व।
झूठ को मलाई समझकर,
सब उसको चाटते जाते है,
सच का कडवे घोट को तो,
सिर्फ महादेव ही पी पाते है।
चेहरे के उपर लगा एक चेहरा,
आँखों में शर्मो हया का पेहरा,
मनमर्जी चाहके ना जी पाते,
होता हरदिन घूट घूटके मरना।
कौन समझाये नादाँ दिल को,
उम्मीद का दर हमेशा दूर को,
चोट खाये ओट से ही जाने,
कितने है वजूद को ही बदले।
ये आलम ओट और इंसान,
दोनों से लगता है डर मुझको,
अब तो शक के बुनियाद पर ही,
टिकता बनता रहता है रिश्ता।
इतना तो मैं ना समझ पाती की,
सब मतलब का ही खेल जाने,
कौन है यहाँ सच में की जो,
दिल का मोल दिल से माने।