पहने हूँ हार विदा बेला का ।
पल-पल वह वक्ष से मेरे टकराए ।।
कुंज कुंज बहे हवा फागुन की,
मीठी सुगन्ध वह उसकी जगाए ।।
हर क्षण जगाए ।
शेष हुआ दिन और शेष हुआ पथ भी ।
मिली मिली छाया वन प्रान्तर में उसकी ।
मन में वह छाया और वन में वह छाया
रह-रह लहराए, दिग्-दिगन्त छाए
झलक झलक जाए ।