प्रकाश का निर्माण कर पंथी! क्योंकि इससे तुझे तेरी राह मिलेगी और इसके सहारे दूसरे लोग भी अपना मार्ग निर्धारित करेंगे। पिता अपनी प्रगति के लिए प्रकाश ढूँढ़ता है, किन्तु वह उसे अपनी संतान को भी दे जाता है।
प्रकाश पर अधिकार व्यष्टि का नहीं, समष्टि का होता है। रोशनी सारी इनसानियत की पूँजी है और प्रकाश निखिल संसार की निधि। भगीरथ एक होता है, किन्तु उसकी लाई हुई गंगा अनन्त मानवों का उद्धार करती है।
मनुष्य एक है : मनुष्य अविभाज्य है।
हाथ से कमाई हुई रोटी का रस क्या पाँव के लिए पुष्टिकारक नहीं होता?
मानवता अन्धकार की कारा से युद्ध कर रही है। संसार के कोने–कोने में इस प्राचीर पर प्रहार किये जा रहे हैं। पता नहीं, यह प्राचीर पहले कहाँ टूटेगा! मगर जहाँ भी टूटे, प्रकाश का जो प्रवाह फूट निकलेगा, वह एक–दो खंडों को नहीं, समस्त मानवता को प्लावित करेगा।
हम प्रकाश चाहते हैंय परम्परा की तमिस्रा को छिन्न–भिन्न कर देनेवाले विभाविशिखों से संवलित ज्ञान का प्रकाशय रूढ़ियों के जाल पर ज्वालापात करनेवाला उद्धारक प्रकाशय मनुष्य और मनुष्य के बीच जो एक नैसर्गिक सम्बन्ध है, उसे प्रत्यक्ष करके दिखलानेवाला समत्वविधायक प्रकाश।
और हम चिनगारियाँ भी चाहते हैं। प्रतिभा के मूल पुंज से छिटकनेवाली देदीप्यमान ज्ञान की चिनगारियाँय कायरता को भस्मीभूत करनेवाले तेज और ओज की चिनगारियाँय बलिदान के पंथ पर आरूढ़ रहने का प्रोत्साहन देनेवाली त्याग की चिनगारियाँ।
ओ मनुष्य! जो कुछ तुम्हें मिला है, वही तुम्हारा अन्तिम लक्ष्य नहीं था। यह प्राप्ति तो केवल इस आश्वासन के लिए है, तुममें केवल यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए है कि तुम्हारा श्रम व्यर्थ नहीं जा सकताय कि चलनेवाला आगे ही बढ़ता जाता हैय कि चलनेवाला अपने लक्ष्य तक पहुँचकर रहेगा।
ये तारे और दीप तुम्हारी प्रगति के पथ के प्रकाश–स्तम्भ हैं। ये बतलाते हैं कि अनादि काल से मनुष्य अन्धकार को भेदने के लिए अपने प्रयत्नों से प्रकाश का निर्माण करता आ रहा है। ये बतलाते हैं कि इन छोटे दीपों और इन टिमटिमाते तारों से उसे संतोष नहीं। वह तो उस उद्गम–स्थल पर पहुँचना चाहता है, जहाँ विश्व का सम्पूर्ण प्रकाश विराज रहा है, जहाँ ज्ञान की सम्पूर्ण अग्नि अपने पूरे तेज के साथ शोभित है।
ज्ञान के उद्गम, प्रकाश के आदिस्रोत के आमने–सामने खड़े होकर हम अपने–आपको पहचानना चाहते हैं। ये दीप जिसके दूत हैं, ये तारे जिसके संकेत हैं, उस आलोक–पुंज का परिचय हमें मिलना ही चाहिए।
आकाशगंगा कहती है–ओ ज्योति के आकुल अन्वेषको! मेरे किनारे–किनारे चलोय तुम अपने लक्ष्य तक पहुँचकर रहोगे।
पृथ्वी कहती है–आलोक की जननी मैं हूँ। इन दीपों के प्रकाश में अपनी राह खोज लो।
मगर शुक्र को ही सूर्य मानकर जो भूल जाए, उसे क्या कहिए?
ऊपर, ऊपर, और ऊपर मेरे जीवराज! रोशनी की इन लकीरों से आगे भी कोई देश है, जिस पर तुम्हें कब्जा करना होगा :
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं,
अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं।
[दीवाली, 1950]
('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)