हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअ’ल्लिक़ अपने तास्सुरात बयान किए जिससे उसको अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर का था। कोई लुधियाने का और कोई लाहौर का। मगर सबके सब स्कूल या कॉलेज की ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ थे।
मेहर फ़िरोज़ साहब सबसे आख़िर में बोले। आप ने कि... अमृतसर में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो जो फूजे हरामदे के नाम से नावाक़िफ़ हो। यूं तो इस शहर में और भी कई हरामज़ादे थे मगर उसके पल्ले के नहीं थे। वो नंबर एक हरामज़ादा था। स्कूल में उसने तमाम मास्टरों का नाक में दम कर रखा था। हेडमास्टर जिसको देखते ही बड़े बड़े शैतान लड़कों का पेशाब ख़ता हो जाता, फूजे से बहुत घबराता था, इसलिए कि उस पर उनके मशहूर बेद का कोई असर नहीं होता था। यही वजह है कि तंग आकर उन्होंने उस को मारना छोड़ दिया था।
ये दसवीं जमात की बात है। एक दिन यार लोगों ने उससे कहा देखो फूजे! अगर तुम कपड़े उतार कर नंग धड़ंग स्कूल का एक चक्कर लगाओ तो हम तुम्हें एक रुपया देंगे। फूजे ने रुपया लेकर कान में अड़सा कपड़े उतार कर बस्ते में बांधे और सबके सामने चलना शुरू कर दिया, जिस क्लास के पास से गुज़रता वो ज़ा’फ़रान ज़ार बन जाता। चलते चलते वो हेडमास्टर साहब के दफ़्तर के पास पहुंच गया। पत्ती उठाई और ग़ड़ाप से अंदर।
मालूम नहीं क्या हुआ, हेडमास्टर साहब सख़्त बौखलाए हुए बाहर निकले और चपड़ासी को बुला कर उससे कहा, “जाओ भाग के जाओ, फूजे हरामदे के घर, वहां से कपड़े लाओ उसके लिए। कहता है, मैं मस्जिद के सक़ावे में नहा रहा था कि मेरे कपड़े कोई चोर उठा कर ले गया।”
दीनियात के मास्टर मौलवी पोटैटो थे। मालूम नहीं उन्हें पोटैटो किस रिआयत से कहते थे, क्योंकि आलूओं के तो दाढ़ी नहीं होती। उनसे फूजा ज़रा दबता था मगर एक दिन ऐसा आया कि अंजुमन के मेंबरों के सामने मौलवी साहब ने ग़लती से उससे एक आयत का तर्जुमा पूछ लिया। चाहिए तो ये था कि ख़ामोश रहता मगर फूजा हरामदा कैसे पहचाना जाता। जो मुँह में आया ऊल जलूल बक दिया। मौलवी पोटैटो के पसीने छूट गए। मेंबर बाहर निकले तो उन्होंने ग़ुस्से में थर थर काँपते हुए अपना अ’सा उठाया और फूजे को दो चार चोर की मार दी कि बिलबिला उठा मगर बड़े अदब से कहता रहा कि मौलवी साहब मेरा क़ुसूर नहीं, मुझे कलमा ठीक से नहीं आता और आपने एक पूरी आयत का मतलब पूछ लिया।
मारने से भी मौलवी पोटैटो साहब का जी हल्का न हुआ। चुनांचे वो फूजे के बाप के पास गए और उससे शिकायत की। फूजे के बाप ने उनकी सब बातें सुनीं और बड़े रहमनाक लहजे में कहा, “मौलवी साहब! मैं ख़ुद इससे आ’जिज़ आगया हूँ, मेरी समझ में नहीं आता कि इसकी इस्लाह कैसे हो सकती है।
अभी कल की बात है मैं पाख़ाने गया तो इसने बाहर से कुंडी चढ़ा दी। मैं बहुत गर्जा, बेशुमार गालियां दीं मगर उसने कहा, अठन्नी देने का वा’दा करते हो तो दरवाज़ा खुलेगा और देखो अगर वा’दा कर के फिर गए तो दूसरी मर्तबा कुंडी में ताला भी होगा। नाचार अठन्नी देनी पड़ी अब बताईए मैं ऐसे नाबकार लड़के का क्या करूं।”
अल्लाह ही बेहतर जानता था कि उसका क्या होगा। पढ़ता वढ़ता ख़ाक भी नहीं था। एंट्रेंस के इम्तहान हुए तो सबको यक़ीन था कि बहुत बुरी तरह फ़ेल होगा मगर नतीजा निकला तो स्कूल में उसके सबसे ज़्यादा नंबर थे। वो चाहता था कि कॉलेज में दाख़िल हो मगर बाप की ख़्वाहिश थी कि कोई हुनर सीखे, चुनांचे ये नतीजा निकला कि वो दो बरस तक आवारा फिरता रहा। इस दौरान उसने जो हरामज़दगियां कीं उनकी फ़हरिस्त बहुत लंबी है।
तंग आकर उसके बाप ने बिलआख़िर उसे कॉलेज में दाख़िल करवा दिया। पहले दिन ही उसने ये शरारत की कि मैथेमैटिक्स के प्रोफ़ेसर की साईकल उठा कर दरख़्त की सबसे ऊंची टहनी पर लटका दी। सब हैरान कि साईकल वहां पहुंची क्योंकर। मगर वो लड़के जो स्कूल में फूजे के साथ पढ़ चुके थे, अच्छी तरह जानते थे कि ये कारिस्तानी उस के सिवा किसी की नहीं हो सकती, चुनांचे इस एक शरारत ही से उसका पूरे कॉलेज से तआ’रुफ़ हो गया।
स्कूल में उसकी सरगर्मियों का मैदान महदूद था। मगर कॉलेज में ये बहुत वसीअ’ हो गया। पढ़ाई में, खेलों में, मुशायरों में और मुबाहिसों में हर जगह फूजे का नाम रोशन था और थोड़ी देर में इतना रोशन हुआ कि शहर में उसके गंडपने की धाक बैठ गई। बड़े बड़े जगादरी बदमाशों के कान काटने लगा। नाटा क़द मगर बदन कसरती था। उसकी भेंडू टक्कर बहुत मशहूर थी। ऐसे ज़ोर से मद्द-ए-मुक़ाबिल के सीने में या पेट में अपने सर से टक्कर मारता कि उसके सारे वजूद में ज़लज़ला सा आ जाता।
एफ़.ए के दूसरे साल में उसने तफ़रीहन प्रिंसिपल की नई मोटर के पेट्रोल टैंक में चार आने की शकर डाल दी जिसने कार्बन बन कर सारे इंजन को ग़ारत कर दिया। प्रिंसिपल को किसी न किसी तरीक़े से मालूम हो गया कि ये ख़तरनाक शरारत फूजे की है मगर हैरत है कि उन्होंने उसको माफ़ कर दिया। बाद में मालूम हुआ कि फूजे को उनके बहुत से राज़ मालूम थे। वैसे वो क़स्में खाता कि उसने उन को धमकी वग़ैरा बिल्कुल नहीं दी थी कि उन्होंने सज़ा दी तो वो उन्हें फ़ाश कर देगा।
ये वो ज़माना था जब कांग्रेस का बहुत ज़ोर था। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खुल्लम खुल्ला जलसे होते थे। हुकूमत का तख़्ता उलटने की कई नाकाम साज़िशें हो चुकी थी। गिरफ़्तारियों की भरमार थी। सब जेल बाग़ियों से पुर थे। आए दिन रेल की पटड़ियाँ उखाड़ी जाती थीं।
ख़तों के भबकों में आतशगीर माद्दा डाला जाता था। बम बनाए जा रहे थे, पिस्तौल बरामद होते थे, ग़रज़ कि एक हंगामा बरपा था और इसमें स्कूल और कॉलेजों के तालिब-ए-इल्म भी शामिल थे। फूजा सयासी आदमी बिल्कुल नहीं था। मेरा ख़याल है उसको ये भी मालूम नहीं था कि महात्मा गांधी कौन है। लेकिन जब अचानक एक रोज़ उसे पुलिस ने गिरफ़्तार किया और वो भी एक साज़िश के सिलसिले में तो सबको बड़ी हैरत हुई।
इस से पहले कई साज़िशें पकड़ी जा चुकी थीं। सांडर्स के क़त्ल के सिलसिले में भगत सिंह और दत्त को फांसी भी हो चुकी थी, इसलिए ये नया मुआ’मला भी कुछ संगीन ही मालूम होता था। इल्ज़ाम ये था कि मुख़्तलिफ़ कॉलेजों के लड़कों ने मिल कर एक खु़फ़ीया जमात बना ली थी जिस का मक़सद मुल्क-ए-मुअ’ज़्ज़म की सलतनत का तख़्ता उलटना था।
इनमें से कुछ लड़कों ने कॉलेज की लेबोरेटरी से पकरक एसिड चुराया था जो बम बनाने के काम आता है। फूजे के बारे में शुबहा था कि वो इनका सरग़ना था और उसको तमाम खु़फ़ीया बातों का इल्म था!
उसके साथ कॉलेज के दो और लड़के भी पकड़े गए थे, उनमें एक मशहूर बैरिस्टर का लड़का था और दूसरा रईसज़ादा। उनका डाक्टरी मुआइना कराया गया था इसलिए पुलिस की मार-पीट से बच गए मगर शामत ग़रीब फूजे हरामदे की आई। थाने में उसको उल्टा लटका कर पीटा गया। बर्फ़ की सिलों पर खड़ा किया गया। ग़रज़ कि हर क़िस्म की जिस्मानी अज़ियत उसे पहुंचाई गई कि राज़ की बातें उगल दे मगर वो भी एक कुत्ते की हड्डी था, टस से मस न हुआ। बल्कि यहां भी कमबख़्त अपनी शरारतों से बाज़ न आया।
एक मर्तबा जब वो मार बर्दाश्त न कर सकता उसने थानेदार से हाथ रोक लेने की दरख़्वास्त की और वा’दा किया कि वो सब कुछ बता देगा। बिल्कुल निढाल था, इसके लिए उसने गर्म-गर्म दूध और जलेबियां मांगीं... तबीयत क़दरे बहाल हुई तो थानेदार ने काग़ज़ क़लम सँभाला और उससे कहा, लो भई अब बताओ... फूजे ने अपने मार खाए हुए आ’ज़ा का जायज़ा अंगड़ाई लेकर किया और जवाब दिया, “अब क्या बताऊं, ताक़त आगई है, चढ़ालो फिर मुझे अपनी टकटकी पर।”
ऐसे और भी कई क़िस्से हैं जो मुझे याद नहीं रहे मगर वो बहुत पुरलुत्फ़ थे। मलिक हफ़ीज़ हमारा हम जमाअत था, उसकी ज़बान से आप सुनते तो और ही मज़ा आता।
एक दिन पुलिस के दो सिपाही फूजे को अदालत में पेश करने के लिए ले जा रहे थे। ज़िला कचहरी में उसकी नज़र मलिक हफ़ीज़ पर पड़ी, जो मालूम नहीं किस काम से वहां आया था। उसको देखते ही वो पुकारा, “अस्सलामु अलैकुम मलिक साहब।” मलिक साहब चौंके, फूजा हथकड़ियों में उनके सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था... “मलिक साहब, बहुत उदास हो गया हूँ, जी चाहता है आप भी आजाऐं मेरे पास। बस मेरा नाम ले देना काफ़ी है।”
मलिक हफ़ीज़ ने जब ये सुना तो उसकी रूह क़ब्ज़ हो गई। फूजे ने उसको ढारस दी, “घबराओ नहीं मलिक, मैं तो मज़ाक़ कर रहा हूँ। वैसे मेरे लायक़ कोई ख़िदमत हो तो बताओ।” अब आप ही बताईए कि वो किस लायक़ था। मलिक हफ़ीज़ घबरा रहा था। कन्नी कतरा के भागने ही वाला था कि फूजे ने कहा, “भई और तो हमसे कुछ नहीं हो सकता, कहो तो तुम्हारे बदबूदार कुँवें की गार निकलवा दें।”
मलिक हफ़ीज़ ही आपको बता सकता है कि फूजे को उस कुवें से कितनी नफ़रत थी। उसके पानी से ऐसी बिसांद आती थी जैसे मरे हुए चूहे से। मालूम नहीं लोग उसे साफ़ क्यों नहीं कराते थे।
एक हफ़्ते के बाद जैसा के मलिक हफ़ीज़ का बयान है वो बाहर नहाने के लिए निकला तो क्या देखता है कि दो-तीन टूबे कुवें की गंदगी निकालने में मसरूफ़ हैं। बहुत हैरान हुआ कि माजरा क्या है। उन्हें बुलाया किस ने है?
पड़ोसियों का ये ख़याल था कि बड़े मलिक साहब को बैठे बैठे ख़याल आ गया होगा कि चलो कुवें की सफ़ाई हो जाये, ये लोग भी क्या याद रखेंगे लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ कि छोटे मलिक को इस बारे में कुछ इल्म नहीं और ये कि बड़े तो शिकार पर गए हुए हैं तो उन्हें हैरत हुई। पुलिस के बेवर्दी सिपाही देखे तो मालूम हुआ कि फूजे हरामदे की निशानदेही पर वो कुँवें में से बम निकाल रहे हैं।
बहुत देर तक गंदगी निकलती रही। पानी साफ़ शफ़्फ़ाफ़ हो गया मगर बम क्या एक छोटा सा पटाखा भी बरामद न हुआ। पुलिस बहुत भन्नाई, चुनांचे फूजे से बाज़ पुर्स हुई। उसने मुस्कराकर थानेदार से कहा, “भेले बादशाहो! हमें तो अपने यार का कुँआं साफ़ कराना था सो करा लिया।”
बड़ी मासूम सी शरारत थी, मगर पुलिस ने उसे वो मारा वो मारा कि मार मार कर अध-मुवा कर दिया और एक दिन ये ख़बर आई कि फूजा सुलतानी गवाह बन गया है, उसने वा’दा कर लिया है कि सब कुछ बक देगा।
कहते हैं उस पर बड़ी लॉ’न ता’न हुई। उसके दोस्त मलिक हफ़ीज़ ने भी जो हुकूमत से बहुत डरता था, उसको बहुत गालियां दीं कि हरामज़ादा डर के ग़द्दार बन गया है मालूम नहीं अब किस किस को फंसाएगा।
बात असल में ये थी कि वो मार खा खा के थक गया। जेल में उससे किसी को मिलने नहीं दिया जाता था, मुरग्ग़न ग़िज़ाएं खाने को दी जाती थीं मगर सोने नहीं दिया जाता था। कमबख़्त को नींद बहुत प्यारी थी, इसलिए तंग आकर उसने सच्चे दिल से वा’दा कर लिया कि बम बनाने की साज़िश के जुमला हालात बता देगा।
यूं तो वो जेल ही में था मगर अब उस पर कोई सख़्ती न थी। कई दिन तो उसने आराम किया कि उसके बंद बंद ढीले हो चुके थे। अच्छी ख़ुराक मिली, बदन पर मालिशें हुईं तो वो बयान लिखवाने के क़ाबिल हो गया।
सुबह लस्सी के दो गिलास पी कर वो अपनी दास्तान शुरू कर देता। थोड़ी देर के बाद नाश्ता आता। इससे फ़ारिग़ हो कर पंद्रह-बीस मिनट आराम करता और कड़ी से कड़ी मिला कर अपना बयान जारी रखता।
आप मुहम्मद हुसैन स्टेनोग्राफर से पूछिए जिसने उसका बयान टाइप किया था। उसका कहना है कि फूजे हरामदे ने पूरा एक महीना लिया और वो सारा जाल खोल कर रख दिया जो साज़िशियों ने मुल्क के इस कोने से उस कोने तक बिछाया था या बिछाने का इरादा रखते थे। उसने सैंकड़ों आदमियों के नाम लिये। ऐसी हज़ारों जगहों का पता बताया जहां साज़िशी लोग छुप के मिलते थे और हुकूमत का तख़्ता उलटने की तरकीबें सोचते थे।
ये बयान मुहम्मद हुसैन स्टेनोग्राफर कहता है, फ़ुल स्केप के ढाई सौ सफ़हों पर फैला हुआ था, जब ये ख़त्म हुआ था तो पुलिस ने उसे सामने रख कर प्लान बनाया। चुनांचे फ़ौरन नई गिरफ्तारियां अ’मल में आईं और एक बार फिर फूजे की माँ-बहन पुनी जाने लगी।
अख़बारों ने भी दबी ज़बान में फूजे के ख़िलाफ़ काफ़ी ज़हर उगला। अक्सरियत हुक्काम के ख़िलाफ़ थी, इसलिए उसकी ग़द्दारी की हर जगह मुज़म्मत होती थी। वो जेल में था जहां उस की ख़ूब ख़ातिर तवाज़ो हो रही थी। बड़ी तुर्रे वाली कलफ़ लगी पगड़ी सर पर बांधे दो घोड़े बोसकी की क़मीस और चालीस हज़ार लट्ठे की घेरेदार शलवार पहने वो जेल में यूं टहलता था जैसे कोई अफ़सर मुआइना कर रहा है।
जब सारी गिरफ्तारियां अ’मल में आगईं और पुलिस ने अपनी कार्रवाई मुकम्मल कर ली तो, साज़िश का ये मा’र्का अंगेज़ केस अदालत में पेश हुआ। लोगों की भीड़ जमा हो गई।
पुलिस की हिफ़ाज़त में जब फूजा नुमूदार हुआ तो ग़ुस्से से भरे हुए नारे बुलंद हुए।
“फूजा हरामदा मुर्दा बाद... फूजा ग़द्दार मुर्दा बाद।”
हुजूम बहुत मुश्तइल था, ख़तरा था कि फूजे पर न टूट पड़े, इसलिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा जिसके बाइ’स कई आदमी ज़ख़्मी हो गए। अदालत में मुक़द्दमा पेश हुआ। फूजे से जब ये पूछा गया कि वो इस बयान के मुतअ’ल्लिक़ क्या कहना चाहता है जो उसने पुलिस को दिया था तो उसने लाइल्मी का इज़हार किया।
“जनाब मैंने कोई बयान-वयान नहीं दिया। इन लोगों ने एक पुलिंदा सा तैयार किया था जिस पर मेरे दस्तख़त करवा लिए थे।”
ये सुन कर इंस्पेक्टर पुलिस की बक़ौल फूजे के “भंमभीरी भूल गई” और जब ये ख़बर अख़बारों में छपी तो सब चकरा गए कि फूजे हरामदे ने ये क्या नया चक्कर चलाया है।
चक्कर नया ही था क्योंकि अदालत में उसने एक नया बयान लिखवाना शुरू किया जो पहले बयान से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ था। ये क़रीब क़रीब पंद्रह दिन जारी रहा, जब ख़त्म हुआ तो फ़ुल स्केप के 158 सफ़े काले हो चुके थे। फूजे का कहना है कि इस बयान से जो हालत पुलिस वालों की हुई नाक़ाबिल-ए-बयान है। उन्होंने जो इमारत खड़ी की थी कमबख़्त ने उसकी एक एक ईंट उखाड़ कर रख दी।
सारा केस चौपट हो गया। नतीजा ये निकला कि इस साज़िश में जितने गिरफ़्तार हुए थे उनमें से अक्सर बरी हो गए। दो-तीन को तीन-तीन बरस की और चार-पाँच को छे-छे महीने की सज़ाए क़ैद हुई।
जो सुन रहे थे उनमें से एक ने पूछा, “और फूजे को?” मेहर फ़िरोज़ ने कहा, “फूजे को क्या होना था, वो तो वा’दा माफ़ या’नी सुलतानी गवाह था।”
सब ने फूजे की हैरतअंगेज़ ज़ेहानत को सराहा कि उसने पुलिस को किस सफ़ाई से ग़च्चा दिया। एक ने जिसके दिल-ओ-दिमाग़ को उसकी शख़्सियत ने बहुत ज़्यादा मुतअस्सिर किया था मेहर फ़िरोज़ से पूछा, “आजकल कहाँ होता है?”
“यहीं लाहौर में... आढ़त की दुकान है।” इतने में बेरा बिल लेकर आया और प्लेट भर फ़िरोज़ के सामने रख दी, क्योंकि चाय वग़ैरा का आर्डर उसी ने दिया था। फूजे की शख़्सियत से मुतअस्सिर शुदा साहब ने बिल देखा और उनका आगे बढ़ने वाला हाथ रुक गया क्योंकि रक़म ज़्यादा थी, चुनांचे ऐसे ही मेहर फ़िरोज़ से मुख़ातब हुए,“आप के इस फूजे हरामदे से कभी मिलना चाहिए।”
मेहर फ़िरोज़ उठा, “आप उससे मिल चुके हैं। ये ख़ाकसार ही फूजा हरामदा है। बिल आप अदा कर दीजिएगा। अस्सलामु अलैकुम...” ये कह कर वो तेज़ी से बाहर निकल गया।