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इस पितृ पक्ष करे दुर्गुणों को अर्पण और सद्गुणों की जागृति। सदा के लिए दूर होंगे सारे ग्रहण।

15 सितम्बर 2022

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इस पितृ पक्ष करे दुर्गुणों को अर्पण और सद्गुणों की जागृति। सदा के लिए दूर होंगे सारे ग्रहण।

नमस्कार दोस्तों स्वागत है, आप सभी का एक बार फिर से, दोस्तों पितृपक्ष चल रहा है। पितृपक्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से शुरू हो जाते हैं और आश्विन मास की अमावस्या पर समाप्त होते हैं। पितृपक्ष पूरे 16 दिनों के होते हैं। इन्हें श्राद्ध पक्ष और कनागत भी कहा जाता है। पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है।

भारत में गणेश चतुर्थी से दुर्गा पूजा के बीच के 16 दिनों को अत्याधिक महत्व दिया जाता है। कहा जाता है। इस दौरान सृष्टि का वाइब्रेशन हाई रहता है। और हमारे पूर्वजों की आत्माओं को शांति प्रदान करने का सबसे अच्छा समय यही होता है।

इसलिए सम्पूर्ण भारत में गणेश चतुर्थी के बाद और दुर्गा पूजा के पहले बीच के 16 दिनों तक लोग अपने पूर्वजों की आत्माओं के निमित उन्हे दान किया जाता है।

हिंदू धर्म में यह मान्यता है की जो आत्मा शरीर लेकर जन्म ली है। वह शरीर छोड़कर जायेगी भी। क्योंकि आत्मा एक शरीर छोड़ दूसरा शरीर धारण कर जन्म लेती रहती हैं । आत्मा कभी नहीं मरता, बल्कि पंच तत्वों से बना शरीर मरता है। आत्मा अजर अमर अविनाशी है।

भारतीय मान्यताओं के मुताबिक मनुष्य पर तीन तरह के ऋण माने गए हैं।

1 पितृ ऋण

2 देव ऋण

3 ऋषि ऋण

इसमें पितृ ऋण सबसे ऊपर आता है। और पितृ में माता पिता के अलावा वह सभी बुजुर्ग आ जाते हैं। जिन्होंने हमारे जीवन के विकास में योगदान दिया होता हैं।

लेकिन अगर देखा जाए तो हम कुछ भी कर लें किसी के द्वारा किए गए उपकार का ऋण हम नहीं चुका सकते। बल्कि उनके द्वारा किए गए उपकार के बदले में कृतज्ञता जरूर व्यक्त कर सकते हैं।

पितृ पक्ष के दौरान हमने अपने पूर्वजों को जाने अनजाने में जो दुख दिए होते हैं। उसके लिए आत्माओं से माफी मांगते हैं। उन्होंने हमारे लिए जो कुछ किया होता है। उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

दरअसल पितृ पक्ष गणेश चतुर्थी के पश्चात इसलिए भी मनाया जाता है। की श्री गणेश जी के धारणाओं को हम भी आत्मसात करें जिस तरह श्री गणेश जी ने अपने माता पिता को ही संसार मान लिया था। और उनकी सेवा ही उनके लिए सबसे बड़ा धर्म था। बिल्कुल हमें भी श्राद्ध का यह महीना अपने पूर्वजों के संस्कारों का अनुसरण करने की प्रेरणा देता है। मन, वाणी, कर्म से उनके गुणों को आत्मसात करने का मार्ग सुझाता है। जिससे की पितृ पक्ष के बहाने उनको याद करे, तो याद अर्थात उनके विचारों को वाणी को कर्म को याद करें। उनके सकारात्मक व्यक्तित्व को श्रेष्ठ कर्मों को आत्मसात करें।

जिस तरह गणेश ने माता पिता को सारा संसार माना था। हमें भी उनकी तरह अपने माता पिता को जीते जी संसार मानना है। और उनके गुणों का अनुसरण करना है। उनके द्वारा कहीं गई बातों को अमल करना है।

वैसे तो पितृ दोष के अनेक कारण हो सकते हैं। पर सबसे मुख्य कारण हैं, इंसान के स्वयं के कर्म, क्योंकि इंसान के जीवन में घटित होने वाली हर घटनाओं का मूल कारण इंसान के खुद के कर्म ही होते हैं। अगर कर्म श्रेष्ठ हैं तो फल की चिंता करने की जरूरत ही नहीं। लेकिन जब कर्म ही श्रेष्ठ ना हों तो चिंता स्वतः ही सताने लगती है।

इसके अलावा पितृदोष के अन्य कारण भी हैं जैसे की परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से उनकी आत्मा भटकते रहती है। जीते जी किया परिजनों के साथ किया गया दुर्व्यवहार उनके मृत्युपरांत पितृ दोष के रूप में ग्रह बनकर हमारे इर्द गिर्द भटकता रहता है। कई बार किसी कारण वश किसी की मृत्युपरांत ठीक से क्रियाकर्म ना होने से उनकी आत्मा भटकती रहती है। जिसकी वजह से हमारे जीवन में भी उथल पुथल होता रहता है। वैसे तो शास्त्रों में सुझाया गया है। की उनके निमित्त श्राद्ध करना चाहिए। पर कई बार श्राद्ध ना करने से भी हम पर पितृ दोष लगता है। और हम विभिन्न तरह के विघ्नों से घिर जाते हैं। ऐसे में भी पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए।

वैसे तो लोगों के जीवन में आने वाले विघ्न और कुछ नहीं बल्कि मनुष्य आत्मा द्वारा किए गए कर्म ही हैं। कर्म एक ऐसा बीज है। की हम जो भी कर्म रूपी बीज बोएंगे, हमे फल भी वैसा ही मिलता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता की हम आम का बीज लगाएं और हमें नींबू का फल मिले अगर आम का बीज लगाया तो आम का ही फल मिलेगा उसी तरह मनुष्य के कर्म भी हैं जो जैसा बोएगा वो वैसा पाएगा। इंसान की तो फितरत होती है। की जब उसके साथ अच्छा होता है। तब वह उसका श्रेय स्वयं को देता है। पर जब इंसान के साथ कभी कुछ बुरा होता है। तो वह परमात्मा को या अन्य मनुष्य आत्मा को उस परिस्थिति के लिए जिम्मादार ठहराता है।

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इसके अलावा जब कभी आपके परिवार में अचानक अशांति छाने लगे, अचानक से किसी परिवार के सदस्य को कोई गंभीर बीमारी हो जाए, जीवन में सबकुछ होते हुवे भी खुशी गायब हो जाए, संतान सुख से वंचित होना, धन में वृद्धि ना होना, व्यापार में घाटा, इस तरह से धीरे धीरे विभिन्न तरह के समस्यायों से जब हम घिरते चले जाते हैं, और इससे निकलने का उपाय ही नजर ना आए तो पितृ दोष हो सकता है।

तो जो इस पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है। उसके ग्रह टलते हैं। उसकी जीवन में आई तरह तरह के विघ्न से मुक्ति मिलती है। पितृपक्ष में हम अपनी माता - पिता के तीन पीढ़ियों तक के पूर्वजों की आत्माओं का तर्पण करते हैं।

इस मौके पर पूर्वजों की आत्माओं को तिल मिश्रित जल के तीन तीन अंचलिया देते हैं। जिससे की जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश होता है।

जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है।

गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर |

ऐसा कहा जाता है की मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम इस स्थान पर पिता दशरथ का पिंड दान किया था।

तब से यह मान्यता है की इस स्थान पर पूर्वजों की आत्माओं के पिंड दान, या श्राद्ध से उनकी आत्मा को मुक्ति मिलती। केवल भारत ही नहीं विश्व के कोने कोने से भारतीय मूल के निवासी जो रोजगार अर्थ विदेशों में निवास करते हैं। वह भी अपने पूर्वजों के पिंड दान, श्राद्ध के लिए गया आते रहते हैं।

इससे जुड़ी कर्ण को एक कहानी है की इंद्रलोक में जब सभी देवताओं को भोजन पर आमंत्रित किया गया तब कर्ण भी वहां उपस्थित हुवे। कर्ण को दानवीर के तौर पर भारत में जाना जाता हैं। तो जब भोजन सभी देवताओं को परोशा गया तो साथ ही कर्ण को हीरे जवाहरात सोने चांदी इत्यादि परोसे गए। बांकी सभी के थाली में 56 भोग तो कर्ण की थाली में हीरे जवाहरात, अब भला कर्ण भोजन की जगह हीरे जवाहरात कैसे खा सकता था। कर्ण इंद्र के पास पहुंचे। इंद्र ने उनसे पूछा भोजन अच्छे से हो गया। तब कर्ण ने जवाब दिया। काहे का भोजन इंद्र जी मेरी थाली में तो हीरे जवाहरात परोस दिए गए थे अब आभूषणों को भला मैं खा कैसे सकता हूं।

तब इन्द्र जी ने कर्ण को जवाब दिया की जो जैसा बोएगा वो वैसा पाएगा आपने सदा दानवीर बन सबको दान दिया तो बदले में आपको आज फलस्वरूप हीरे जवाहरात मिल रहे हैं। अगर आप अपने पितरों को भोजन दान दिया होता तो आज आपकी थाली में भोजन परोसा हुआ होता। तब कर्ण ने कहा मुझे तो इस बात का ज्ञान ही नहीं था की पितरों की तृप्ति करनी भी आवश्यक है।

तब से यह प्रथा प्रचलित हुई की पितरों के अर्थ उनकी तृप्ति हेतु उनके पसंदीदा भोजन की चीजें उनकी आत्मा को श्रद्धा पूर्वक तर्पण करनी चाहिए। यह तो हुई मृत्यु उपरांत उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की बात।

भारतीय संस्कृति हमें जीते जी भी माता पिता की सेवा करने को प्रेरित करती है। हमें यह संस्कार देती है। की हम जीते जी भी माता पिता की सेवा करें और मृत्यु उपरांत माता पिता के बतलाए मार्गों पर चलकर उनकी दुवाएं प्राप्त करें, अब आप खुद ही सोचे की अगर जो हमारे माता पिता की इच्छा थी। की हम ऐसा करे वैसा करें अगर उनके मृत्यु उपरांत हम वो कार्य ना करें तो क्या हमें उनका आशीर्वाद मिलेगा नहीं ना। इस तरह से केवल उनकी पसंदीदा भोजन ही घर पर नहीं बनानी है। अपितु उनके पसंदीदा मार्ग जिन मार्गों पर चलने के लिए वह हमें जीते जी प्रेरित करते हैं। उन मार्गों पर जब हम चलेंगे तब हमें उनकी दुवाएं प्राप्त होगी।

इसके बाद हम देखते हैं की कुश की अंगूठी पहनकर पानी में काला तिल डालकर तीन मर्तबा अंचली देते हैं।

इसका अर्थ यह है की तिल प्रतीक है आत्मा का जो ज्योति बिंदु निराकार तिल के समान होती है।

वहीं पानी प्रतीक है परमात्मा जो की गुणों का सागर है, और कुश की अंगूठी प्रतीक है पवित्रता का

भावार्थ यह है की जब हम मनुष्य आत्मा श्रीमत पर चलने की अंगूठी पहनते हैं। मतलब परमात्मा द्वारा प्रदत्त ज्ञान का अनुसरण करते हुवे जीवन जीते हैं। जीवन में मन, वचन कर्म में पवित्रता लाते हैं। या फिर जैसा की हमारे मां बाप चाहते थे की हम जीवन में उनके बतलाए मार्गों का अनुसरण करें। आखिरकार हर मां बाप यही तो चाहते हैं की उनके बच्चों की सोच श्रेष्ठ हो, वाणी श्रेष्ठ हो मधुर हो, कर्म श्रीमत प्रमाण हों तो निश्चित तौर पर श्रेष्ठ कर्म के फलस्वरूप हमारे जीवन में हमें श्रेष्ठ फल की प्राप्ति भी होगी। जिससे हमारा जीवन सदा सुखी बनेगा। क्योंकि हम अपने ही सकारात्मक कर्मों के द्वारा खुद को दुवा देते हैं और अपने ही नकारात्मक कर्मों के द्वारा हम खुद को बद्दुआ देते हैं। साथ पितृ पक्ष पर हमें हमारे दुर्गुणों को भी परमपिता परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य के जीवन में दुखों का कारण उसकी खुद के दुर्गुण ही होते हैं। जब दुर्गुणों को अर्पण कर सद्गुणों को धारण करेंगे तो इससे ना तो हमसे कोई गलत कार्य होगा ना हमारे जीवन में दुख, समस्याएं आयेंगी, बल्कि दिव्य गुणों की जागृति से हमसे श्रेष्ठ कर्म होंगे जिसके फलस्वरूप हमें सुखों की प्राप्ति होगी।

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