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साहब का बाबा

26 जुलाई 2022

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चपरासी ने अदब से परदा उठा कर गोल कमरे में मेरा प्रवेश करा दिया। मैं सोफे पर बैठ गया तो उस कमरे में पहुँचाने के एहसान का बदला पाने की गरज से बड़ी मित्रता-सी दिखाते हुए उसने पूछा, 'बिजली के छोटे इंजीनियर हो कर आए हैं न आप?'

मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और गंभीर बनने की कोशिश की। पर उसकी निराधार मित्रता को जैसे आधार मिलने वाला हो। उसने फिर पूछा, 'बर्टी साहब की जगह आए हैं न?'

मैंने गंभीरता से कहा, 'हाँ।'

उसने फिर प्रेम से पूछा, 'आप तो बाँभन है न?'

डरते हुए, कि कहीं वह पैर न छू ले... मैंने स्वीकार में सिर हिलाया और नाक सिकोड़ कर प्रश्न के अनौचित्य पर प्रकाश डाला।

पर चपरासी पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। अदम्य आत्मीयता से उसने कहा, 'बर्टी की जगह आप आ गए, अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश था। सब परेशान थे।'

विषय बड़ा आकर्षक था, फिर भी चीफ के अर्दली से इस पर बात चलाई जाए या नहीं, इसी संदेह में कोई उत्तर न दे सका। धीरे से मुसकरा कर फिर गंभीर हो गया।

चपरासी को जैसे मेरी थाह मिल गई। धीरे से, जैसे कोई घर का आदमी हो, उसने कहा, 'आप बैठें, मैं साहब को इत्तिला दे आऊँ।'

वह चला गया। फिर नहीं लौटा। मैं चुपचाप गोल कमरे में बैठा रहा।

गोल कमरा चौकोर था और सुरुचिपूर्वक सजाया गया था। किसी सौ-सवा-सौ रुपया महीना पाने वाली सुरुचि ने, यानी किसी विभागीय डिजाइनर ने समझदारी से बड़े-बड़े किताबी करिश्मे दिखाए थे। मैं एक संगमरमरी क्यूपिड - कामदेव से ले कर मिट्टी के बुद्ध तक अपनी निगाह नचाता रहा। एक साथ श्रृंगार और शांत रस में निमज्जित होता रहा।

इसी बीच दरवाजे पर आहट हुई। मैंने उठना चाहा, पर उठते-उठते बैठ गया।

लगभग सात-आठ साल का एक लड़का मेरे सामने खड़ा था। गोरा, स्वस्थ, बनियान और हाफ पैंट पहने हुए। बाल मत्थे तक फैले हुए। 'घुँघराली लटैं लटकैं मुख ऊपर...' आदि-आदि वाला मजमून। मन में वात्सल्य भाव उमड़ा मैंने मुस्कराकर कहा, 'हलो।'

वह हँस कर मेरे घुटने के पास आ कर खड़ा हो गया। बोला, 'हलो।' मैंने प्यार से उसका सिर सहलाया। पूछा 'बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?'

उसने कहा, 'नहीं बताते।'

वह मेरी गोद पर चढ़ आया। जैसे वह कोई कुर्सी हो। उसका मुलायम शरीर कुछ देर तक बड़ा भला लगा। वह मेरी जाँघों पर खड़ा हो गया, हाथ से मेरे बाल पकड़ कर अपनी ओर खींचते हुए बोला, 'क्यों नहीं बताते? अपना नाम बताओ?'

अब इस हालत में नाम बताते हुए मुझे सचमुच झेंप लगी। मैंने उसके हाथ से अपने बाल छुड़ाए। बाल बिगड़ जाने पर मन-ही-मन उसे कोसते हुए, नीचे खड़ा कर दिया। फिर, अपने बड़े होने का अनुभव होते ही, यह सर्वकालीन नसीहत दी, 'अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते।'

अब वह बड़ी तीव्रता से दाँत पीसता हुआ मेरी गोद में चढ़ने को दौड़ा और चीखने लगा, 'अच्छे बच्चे? अच्छे बच्चे? नाम बताओ अपना नाम बताओ।'

मुझे डर लगा कि लोग यह न समझे कि मैं उसकी हत्या कर रहा हूँ। अत: चाकर सुलभ सरलता से मैंने कहा, 'मेरा नाम गोपाल है।'

उसने मेरी टाई अपनी ओर खींच कर आनंद से कहा, 'अरे वाह रे गुपल्लू! गुपल्लू! गुपल्लू!'

यह कहने में उसने जैसा मुँह बनाया उसी से मैंने निश्चय किया कि बच्चों को ठीक रखने के लिए छड़ी का महत्व अभी भली-भाँति समझा नहीं गया है।

पर मेरी टाई बिगाड़ कर वह कुछ शांत हो गया। प्रेम से बोला, 'मेरा नाम लीलू है।'

मैंने कहा, 'वेरी गुड।'

वह फिर बोला, 'दीदी का नाम जानते हो?'

मैंने 'नहीं' के लिए सिर हिलाया।

'क्वीनी, उसका यार बोलता है।'

मैंने आश्चर्य से आँखे फैलाई। उसने कहा, 'डैडी का नाम जानते हो?'

मैंने फिर वैसे ही सिर हिलाया। वह बोला, 'भेड़िया; शोफर बोलता है। ...मम्मी का नाम जानते हो?'

मैंने फिर सिर हिलाया तो उसने कहा, 'डार्लिंग। डैडी डार्लिंग बोलते हैं।'

मैं उदास होकर बैठ गया तो उसने कहा, 'वह क्या है।'

मैंने जवाब दिया, 'बुद्धा।'

वह तालियाँ बजाता हुआ उछ्ल पड़ा, बोला, 'बुद्धा नहीं, बुद्धू! बुद्धू! तुम बुद्धू! तुम बुद्धू!'

मेरी हास्यप्रियता का दिवाला बहुत पहले निकल चुका था। मैंने जरा कड़ाई से कहा, 'चुप रहो।'

इस पर वह चीखा, 'चुप रहो नहीं; शटअप, शटअप, शटअप ब्लडीफूल!'

मैंने परेशान हो कर इधर-उधर देखा। तभी यह भी देखा कि बाल और टाई ही नहीं, मेरे कोट और पतलून पर भी उसका असर आ चुका है। वहाँ उसके जूतों के निशान बने हुए हैं। यह मेरी गोद में चढ़ने-उतरने का नतीजा था।

मैं रोया नहीं। धीरे से कहा, 'लीलू, क्या बकते हो?'

वह मुँह मटकाता रहा, 'क्या बकता हूँ? अच्छा।' कुछ देर वह चुप रहा, फिर बोला, 'उस तस्वीर में क्या है?'

'जंगल है।'

'और वह लड़का और लड़की।'

मैंने क्यूपिड की मूर्ति को मन में नमस्कार करके कहा, 'हाँ, वे भी हैं।'

'क्या करते हैं?'

मैं चुप रहा।

'क्या करते हैं?' वह चीखा।

मैंने कहा, 'तुम्हीं बताओ।'

'बताऊँ?' वह कुछ देर चुप रहा। फिर चिल्ला कर बोला, 'किसिंग! किसिंग! बताऊँ?'

मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मुँह से निकला, 'हे भगवान!'

तब उसने आखिरी दाँव लगाया, 'कुत्ते का मुँह काला है, तू हमारा साला है।'

तभी दरवाजे पर एक भूतनी आ कर खड़ी हो गई। यानी, जो आ कर खड़ी हुई तो उसे भूतनी कह कर समझना आसान पड़ेगा। काले शरीर पर सफेद साड़ी फब रही थी। लगता था, पीपल के पेड़ से उतर कर छत पर होती हुई किसी भाँति नीचे आ गई है…।

पर मैं अन्याय कर रहा हूँ। वह मेरी रक्षा करने को आई थी। मैं उसका आदर करता हूँ। आते ही उसने कहा, 'बाबा, बाऽऽ बाऽऽ, अंदर चलो।'

बाबा आनंद से हँसता हुआ अंदर जाने लगा, तभी चीफ ने कमरे में प्रवेश किया। आते ही पूछा, 'बाबा से खेल रहे थे? बड़ा शरारती है... हाँ हँ, हँ।'

वे न जाने क्या-क्या बकते रहे। मैं हारा-सा, पिटा-सा सुनता रहा; सोचता रहा, संसार असार है। कोई किसी का नहीं। कामिनी कंचन का मोह वृथा है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का वचन है कि अनासक्त हो कर रहो, जैसे तुम अपने दफ्तर की संपत्ति को अपनी कह कर भी अपनी नहीं मानते, जैसे तुम्हारी आया तुम्हारे बच्चों को अपना मुन्ना बताते हुए भी उन्हें अपना नहीं जानती... तभी सहसा विचार आया, जिस बाबा के वचनमात्र ने संसार को असारता समझा दी, और जिस आया के दर्शन मात्र से कामिनी कंचन का मोह छूट गया, उनके साथ निरंतर रहने वाला यह साहब कितना बड़ा परमहंस होगा! साक्षात् बुद्ध!

अस्कमात आदर से फूल कर मैं सोफे पर और भी सिमट आया और साहब के उपदेश को दत्तचित हो कर भंते की भाँति सुनने लगा।

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श्री लाल शुक्ल की व्यंग्यात्मक रचनाएँ
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श्रीलाल शुक्ल को लखनऊ जनपद के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवासे नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है। उनका पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' है। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है।
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