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सहज ज्योतिष

17 नवम्बर 2022

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16- जन्मकुंडली से शरीर का विचार-

ज्योर्तिविज्ञान में माना गया है कि जातक के अंगों के परिमाण का विचार करने के लिये जन्म कुंडली को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है।

-लग्नगत राशि को सिर,

-द्वितीय भाव में मौजूद राशि को जातक का मुख तथा गला,

-तृतीय भावस्थ राशि को उसका वक्ष स्थल व फेफड़े

-चतुर्थ भावस्थ राशि को हृदय

-पंचम भाव में मौजूद राशि को कुक्षि व पीठ

-छठवें भाव में अवस्थित राशि को कमर तथा आंतें

-सप्तम भाव में अवस्थित राशि को नाभि तथा लिंग के मध्य का स्थान

-आठवें भाव में स्थित राशि को लिंग तथा गुदा

-नवम भावस्थ राशि को ऊरू तथा जंघा

-दशम स्थान में मौजूद राशि को टेहुना

-ऐकादश भाव में अवस्थित राशि को पिंडलियां तथा

-द्वादश भाव में मौजूद राशि को पैर समझने का निर्देश किया गया है।

जन्म कुंडली के आधार पर जातक के जिन अंगों का विचार करना हो उस अंग की राशि जैसी भी हस्व, दीर्ध हो तथा उक्त अंग संज्ञक राशि में अवस्थित ग्रह जैसा भी हो, उस अंग को वैसा ही हस्व या दीर्ध समझने का निर्देश आचार्यों ने किया है।

इस प्रकार, ध्यान दें कि अंग-ज्ञान के निमित्त कुछ नियम बताए गए हैं जो मेरे लंबे समय के अध्ययन से मुझे मिले हैं मैं इन्हें यहां प्रस्तुत कर रही हूं। सबसे पहले,

-अंग पर मौजूद राशि को देखना चाहिये कि वह कैसी राशि है ?

-उस राशि में मौजूद ग्रह को देखना चाहिये कि वह ग्रह कैसा है ?

-अंग निर्दिष्ट राशि का स्वामी किस प्रकार के गुण वाली राशि में पड़ा है।

-अंग निर्दिष्ट राशि में अगर कोई ग्रह विद्यमान है तो वह ग्रह किस प्रकार की राशि का स्वामी है ?

-अंगस्थान राशि में यदि एक से ज्यादा ग्रह विद्यमान हों तो उन ग्रहों में से जो सबसे बलवान हो अंग विचार उसी बलवान ग्रह के अनुसार किया जाना चाहिये।

-जिस अंग वाले भाव में कोई पाप ग्रह अवस्थित हो वहां व्रण, घाव बताने का विधान है।

-जिस अंग के भाव में कोई शुभ ग्रह बैठा हो उसमें चिन्ह बताने का विधान है।

-ग्रह अगर अपने नवांश में अथवा स्वग्रही हो तो व्रण या चिनह जन्म से ही मानना चाहिये।

-अगर ऐसा नहीं है तो व्रण हो कि चिन्ह हों, वे अपनी अपनी ग्रहदशा आने पर ही बनेंगे।

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17- लग्न से शारीरिक स्थिति ज्ञात करने के नियम-

-जल राशि का लग्न हो तथा उसमें जल ग्रह अवस्थित हो तो ऐसे जातक को मोटा होना चाहिये।

-लग्न व लग्नाधिपति दोनों यदि जलीय राशिगत हैं तो जातक अच्छे मोटे-ताजे बदन का मालिक होना चाहिये।

-लग्न अगर अग्नि राशि का हो तथा उसमें अग्निग्रह अवस्थित हो तो जातक दिखता दुबला-पतला होगा किंतु वास्तव में वह बलवान ही होना चाहिये।

-अग्नि अथवा वायु राशीय लग्न के साथ लग्नाधिपति पृथ्वी राशिगत हो तो मजबूत हड्डियों वाला तथा ठोस बदन वाला होता है।

-अग्नि अथवा वायु राशि का लग्न तथा लग्नाधिपति जल राशिगत हो तो स्थूल होगा।

-पृथ्वी राशि लग्न तथा उसमें पृथ्वीग्रह मौजूद हो तो जातक कद का नाटा होता है।

-पृथ्वी राशि लग्न तथा लग्न का स्वामी पृथ्वी राशिगत बैठा हो तो स्थूल व मजबूत काया वाला कहा गया है।

-पृथ्वी राशिगत लग्न को और लग्नस्वामी जलीय राशि में विराजमान हो तो जातक साधारण स्थूल।

लग्न में जो राशि पड़ी हो हस्व, दीर्ध अथवा सम जैसी भी, उसीके अनुरूप किसी जातक के शरीर के कद-काठी यानि जातक की आकृति का विचार करना चाहिये।

इसके निर्धारण के लिये देखना होगा कि-

-लग्न राशि, लग्न में ग्रह कैसा है ?

-लग्नेश किस प्रकार का ग्रह है ? तथा वह किस राशि में पड़ रहा है।

-लग्नेश जिन ग्रहों के साथ है वे कैसे हैं ?

-लग्न पर किन ग्रहों की दृष्टि है ?

-लग्नेश आठवें अथवा बारहवें भाव में तो नहीं है ?

-लग्न में गुरू है अथवा लग्न को गुरू देखता है। किस प्रकार की राशि में, गुरू की कैसी स्थिति है ?

इन नियमों से पता चल जाऐगा कि पृथ्वी, अग्नि, जल तथा वायु इनमें से कौन तत्व प्रभाव डाल रहा है। तब पहले बताए नियमों के अनुसार जातक के शरीर का निश्चय हो जाता है।

रंग-रूप के निर्णय के लिये लग्नेश तथा लग्न राशि के स्वरूप को ध्यान में रख कर बतलाना चाहिये। जैसे-

-मेष लग्न में लालिमा युक्त गौर वर्ण, वृष में पीलापन लिये गौर वर्ण, मिथुन में गहरा लाल मिश्रित गौर वर्ण, कर्क में नीलापन लिये हुए, सिंह में धूसर, कन्या में सांवलापन, तुला में अधिक सांवलापन, वृश्चिक में बादामी रंगत, धनु में पीलापन लिये हुए गोरा रंग, मकर में चितकबरा सा यानि कहीं गोरा तो कहीं सांवलापन सा, कुंभ में आकाशीय अच्छा नीलाभ सांवला, मीन में गोरा कहा जाता है। वैसे,

-चंद्र से गोरापन, सूर्य से रक्ताभ श्यामल, मंगल से समवर्ण, गुरू से कांचन यानि स्वर्ण समान, शुक्र से श्यामल, शनि से कृष्णाभ, राहू से काला, केतु से धूसर वर्ण जानना चाहिये।

-लग्न तथा लग्नेश अगर पाप ग्रहों द्वारा दृष्ट हैं तो जातक के कुरूप, असुंदर अथवा कम सुंदर  होने की संभावना होती है।

-बुध-शुक्र कहीं भी साथ बैठ कर युति बना रहे हों तो जातक गोरा न होने पर भी सुंदर कहाने लायक होता है।

-लग्न में सूर्य बैठा हो तो जातक के नैत्र सुंदर नहीं होंगे।

-लग्न में यदि चंद्र बैठा है तो जातक गोरा तो होगा मगर सुडोल नहीं।

-मंगल लग्न में होने से बदन सुंदर होता है लेकिन चेहरे के साैंदर्य में कमी लाने वाला कोई न कोई चिन्ह अवश्य होता है।

-लग्न में यदि बुध बैठा है तो चमकदार सांवली रंगत बताई जाती है, इस बुध के साथ लग्न में यदि चंद्र भी विराजमान है तो बावजूद गोरी रंगत के चेहरे पर बुध के प्रभाव स्वरूप चेचक जैसे, मुहांसों आदि के या किसी भी तरह के दाग-धब्बे अवश्य होंगे।

-लग्नस्थ गुरू के प्रभाव से जातक सुंदर तो होगा मगर कम आयु में ही अधिक उम्र का दिखता है। वृद्धावस्था जल्दी घेर लेगी। बाल जल्दी सफेद हो कर दांत आदि जल्दी गिर जाऐंगे। पेट निकल आऐगा आदि-आदि।

-शुक्र अगर लग्न में मौजूद हो तो सुंदर, मोहक होगा।

-शनि अगर लग्न में है तो रूप में कमी होगी।

-राहू-केतु लग्न में होने से चेहरे पर किसी भी कारण से काले दाग-धब्बे होते हैं।

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18- जन्मकुंडली बांचने के कुछ अनिवार्य नियम-

आचार्यों ने कुंडली का अध्ययन करके सब भावों आदि के आधार पर फल बतलाने के लिये कुछ नियम बतलाऐ हैं जिन्हें मैं नीचे सामान्य भाषा में प्रस्तुत कर रही हूं।

-कुंडली के जिस भी भाव में जो राशि पड़ती हो, उस राशि के स्वामी को ही उस भाव का स्वामी कहते हैं। अन्य शब्दों में, इसे ही उसका भावेश भी कहते हैं। इस भाव का जो भी स्वामी ग्रह हो जातक के शरीर तथा जीवन पर सारी उम्र उस ग्रह का प्रभाव अवश्य रहता है।

-कुंडली में किसी भाव का स्वामी यदि स्वगृही है तो वह उस स्थान के अच्छे फल देता है।

-आचार्यों का मत है कि षष्ठम, अष्ठम तथा द्वादश भाव के स्वामी जिन-जिन भावों में विराजित हों वे वहां अनिष्टकारी ही बनते हैं।

-कारकांश कुडली के अध्ययन के लिये सूर्य-चंद्र आदि समस्त सात ग्रहों में जिसके अंश सर्वाधिक हों, उसी ग्रह को आत्मकारक माना गया है। अंश यदि बराबर-बराबर आ रहे हों तो जिनकी कला ज्यादा हो उसे आत्मकारक माना जाएगा। कला भी यदि समान आए तो जिनकी विकला अधिक हो उसे आत्मकारक मानेंगे। विकलाऐं भी यदि समान आ रही हैं तो जो ग्रह सबसे अधिक बली हो उसे आत्मकारक मानना होगा। इसके अतिरिक्त कारकांश कुंडली के संबंध में यह भी ध्यान दें कि,

-आत्मकारक से कम अंशवाला ग्रह अमात्यकारक माना जाता है।

-अमात्यकारक से भी कम अंशवाले ग्रह को भ्रातृकारक माना जाता है।

-भ्रातृकारक ग्रह से कम अंश वाले ग्रह को मातृकारक माना गया है।

-मातृकारक ग्रह से भी कम अंश वाले ग्रह को पुत्रकारक या मतांतर से किन्हीं आचार्यों ने इसे पितृकारक माना है।

-इससे कम अंश वाले ग्रह को जातिकारक-इससे भी कम अंशी को स्त्रीकारक माना गया है।

-ग्यारहवें भाव में कोई भी ग्रह अशुभ नहीं होता। सब ग्रह इसमें शुभकारी कहे गए हैं।

-कुंडली के किसी भाव का स्वामी अगर कोई पाप ग्रह है और यदि वह लग्न से तृतीय स्थान में पड़ रहा हो तो इस ग्रह स्थिति को शुभ माना जाता है। लेकिन,

-जिस भाव का स्वामी कोई शुभ ग्रह हो तथा वह लग्न से तृतीय भाव में पड़ता हो तो इस शुभ ग्रह के फल पूर्ण न मिल कर मध्यम मिलते हैं।

-कुंडली के जिस भाव में कोई शुभ ग्रह हो उस भाव के फल उत्तम मिलते हैं। जिस भाव में कोई पापग्रह हो उस भाव के फलों में कमी आती है। अर्थात् उक्त भाव से संबंधित वस्तुओं, फलों को हांसिल करने में जातक के संघर्ष बढ़ जाते हैं।

-कुंडली के प्रथम, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम तथा दशम भावों में अगर कोई शुभ ग्रह हैं तो इसे शुभ कहा गया है। ग्रहों की यह अच्छी स्थिति है। इसी प्रकार,

-तृतीय, षष्ठम तथा एकादश भावों में यदि पाप ग्रह अवस्थित हैं तो इसे भी शुभ कहा गया है।

-कुंडली का जो भाव शुक्र, बुध, गुरू तथा स्वयं अपने स्वामी ग्रह के द्वारा युक्त या दृष्ट हो, अथवा ध्यान दें कि इन ग्रहों से युक्त हों, तथा किसी अन्य ग्रह से दृष्ट या युक्त न हो तो वह शुभ देने वाला कहा गया है।

-किसी भाव का स्वामी शुभ ग्रह से दृष्ट अथवा युक्त हो, या कुंडली के जिस भी भाव में कोई शुभ ग्रह अवस्थित हो, या फिर जिस भाव को कोई शुभ ग्रह देखता हो कुंडली के उस भाव का फल शुभ ही होगा।

-कुंडली में जिस भाव का स्वामी किसी पाप ग्रह से युक्त हो, या उसे कोई पाप ग्रह देखता हो या उसमें कोई पाप ग्रह अवस्थित हो तो उस भाव के फलों में कमी आती है। अर्थात उस भाव के पूरे शुभ फल नहीं मिलते। याद रखें किसी भाव के फलों में कमी बताने से तात्पर्य अपेक्षाकृत अशुभ फल अधिक होना है। आचार्यगण अशुभ बताने से बेहतर उसके फल में कमी बताना समझते थे।

-किसी कुंडली में किसी भी भाव का स्वामी यदि उच्च का हो, या अगर मूल त्रिकोण में हो अथवा मित्रगृही, स्वक्षेत्री हो तो इसके फल शुभ बताऐ गए हैं।

-छठे भाव में बैठा वृहस्पति यानि गुरू प्रायः शत्रुनाशक कहा गया है। लेकिन,

-किसी जातक की जन्मकुंडली में द्वितीय, पंचम तथा सप्तम भाव में अगर अकेला गुरू मौजूद है तो इसे पत्नी, बच्चों तथा धन आदि के लिये शुभ नहीं बताया गया है।

-जन्मकुंडली के तृतीय भाव में अगर क्रूर ग्रह है तो इसे जातक के पराक्रम के संदर्भ में अच्छा माना गया है।

-तृतीय भाव में ही यदि अनेक ग्रह हैं तो जातक को किसी न किसी खराब प्रकरणों में कुछ कुख्याति अवश्य मिलती है। उसके दोस्त आदि उसे गलत राह पर ले जाने वाले होते हैं। एक अच्छे ज्योर्तिविद का यह फर्ज समझती हूं कि वह जातक को तथा उसके परिजनों में से जो भी उसकी कुंडली के फलादेश जानने आया हो उसे इस बारे में सावधान अवश्य करे। अस्तु,

-मतांतर से यह माना गया है कि जो भाव जिस ग्रह के लिये निर्धारित है वह ग्रह अगर अपने उस भाव में अकेला मौजूद है, उस पर किसी ग्रह की दृष्टि नहीं पड़ रही है तो वह उस भाव के फलों को खराब करने वाला माना गया है।

-आठवें भाव में विराजमान शनि को दीर्धायुकारी कहा गया है।

-दसवंे भाव में बैठे मंगल को जातक के उत्तम भाग्य का प्रतीक बताया गया है।

-राहू तथा केतु कुंडली के जिस भी भाव में आठवें हो कर बैठे हों वे उस भाव के फलों को बिगाड़ने वाले ही कहलाते हैं।

-कुछ आचार्यों ने मत-मतांतर से माना है कि आठवें तथा बारहवें भावों में समस्त ग्रह अनिष्टकारी ही होते हैं। हालांकि ये बात मेष लग्न के जातक की कुंडली में बारहवें शुक्र पर लागू नहीं होती। बहरहाल,

-किसी भाव फल को जानने के लिये यह देखना जरूरी होता है कि उक्त भाव का स्वामी किस भाव में विराजमान है। यह जानना भी बेहद जरूरी है कि किस भाव के स्वामी के किस भाव में मौजूद होने के क्या फल होते हैं ? जैसे,

-पाप ग्रह यदि अपनी पाप ग्रहों की राशियों में मौजूद हैं तो इनका फल विशेष अर्थात अधिक पापी होगा। और, यदि ये शुभ की राशियों, अपने मित्र की राशि में अथवा अपने उच्च में हों तो अल्प पापी बनते हैं।

-पाठकों की जानकारी के लिये शुभ-अशुभ ग्रहों की निम्नांकित जानकारी देना जरूरी समझती हूं।

-देखें कि सूर्य, मंगल, शनि तथा राहू क्रम से अधिक-अधिक पाप ग्रह माने गए हैं। अतः ये ग्रह अगर अपनी पाप राशियों में पड़ रहे हैं तो अधिक नुकसानदायी हैं तथा यदि ये शुभ राशि में, मित्र राशि में तथा उच्च के हों तो इनसे अच्छे फल कम मात्रा में ही मिलेंगें।

-इसी प्रकार ध्यान दें कि,

-चंद्र, बुध, शुक्र, केतु तथा गुरू को क्रम से अधिक-अधिक शुभ ग्रह कहा गया है। अगर ये शुभ ग्रह शुभ, मित्र राशियों में हों तो अधिक शुभ फल देने में सक्षम हैं तथा पाप ग्रहों की राशियों में पड़ रहे हों तो ये कम शुभकारी फल देते हैं। बुध को अनेक आचार्यों ने न शुभ न अशुभ अर्थात् सम माना है। लेकिन ये नपुंसक ग्रह कहा गया है जो कि जिस ग्रह के साथ होता है उसके जैसा हो जाता है। मगर इसकी विशेषता है कि ये सूर्य के साथ अस्त नहीं होता। अतः सूर्य-बुध की युति अनेक प्रकार से अच्छी कही गई है। वैसे,

-आचार्यों ने एकमत से केतु को प्रायः पापग्रह ही माना है। लेकिन मेरे अब तक के अनुभव में मैंने देखा है कि केतु यदि किसी शुभ भाव में किसी स्वगृही ग्रह के साथ है तो यह केतु उस भाव के चार गुने शुभ फल देने में सक्षम होता पाया है। इस पर शोध की गंुजाइश है।

-ज्योतिष में फल निर्धारण के संदर्भ में काल-समय को पुरूष मानते हुए सूर्य को आत्मा तथा चंद्र को मन का प्रतीक बताया गया है। इसी प्रकार मंगल को बल का तो बुध को वाणी का, गुरू को ज्ञान का तो शुक्र को सुख का, राहू-केतु को मद का तो शनि को दुख का आगार बताया गया है।

-किसी जातक की जन्म कुंडली में जन्म समय में अगर आत्मा आदि ग्रह बलवान पड़ रहे हों तो जातक के आत्मबल को सबल अथवा इसके निर्बल ग्रहों के आधार पर निर्बल बताया जाना चाहिये। हां, शनि का फल विपरीत ही बताना होगा क्योंकि इसे दुखकारक माना गया है सो यह जितना कमजोर अथवा हीनबली होगा उतना ही अच्छा है।

-फलादेश करते समय ग्रहों के अंश, बला-बल, स्वराशि, उच्च राशि, सुप्त, मैत्री, कारकत्व आदि का भी देखा जाना बेहद आवश्यक है।

विशेष-ःः अनेक आचार्यों का मत है कि सूर्य के साथ यदि चंद्र हो तो यह निष्फल हो जाता है। इसके अलावा चौथे भाव में बुध, लग्न से द्वितीय भवन में स्थित मंगल, पंचम भवन में गुरू, छठवें भवन में शुक्र तथा सातवें भवन में शनि हो तो ये क्रमशः निष्फल कहे गए हैं।

इसके अलावा, फलादेश के लिये ग्रहों की उच्च व नीच राशि का भी विचार देखा जाता है। उच्च राशि में पड़ा ग्रह श्रेष्ठ फल तो नीच राशिगत ग्रह निम्न फल अवश्य देता है।

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19- ग्रहों की उच्च तथा नीच राशियां-

भारतीय ज्योतिष में माना जाता है कि ग्रहों की अपनी जो उच्च राशियां होती हैं, कोई ग्रह यदि अपनी उस उच्च राशि में बैठा है तो वह अपना सारा अच्छा फल जातक को देगा। प्रायः उच्च ग्रह के फल पूरी तरह से शुभ तथा बलवान माने जाते हैं, तथा नीच राशिगत शुभग्रह के फलों में भी कमी देखी जाती है। वैसे, अब तक के अपने अध्ययन में आप जान ही चुके हैं कि कौन ग्रह किस राशि में उच्च व किसमें नीच का होता है। फिर भी बता दूं कि-

-सूर्य मेष राशि में उच्च कहा गया है। तथा यह तुला राशि में नीच का होता है।

-चंद्र को वृष राशि में उच्च तथा वृश्चिक में नीच माना जाता है।

-मंगल ग्रह को मकर राशि में उच्च तथा कर्क राशि में नीच माना गया है।

-बुध को कन्या राशि में उच्च तो मीन में नीच बताया गया है।

-गुरू को कर्क में उच्च तथा मकर राशि में नीच बताया गया है।

-शुक्र को मीन राशि में उच्च तथा कन्या राशि में नीच बताया गया है।

-शनि को तुला राशि में उच्च तथा मेष में नीच माना गया है।

-राहू मिथुन में उच्च तथा धनु राशि में नीच कहा गया है।

-केतु को धनु राशि में उच्च तथा मिथुन राशि में नीच माना गया है।

इसे ही और अधिक स्पष्ट करने के लिये नीचे मैं ग्रहों की उच्च व नीच राशियों का एक चार्ट दिये दे रही हूं।

ग्रह---स्वराशि-------उच्च राशि-----नीच राशि

सूर्य---सिंह-------------मेष------------तुला

चंद्र---कर्क-------------वृष------------वृश्चिक

मंगल--मेष, वृश्चिक---------मकर-----------कर्क

बुध---मिथुन, कन्या---------कन्या-----------मीन

गुरू---धनु, मीन-----------कर्क-----------मकर

शुक्र---वृष, तुला-----------मीन-----------कन्या

शनि---मकर, कुभ----------तुला-----------मेष

राहू---कन्या, कुभ----------वृष, मिथुन--------वृश्चिक, धनु

केतु---वृश्चिक, मीन---------सिंह, धनु,--------वृषभ, मिथुन, कुंभ।

सो, किसी कुंडली में फल देखते समय यह देखना जरूरी है कि कोई ग्रह अपनी उच्च अथवा नीच राशि में है अथवा नहीं। हालांकि पिछले किन्हीं पृष्ठों में मैं फलादेश के संदर्भ में उच्च तथा नीच राशिगत ग्रहों संबंधी चार्ट तथा इनके फल संक्षिप्त में बता चुकी हूं किंतु अध्ययन की सुविधा के लिये ग्रहों के उच्च व नीच होने संबंधी विवरण को यहां विस्तार से समझाने की कोशिश कर रही हूं।

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20- उच्च राशिगत ग्रहों के फल-

ग्रहों के अपनी उच्च राशियों में स्थित होने के फल मैं नीचे विस्तार से बतला रही हूं।

-सूर्य अगर किसी जातक की कुंडली में अपनी उच्च राशि में बैठा है तो जातक को धनसंपन्न बनाता है। जातक भाग्यशाली तथा विद्वान होने के साथ ही साथ अपने क्षेत्र में उच्चपद पर होगा। ऐसा सूर्य जातक को सेनापति जैसे सुशोभित करने में समर्थ बताया गया है। जातक को सामाजिक, पारिवारिक व राजनीतिक तौर पर नेता के तौर पर स्थापित करता है। यह जातक को जिम्मेदारी के पदों पर बतलाता है।

-चंद्र किसी कुंडली में अगर अपनी उच्च राशि में विराजमान है तो जातक को चपल-चंचल तथा साज-श्रृंगार का शौकीन बनाता है। हो सकता है जातक का ब्यूटीपॉर्लर आदि का यही व्यवसाय हो। वह इस प्रकार के कामों में सफल हो सकता है। ऐसा चंद्र जातक को विलासप्रिय, मीठे भोजन में रूचि रखने वाला तथा सम्मानित बनाता है। एक अच्छे ज्योर्तिविद को चाहिये कि जातक के नौकरी, व्यवसाय आदि के प्रश्न पर वह इस प्रकार के निर्देशों पर गौर करते हुए जातक को सलाह दे। इस प्रकार के जातक हो सकता है कि मिठाईयों के व्यवसाय आदि करते हों, अथवा वे चंद्र से जुड़े कामों में सफल हो सकते हैं।

-कुंडली में यदि मंगल अपनी उच्च राशि में है तो जातक को कर्तव्यपरायण तथा राज्यमान्य बनाता है। जातक प्रायः शूरवीर होता है। अतः उसके सेना, पुलिस, अंगरक्षक आदि जैसे कार्य में लगे होने व इनमें सफल होने की संभावना होती है।

-कुंडली में बुध अगर उच्च का है तो जातक बुद्धिमान तथा राजमान्य होता है। यह बुध अपने जातक को लेखन कला में प्रवीणता देता है। फलस्वरूप जातक अच्छा लेखक-संपादक, पत्रकार हो सकता है। इसके अलावा यह बुध जातक को अपने वंश में वृद्धि करने वाला, सुखी तथा शत्रुओं को जीतने वाला बनाता है। उसकी कलम में धार होती है। वह यदि कोई न्यायधीश है तो उसके फैसले चर्चा में रहते होंगे।

-कुंडली में यदि गुरू अपनी उच्च राशि में है तो इससे जातक चतुर सुजान, विद्वान-सुशील, राज्यमान्य, सुखी तथा ऐश्वर्यशाली होता है। ऐसे गुरू वाला जातक मंत्री बनने अथवा शासन में किसी उच्च पद पर होने के अवसरों से युक्त होता है।

-किसी कुंडली में अगर शुक्र अपनी उच्च राशिगत है तो जातक को भाग्य का सहयोग मिलता रहता है। वह कामी होता है तथा भोग-विलास में रूचि रखता है। गायन-वादन में उसकी रूचि रहती ही है। अतः उसके व्यवसाय फैशन, खुश्बू, नाटक, रंगमंच, सिनेमा से जुड़े कार्य होंगे। वह इनमें सफल हो सकता है। राजकपूर की जन्मकंुडली में चौथे भाव में शुक्र अपनी उच्च राशि यानि मीन में उपस्थित बताया जाता था।

-किसी कुंडली में यदि शनि अपनी उच्च राशि में मौजूद है तो जातक को किसी राजा की तरह सुविधासंपन्न बनाता है। वह जमीनों का मालिक होगा, जमीन के ही काम-धंधे में हो सकता है। उसमें कुछ उदासीनता की प्रवृत्ति रहती है। कृषि, लोहा आदि में तथा इससे जुड़े कार्यों में होना चाहिये। यह शनि अपने जातक को प्रतिष्ठिा संपन्न भी बनाता है। हां जातक को शनि को नाराज नहीं करना चाहिये जैसे शराब, परस्त्री प्रसंग आदि न करने से शनि संतुष्ट रहता बताया गया है। जातक यदि नियम-धर्म से चले तो यह न्याय करने वाला ग्रह है, इसका न्याय खरा होता है। यह जातक को अंततः बहुत कुछ देता अवश्य है।

-कुंडली में अगर राहू अपने उच्च में है तो घर-परिवार तथा सेवा व समाज में जातक को मुखिया की तरह का पद देता है। वह हर जगह अपनी ही चलाने में निपुण होता है। यह राहू धन देने वाला तथा जातक को साहसी बनाने वाला कहा गया है साथ ही जातक लंपटता से युक्त भी होता है। उसका विश्वास नहीं किया जा सकता। वह अमानत में खयानत कर सकता है। यह जहां भी कार्यरत है वहां उच्च पद पर पहुंचने की जी तोड़ कोशिशों में रहता है।

-कुंडली में यदि केतु उच्च का है तो जातक के लिये सारी सुविधाऐं जुटाने वाला होता है। भले ही इसके लिये जातक निम्न कर्म भी करता हो। वह राजमान्य तथा सर्वेसर्वा होता है अथवा परिवार, अपनी संस्था जहां वह काम करता है तथा समाज में सर्वेसर्वा बनने की ऐसी ही कोशिशों में रहता है। उसकी प्रवृत्ति नीच होती है। जातक यदि महिला है तो वह अपना काम बनाने में माहिर होती है। परिवार में उसके रहते सीधी-सरल स्त्रियों की खैर नहीं। ऐसे केतु वाला जातक नगर निगम के चुनाव, नेतागिरी आदि के अलावा अच्छा जासूस व खोजी पत्रकार आदि बनने की पूरी योग्यता रखता है।

ज्योर्तिविद को हमेशा चाहिये कि वह जातक के किन्ही ग्रहों व राशियों कृत दुर्गुणों को लक्ष्य करके उन्हें सकारात्मक दिशा दिखलाए। किसी कुंडली में अगर कोई या कुछ ग्रह ठीक नहीं भी हैं तो जातक को निराश हताश करने के स्थान पर उन ग्रहों से अच्छे काम में लगने की धारणा उपस्थित करना तथा इसके लिये प्रेरित करना मेरी नजर में मुख्य है।

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21- नीच राशिगत ग्रहों के फल-

अब मैं आपको ग्रहों के नीच राशि में होने के फल बताने जा रही हूं।

-किसी कुंडली में यदि सूर्य नीच राशिगत है तो ऐसे जातक को पापकर्म की ओर प्रेरित बताया गया है। अर्थात जातक की रूचि ऐसी होगी जरूरी नहीं कि वह पापी हो ही। उसे इस बारे में सावधान किया जाना मैं एक अच्छे ज्यार्तिविद का कर्तव्य समझती हूं। यह जातक स्वयं बेहद सक्षम नहीं होता, उसे प्रायः अपने बंधुजन की सेवा में लग कर अपना जीवन-यापन करना पड़ता बताया गया है।

-किसी कुंडली में अगर चंद्र नीच का है तो जातक में रोग-प्रतिरोध कम होता है। वह चंचल तथा कच्ची मानसिकता हो होगा। कभी हां कभी नां की उसकी प्रवृत्ति होनी चाहिये अर्थात उसमें मानसिक स्थिरता की कमी होगी। जल्दी घबराना, किसी घटना या बात से जल्दी ही आहत हो जाता होगा। इस पर नियंत्रण किया जाना संभव है।

चंद्र नीच का होने पर जातक कुछ नीच प्रकृति का तथा धन की कमी रखने वाला बताया गया है। उसे अपने में इस प्रकार के सुधार करने की प्रेरणा दी जानी चाहिये कि वह मितव्ययी हो अपनी कुप्रवृत्तियों को नियंत्रण में रखे। आखिर उड़ाते ही रहने से कोई राजा भी दिवालिया हो सकता है और कोई संत भी अगर नियंत्रण न करे तो उसे भी कुप्रवृत्तियों में फंसने में कितनी देर लगती है ?

मेरे विचार से अच्छे ज्योर्तिविद का काम एक चिकित्सक की तरह का होता है। वह जातक का इलाज कर सकता है। यदि किसी को कोई वास्तविक चारित्रिक व सकारात्मक फायदा होता है तो पूर्वानुमान करके अपनी कमियों आदि को दूर करना कोई अंधविश्वास करना नहीं है।

-किसी कुंडली में अगर मंगल नीचस्थ है तो जातक को नीच, दुराचारी तथा कृतघ्न बताया जाता है।

-किसी कुंडली में बुध यदि नीचस्थ है तो वह उग्र स्वभावी, बंधु बांधवों का विरोधी, विद्या में रूचि न लेने वाला तथा चंचल मनस का बताया गया है। उसे विद्याध्ययन व अपनों के प्रति प्रेम तथा सम्मान के लिये प्रेरित किया जाने की आवश्यकता है। वह लेखन करता होगा तो संभव है कि वह सस्ता व अश्लील हो। अथवा उसका लेखन का, किताबों आदि की दुकान का काम-धाम, व्यवसाय अधिक चलता न हो। जरूरी नहीं कि बात सदा जातक के चरित्र पर ही जा कर रूके।

-कुंडली में यदि गुरू नीच राशिस्थ हो तो जातक प्रायः एक खलपात्र की तरह बताया गया है। संभव है कि वह अपने आसपास के लोगों में इसी रूप मे विख्यात हो। यदि उसका शुक्र सही स्थान पर हो तो वह सिनेमा आदि में एक खलनायक के तौर पर स्थापित हो सकता है। उसका बुध यदि उर्पयुक्त स्थल पर अवस्थित हो तो, अगर ऐसा जातक लेखक है तो वह खलपात्र के चित्रण में जान डाल देता होगा। आचार्यों ने माना है कि गुरू के नीचस्थ होने से जातक को अपयश तथा असम्मान का भागी होने की पूरी संभावना रहती है। अतः इस बारे में सावधान करना एक अच्छे ज्योर्तिविद का कर्तव्य है।

-कुंडली में शुक्र अगर नीचस्थ है तो जातक को धन कमाने में परेशानी आती है। पत्नी से अनबन होती है। संतान पाने में कठिनाई आती है। उसका धन दूसरों के काम आता है। वह आत्ममोही, दुखी तथा खिन्न रहता है। मैंने कई अकेले रह जाने वाले जातकों को देखा है कि वे अपनों का न करके परायों का अंधा यकीन करते हैं। कई बार वे इस कारण अपने परिजनों तक को न दे कर अन्यों को अपना सब कुछ देते हैं। परिजनों को भी इस बारे में सावधान रहना चाहिये कि जातक को अकेला, असहाय जान कर इतना भी परेशान न करें, उनकी देख-रेख आदि के प्रति इतनी भी लापरवाही न बरतें कि वे अपनों के धन से वंचित हो जाएंे। बहरहाल, शुक्र अगर नीचस्थ है तो जातक को कुछ दुख का भागी बनाता ही है।

-कुंडली में यदि शनि नीचस्थ हो कर बैठा है तो जातक को धन संबधी परेशानी आती है। उसे अपना धन संभालने की आवश्यकता सदा रहती है। उसे दुखी बनाने की कई स्थितियां आ सकती हैं। जिनके लिये उसे स्वयं को तत्पर रखते हुए संभल कर जीना चाहिये।

यूं मैं बताना चाहूंगी कि पराक्रमी व उद्यमी के लिये ग्रहों का नीचस्थ होने कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं है।

इन बाधाओं को, मुश्किलों को पूर्वानुमान द्वारा उनके बारे में सकारात्मक रूप से चेता कर, उन्हें दूर करने के बारे मानव को सबल बना कर उसके जीवन में सुख-संतोष लाने का व्यावहारिक कार्य ही नाम मेरी नजर में ज्योतिष है। इसके पश्चात, जन्मकुंडली में विराजित ग्रहों के बारे में कुछ और आवश्यक विवरण नीचे दे रही हूं।

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22- स्वक्षेत्रगत ग्रहों के फल-

-सूर्य अगर अपने ही निर्धारित भाव में यानि स्वग्रह में विराजमान हो तो जातक सुंदर, स्वस्थ, ऐश्वर्यवान, कामी तथा व्याभिचारी कहा जाता है।

-चंद्र स्वग्रही हो तो जातक तेजस्वी, धनी, रूपवान, कला निपुण तथा भाग्यवान होता है।

-मंगल स्वक्षेत्री हो तो जातक जमींदार, कृषक, बलवान, ख्यातिवान तथा अपने समूह में अग्रणी होता है।

-बुध यदि स्वक्षेत्री है तो जातक लेखन कला में कुशल, विद्वान, संपादक, अनेक शास्त्रों का ज्ञाता होता है।

-गुरू यदि स्वक्षेत्री है तो जातक वैद्य-चिकित्सक, विद्वान-शास्त्र ज्ञाता तथा काव्य आदि में रूचि लेने वाला होता है।

-शुक्र अगर स्वक्षेत्री हो तो जातक धनवान, विचारवान तथा स्वतंत्र प्रकृति रखने वाला होता है।

-शनि अगर स्वक्षेत्री हो तो जातक उग्र स्वभाव का, कष्ट सहने में सक्षम तथा पराक्रमी होता है।

-राहू अगर स्वक्षेत्री है तो जातक भाग्यवान, यशस्वी तथा सुंदर देह का होता है।

इसके अलावा, किसी कुंडली में यदि,

-एक ग्रह स्वग्रही है तो जातक अपने वर्ग में श्रेष्ठ,

-दो ग्रह स्वग्रही हों तो जातक बेहद कर्तव्य परायण, धनवान तथा सामाजिक तौर से सम्मानित,

-तीन ग्रह स्वग्रही हों तो जातक धनी, विद्वान तथा राज्यमंत्री अथवा इसके समकक्ष ओहदे वाला,

-चार ग्रह स्वग्रही हों तो जातक नेता, सर्वमान्य, धनी व भाग्यवान, तथा-

-पांच ग्रह स्वग्रही हों तो जातक धनी, उच्च राज्याधिकारी व सम्मानित होता है।

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23- मित्र क्षेत्री ग्रह के फल-

जिस प्रकार पिछले पृष्ठों में मैंने उच्च तथा नीच राशि गत ग्रहों के बारे में बताया, उसी प्रकार ग्रहों का अपने मित्र तथा शत्रु के क्षेत्र में बैठा होना भी जातक पर प्रभाव डालता है। आगे मैं इसीके बारे में बताने जा रही हूं।

-किसी कुंडली में यदि सूर्य अपने मित्र की राशि में मौजूद है तो यह जातक को यशस्वी बनाता है। ऐसा जातक सर्वथा व्यवहारकुशल तथा सुख-संपत्ति युक्त व दानप्रिय, जरूरतमंदों की मदद को उत्सुक पाया जाता है।

-किसी कुंडली में अगर चंद्रमा अपने मित्र की राशि में मौजूद है तो जातक धनवान, सुखी तथा गुणवान होता है।

-कुंडली में अगर मंगल अपने मित्र की राशि में विराजमान हो तो जातक धनवान, सुविधा संपन्न तथा अपने मित्रों में वांछित व प्रिय होता है। मित्रवर्ग उसे मान देता है।

-कुंडली में यदि बुध मित्र की राशि में मौजूद है तो जातक कार्यकुशल, विद्यावान तथा विनोदी स्वभाव का होता है। हंसते हंसते बाधाओं का सामना करता है। जहां वह होता है वहां खुशनुमा वातावरण बन जाता है।

-कुंडली में अगर गुरू मित्र राशिस्थ गया है तो जातक बुद्धिमान तो होता ही है साथ ही साथ अपनी बुद्धि से अपनी तथा परिवार की उन्नति का वाहक भी बनता है।

-कुंडली में यदि शुक्र मित्र राशि मंे विराजमान हो तो जातक को सुख-समृद्धि से परिपूण तथा पुत्रवान रखता है।

-कुंडली में अगर शनि अपने मित्र की राशि में बैठा हो तो जातक को बिना प्रयास के भोजन उपलब्ध होता है, वह जंगल में भी रहे तो भोजन पाऐगा। वह धनी-मानी तथा स्नेहिल स्वभाव का होता है।

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24- शत्रुक्षेत्री ग्रहों के फल-

-अगर किसी जातक की कुंडली में सूर्य अपने शत्रु ग्रह की राशि में विराजमान हो तो ऐसा सूर्य जातक को सुखी नहीं रहने देता। वह जीवन में अनेक प्रकार के दुखों का आगार बनता है। धन-धान्य हो कर भी जातक दुखी ही रहता है। जातक अन्यों की सेवा बजाते ही जीवन काटता है।

-चंद्र यदि अपने शत्रु के क्षेत्र में बैठा है तो जातक को माता या माता जैसी महिलाओं से दुख मिलते हैं। उसे हृदयरोग की भी संभावना होती है।

-मंगल यदि शत्रुक्षेत्र में है तो जातक की स्थिति दीन-हीन, आकुल-व्याकुल, मलीन सी होती है। उसे कहीं भी किसी भी प्रकार चैन नहीं रहता। संभव है कि वह दिव्यांग भी हो।

-बुध यदि शत्रुक्षेत्री है तो वैसे तो जातक सामान्य सुखी होता है किंतु वासना से भरा मनस व कर्तव्यहीनता के भावों से भरा रहता है।

-गुरू अगर शत्रुक्षेत्री है तो ऐसा जातक चतुराई से काम लेने वाला, सफल तथा भाग्यवान बताया गया है।

-शुक्र यदि शत्रुक्षेत्री है तो जातक को अन्यों की सेवा करने वाला तथा अपने बंधु-बांधवों व मित्रों में निम्न स्थिति रखने वाला बनाता है।

-शनि यदि शत्रुक्षेत्री है तो ऐसा शनि जातक को दुखी रखता है।

-राहू-केतु के भी शनि जैसे ही फल बताए गए हैं।

नीचे मैं पाठकों की सुविधा के लिये ग्रहों की मित्रता व शत्रुता संबंधी एक चार्ट दिये दे रही हूं।

ग्रह---मित्र ग्रह-------शत्रु ग्रह---------सम ग्रह-----

सूर्य---चंद्र,मंगल,गुरू---- शनि,शुक्र,राहू------ बुध--------

चंद्र---शुक्र,गुरू,सूर्य----- राहू व केतु------- मंगल,शनि,बुध--

मंगल--चंद्र,सूर्य,गुरू----- राहू,शनि,बुध-------शुक्र,केतु-----

बुध---सूर्य,शुक्र,राहू----- मंगल,केतु,चंद्र------ शनि,गुरू-----

गुरू---चंद्र,मंगल,सूर्य---- शनि,शुक्र---------बुध,केतु,राहू---

शुक्र---शनि,बुध,राहू---- गुरू,सूर्य----------केतु,चंद्र,मंगल---

शनि---बुध,शुक्र,राहू---- चंद्र,सूर्य,मंगल-------केतु व गुरू----

राहू---बुध,शुक्र,शनि---- चंद्र,सूर्य,मंगल-------केतु व गुरू----

केतु---बुध,सूर्य,शनि,शुक्र-- चंद्र,मंगल---------गुरू व राहू----

इसके अलावा

25- ग्रहों की तात्कालिक मित्रता-शत्रुता-

इसके अलावा शास्त्रज्ञों का मत है कि जो ग्रह जिस भाव में होता है वह अपने उस भाव से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, दशम, एकादश व द्वादश भावों से तात्कालिक मित्रता रखता है। इसी प्रकार, प्रथम, पंचम, षष्ठम, सप्तम, अष्टम तथा नवम भाव के ग्रह शत्रु तात्कालिक कहे गए हैं। जैसे चंद्र यदि द्वितीय भाव में बैठा है तो यह अपने से द्वितीय, तीसरे, चौथे, पांचवें भाव से तात्कालिक मित्रता रखेगा भले ही उनमें बैठे ग्रह उसके शत्रु ही क्यों ना हों। चंद्र जहां हो वहां से पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम व नवम भावों में बैठे ग्रहों से चंद्र की तात्कालिक शत्रुता होगी भले ही इन भावों में चंद्र के मित्र क्यों ना बैठे हों। इसी प्रकार ग्रहों की तात्कालिक शत्रुता को भी समझा जा सकता है।

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26- पंचधा मैत्री विचार-

आचार्यों का मत है कि ग्रहों की नैसर्गिक व तात्कालिक मैत्री दोनों का अवलोकन करने से दोनों प्रकार की मैत्री को मिलाने से पांच प्रकार के ग्रह संबंध ज्ञात होते हैं जिन्हें इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

1-अतिमित्र

2-अतिशत्रु

3-मित्र

4-शत्रु तथा,

5-सम अथवा उदासीन।

-यहां यह स्पष्ट है कि किसी जन्मकुंडली में कोई ग्रह यदि नैसर्गिक व तात्कालिक दोनों ही रूपों में मित्र है तो वह अतिमित्र कहा जाऐगा।

-दोनों स्थलों पर यदि कोई ग्रह शत्रु है तो उसे अतिशत्रु कहा जाऐगा।

-कोई ग्रह अगर एक भाव में मित्र तथा दूसरे भाव में सम है तो उसे मित्र कहेंगे।

-कोई ग्रह यदि एक में सम तथा दूजे में शत्रु बन कर बैठा है तो उसे शत्रु कहा जाऐगा।

-एक में शत्रु तथा दूसरे में मित्र हो तो सम होगा। इसे ही ग्रहों का पंचधा मैत्री चक्र कहा जाता है। फलादेश देखते समय इसका भी ध्यान रखना आवश्यक होता है।

27- मूल-त्रिकोण में बैठे ग्रह के फल-

जातक की कुंडली में प्रथम भाव, तथा पंचम व नवम भाव को मूल त्रिकोण कहा गया है। मूल-त्रिकोण में जो ग्रह विद्यमान हैं उनके बारे में आचार्यों ने कुछ फल कहे हैं जिनका वर्णन मैं नीचे करने जा रही हूं। जैसे-

-किसी कुंडली में यदि सूर्य मूल-त्रिकोणस्थ है तो यह जातक को धनवान तथा सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित बनाता है।

-किसी कुंडली में अगर चंद्र मूल-त्रिकोणस्थ है तो जातक धनसंपन्न, भाग्यवान, सुखी तथा सुंदर होता है।

-कुंडली में अगर मंगल मूल-त्रिकोण में हो तो जातक हीनचरित्र का, दुष्ट प्रवृत्ति का, स्वार्थी, निर्दयी, क्रोधी लंपट से लोगों की संगति करने वाला तथा साधारण धनी होता है।

-कुंडली में यदि बुध मूल-त्रिकोण में है तो जातक धनी, महत्वाकांक्षी, डॉक्टर, सैनिक, व्यवसाय में पारंगत, प्रोफेसर तथा विद्वान व राजमान्य होता है।

-कुंडली में यदि गुरू मूल-त्रिकोण में विराजमान हो तो जातक भोगी, सुखी, कीर्तियुक्त राजमान्य तथा एक तपस्वी की तरह बताया गया है।

-कुंडली में यदि शुक्र मूल-त्रिकोण में है तो जातक को धनी-मानी, पुरस्कारों से युक्त तथा स्त्रियों के लिये लालायित व उनमें लोकप्रिय बनाता है।

-कुंडली में शनि अगर मूल-त्रिकोणस्थ है तो जातक सेना में उच्च पदाधिकारी, जहाज चालक, अस्त्र-शस्त्र निर्माता, कर्तव्य परायण तथा शूरवीर होता है।

-किसी कुंडली में राहू अगर मूल-त्रिकोणस्थ हो तो जातक वाचाल, धनवान तथा लालची होता है।

-केतु इन स्थानों में जातक को बहुत कुछ सुखी बनाता है किंतु इसके गुण कुछ कुछ राहू के ही तरह के बताए गए हैं।

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28- अकेले ग्रह के फल तथा स्थानबल-

किसी जन्मकुंडली में अगर कोई ग्रह अकेला विराजमान है और उस अकेले ग्रह पर किसी भी अन्य ग्रह की कोई भी दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो वह ग्रह अपने पूरे अच्छे फल जातक को देने में सक्षम होता है। कौन सा ग्रह किस भाव में अकेले होने पर शुभ व अशुभ होगा। इसके फल निम्नानुसार कहे जाते हैं।

-सूर्य के फल

जब किसी कुंडली में सूर्य अकेला विराजमान हो, इस सूर्य पर किसी अन्य ग्रह की कोई भी दृष्टि न पड़ रही हो तो जातक को स्वावलंबी, ताकतवर बनाता है। जातक बिना किसी की मदद के अपने दम पर उन्नति करता है। वह अपने स्वयं के प्रयासों से ही धनवान बनता है।

बात जहां तक स्थानबल की है, सूर्य नवम, दशम भाव में बली माना गया है, तथा अपनी उच्च राशि, द्रेष्काण, होरा, नवांश, उत्तरायण, मध्यान्ह, राशि के प्रथम प्रहर तथा रविवार को बली कहा गया है।

-चंद्र के फल-

किसी जन्मकुंडली में जब चंद्र अकेला विद्यमान है जिस पर किसी ग्रह की कोई दृष्टि नहीं पड़ रही हो तो ऐसा जातक अपने कुल का तारनहार सरीखा होता है। वह दया, करूणा, नम्रता आदि सद्गुणों से युक्त होता है। कोमल, मोहक व्यक्तित्व का धनी होता है। ऐसे जातक को यह चंद्र हर प्रकार के आघात से बचाने की अद्भुद् क्षमता  रखता है। लेकिन आचार्यों ने कुंडली में अकेले चंद्र को जातक के लिये शुभ नहीं माना है।

चंद्र सदैव कर्क तथा वृष राशि में तथा दिन-द्रेष्काण, स्वनवांश, रात्रि, चतुर्थ भाव, निजी होरा, दक्षिणायन तथा राशि के अंत में शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट यदि है तो बली कहा गया है।

- मंगल के फल-

मंगल यदि किसी कुंडली में अकेला है, अन्य किसी ग्रह की दृष्टि उस पर नहीं पड़ रही है तो ऐसा जातक बेहद साहस से भरा होता है किंतु जातक स्वतंत्र जीवन नहीं जीता। उसे कई प्रकार की परतंत्रताओं में रहना पड़ता है। साथ ही वह अपनी शक्तियों से अनजान रहता है।

मंगल मेष, वृश्चिक, मकर, कुंभ तथा मीन राशियों में रात्रि, मंगलवार, स्व-द्रेष्काण, स्व-नवांश, वक्री, दसवें भाव में यदि कर्क राशि हो, तथा दक्षिण दिशा की राशि में बली माना गया है।

-बुध के फल-

किसी जातक की कुंडली में अगर बुध अकेला, समस्त दृष्टिहीन विराजित है तो जातक को आवारा, लोभी, लपचक्का सा बनाता है। जातक अपने लोभ का मारा देश-विदेश भटकता रहता है।

मिथुन, कन्या तथा धनु राशियों में, बुधवार, अपने वर्ग में बली होता है। रविवार के अलावा अन्य सब दिनों में तथा उत्तरायण में बली कहा गया है। अगर बुध राशि के मध्य का हो कर लग्न में अवस्थित हो तो हमेशा जातक के लिये यश व बल आदि में बढ़ोत्तरी कारक माना गया है।

-गुरू के फल-

किसी कुंडली में जब गुरू अकेला विराजित हो जिस पर कोई दृष्टि न हो तो इस गुरू का कोई अशुभ फल नहीं पड़ता। जातक समर्थ, बौद्धिक, धनिक तथा दीर्धायु होता है। उसे सत्कर्म ही फलते हैं।

गुरू को स्व-वर्ग, दिवस मध्य, कर्क, वृश्चिक, धनु तथा मीन राशियों का, गुरूवार, उत्तरायण तथा राशि के मध्य व कुंभ राशिस्थ बली कहा गया है। किसी कुंडली में गुरू अगर लग्न, चौथे तथा दसवें भाव में भले ही नीच भी हो कर बैठा है तो भी यह गुरू अपने जातक को सुखी, धनी तथा यश से परिपूर्ण करने में सक्षम बताया गया है।

-शुक्र के फल-

जब किसी कुंडली में शुक्र अकेला विराजमान हो जिसे कोई अन्य ग्रह न देखता हो तो ऐसा शुक्र हर प्रकार से अच्छा होता है। वह जातक को किसी प्रकार अशुभ फल की प्राप्ति नहीं कराता। हां, शुक्र ग्रह जब किसी अन्य ग्रह के साथ होता है तब ही उस ग्रह के अनुकूल अशुभ फल देता है।

शुक्र स्व-वर्ग, शुक्रवार, तीसरे, छठवें, चौथे तथा बारहवें भाव में अवस्थित, अपरान्ह, चंद्र के साथ तथा वक्री हो, अपनी उच्च राशि अर्थात मीन में होने पर बली माना गया है।

-शनि के फल-

कुंडली में जब शनि किसी अन्य ग्रह की दृष्टिविहीन हो कर अकेला पड़ता हो तो उसके फल सामान्य तौर पर शुभ ही होते हैं।

इसे शनिवार, स्व-द्रेष्काण, अपनी दशा, भुक्ति तथा राशि के अंत में, दक्षिणायन, सातवें भाव, तुला, मकर व कुंभ राशि में बली कहा जाता है। आचार्यों का मत है कि कृष्ण पक्ष का शनि अगर वक्री हो तो यह किसी भी राशि का हो, बलवान ही होता है।

-राहू के फल-

जब किसी कुंडली में राहू अकेला बेठा हो जिसे कोई अन्य ग्रह न देखता हो तो जातक को बेपरवाह बनाता है। उसका एकदम अनिष्ट नहीं होता लेकिन आर्थिक तौर पर वह कमजोर व पराधीन सा रहता है।

राहू को मेष, वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक तथा कुंभ राशि में होने के अलावा दसवें भाव में हो तो बलवान कहा गया है।

-केतु के फल-

जब किसी कंुडली में केतु अकला अन्य ग्रहों की दृष्टिहीन हो कर बैठा हो तो इससे जातक को हर प्रकार की सहायता मिलती है लेकिन प्रायः यह केतु जन्मकुंडली में मौजूद राहू की स्थिति के अनुसार ही फल देता है। यानि राहू जैसा बैठा है उसके अनुकूल ही इस अकेले केतु के फल होंगे। ऐसा जातक भले ही बहुत अमीर न हो सके, मगर गरीब भी नहीं होता।

केतु को वृष, धनु तथा मीन में बलवान माना गया है। मतांतर से यह भी कहा गया है कि केतु यदि किसी स्वग्रही शुभ ग्रह के साथ हो तो उसके शुभ फलों को चौगुना कर देता है।

इसके अलावा,

परंपरागत भारतीय ज्योतिष में अनेक आचार्यों द्वारा मतांतर से यह माना गया है कि किसी कुंडली में अगर सूर्य के साथ चंद्र है तो यह निष्फल माना जाता है। इसी प्रकार लग्न भाव से दूसरे घर में मंगल, चौथे भाव में बुध, पांचवें भाव में बैठा गुरू, छठवें भाव में विराजमान शुक्र तथा सातवें भाव में बैठे शनि को भी निष्फल माना गया है।

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29- ग्रहों का दशा विचार-

फलादेश करने के लिये मुख्य रूप से दशाविचार पर भी पूर्ण ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिये जान लें कि दशाऐं अनेक प्रकार की मानी गई हैं जैसे अष्टोत्तरी, विंशोत्तरी व योगिनी आदि। किंतु फलादेश के लिये आचार्यों ने केवल विंशोत्तरी दशा को ही अपनाया है। विंशोत्तरी दशा निकालने के लिये जातक की आयु को 120 वर्षों की मान कर ग्रहों को इन 120 वर्षों में विभाजित किया गया है जिसके अंर्तगत

-सर्वप्रथम सूर्य की दशा 6 वर्षों की कही गई है। फिर,

-चंद्र की दशा 10 वर्षों की बताई गई है।

-मंगल की 7 वर्षों की बताई गई है।

-बुध की 17 वर्ष।

-गुरू की 16 वर्ष।

-शुक्र की 20 वर्ष।

-शनि की 19 वर्ष।

-राहू की 18 वर्ष तथा,

-केतु की 7 वर्षों की कही गई है।

-किसी जातक की कुडली में उसके जन्म-नक्षत्रों के अनुसार ग्रहों की दशा का विवरण नीचे प्रस्तुत है।

-कृतिका, उत्तराफाल्गुनी व उत्तराषाढ़ा में जन्म हो तो सूर्य की दशा होती है।

-रोहिणी, श्रवण तथा हस्त का जन्म हो तो चंद्र की।

-चित्रा, मृगशिरा व धनिष्ठा का जन्म हो तो मंगल की।

-स्वाति, शतभिषा व आद्रा का जन्म हो तो राहू की।

-विशाखा, पूर्वाभाद्रपद व पुनर्वसु का जन्म होने से गुरू की।

-अनुराधा, उत्तराभाद्रपद व पुष्य में जन्म हो तो शनि की।

-रेवती, आश्लेषा व ज्येष्ठा का जन्म हो तो बुध की।

-पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी व भरणी में जन्म हो तो शुक्र की दशा होती है।

-अश्विनी, मघा और मूल में जन्म हो तो केतु की दशा होती है।

इनके विवरण व फलनिरूपण के लिये एक अन्य पुस्तक लिखना लाजिमी होगा।

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30- ग्रहों की दृष्टि का विचार-

समस्त ग्रह अपने स्थान से तृतीय तथा दशम स्थान को एक चरण दृष्टि से देखते हैं। आचार्यों का मत है कि सब ग्रह अपने से पंचम तथा नवम भाव को दो चरण दृष्टि से, चतुर्थ तथा अष्टम भाव को तीन चरण दृष्टि से तथा सप्तम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। हालांकि आचार्य इस बात में एक मत हैं कि मंगल अपने से चतुर्थ तथा अष्टम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इसी प्रकार गुरू अपने से पचंम व नवम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। जबकि शनि तृतीय, छठे तथा दशम भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता बताया जाता है। ग्रहों की पांचवी, सातवीं, नौवीं तथा ऐकादश दृष्टि शुभ कही गई है। जबकि चौथी व अष्टम दृष्टि अशुभ प्रभाव देने वाली बताई गई है।

ग्रहों का दृष्टियों को निम्नांकित रूप से भी समझा जा सकता है।

-प्रत्येक ग्रह कुंडली में जहां वह बैठा हुआ है वहां से सातवीं दृष्टि से देखता है।

-मंगल की चौथी व अष्टम दृष्टि पर आचार्य एकमत हैं।

-गुरू जहां बैठा है वहां से पांचवी तथा नवम दृष्टि से देखता है।

-राहू भी पांचवी तथा नवम दृष्टि से देखता है। इसी प्रकार,

-केतु की भी पांचवी व नवम दृष्टि मानी गई है। तथा,

-शनि तृतीय तथा दसवीं दृष्टि से देखता बताया गया है।

महादशा विचार करते समय देखना आवश्यक है कि सूर्य, चंद्रमा, बुध तथा शुक्र सप्तम भाव पर दृष्टि डालते हैं। हमें पता है कि मंगल सप्तम के अतिरिक्त आठवें तथा चतुर्थ भाव पर भी दृष्टि रखता है। और, शनि तृतीय, छठे तथा दशम भाव पर भी अपनी दृष्टि डालता है।

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31- नवग्रहों के गृह, भाव अथवा स्थान-

पिछले पृष्ठों में राशि स्वामी पर प्रकाश डाला गया है। उसी संदर्भ को बनाए रखते हुए यहां यह जान लेना आवश्यक है कि जो ग्रह जिस राशि का स्वामी कहा जाता है वही राशि उक्त ग्रह का घर, उसका भाव, उसका स्थान अथवा उसका गृह कही जाती है। अतः यहां इसे पुनरावृत्ति न समझा जावे। इसे स्वक्षेत्रगत ग्रह या स्वक्षेत्री ग्रह कहा जाता है। नवग्रहों के भाव आदि बताते हुए उचित फलादेश के लिये मैं यहां स्वक्षेत्री ग्रह के भाव में मौजूद ग्रह यानि स्वक्षेत्री ग्रह के फल भी बताती चलूंगी।

-मंगल, मेष तथा वृश्चिक का स्वामी होता है अतः कुंडली का प्रथम तथा आठवां भाव मंगल का अपना भाव या स्थान हुआ। मंगल इन में से किसी में होगा तो कहा जाएगा कि वह अपने घर में बैठा है। ऐसे स्वक्षेत्र गत मंगल का फल बताते हुए आचार्यगण मानते हैं कि ऐसा मंगल अपने जातक को बलवान बनाता है। जातक जमीन-जायदाद से युक्त, धनवान कृषक तथा ख्यातिवान भी होगा। इसी प्रकार,

-शुक्र को आचार्यों ने वृष तथा तुला राशियों का स्वामी बताया है। अतः द्वितीय तथा सातवां भाव शुक्र के अपने भाव या स्थान हुऐ। ऐसे शुक्र के लिये माना गया है कि इससे जातक धनवान तथा विचारवान होते हुए अपनी स्वतंत्र प्रकृति से चलने वाला होगा।

-बुध को मिथुन तथा कन्या राशियों का स्वामी माना गया है। अतः ये उसके अपने घर हुए। ऐसा बुध अपने जातक को लेखक-संपादक, विद्वान तथा शास्त्रों का जानकार बनाता है।

-चंद्रमा कर्क राशि का स्वामी है अतः चौथा भाव चंद्र का अपना भाव है। यदि चंद्रमा स्वक्षेत्री है तो ऐसा जातक तेजस्वी, धनवान व रूपवान तथा भाग्यवान भी होता है।

-गुरू को धनु तथा मीन राशियों का स्वामी माना गया है, सो, ये दोनों उसके अपने भाव हुए। किसी कुंडली में यदि गुरू महाराज स्वक्षेत्री हैं तो ऐसा जातक कुशल वैद्य या डॉक्टर, शास्त्रज्ञ अथवा कोई काव्यनिपुण कवि होता है।

-सूर्य को सिंह राशि का स्वामी कहा गया है। अतः कुंडली का पांचवा भवन सूर्य का अपना भवन हुआ। सूर्य किसी कुंडली में यदि अपनी ही राशि में विराजित हो तो ऐसा जातक सुंदर होने के साथ साथ ऐश्वर्यशाली भी होगा किंतु वह कुछ कामी व व्यभिचारी प्रवृत्ति का भी हो सकता है।

-शनि को मकर तथा कुंभ राशियों के स्वामी के रूप में देखा जाता है अतः कंुडली दसवें तथा ग्यारहवें भाव शनि के अपने भाव कहे जाते हैं। यदि शनिदेव स्वक्षेत्री हुए तो जातक को कष्ट सहने में निपुण बना देते हैं। जातक उग्र प्रकृति का एवं घोर पराक्रमी भी होगा।

-राहू यदि स्वक्षेत्री है तो जातक अवश्य ही सुंदर होगा। वह यशस्वी भी होगा। राहू ऐसे जातक को निःसंदेह भाग्यवान भी बनाता है। केतु के फल भी कुछ इसी प्रकार के कहे गए हैं। किंतु ऐसा केतु अपने जातक को प्रायः तीन के अंक से प्रभावित रखता है। तीन पुत्रियां, तीन बहनें, तीन भाई इस प्रकार के आंकड़े मेरे देखने में आए हैं।

नवग्रहों के भाव या स्थान को समझने के लिए देखें नीचे चित्र -

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इसी प्रकार मित्र व शत्रु क्षेत्रगत ग्रह भी होते हैं। अपने मित्र ग्रह की राशि में बैठे ग्रह मित्र क्षेत्री कहे जाते हैं। जाहिर है कि ये लाभ देने वाले होते हैं। और शत्रु राशियों में बैठे ग्रह दुख व नुकसान कारक होते हैं।

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32- ग्रहों के कुछ सु-योग

जब किसी कुंडली में किसी भी भवन में एक से ज्यादा ग्रह हों तो इससे विभिन्न योगों का निर्माण होता है। यहां ऐसे ही कुछ योगों की चर्चा करने जा रही हूं। इनमें अनेक ऐसे योग होते हैं जिन्हें सु-योग माना जाता है जो कि समय आने पर जातक को लाभान्वित करते हैं।

-आचार्यों का मत है कि अगर किसी जातक की कुंडली के दसवें भाव में अकेला सूर्य, उच्च का, मूल त्रिकोण राशि का अथवा अपनी स्व राशि का हो कर बैठा हो तो यह एक बेहद अच्छा तथा कारक सु-योग है। ऐसा जातक अपने आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार सरपंच, सभापति, विधायक, मंत्री, प्राचार्य, जज व कुशल चिकित्सक बन कर समाज में सुस्थापित होता है।

-किसी कुंडली के दशम भाव में सूर्य तथा चंद्र एक साथ हों, या फिर दोनों एक दूसरे पर पूर्ण दृष्टि रखते हों, अथवा इन दोनों में से कोई एक ग्रह स्वराशि का या उच्च का हो कर इसी दशम भाव में मौजूद हो तो जातक निश्चय ही अच्छा लेखक, पत्रकार, कुशल प्रबंधक, प्रचारकर्ता व विज्ञापन कार्य आदि में भी भरपूर पैसा, प्रसिद्धि तथा सफलता अर्जित करने वाला होता है।

-दसवें भाव के कारक ग्रह का सूर्य तथा गुरू से किसी प्रकार का संबंध बन रहा हो तो जातक की प्रतिभा को चार चांद लग जाते हैं। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी हो कर जिस भी क्षेत्र में चाहे किस्मत आजमा सकता है। सफलता, वैभव तथा प्रतिष्ठा उसके कदम चूमती है।

-कुंडली में अगर सूर्य तथा शुक्र एक साथ बैठे हों, अथवा दोनों की एक दूसरे पर दृष्टि हो तथा दसवें भाव से उनका कोई न कोई इस प्रकार का संबंध बन रहा हो, कोई अशुभ ग्रह इस संयोग को भंग न करता हो तो जातक चित्रकला, मूर्तिकला, खेल, सिनेमा-नाटक आदि के अभिनेता, निर्देशक व निर्माता आदि के तौर पर सफल होता है।

-अगर दशम भाव में शुक्र व चंद्र एक साथ बैठे हों, आपस में इनका दृष्टि संबंध बनता हो जिसे कोई अशुभ ग्रह भंग न कर रहा हो तो जातक अवश्य ही बेहतरीन कूटनीतिज्ञ, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, उपन्यासकार व महिलाओं से जुड़े किसी व्यवसाय में पारंगत व सफल होता है।

-नवम भवन में अगर इस भवन का स्वामी स्वयं बैठा हो अथवा वह जहां भी हो वहां वह किसी शुभ ग्रह के द्वारा देखा जाता हो तो जातक भाग्यवान होता है।

-आचार्यों ने एक मत से नवमेश ग्रह को जातक के भाग्य का सूचक माना है। यदि ये अच्छी स्थिति में हैं तो जातक भाग्यवान रहेगा। यदि इसकी स्थिति डांवाडोल है तो वैसा ही भाग्य रहेगा।

-ध्यान दें कि किसी कुंडली में नवमेश ग्रह भाग्य का सूचक होता है तथा इसी प्रकार इससे पांचवां यानि लग्नेश भी जातक के भाग्य का बोध कराने वाला होता है। अब, अगर ये दोनों ग्रह किसी कुंडली में उच्च के हों, या अच्छे भावों में बैठे हों, मित्र राशियों में विराजमान हों तो जातक को जीवन जीने में कम कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। उसे सफलता आसानी से मिलती जाती है।

-कुंडली में नवम भाव को भाग्य स्थान कहा गया है। यह नवम भाव अगर अपने भाव स्वामी द्वारा देखा जा रहा हो अथवा किसी शुभ ग्रह द्वारा देखा जा रहा हो तो इसे सु-योग माना जाता है, जातक भाग्यवान होता है।

-नवम भाव में यदि गुरू महाराज विराजित हों और उन्हें .सूर्य देखता हो तो यह सु-योग जातक को अतुल धनधान्य का अधिकारी बनाता है।

-नवम भावस्थ गुरू को यदि बुध देखता हो तो जातक पर्याप्त धन-मान संपन्न होता है।

-नवम भावस्थ गुरू को यदि मंगल देखता हो तो जातक मंत्री पद पर भी आ सकता है।

-नवम गुरू को यदि शुक्र देख रहा है तो जातक को चार पहिया गाड़ी आदि की सुविधाओं से संपन्न बनाता है।

-नवम भावस्थ गुरू को अगर चंद्र देखता हो तो जातक को सारे सुख उपलब्ध होते हैं।

-नवम भाव में मौजूद गुरू को अगर चंद्र व सूर्य दोनों देख रहे हों तो जातक धनवान होने के साथ ही साथ विद्वान भी होता है। वह अपनी विद्वता से धन अर्जित करने में समर्थ होता है।

-नवम भवन में यदि चंद्र तथा बुध मौजूद तो जातक बुद्धिमान, चतुर, कार्यदक्ष व सुखी होता है।

-नवम भाव में गुरू के साथ चंद्र विराजित हो तो इस सु-योग के आधार पर जातक भाग्यवान, धीर-गंभीर स्वभाव वाला तथा सम्मानित व्यक्ति होता है।

-इस भवन में चंद्र तथा शुक्र की मौजूदगी जातक का सामान्यतः सुखी बनाती है।

-नवम भवन में यदि बुध तथा मंगल बैठे हों तो इस सु-योग के आधार पर जातक सुखी, संपन्न तथा भोगी प्रवृत्ति का माना जाता है।

-इस भाव में अगर बुध व गुरू बैठे हों तो जातक बुद्धिमान, चतुर, विद्वान तथा धनी-मानी होता है।

-किसी कुंडली में चंद्र से दसवें भाव में अगर बुध, शुक्र मौजूद हों तो जातक इस सु-योग के प्रभाववश हर तरह से सुखी-संपन्न होता है।

-किसी कुंडली में यदि लाभेश कोई शुभ ग्रह है जो कि दशम स्थान में बैठा हो तथा दशमेश नवम भाव में बैठा हो तो लाभ ही लाभ दिलाता है। अथवा,  लाभेश कोई शुभ ग्रह ही हो जो नवम भाव में बैठा हो तो भी लाभ की उपरोक्त स्थिति मानी गई है।

-लाभ स्थान का स्वामी ग्रह लग्न में हो, केंद्र में हो अथवा त्रिकोण में बैठा हो, लाभ स्थान में कोई पाप ग्रह बैठा हो या फिर लाभेश अपनी उच्च राशि का हो, अथवा अपनी उच्च राशि के नवांश

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रचनाएँ
सहज ज्योतिष
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आत्म-विकास के साथ-साथ लोक-कल्याण अर्थात मानव-कल्याण ही जयोतिष विद्या के विकास के मूल में विद्यमान माना गया है। इसमें माना गया है कि ग्रह वास्तव में किसी जातक को फल-कुफल देने के निर्धारक नहीं हैं बल्कि वे इसके सूचक अवश्य कहे जा सकते हैं। यानि ग्रह किसी मानव को सुख-दुख, लाभ-हानि नहीं पहुंचाते वरन वे मानव को आगे आने वाले सुख-दुख, हानि-लाभ व बाधाओं आदि के बारे में सूचना अवश्य देते हैं। मानव के कर्म ही उसके सुख व दुख के कारक कहे गए हैं। ग्रहों की दृष्टि मानो टॉर्चलाइट की तरह आती है कि अब तुम्हारे कैसे-कौन प्रकार के कर्मों के फल मिलने का समय आ रहा है। अतः मेरी नजर में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग यही है कि ग्रहों आदि से लगने वाले भावी अनुमान के आधार पर मानव सजग रहे। यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि केवल ग्रह फल-भोग ही जीवन होता तो फिर मानव के पुरूषार्थ के कोई मायने नहीं थे, तब इस शब्द का अस्तित्व ही न आया होता। हमारे आचार्य मानते थे कि पुरूषार्थ से अदृष्ट के दुष्प्रभाव कम किये जा सकते हैं, उन्हें टाला जा सकता है। इसमें ज्योतिष उसकी मदद करने में पूर्ण सक्षम है। उनका मत था कि अदृष्ट वहीं अत्यंत प्रबल होता है जहां पुरूषार्थ निम्न होता है। इसके विपरीत, जब अदृष्ट पर मानव प्रयास व पुरूषार्थ भारी पड़ जाते हैं तो अदृष्ट को हारना पड़ता है। प्राचीन आचार्यों के अभिमत के आगे शीश झुकाते हुए, उनके अभिमत को स्वीकारते हुए मेरा भी यही मानना है कि ज्योतिष विद्या से हमें आने वाले समय की, शुभ-अशुभ की पूर्व सूचना मिलती है जिसका हम सदुपयोग कर सकते हैं। हाथ पर हाथ धर कर बैठने की हमें कोई आवश्यकता नहीं कि सब कुछ अपने आप ही अच्छा या बुरा हो जाऐगा। यह कोई विधान रचने वाला शास्त्र नहीं कि बस् अमुक घटना हो कर ही रहेगी, बल्कि यह तो सूचना देने वाला एक शास्त्र है ! यह बार-बार दोहराने की बात नहीं कि आचार्यों, मुनियों, ऋषियों ने ज्योतिष में रूचि इसलिये ली होगी कि मानव को कर्तव्य की प्रेरणा मिले। आगत को भली-भांति जान कर वह अपने कर्म व कर्तव्य के द्वारा उस आगत से अनुकूलन कर सके ताकि जीवन स्वाभाविक गति से चलता रह सके।
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