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सहज ज्योतिष

15 नवम्बर 2022

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5- जन्म कुंडली तथा द्वादश भाव परिचय-

जन्म कुंडली को मानव के पूर्व जन्मों में किये गए संचित कर्मों का बारह भावों में निबद्ध एक सांकेतिक लेखा-जोखा ही कहा जा सकता है। उसकी जन्म कुंडली यदि सही-सही बनी है तो उसकी यह जन्म कुंडली मानव के पूर्व कर्मों को दर्शाती है साथ ही उनके आधार पर आने वाले समय में उसके द्वारा प्राप्त किये जाने वाले सुख-सौभाग्य आदि का विवरण भी इससे मिलता है। मानव अपने कर्म तथा पुरूषार्थ द्वारा क्या कितना कुछ हांसिल कर पाऐगा यह बात भी जन्म कुंडली में निबद्ध होती है। आवश्यकता सिर्फ उसे सही प्रकार से देख लेने की है।

हम जन्म कुंडली के बारहों भावों तथा उनके नामों को इस प्रकार समझ सकते हैं।

देखें नीचे चित्र-

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1-कुंडली का प्रथम भाव लग्न कहा जाता है। इसे तनु,आत्मा, शरीर, वपु, अंगस्थान, उदय, प्रथम, कंटक व केंद्र भी कहा जाता है।

कुंडली के इस प्रथम भाव से मानव के रूप,जाति, आयु,सुख-दुख,विवेक, स्वभाव,आकृति आदि का विचार किया जाता है। इस भाव में जो भी राशि तथा ग्रह होंगे जातक का शरीर व रंगरूप वैसा ही होगा। इस भाव में मिथुन, कन्या,
तुला व कुंभ राशियों को बलवान माना गया है। लग्नेश की स्थिति के बलाबल के अनुसार जातक की कार्यकुशलता, उसकी उन्नति-अवनति आदि का भी पता इसीसे चलता है। इसका कारक सूर्य कहा गया है।

2-कुंडली के द्वितीय भाव को स्व, वित्त,कोष, अर्थ, कुटुंब तथा धनस्थान भी कहा जाता है। इसे पणफर भी कहा गया है। इससे जातक के कुल का,उसके मित्र का, आंख, कान, नाक,वाणी यानि स्वर, सौंदर्य,प्रेम, सुख-भोग, सत्यप्रियता,
सोना-चांदीआदि संचित धन, क्रय-विक्रय आदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक गुरू है।

3-कुंडली के तृतीय भाव को पराक्रम कहा जाता है। इसे उपचय,आपोक्लिम, सहज, भ्रातृ भी कहा गया है।  इससे जातक के नौकर-चाकर,भाई-बंधु, पराक्रम, आभूषण, साहस, आयुष्य, धैर्य, शौर्य, दमा-खांसी, क्षय, गायन,
योगाभ्यास आदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक मंगल है।

4-इस चौथे भाव का नाम केंद्र,्शुभ भाव या सुख स्थान है। इसे पाताल, हिबुक, गृह, वाहन, बंधु, नीर व चतुरस्त्र भी कहा जाता है। इससे जातक के माता-पिता का सुख, मित्र, शांति, मकान, संपत्ति, बाग-बागीचे, पेट के रोग, यकृत के रोग, दया, परोपकार, कपट-छल व अन्य धन आदि का विचार किया जाता है। इस भाव में कर्क, मीन व मकर राशि का उत्तरार्ध बलवान माने गए हैं। चंद्रमा व बुध इस भाव के कारक हैं। इस स्थान को माता का स्थान भी कहा गया है।

5-पंचम भाव- को सुत स्थान, पंचम, तनुज, बुद्धि, विद्या तथा पणफर कहा गया है। इससे बुद्धि, संतान, प्रबंध, विनय,
देव-भक्ति, नीतिशीलता, माता का सुख, नौकरी का छूटना, अचानक बहुत धन का मिलना जैसे जुआ, सट्टा, लॉटरी आदि, यश, धन मिलने के उपाय आदि का विचार किया जाता है। सामान्य रूप से  इस भाव को संतान तथा विद्या-बुद्धि-शिक्षा का माना जाता है। इस भाव का कारक गुरू है।

6-षष्ठम स्थान को आपोक्लिम, त्रिक, रिपु या शत्रु कहा जाता है।  इससे चिंता, शत्रु, शंका, मामा की स्थिति, रोग, पीड़ा जमींदारी, व्रण आदि तथा यश देखा जाता है। इसके कारक शनि व मंगल कहे गए हैं।

7-सप्तम स्थान को केंद्र, सौभाग्य, दाम्पत्य व मदन स्थान आदि के नाम से जाना जाता है। इससे स्वास्थ्य, काम-चिंता, स्त्री,अंग-विभाग, विवाह, व्यापार, झगड़े, बवासीरआदि हैं। इस भाव में वृश्चिक राशि को बलवान कहा जाता है। इस भाव का कारक शुक्र बताया गया है।

8-अष्टम भाव को चतुरस्त्र, त्रिक, रंध्र, आयु तथा पणफर कहा जाता है।  इस भाव से जातक की व्याधि, मृत्यु, मृत्यु के कारण, मानसिक चिंताऐं, समुद्र यात्रा, ऋण आदि, शरीर के निचले हिस्से के रोगआदि का विचार किया जाता है। इस भाव का कारक शनि है।

9-नवम भाव को धर्म स्थान, भाग्य स्थान, पुण्य तथा त्रिकोण कहा जाता है।  इस भाव से जातक के भाग्योदय, उसकी मानसिक वृत्तियों, विद्या,शील, धर्मप्रवणता,तीर्थयात्राऐं, पिता के सुख तथा तप आदि के बारे में ज्ञात होता है। क्रमशः सूर्य तथा गुरू इस भाव के कारक ग्रह माने जाते हैं।

10-दशम भाव को कर्म भाव या कर्म स्थान कहा जाता है। इसके अलावा इसे राज्य भाव, व्यापार,दशम केंद्र आकाश अथवा गगन, नभ, मध्य तथा स्व केनाम से भी जाना जाता है। इस भाव से जातक के ऐश्वर्य-भोग, उसका कीर्ति-लाभ,
नेतृत्व क्षमता, राज्य की स्थिति, पिता, प्रभुत्व, अधिकार तथा व्यापार आदि का विचार किया जाता है। इस भाव में मेष, वृष, सिंह तथा मकर राशि का पूर्वार्ध तथा धनु राशि का उत्तरार्ध बलवान कहा गया है। इस भाव के कारक ग्रह हैं सूर्य, बुध,गुरू तथा शनि।

11-ऐकादश भाव को आय भावअथवा लाभ स्थान के नाम से जाना जाता है। इसकेअ न्य प्रसिद्ध नाम हैं-पणफर, उत्तम, तथा उपचय। कुंडली में इस भाव से जातक के ऐश्वर्य, संपत्ति, मोटर-गाड़ी, गज-अश्व, मांगलिक कार्यों, रत्न-आभूषणों आदि की स्थिति के बारे में पता चलता है। इस भाव का कारक गुरू ग्रह को कहा गया है।

12-द्वादश भाव को व्यय भाव के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा इसे अंतिम तथा त्रिक नामों से भी पुकारा गया है। इस भाव के द्वारा जातक के व्यय, दंड, रोग, हानि, दान, व्यसन आदि के बारे में ज्ञात किया जाता है। कुंडली के इस अंतिम भाव का कारक शनि ग्रह है।

भारतीय वांगमय में मानव जीवन के चार पुरूषार्थ बताए गए हैं। हमारे देश में कौन है जो इन्हें नहीं जानता ? ये पुरूषार्थ हैं-

1-धर्म, 2-अर्थ,
3-काम और अंतिम है
4-मोक्ष।

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में यह मान्यता रही है कि मानव की जन्म कुंडली के बारहों भाव उपरोक्त पुरूषार्थों की पूर्ति को रेखांकित करते हैं। इस संदर्भ में यह जानना रोचक होगा कि जातक की कुंडली के- - -

-प्रथम, पंचम तथा नवम भाव का संबंध है -----प्रथम पुरूषार्थ धर्म से।

-द्वितीय, छठवें तथा दसवें भाव का संबंध है----द्वितीय पुरूषार्थ अर्थ से।

-तीसरे, सातवें तथा ग्यारहवें भाव का संबंध है---तृतीय पुरूषार्थ काम से।और,

-चौथे, आठवें व बारहवें भाव का संबंध है----अंतिम या चतुर्थ पुरूषार्थ मोक्ष से।

इसके अलावा,

जन्म कुंडली के सब घरों का समग्र परिचय जानना भी आवश्यक है जो इस प्रकार समझा जा सकता है। यह जान लें कि-  किसी जन्म कुंडली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम तथा दशम भावों को केंद्र कहा जाता है। ये केंद्र केअलावा विष्णुस्थान भी कहे गए हैं। ये जन्म कुंडली के मानो चार मजबूत स्तंभ है। जिन पर किसी जातक की कुंडली का निर्माण हुआ है।

देखें नीचे चित्र-

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जन्म कुंडली के द्वितीय, पंचम, आठवें तथा ग्यारहवें भाव को पणफर कहा जाता है। इनसे किसी जातक के आर्थिक स्त्रोंतों आदि का पता चलता है। द्वितीय भाव से उसके स्वधन का, पंचम भाव से पैतृक धन का, अष्टम भाव से अचानक मिलने वाले धन का तो एकादश भाव से जातक के अपने व्यवसाय, नौकरी आदि से कमाए धन के बारे में ज्ञात होता है। यहां मतांतर से द्वितीय भाव को पैतृक धन का भाव बताया जाना भी मेरे अध्ययन मेंआया है। खैर।

देखें नीचे चित्र-

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जन्म कुंडली के तृतीय, छठवें, नौवें तथा बारहवें भाव को आपोक्लिम कहा जाता है। ये जातक की जन्म कुंडली के क्रमशः उतरते व चढ़ते भाव हैं। केवल नवम भावस्थ ग्रह व ग्रहों को छोड़ कर आपोक्लिम भावों ही नहीं बल्कि इनकी तृतीय, षष्ठं व द्वादश राशियों तक में बैठे ग्रहों को श्रेष्ठ फलदायी नहीं माना जाता। कह सकते हैं कि नवम को छोड़ कर बाकी अन्य आपोक्लिम राशियां व भाव किसी ग्रह के कमजोर स्थल हैं। हालांकि तृतीय व षष्ठम् में कू्रर ग्रहों की मौजूदगी अपेक्षाकृत ठीक मानी गई है।

देखें चित्र-

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जन्म कुंडली के प्रथम, पांचवे तथा नवम भाव को त्रिकोण या मूल त्रिकोण कहा जाता है। इनमें शुभ ग्रहों का होना अच्छा माना गया है। इन्हें लक्ष्मी स्थान भी कहा गया है। नवम भाव को सर्वाधिक मजबूत त्रिकोण कहा गण है। प्रथम भाव को लग्न या मूल भी कहा गया है। इसलिये इन्हें मूल त्रिकोण के नाम से भी अभिहित किया जाता है।

देखें चित्र-

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जन्म कुंडली के तृतीय, छठवें, दसवें तथा ग्यारहवें भाव को उपचय कहते हैं। उपचय अर्थात् खुशहाली तथा उन्नति। यदि इन भावों में ग्रहों की बलवान स्थिति है तो ये मानव जावन के भौतिक विकास को अचानक ही उच्च अवस्था में ले जा कर अन्यों को चकित करने में सक्षम बताए गए हैं। यूं इनका सभी का अपना अपना महत्व है फिर भी मतांतर से इनमें सबसे महत्वपूर्ण दशम उपचय माना गया है क्योंकि ये कर्म, राज्य, पिता, नौकरी, व्यवसाय व मानव के कैरियर से संबद्ध है। तृतीय, षष्ठं तथा एकादश भावों में पाप ग्रहों की मौजूदगी को शुभ माना गयाहै।

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जन्म कुंडली के चौथे तथा आठवें भाव को चतुरस्त्र कहते हैं। ये लग्न से चतुर्थ तथा पंचम से चतुर्थ भाव होते हैं। कहा गया है कि यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में चौथे भाव का संबंध किसी प्रकार द्वादश भाव से बनता हो तो जातक को परदेस में, कहीं दूर-दराज में भूमि-संपत्ति का योग होता है। संभव है कि कोई दूर का रिश्तेदार उसे अपनी संपत्ति में हिस्सा दे जाए। या जातक स्वयं ही अपने जन्म स्थान से कहीं दूर जा बसे, वहीं संपत्ति बनाऐ। कई जातकों को जन्मस्थान से दूर ही सफलता मिलती है।

देखें नीचे चित्र-

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कुंडली के द्वितीय तथा सप्तम स्थानों को मारक कहते है। यहां बैठे ग्रह जातक के लिये मारक व मरण तुल्य रूप से कष्टकारी कहे गए हैं। देर-सबेर जब भी मृत्यु आऐगी इन ग्रहों काअसर जरूर होगा। इनमें बैठे ग्रह को देख कर ही जातक की मृत्यु के बारे में अंदाजा किया जाता है।

देखें चित्र-

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जन्म कुंडली के छठवें, आठवें तथा बारहवें भाव को त्रिक संज्ञक भाव कहते है। इन्हें दुःस्थान भी कहा गया है। यहां बैठे ग्रह अपनी दशा-अंर्तदशा व भुक्ति में जातक को कष्ट ही कष्ट देने वाले कहे गए हैं।

देखें चित्र-

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6- कुंडली के प्रकार

जन्म कुंडली के बारे में हम सामान्यतः जान चुके हैं। किसी चीज को ठीक से जानने के लिये हम उसे विभिन्न वर्गों में विभाजित करके देखते हैं तो उसे समझना आसान हो जाता है। इसीलिये अपने विलक्षण अध्ययन से आचार्यों ने कुंडली के अनेक वर्ग विभेद तैयार किये जो अद्भुद थे। इससे मानव जीवन के विभिन्न महत्वपूर्ण पक्षों पर विचार किया जाना आसान हो जाता है। इसी को लक्ष्य करके कुंडली के अनेक प्रकार बताए गए हैं जो निम्नानुसार हैं-होरा कुंडली, चंद्र कुंडली, नवमांश कुंडली, षष्ट्यांश कुंडली, दशमांश कुंडली, कारकांश कुंडली, षोडशांश कुंडली, त्रिशांश कुंडली, द्रेष्काण कुंडली, स्वांश कुंडलीआदि आदि। इनकेअलावा होती है चंद्र कुंडली जिसे आचार्यों ने अनेक कारणों से महत्वपूर्ण माना है।

7- चंद्र कुंडली-

हमारे जन्म समय पर पूर्व दिशा में जो भी राशि उदित हो रही होती है उसी को हमारी जन्म लग्न राशि माना जाता है।उसे ही प्रथम भाव में रखते हुए लग्न कुंडली बनाई जाती है। अब, यह जान लें कि उक्त समय में चंद्र जिस भी राशि में भ्रमण कर रहा होता है वही राशि हमारी जन्म राशि मानी जाती है। लग्न कुंडली के निर्माण के पश्चात देखा जाता है कि चंद्रमा जिस राशि में है उसे लग्न यानि प्रथम भाव मानते हुए एक अन्य कुंडली बनाई जाती है जिसे कि चंद्र कुंडली कहा जाता है। लग्न व चंद्र कुंडलियों को ले कर इनकी विशेषताओं, व्याख्या तथा इनके मध्य अंतर आदि को ले कर विद्वानों में अनेक मत प्रचलित रहे हैं किंतु यहां इस सैद्धांतिक विवाद में न पड़ कर इतना जानना काफी होगा कि किसी भी जातक की जन्म कुंडली उसके पिछले जन्मों के किये-धरे का वास्तविक, प्राकृतिक या कि ईश्वरीय फरमान है जो उसे भोगना ही है। किंतु बात जहां तक चंद्र कुंडली की है यह जातक को उक्त फरमान से थोड़ा बहुत बचाव के रास्ते बताती है। इसलिये यहां मैं थोड़ी चर्चा अब चंद्र कुंडली की भी करना मुनासिब समझती हूं।

ये हम जानते हैं कि अंतरिक्ष में सब ग्रह गतिशील रहते हैं। बावजूद इसके कि ये अपनी अपनी गति व कक्षा में नियमानुकूल गतिवान रहते हैं अतः हमारे लिये इनकी गति से ही कुछ आस बंधनी स्वाभाविक है। कोई ग्रह यदि कू्रर फल दे रहा है तो कब तक देगा ? जब तक वो वहां मौजूद है। वो तो गतिवान है कोई वहीं एक जगह पर तो सदा बैठा नहीं रहेगा। यानि बुरे दिन भी किसी तरह बीत ही जाऐंगे। सो हमारे मनीषियों ने हमें ग्रहों की इस गति के आधार पर हमें राहत देने के प्रयास किये हैं। और इस बारे में भी संकेत किया है कि यदि समय अच्छा चल रहा है तो इस घमंड में चूर भी न रहें कि अब कोई हमारा कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता ! तो,

ग्रह गति में बदलाव होता रहता है इसी कारण चंद्र कुंडली का अपना महत्व है। समस्त ग्रहों में पृथ्वी के सबसे अधिक नजदीक चंद्र ही है। विश्व की भौतिक स्थिति पर भी चंद्र अपना पूरा प्रभाव डालता है। इसके घटते-बढ़ते आकार से समुद्री ज्वार-भाटा आता है। तो चंद्रमा मानव के मन पर भी क्यों प्रभाव नहीं डाल सकता ? आधुनिक मनोविज्ञान ने सिद्ध किया है कि चंद्रमा के घटने बढ़ने से मानव के मन पर पूरा प्रभाव पड़ता है। आज यह बात सत्य सिद्ध हो चुकी है। पाश्चात्य जगत में तो मनोविक्षिप्त के लिये ल्यूनाटिक शब्द ही प्रचलित है। अतः इस सब को केवल अंधविश्वास कह कर नहीं नकारा जा सकता। बहरहाल,

मैं विषयांतर से बचते हुए पुनः चंद्र कुंडली पर आना चाहूंगी-

भारतीय ज्योतिष में चंद्रमा को मन का कारक कहा गया है, इसे मां का प्रतीक माना गया है। जब भी कोई परेशानी घेरती है उससे बचाव के लिये स्वाभाविक रूप से मानव मां को ही याद करता है।ओ मां ! हे मां ! यूं ही अकारण नहीं निकलते हमारे मुख से। लग्न कुंडली के साथ ही साथ चंद्र कुंडली बनाने की भी परंपरा बनी जो आज तक जारी है।लग्न शरीर है तो चंद्र मन है। शरीर बिना मन के कुछ नहीं वैसे ही बिना देह के मन को भी ठौर नहीं। अतः दोनों कुंडलियां अपने आप में महत्वपूर्ण हैं।

चंद्र कुंडली बनाना बहुत आसान है। देखें नीचे-

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मिथुन लग्न की उपरोक्त कुंडली में देखें कि चंद्र कहां किस भाव में बैठा है ? इसमें चौथेे भाव में चंद्र है जिसे समस्त ग्रहों सहित उठा कर प्रथम भाव यानि लग्न में रख देना है। फिर क्रमशःआगे के ग्रहों के राशि नंबर लिखते हुए उनमें ग्रहों को यथास्थान रखना है।

देखें चित्र-

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इस प्रकार चंद्र कुंडली के निर्माण के बाद चंद्र की स्थिति से सब ग्रहों के परिभ्रमण केअनुसार फलादेश व समाधान देखे जाते हैं। सामान्यतः भारतीय ज्योतिष व लालकिताब में चंद्र के दोषों को दूर करने के लिये मां अथवा मां के समान महिला की सेवा मान-सम्मान आदि का निर्देश किया गया है। यह उचित है क्योंकिआपको अपने जीवन में उन्नति व विकास के लिये केवल अपने प्रयासों के अलावा किसी की दुआओं व आर्शीवादों की भी आवश्यकता होती ही है। इसके लिये मां से बढ़ कर कौन ? निश्चय ही चंद्र के दोष दूर होने संभव हैं। और यदि चंद्र दूषित नहीं है तो आपकी कुंडली में अकेला चंद्र ही आपको अनेक विपत्तियों से बचाले जाने में वैसे ही सक्षम है जैसे एक मां अपने बच्चों को भरसक बचाती ही है। यहां चंद्र कुंडली के कुछ फलादेश देखें-

चंद्र कुंडली का लग्नेश यदि उच्च का हो, मित्र राशिस्थ या स्वराशिस्थ हो कर यदि प्रथम,
चतुर्थ, सप्तम, नवम या दशम भावस्थ हो तो अपने जातक को बुद्धिसंपन्न, धनवान, प्रसिद्ध व व्यवहार कुशल बनाता है। इसके विपरीत, यदि चंद्र कुंडली का लग्नेश पापग्रह से दृष्ट हो, पापी हो कर छठे, आठवें या बारहवें भावों में कहीं हो तो जातक का जीवन कष्टों से भरा होता बताया है।

-चंद्र लग्नेश यदि तृतीय व छठवें भाव में होतो इसे रोगादि की सूचना जानें।

-चंद्र लग्न से चतुर्थ भाव में बुध, पंचम में शुक्र, नवम में गुरू तथा दशम में मंगल विराजता हो तो ऐसा जातक उच्च पदस्थ तथा सब प्रकार से धनी-मानी होता बताया है।

-चंद्र लग्नेश जब नवम भाव के स्वामी ग्रह का मित्र हो कर दशम भाव में मौजूद हो तो जातक श्रेष्ठ आचार-विचार वाला, पूज्य-प्रतिष्ठित होता है।

-यदि चंद्र लग्न से चतुर्थ भाव में मंगल हो, दशम भाव में गुरू तथा ऐकादश भाव में शुक्र मौजूद हो तो जातक जननेता,
राज्य में प्रातिष्ठित पदाधिकारी होता कहा गया है।

इसके अतिरिक्त,

8- नवमांश  कुंडली-

थोड़ी चर्चा नवमांश कुंडली की भी करना आवश्यक है क्योंकि भारतीय पारंपरिक ज्योतिष में नवमांश कुंडली को भी अत्यंत महत्व दिया गया है। जहां लग्न शरीर का, चंद्र मन का तो नवमांश कुंडलीआत्मा का निरूपण करने वाली कही गई है। इसे जातक की जन्म कुंडली का सूक्ष्म शरीर भी कहा गया है।

पाराशर संहिता में जिक्र आया है कि जिस जातक की लग्नव नवमांश कुंडली में समान राशि होती है तब इसे वर्गोत्तम नवमांश कहा जाता है। ऐसा जातक न केवल शारीरिक वरन आत्मिक रूप से भी स्वस्थ कहा गया है। इसीके साथ,
यदि नवमांश कुंडली में अन्य ग्रह भी वर्गोत्तम हो रहे हों तो वे भी बली कहे गए हैं और वे भी अपने श्रेष्ठ फलदेने में सक्षम हो जाते बताए हैं।

कहा गया है कि जन्म कुंडली में यदि कोई ग्रह नीच का हो कर बैठा है किंतु नवमांश में वह उच्च काआ रहा हो तो उसके नीच फल न मिल कर उसके उच्च के श्रेष्ठ फल ही प्राप्त होते हैं। यह योग नीचभंग योग भी कहा जाता है। इसमें उक्त ग्रह अपने उच्च के ही फल देगा।

कोई ग्रह लग्न कुंडली में यदि पीड़ित, निर्बल या अशुभ बना हुआ हो किंतु नवमांश कुंडली में वही गृह शुभ,
अपने मित्र ग्रहों के प्रभाव में मौजूद हो तो इस ग्रह के खराब फल नहीं मिल कर श्रेष्ठ फल ही मिलेंगे।

देखें कि जातक की लग्न कुंडली में यदि चंद्र जिस राशि में विद्यमान हो और नवमांश कुंडली में चंद्र उससे अधिक बलवान राशि में बैठा हो तो नवमांश कुंडली के आधार पर ही जातक को चंद्र के फल कहे जाने चाहिये। देखा गया है कि लग्न कुंडली में विवाह योग न भी रहे थे, मगर नवमांश कुंडली में ये योग उपस्थित होने से जातक को विवाह व दाम्पत्य आदि के सुख उपलब्ध थे।

इस सबसे नवमांश कुंडली के महत्व का पता चलना स्वाभाविक है। वास्तव में ये दोनों ही कुंडलियां एक दूजे की सहायक ही हैं।

यह नवमांश कुंडली है क्या ?

नवमांश किसी राशि के नवम भाव को कहा जाता है कि जो अंश 20 कला का होता है। किसी भी राशि में नवमांश पूरे नौ बतलाए गए हैं। जैसे मेष राशि को लें,
मेष राशि में प्रथम नवमांश होगा मेष का, द्वितीय नवमांश होगा वृष का, तृतीय नवमांश होगा मिथुन का, इसी प्रकार क्रमशः चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम, अष्टम वअंत में नवम नवमांश होगा धनु का। यहां आ कर मेष राशि का नवमांश समाप्त होकर वृष राशि के नवमांश काआरंभ होता है। वृष राशि का नवमांश मेष के नवमांशअर्थात् धनु से अगली राशि मकर का होगा। यानि वृष राशि का प्रथम नवमांश मकर का होगा। जो क्रमशः कन्या राशि पर जा कर थमेगा। इसी प्रकार मिथुन राशि का नवमांश आरंभ होगा कन्या से आगे की राशि यानि तुला का। इसी प्रकार सब राशियों  के नवमांश निकाल कर फलादेश किया जाता है जो प्रायः विवाह के संदर्भ में ही होता है। फिर भी,
आचार्यों का मानना है कि बिना नवमांश देखे केवल जन्म कुंडली से किया गया फलादेश परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि ग्रहों की ठीक-ठीक स्थितियां, उनके योग आदि की जानकारी ले कर फलादेश करना अधिक महत्व रखता है।

आचार्यों का मत है कि नवमांश कुंडली में जब - - -

-सूर्य वर्गोत्तम बन रहा है तो जातक को प्रतिष्ठा दायक होता है। जातक किसी न किसी प्रकार राज्य या समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।

-चंद्र वर्गोत्तम होने पर जातक की स्मरण शक्ति बेहद अच्छी होती है। उसे मानसिक कार्य करने में आनंद आता है।जैसे कविता, उपन्यास रचना आदि।

-मंगल के वर्गोत्तम होने पर जातक को अतीव शक्ति व मानसिक, शारीरिक बल व उत्साह की प्राप्ति होती है।

-बुध जब वर्गोत्तम हो तो जातक की बुद्धि अच्छी जाग्रत होती है। उसे लेखन, पठन-पाठन में सफलता मिलती है।

-गुरू यदि वर्गोत्तम है तो जातक की धर्मनिष्ठा व ज्ञान में परिपूर्णता को बढ़ाता है।

-शुक्र के वर्गोत्तम होने से जातक आकर्षक, स्वस्थ व व्यक्तित्व में चमक-दमक भरेआकर्षण वाला होता है।

-शनि वर्गोत्तम होने पर जातक को कुछ बेफिक्र सा, लापरवाह सा बनाता है।

कुछ आचार्य नवमांश कुंडली से जीवन साथी का विचार करना बतलाते हैं। जबकि कुछआचार्यों का मत है कि नवमांश कुंडली से केवल जीवन साथी का ही विचार किया जाना चाहिये। इससे पति-पत्नी का स्वभाव, गुण,
पतिव्रत आदि का पता चलता है। इस मान्यता के अंतर्गत यदि नवमांश कुंडली का स्वामी कोई कू्रर या पापी ग्रह बन रहा है तो पति-पत्नी असुंदर, कर्कषा, लड़ाकू, बदमिजाज कही गई है। इसके विपरीत यदि यहां कोई सौम्य ग्रह हो तो पत्नी का अच्छे स्वभाव की व सुंदर, सुशील होना बताया गया है।

9- द्वादशांश कुंडली-

से जातक के माता-पिता के सुख-दुख का पता चलता है। जातक के माता-पिता के स्वभाव, स्नेह व शुभआचरण आदि के संदर्भ में सारावली में उल्लेख आया है कि द्वादशांश लग्न स्वामी यदि कोई शुभ ग्रह है तो वे निश्चय ही श्रेष्ठ होंगे। तथा इसके विपरीत द्वादशांश लग्नेश किसी अशुभ या क्रूर ग्रह के होने से विपरीत फलादेश होगा। इससे जातक को माता-पिता का सुख आदि का विचार किया जाता है।

हमें पता है कि जन्म कुंडली मानव जीवन के लगभग हर पक्ष के बारे में बताती है। तो जानने की बात है कि होरा कुंडली से मानव की संपत्ति आदि का विचार किया जाता है, द्रेष्काण कुंडली से जातक के भाई-बहन का विचार किया जाता है। नवमांश कुंडली से जातक के जीवन साथी के बारे में, द्वादशांश कुंडली से जातक के माता-पिता का तो त्रिशांश कुंडली से जातक के अनिष्ट, बीमारी, दुख, मृत्यु आदि का विचार करना आसान होता है।

आजकल कम्प्यूटर पर यदि जन्म समय आदि के विवरण सही डाले जाऐं तो ये सारी वर्ग कुंडलियां आसानी से बन जाती हैं।

अधिक सूक्ष्म चिंतन न करके मैं अब अगले पृष्ठों में राशियों के बारे में बताने जा रही हूं।

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आत्म-विकास के साथ-साथ लोक-कल्याण अर्थात मानव-कल्याण ही जयोतिष विद्या के विकास के मूल में विद्यमान माना गया है। इसमें माना गया है कि ग्रह वास्तव में किसी जातक को फल-कुफल देने के निर्धारक नहीं हैं बल्कि वे इसके सूचक अवश्य कहे जा सकते हैं। यानि ग्रह किसी मानव को सुख-दुख, लाभ-हानि नहीं पहुंचाते वरन वे मानव को आगे आने वाले सुख-दुख, हानि-लाभ व बाधाओं आदि के बारे में सूचना अवश्य देते हैं। मानव के कर्म ही उसके सुख व दुख के कारक कहे गए हैं। ग्रहों की दृष्टि मानो टॉर्चलाइट की तरह आती है कि अब तुम्हारे कैसे-कौन प्रकार के कर्मों के फल मिलने का समय आ रहा है। अतः मेरी नजर में ज्योतिष के ज्ञान का उपयोग यही है कि ग्रहों आदि से लगने वाले भावी अनुमान के आधार पर मानव सजग रहे। यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि केवल ग्रह फल-भोग ही जीवन होता तो फिर मानव के पुरूषार्थ के कोई मायने नहीं थे, तब इस शब्द का अस्तित्व ही न आया होता। हमारे आचार्य मानते थे कि पुरूषार्थ से अदृष्ट के दुष्प्रभाव कम किये जा सकते हैं, उन्हें टाला जा सकता है। इसमें ज्योतिष उसकी मदद करने में पूर्ण सक्षम है। उनका मत था कि अदृष्ट वहीं अत्यंत प्रबल होता है जहां पुरूषार्थ निम्न होता है। इसके विपरीत, जब अदृष्ट पर मानव प्रयास व पुरूषार्थ भारी पड़ जाते हैं तो अदृष्ट को हारना पड़ता है। प्राचीन आचार्यों के अभिमत के आगे शीश झुकाते हुए, उनके अभिमत को स्वीकारते हुए मेरा भी यही मानना है कि ज्योतिष विद्या से हमें आने वाले समय की, शुभ-अशुभ की पूर्व सूचना मिलती है जिसका हम सदुपयोग कर सकते हैं। हाथ पर हाथ धर कर बैठने की हमें कोई आवश्यकता नहीं कि सब कुछ अपने आप ही अच्छा या बुरा हो जाऐगा। यह कोई विधान रचने वाला शास्त्र नहीं कि बस् अमुक घटना हो कर ही रहेगी, बल्कि यह तो सूचना देने वाला एक शास्त्र है ! यह बार-बार दोहराने की बात नहीं कि आचार्यों, मुनियों, ऋषियों ने ज्योतिष में रूचि इसलिये ली होगी कि मानव को कर्तव्य की प्रेरणा मिले। आगत को भली-भांति जान कर वह अपने कर्म व कर्तव्य के द्वारा उस आगत से अनुकूलन कर सके ताकि जीवन स्वाभाविक गति से चलता रह सके।
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14 नवम्बर 2022
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सहज ज्योतिष सु-योग, राजयोग व धनयोग डॉ आशा चौधरी                       परम पूज्य मामाजी स्व श्री भैरवप्रसादजी ओझा                                         तथा गुरूदेव स्व.                       

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10- राशि चक्र व राशि प्रसंग- यह ज्योतिष का एक सर्वथा मूल सिद्धांत है। इसमें कुल बारह राशियां मानी गई हैं। इन्हें प्रायः सब जानते हैं। संत तुलसीदास कह गए हैं - बड़े भाग मानुस तन पायो ! इस मानुस तन के

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सहज ज्योतिष

16 नवम्बर 2022
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11- ज्योतिष में राशि का प्रयोजन- ज्योतिष में राशि प्रयोजन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि बारहों राशियों के स्वरूप केअनुसार ही इनके जातकों का उसी प्रकार का स्वरूप भी बताया गया है। किसी जन्म कुंडली मे

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सहज ज्योतिष

17 नवम्बर 2022
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16- जन्मकुंडली से शरीर का विचार- ज्योर्तिविज्ञान में माना गया है कि जातक के अंगों के परिमाण का विचार करने के लिये जन्म कुंडली को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है। -लग्नगत राशि को सिर, -द्वितीय भाव म

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17 नवम्बर 2022
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33- जन्म कुंडली में राजयोग इस अपनी पुस्तक मे बात करने जा रही हूँ  किन्हीं राजयोगों की। सु-योगों की ही तरह राजयोग भी वे योग होते हैं जो जातक को हर प्रकार से सुखी-संपन्न बनाते हैं। राजयोग अगर किसी कुं

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