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सहाय

8 अप्रैल 2022

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“ये मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुस्लमान मरे हैं...... ये कहो कि दो लाख इंसान मरे हैं...... और ये इतनी बड़ी ट्रेजडी नहीं कि दो लाख इंसान मरे हैं, ट्रेजडी अस्ल में ये है कि मारने और मरने वाले किसी भी खाते में नहीं गए। एक लाख हिंदू मार कर मुस्लमानों ने ये समझा होगा कि हिंदू मज़हब मर गया है, लेकिन वो ज़िंदा है और ज़िंदा रहेगा। इसी तरह एक लाख मुस्लमान क़त्ल करके हिंदूओं ने बग़लें बजाई होंगी कि इस्लाम ख़त्म होगया है, मगर हक़ीक़त आप के सामने है कि इस्लाम पर एक हल्की सी ख़राश भी नहीं आई...... वो लोग बे-वक़ूफ़ हैं जो समझते हैं कि बंदूक़ों से मज़हब शिकार किए जा सकते हैं... मज़हब, दीन, ईमान, धर्म, यक़ीन, अक़ीदत... ये जो कुछ भी है हमारे जिस्म में नहीं, रूह में होता है... छुरे, चाक़ू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकता है”?

मुमताज़ उस रोज़ बहुत ही पुर-जोश था। हम सिर्फ़ तीन थे जो उसे जहाज़ पर छोड़ने के लिए आए थे...... वो एक ग़ैर मुतय्यन अर्से के लिए हम से जुदा हो कर पाकिस्तान जा रहा था...... पाकिस्तान, जिस के वजूद के मुतअल्लिक़ हम में से किसी को वहम ओ गुमान भी न था।

हम तीनों हिंदू थे। मग़रिबी पंजाब में हमारे रिश्तेदारों को बहुत माली और जानी नुक़्सान उठाना पड़ा था। ग़ालिबन यही वजह थी कि मुमताज़ हम से जुदा हो रहा था। जुगल को लाहौर से ख़त मिला कि फ़सादाद में उस का चचा मारा गया है तो उस को बहुत सदमा हुआ। चुनांचे इसी सदमे के ज़ेर-ए-असर बातों बातों में एक दिन उस ने मुमताज़ से कहा। “मैं सोच रहा हूँ अगर हमारे मुहल्ले में फ़साद शुरू हो जाये तो मैं क्या करूंगा”।

मुमताज़ ने उस से पूछा। “क्या करोगे”?

जुगल ने बड़ी संजीदगी के साथ जवाब दिया। “मैं सोच रहा हूँ। बहुत मुम्किन है मैं तुम्हें मार डालूं”।

ये सुन कर मुमताज़ बिल्कुल ख़ामोश होगया और उस की ये ख़ामोश तक़रीबन आठ रोज़ तक क़ायम रही और उस वक़्त टूटी जब उस ने अचानक हमें बताया कि वो पौने चार बजे समुंद्री जहाज़ से कराची जा रहा है”।

हम तीनों में से किसी ने उस के इस इरादे के मुतअल्लिक़ बात चीत न की। जुगल को इस बात का शदीद एहसास था कि मुमताज़ की रवानगी का बाइस उस का ये जुमला है। “मैं सोच रहा हूँ। बहुत मुम्किन है, मैं तुम्हें मार डालूं” ग़ालिबन वो अब तक यही सोच रहा था कि वो मुश्तइल हो कर मुमताज़ को मार सकता है य नहीं… मुमताज़ को जो कहा उस का जिगरी दोस्त था...... यही वजह है कि वो हम तीनों में सब से ज़्यादा ख़ामोश था। लेकिन अजीब बात है कि मुमताज़ ग़ैरमामूली तौर पर बातूनी होगया था...... ख़ास तौर पर रवानगी से चंद घंटे पहले।

सुबह उठते ही उस ने पीना शुरू करदी। अस्बाब वग़ैरा कुछ इस अंदाज़ से बांधा और बंधवाया जैसे वो कहीं सैर-ओ-तफ़रीह के लिए जा रहा है...... ख़ुद ही बात करता था और ख़ुद ही हँसता था।कोई और देखता तो समझता कि वो बंबई छोड़ने में ना-क़ाबिल-ए-बयान मसर्रत महसूस कर रहा है, लेकिन हम तीनों अच्छी तरह जानते थे कि वो सिर्फ़ अपने जज़्बात छुपाने के लिए हमें और अपने आप को धोका देने की कोशिश कर रहा है।

मैंने बहुत चाहा कि उस से उस की यक-लख़्त रवानगी के मुतअल्लिक़ बात करूं। इशारतन मैंने जुगल से भी कहा कि वो बात छेड़े मगर मुमताज़ ने हमें कोई मौक़ा ही न दिया।

जुगल तीन चार पैग पी कर और भी ज़्यादा ख़ामोश होगया और दूसरे कमरे में लेट गया। मैं और बृजमोहन उस के साथ रहे। उसे कई बिल अदा करने थे। डाक्टरों की फीसें देनी थीं। लांड्री से कपड़े लाने थे...... ये सब काम उस ने हंसते खेलते किए, लेकिन जब उस ने नाके के होटल के बाज़ू वाली दुकान से एक पान लिया तो उस की आँखों में आँसू आगए। बृजमोहन के कांधे पर हाथ रख कर वहां से चलते हुए उस ने हौले से कहा। “याद है बृज... आज से दस बरस पहले जब हमारा हाल बहुत पुतला था, गोबिंद ने हमें एक रुपया उधार दिया था।

रास्ते में मुमताज़ ख़ामोश रहा। मगर घर पहुंचते ही उस ने फिर बातों का ला-मुतनाही सिलसिला शुरू कर दिया, ऐसी बातों का जिन का सर था न पैर, लेकिन वो कुछ ऐसी पुर ख़ुलूस थीं कि मैं और बृजमोहन बराबर इन में हिस्सा लेते रहे। जब रवानगी का वक़्त क़रीब आया तो जुगल भी शामिल होगया, लेकिन जब टैक्सी बंदरगाह की तरफ़ चली तो सब ख़ामोश होगए।

मुमताज़ की नज़रें बंबई के वसीअ और कुशादा बाज़ारों को अल-विदा कहती रहतीं। हत्ता कि टैक्सी अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद तक पहुंच गई। बेहद भीड़ थी। हज़ारहा रिफ़ियुजी जा रहे थे। ख़ुशहाल बहुत कम और बदहाल बहुत ज़्यादा...... बेपनाह हुजूम था लेकिन मुझे ऐसा महसूस होता था कि अकेला मुमताज़ जा रहा है। हमें छोड़कर ऐसी जगह जा रहा है जो उस की देखी भाली नहीं। जो उस के मानूस बनाने पर भी अजनबी रहेगी। लेकिन ये मेरा अपना ख़याल था। मैं नहीं कह सकता कि मुमताज़ क्या सोच रहा था।

जब केबिन में सारा सामान चला गया तो मुमताज़ हमें अर्शे पर ले गया...... उधर जहां आसमान और समुंद्र आपस में मिल रहे थे, मुमताज़ देर तक देखता रहा, फिर उस ने जुगल का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा। ये महज़ फ़रेब-ए-नज़र है...... आसमान और समुंद्र का आपस में मिलना... लेकिन ये फ़रेब-ए- नज़र किस क़दर दिलकश है...... ये मिलाप”!

जुगल ख़ामोश रहा। ग़ालिबन उस वक़्त भी उस के दिल ओ दिमाग़ में उस की ये कही हुई बात चुटकियां ले रही थी। मैं सोच रहा हूँ। बहुत मुम्किन है मैं तुम्हें मार डालूं”।

मुमताज़ ने जहाज़ को बार से ब्रांडी मंगवाई, क्यूँकि वो सुबह से यही पी रहा था...... हम चारों गिलास हाथ में लिए जंगले के साथ खड़े थे। रिफ़ियुजी धड़ा धड़ जहाज़ में सवार होरहे थे और क़रीब क़रीब साकिन-ए-समुंद्र पर आबी परिंदे मंडला रहे थे।

जुगल ने दफ़्अतन एक ही जर्रे में अपना गिलास ख़त्म किया और निहायत ही भोंडे अंदाज़ में मुमताज़ से कहा। “मुझे माफ़ करदेना मुमताज़...... मेरा ख़याल है मैंने उस रोज़ तुम्हें दुख पहुंचाया था”।

मुमताज़ ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद जुगल से सवाल किया। “जब तुम ने कहा था मैं सोच रहा हूँ...... बहुत मुम्किन है मैं तुम्हें मार डालूँ...... क्या उस वक़्त वाक़ई तुम ने यही सोचा था...... नेक दिल्ली से इसी नतीजे पर पहुंचे थे”।

जुगल ने इस्बात में सर हिलाया “...... लेकिन मुझे अफ़सोस हेच”

“तुम मुझे मार डालते तो तुम्हें ज़्यादा अफ़सोस होता”। मुमताज़ ने बड़े फ़लसफ़ियाना अंदाज़ में कहा। “लेकिन सिर्फ़ इस सूरत में अगर तुम ने ग़ौर किया होता कि तुम ने मुमताज़ को...... एक मुस्लमान को...... एक दोस्त को नहीं बल्कि एक इंसान को मारा है...... वो अगर हरामज़ादा था तो तुम ने उस की हरामज़दगी को नहीं बल्कि ख़ुद उस को मार डाला है...... वो अगर मुस्लमान था तो तुम ने उस की मुस्लमानी को नहीं उस की हस्ती को ख़त्म किया है...... अगर उस की लाश मुस्लमानों के हाथ आती तो क़ब्रिस्तान में एक क़ब्र का इज़ाफ़ा हो जाता। लेकिन दुनिया में एक इंसान कम हो जाता”।

थोड़ी देर ख़ामोश रहने और कुछ सोचने के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया। “हो सकता है, मेरे हम-मज़हब मुझे शहीद कहते, लेकिन ख़ुदा की क़सम अगर मुम्किन होता तो मैं क़ब्र फाड़ कर चलाना शुरू कर देता। मुझे शहादत का ये रुतबा क़ुबूल नहीं...... मुझे ये डिग्री नहीं चाहिए जिस का इम्तिहान मैंने दिया ही नहीं... लाहौर में तुम्हारे चचा को एक मुस्लमान ने मार डाला...... तुम ने ये ख़बर बंबई में सुनी और मुझे क़त्ल कर दिया...... बताओ, तुम और म किस तम्ग़ के मुस्तहिक़ हैं?...... और लाहौर में तुम्हारा चचा और उस का क़ातिल किस ख़ुल्लत का हक़दार है...... मैं तो ये कहूंगा, मरने वाले कुत्ते की मौत मरे और मारने वालों ने बेकार......बिल्कुल बेकार अपने हाथ ख़ून से रंगे......”

बातें करते करते मुमताज़ बहुत जज़्बाती होगया। लेकिन इस ज़्यादती में ख़ुलूस बराबर का था। मेरे दिल पर ख़ुसूसन उस की इस बात का बहुत असर हुआ कि मज़हब, दीन, ईमान, यक़ीन, धर्म, अक़ीदत...... ये जो कुछ भी है हमारे जिस्म के बजाय रूह में होता है। जो छुरे, चाक़ू और गोली से फ़ना नहीं किया जा सकता, चुनांचे मैंने उस से कहा “तुम बिल्कुल ठीक कहते हो”।

ये सुन कर मुमताज़ ने अपने ख़यालात का जायज़ा लिया और क़दरे से चबनी से कहा। “नहीं बिल्कुल ठीक नहीं...... मेरा मतलब है कि ये सब ठीक तो है। लेकिन शायद मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, अच्छी तरह अदा नहीं करसका...... मज़हब से मेरी मुराद, ये मज़हब नहीं, ये धर्म नहीं, जिस में हम में से निनानवे फ़ीसदी मुबतला हैं...... मेरी मुराद इस ख़ास चीज़ से है जो एक इंसान को दूसरे इंसान के मुक़ाबले में जुदागाना हैसियत बख़्शती है...... वो चीज़ जो इंसान को हक़ीक़त में इंसान साबित करती है...... लेकिन ये चीज़ क्या है?... अफ़सोस है कि मैं इसे हथेली पर रख कर नहीं दिखा सकता” ये कहते कहते एक दम उस की आँखों में चमक सी पैदा हुई और उस ने जैसे ख़ुद से पूछना शुरू किया “लेकिन उस में वो कौन सी ख़ास बात थी?... कट्टर हिंदू था... पेशा निहायत ही ज़लील लेकिन इस के बावजूद उस की रूह किस क़दर रौशन थी”?

मैंने पूछा। “किस की”?

“एक भड़वे की”।

हम तीनों चौंक पड़े। मुमताज़ के लहजे में कोई तकल्लुफ़ नहीं था, इस लिए मैंने संजीदगी से पूछा। “एक भड़वे की”?

मुमताज़ ने इस्बात में सर हिलाया। “मुझे हैरत है कि वो कैसा इंसान था और ज़्यादा हैरत इस बात की है कि वो उर्फ-ए-आम में एक भड़वा था...... औरतों का दलाल… लेकिन उस का ज़मीर बहुत साफ़ था”।

मुमताज़ थोड़ी देर के लिए रुक गया, जैसे वो पुराने वाक़ियात अपने दिमाग़ में ताज़ा कर रहा है...... चंद लमहात के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया “उस का पूरा नाम मुझे याद नहीं... कुछ सहाय था… बनारस का रहने वाला। बहुत ही सफ़ाई पसंद। वो जगह जहां वो रहता था गो बहुत ही छोटी थी मगर उस ने बड़े सलीक़े से उसे मुख़्तलिफ़ ख़ानों में तक़सीम कर रख्खा था...... पर्दे का माक़ूल इंतिज़ाम था। चारपाईआं और पलंग नहीं थे। लेकिन गदीले और गाव तकिये मौजूद थे । चादरें और ग़िलाफ़ वग़ैरा हमेशा उजले रहते थे। नौकर मौजूद था मगर सफ़ाई वो ख़ुद अपने हाथ से करता था...... सिर्फ़ सफ़ाई ही नहीं, हर काम... और वो सर से बला कभी नहीं टालता था। धोका और फ़रेब नहीं करता था... रात ज़्यादा गुज़र गई है और आस पास से पानी मिली शराब मिलती है तो वो साफ़ कह देता था कि साहब अपने पैसे ज़ाए न कीजीए... अगर किसी लड़के मुतअल्लिक़ उसे शक है तो वो छूपाता नहीं था... और तो और उस ने मुझे ये भी बता दिया था कि वो तीन बरस के अर्से में बीस हज़ार रुपये कमा चुका है...... हर दस में से ढाई कमीशन के ले लेकर...... उसे सिर्फ़ दस हज़ार और बनाने थे... मालूम नहीं सिर्फ़ दस हज़ार और क्यूँ , ज़्यादा क्यूँ नहीं...... उस ने मुझ से कहा था कि तीस हज़ार रुपये पूरे करके वो वापिस बनारस चला जाएगा और बज़्ज़ाज़ी की दुकान खोलेगा...... मैं ये भी नहीं कह सकता कि वो सिर्फ़ बज़्ज़ाज़ी ही की दुकान खोलने का आर्ज़ूमंद क्यूँ था”।

मैं यहां तक सुन चुका तो मेरे मुँह से निकला “अजीब ओ ग़रीब आदमी था”।

मुमताज़ ने अपनी गुफ़्तुगु जारी रख्खी “...... मेरा ख़याल था कि वो सर-ता-पा बनावट है... एक बहुत बड़ा फ़राड है। कौन यक़ीन कर सकता है कि वो उन तमाम लड़कीयों को जो उस के धंदे में शरीक थीं। अपनी बेटियां समझता था। ये भी उस वक़्त मेरे लिए बईद अज़ वहम था कि उस ने हर लड़की के नाम पर पोस्ट ऑफ़िस में सेविंग एकाऊंटस खोल रख्खा था और हर महीने कुल आमदनी वहां जमा कराता था। और ये बात तो बिल्कुल ना-क़ाबिल-ए-यक़ीन थी कि वो दस बारह लड़कीयों के खाने पीने का ख़र्च अपनी जेब से अदा करता है ...... उस की हर बात मुझे ज़रूरत से ज़्यादा बनावटी मालूम होती थी...... एक दिन मैं उस के यहां गया तो उस ने मुझ से कहा, मीना और सकीना दोनों छुट्टी पर हैं...... मैं हर हफ़्ते इन दोनों को छुट्टी दे देता हूँ ताकि बाहर जा कर किसी होटल में मास वग़ैरा खा सकें...... यहां तो आप जानते हैं सब विष्णू हैं...... मैं ये सुन कर दिल ही दिल में मुस्कुराया कि मुझे बना रहा है...... एक दिन उस ने मुझे बताया कि अहमदाबाद की उस हिंदू लड़की ने जिस की शादी उस ने एक मुस्लमान गाहक से करा दी थी, लाहौर से ख़त लिखा है कि दाता साहब के दरबार में उस ने एक मिन्नत मानी थी जो पूरी हुई। अब उस ने सहाय के लिए मिन्नत मानी है कि जल्दी जल्दी उस के तीस हज़ार रुपये पूरे हों और वो बनारस जा कर बज़्ज़ाज़ी की दुकान खोल सके। ये सुन कर तो मैं हंस पड़ा। मैंने सोचा, चूँकि मैं मुस्लमान हूँ। इस लिए मुझे ख़ुश करने की कोशिश कर रहा है”।

मैंने मुमताज़ से पूछा। “तुम्हारा ख़याल ग़लत था”?

“बिल्कुल…… उस के क़ौल-ओ-फे़अल में कोई बोअद नहीं था... हो सकता है इस में कोई ख़ामी हो, बहुत मुम्किन है उस से अपनी ज़िंदगी में कई लग़ज़िशें सरज़द हुई हों... मगर वो एक बहुत ही उम्दा इंसान था”।

जुगल ने सवाल किया। “ये तुम्हें कैसे मालूम हुआ”!

“उस की मौत पर” ये कह कर मुमताज़ कुछ अर्से के लिए ख़ामोश होगया। थोड़ी देर के बाद उस ने उधर देखना शुरू किया जहां आसमान और समुंद्र एक धुँदली सी आग़ोश में सिमटे हुए थे। “फ़सादाद शुरू हो चुके थे......मैं अलस्सबह उठ कर भिंडी बाज़ार से गुज़र रहा था...... कर्फ़्यू के बाइस बाज़ार में आमद-ओ-रफ़्त बहुत ही कम थी। ट्रेम भी नहीं चल रही थी... टैक्सी की तलाश में चलते चलते जब मैं जय जय हस्पताल के पास पहुंचा, तो फुटपाथ पर एक आदमी को मैंने बड़े से टोकरे के पास घटड़ी सी बने हुए देखा। मैंने सोचा कोई पाटी वाला(मज़दूर) सो रहा है... लेकिन जब मैंने पत्थर के टुकड़ों पर ख़ून के लोथड़े देखे तो रुक गया... वारदात क़त्ल की थी, मैंने सोचा अपना रास्ता लूं, मगर लाश में हरकत पैदा हुई... में फिर रुक गया आस पास कोई न था। मैंने झुक कर उस की तरफ़ देखा। मुझे सहाय का जाना पहचाना चेहरा नज़र आया, मगर ख़ून के धब्बों से भरा हवा में उस के पास फुटपाथ पर बैठ गया और ग़ौर से देखा...... उस की टूल की सफ़ेद क़मीज़ जो हमेशा बेदाग़ हुआ करती थी लहू से लुथड़ी हुई थी... ज़ख़्म शायद पिस्लियों के पास था। उस ने हौले हौले कराहना शुरू कर दिया तो मैंने एहतियात से उस का कंधा पकड़ कर हिलाया जैसे किसी सोते को जगाया जाता है। एक दो बार मैंने उस को ना-मुकम्मल नाम से भी पुकारा...... मैं उठ कर जाने ही वाला था कि उस ने अपनी आँखें खोलीं...... देर तक वो इन अध-खुली आँखों से टकटकी बांधे मुझे देखता रहा...... फिर एक दम उस के सारे बदन में तशन्नुज की सी कैफ़ियत पैदा हुई और उस ने मुझे पहचान कर कहा। “आप आप”?

मैंने उस से तले ऊपर बहुत सी बातें पूछना शुरू करदी । वो कैसे इधर आया। किस ने उस को ज़ख़्मी किया। कब से वो फुटपाथ पर पड़ा है...... सामने हस्पताल है, क्या मैं वहां इत्तिला दूं?

“उस में बोलने की ताक़त नहीं थी। जब मैंने सारे सवाल कर डाले तो कराहते हुए उस ने बड़ी मुश्किल से ये अलफ़ाज़ कहे। मेरे दिन पूरे हो चुके थे...... भगवान को यही मंज़ूर था”!

भगवान को जाने क्या मंज़ूर था, लेकिन मुझे ये मंज़ूर नहीं था कि मैं मुस्लमान हो कर, मुस्लमानों के इलाक़े में एक आदमी को जिस के मुतअल्लिक़ मैं जानता था कि हिंदू है, इस एहसास के साथ मरते देखूं कि इस मारने वाला मुस्लमान था और आख़िरी वक़्त में उस की मौत के सिरहाने जो आदमी खड़ा था, वो भी मुस्लमान था...... मैं डरपोक तो नहीं, लेकिन उस वक़्त मेरी हालत डरपोकों से बदतर थी। एक तरफ़ ये ख़ौफ़ दामन-गीर था, मुम्किन है मैं ही पकड़ा जाऊं, दूसरी तरफ़ ये डर था कि पकड़ा न गया तो पूछ पुछ के लिए धीर लिया जाऊंगा...... एक बार ख़याल आया, अगर मैं उसे हस्पताल ले गया तो क्या पता है अपना बदला लेने की ख़ातिर मुझे फंसा दे। सोचे, मरना तो है, क्यूँ न इसे साथ लेकर मरूं...... इसी क़िस्म की बातें सोच कर मैं चलने ही वाला था...... बल्कि यूं कहिए कि भागने वाला था कि सहाय ने मुझे पुकारा...... मैं ठहर गया...... न ठहरने के इरादे के बावजूद मेरे क़दम रुक गए...... मैंने उस की तरफ़ इस अंदाज़ से देखा, गोया उस से कह रहा हूँ, जल्दी करो मियां मुझे जाना है...... उस ने दर्द की तकलीफ़ से दोहरा होते हुए बड़ी मुश्किलों से अपनी क़मीज़ के बटन खोले और अंदर हाथ डाला, मगर जब कुछ और करने की उस में हिम्मत न रही तो मुझ से कहा”......नीचे बंडी है...... उधर की जेब में कुछ ज़ेवर और बारह सौ रुपये हैं...... ये...... ये सुलताना का माल है...... मैंने ...... मैंने एक दोस्त के पास रख्खा हुआ था...... आज उसे...... आज उसे भेजने वाला था...... क्यूँकि...... क्यूँकि आप जानते हैं ख़तरा बहुत बढ़ गया है...... आप उसे दे दीजीएगा और...... कहिएगा फ़ौरन चली जाये...... लेकिन...... अपना ख़याल रखीएगा”!

मुमताज़ ख़ामोश होगया, लेकिन मुझे ऐसा महसूस हुआ कि उस की आवाज़, सहाय की आवाज़ में जो जय जय हस्पताल के फुटपाथ पर उभरी थी, दूर, उधर जहां आसमान और समुंद्र एक धुँदली सी आग़ोश में मुदग़म थे, हल हो रही है।

जहाज़ ने वस्ल दिया तो मुमताज़ ने कहा। “मैं सुलताना से मिला...... उस को ज़ेवर और रुपया दिया तो उस की आँखों में आँसू आगए”।

जब हम मुमताज़ से रुख़्सत हो कर नीचे उतरे तो वो अर्शे पर जंगले के साथ खड़ा था...... उस का दाहिना हाथ हिल रहा था...... मैं जुगल से मुख़ातब हुआ। “क्या तुम्हें ऐसा मालूम नहीं होता कि मुमताज़, सहाय की रूह को बुला रहा है...... हम-सफ़र बनाने के लिए”?

जुगल ने सिर्फ़ इतना कहा। “काश, मैं सहाय की रूह होता”!

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घोगा

8 अप्रैल 2022
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मैं जब हस्पताल में दाख़िल हुआ तो छट्ठे रोज़ मेरी हालत बहुत ग़ैर होगई। कई रोज़ तक बे-होश रहा। डाक्टर जवाब दे चुके थे लेकिन ख़ुदा ने अपना करम किया और मेरी तबीयत सँभलने लगी। इस दौरान की मुझे अक्सर बातें या

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चुग़द

8 अप्रैल 2022
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लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा। सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लचर

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जानकी

8 अप्रैल 2022
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पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पिशावर से अज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उस को या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा

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तरक़्क़ी पसंद

8 अप्रैल 2022
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जोगिंदर सिंह के अफ़साने जब मक़बूल होना शुरू हुए तो उसके दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो मशहूर अदीबों और शाइरों को अपने घर बुलाए और उन की दावत करे। उस का ख़याल था कि यूं उस की शौहरत और मक़बूलियत और भी ज़्

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दीवाना शायर

8 अप्रैल 2022
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[अगर मुक़द्दस हक़ दुनिया की मुतजस्सिस निगाहों से ओझल कर दिया जाये। तो रहमत हो उस दीवाने पर जो इंसानी दिमाग़ पर सुनहरा ख़्वाब तारी कर दे।] मैं आहों का ब्योपारी हूँ, लहू की शायरी मेरा काम है, चमन की मा

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निक्की

8 अप्रैल 2022
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तलाक़ लेने के बाद वो बिलकुल नचनत होगई थी। अब वो हर रोज़ की वानिता कुल कुल और मार कटाई नहीं थे। निक्की बड़े आराम-ओ-इत्मिनान से अपना गुज़र औक़ात कर रही थी। ये तलाक़ पूरे दस बरस के बाद हुई थी। निक्की का श

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परी

8 अप्रैल 2022
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कश्मीरी गेट दिल्ली के एक फ़्लैट में अनवर की मुलाक़ात परवेज़ से हुई। वो क़तअन मुतअस्सिर न हुआ। परवेज़ निहायत ही बेजान चीज़ थी। अनवर ने जब उस की तरफ़ देखा और उस को आदाब अर्ज़ कहा तो उस ने सोचा “ये क्या है औरत

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पसीना

8 अप्रैल 2022
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“मेरे अल्लाह!............... आप तो पसीने में शराबोर हो रहे हैं।” “नहीं। कोई इतना ज़्यादा तो पसीना नहीं आया।” “ठहरिए में तौलिया ले कर आऊं।” “तौलिए तो सारे धोबी के हाँ गए हुए हैं।” “तो मैं अपने दोपट्

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पढ़े कलिमा

8 अप्रैल 2022
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ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह...... आप मुस्लमान हैं यक़ीन करें मैं जो कुछ कहूंगा, सच्च कहूंगा। पाकिस्तान का इस मुआमले से कोई तअल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्नाह के लिए मैं जान देने के लिए तैय

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पीरन

8 अप्रैल 2022
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ये उस ज़माने की बात है जब मैं बेहद मुफ़लिस था। बंबई में नौ रुपये माहवार की एक खोली में रहता था जिस में पानी का नल था न बिजली। एक निहायत ही ग़लीज़ कोठड़ी थी जिस की छत पर से हज़ारहा खटमल मेरे ऊपर गिरा करते थ

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पढ़े कलिमा

8 अप्रैल 2022
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ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह...... आप मुस्लमान हैं यक़ीन करें मैं जो कुछ कहूंगा, सच्च कहूंगा। पाकिस्तान का इस मुआमले से कोई तअल्लुक़ नहीं। क़ाइद-ए-आज़म जिन्नाह के लिए मैं जान देने के लिए तैय

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फ़रिश्ता

8 अप्रैल 2022
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सुर्ख़ खुरदरे कम्बल में अताउल्लाह ने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और अपनी मुंदी हुई आँखें आहिस्ता आहिस्ता खोलीं। कुहरे की दबीज़ चादर में कई चीज़ें लिपटी हुई थीं जिन के सही ख़द्द-ओ-ख़ाल नज़र नहीं आते थे। एक लं

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फाहा

8 अप्रैल 2022
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गोपाल की रान पर जब ये बड़ा फोड़ा निकला तो इस के औसान ख़ता हो गए। गरमियों का मौसम था। आम ख़ूब हुए थे। बाज़ारों में, गलियों में, दुकानदारों के पास, फेरी वालों के पास, जिधर देखो, आम ही आम नज़र आते। लाल, पीले

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फुंदने

8 अप्रैल 2022
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कोठी से मुल्हक़ा वसीअ-ओ-अरीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेर

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बलवंत सिंह मजीठिया

8 अप्रैल 2022
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शाह साहब से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो हम फ़ौरन बे-तकल्लुफ़ हो गए। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि वो सय्यद हैं और मेरे दूर-दराज़ के रिश्तेदार भी हैं। वो मेरे दूर या क़रीब के रिश्तेदार कैसे हो सकते थे, इस के मु

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बाई बाई

8 अप्रैल 2022
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नाम उस का फ़ातिमा था पर सब उसे फातो कहते थे बानिहाल के दुर्रे के उस तरफ़ उस के बाप की पन-चक्की थी जो बड़ा सादा लौह मुअम्मर आदमी था। दिन भर वो इस पन चक्की के पास बैठी रहती। पहाड़ के दामन में छोटी सी जगह थ

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बादशाहत का ख़ात्मा

8 अप्रैल 2022
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टेलीफ़ोन की घंटी बिजी। मनमोहन पास ही बैठा था। उस ने रीसीवर उठाया और कहा “हेलो....... फ़ौर फ़ौर फ़ौर फाईव सेवन” दूसरी तरफ़ से पतली सी निस्वानी आवाज़ आई। “सोरी....... रोंग नंबर” मनमोहन ने रीसीवर रख दिया और

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बिलाउज़

8 अप्रैल 2022
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कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था। उस को ऐसा महसूस होता था कि इस का वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था। काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था। ऐसा दर्द

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सरकण्डों के पीछे

8 अप्रैल 2022
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कौन सा शहर था, इस के मुतअल्लिक़ जहां तक में समझता हूँ, आप को मालूम करने और मुझे बताने की कोई ज़रूरत नहीं ।बस इतना ही कह देना काफ़ी है कि वो जगह जो इस कहानी से मुतअल्लिक़ है, पेशावर के मुज़ाफ़ात में थी। सरहद

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मिसिज़ गुल

8 अप्रैल 2022
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मैंने जब उस औरत को पहली मर्तबा देखा तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैंने लेमूँ निचोड़ ने वाला खटका देखा है। बहुत दुबली पतली, लेकिन बला की तेज़। उस का सारा जिस्म सिवाए आँखों के इंतिहाई ग़ैर निस्वानी था। ये आँख

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मलबे का ढेर

8 अप्रैल 2022
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कामिनी के ब्याह को अभी एक साल भी न हुआ था कि उस का पति दिल के आरिज़े की वजह से मर गया और अपनी सारी जायदाद उस के लिए छोड़ गया। कामिनी को बहुत सदमा पहुंचा, इस लिए कि वो जवानी ही में बेवा हो गई थी। उस की

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महमूदा

8 अप्रैल 2022
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मुस्तक़ीम ने महमूदा को पहली मर्तबा अपनी शादी पर देखा। आरसी मसहफ़ की रस्म अदा हो रही थी कि अचानक उस को दो बड़ी बड़ी.......ग़ैर-मामूली तौर पर बड़ी आँखें दिखाई दीं.......ये महमूदा की आँखें थीं जो अभी तक कुंवार

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मिसेज़ डी सिल्वा

8 अप्रैल 2022
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बिलकुल आमने सामने फ़्लैट थे। हमारे फ़्लैट का नंबर तेरह था। उस के फ़्लैट का चौदह। कभी कोई सामने का दरवाज़ा खटखटाता तो मुझे यही मालूम होता कि हमारे दरवाज़े पर दस्तक होरही है। इसी ग़लतफ़हमी में जब मैंने एक

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मेरा हमसफ़र

9 अप्रैल 2022
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प्लेटफार्म पर शहाब, सईद और अब्बास ने एक शोर मचा रखा था। ये सब दोस्त मुझे स्टेशन पर छोड़ने के लिए आए थे, गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी कि शहाब ने बढ़ कर पाएदान पर चढ़ते हुए मुझ से

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मेरा और उसका इंतिक़ाम

9 अप्रैल 2022
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घर में मेरे सिवा कोई मौजूद नहीं था। पिता जी कचहरी में थे और शाम से पहले कभी घर आने के आदी न थे। माता जी लाहौर में थीं और मेरी बहन बिमला अपनी किसी सहेली के हाँ गई थी! मैं तन्हा अपने कमरे में बैठा किताब

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वह लड़की

9 अप्रैल 2022
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सवा-चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उस ने बालकनी में आ कर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक साया-दार दरख़्त की छांव में आलती पाल

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वो ख़त जो पोस्ट न किये गए

9 अप्रैल 2022
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हव्वा की एक बेटी के चंद ख़ुतूत जो उस ने फ़ुर्सत के वक़्त मुहल्ले के चंद लोगों को लिखे। मगर इन वजूह की बिना पर पोस्ट न किए गए जो इन ख़ुतूत में नुमायां नज़र आती हैं। (नाम और मुक़ाम फ़र्ज़ी हैं) पहला ख़त म

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शादी

9 अप्रैल 2022
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जमील को अपना शैफर लाइफ-टाइम क़लम मरम्मत के लिए देना था। उस ने टेलीफ़ोन डायरेक्ट्री में शैफर कंपनी का नंबर तलाश किया। फ़ोन करने से मालूम हुआ कि उन के एजेंट मैसर्ज़ डी, जे, समतोइर हैं जिन का दफ़्तर ग्रीन

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सड़क के किनारे

9 अप्रैल 2022
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“यही दिन थे......... आसमान उस की आँखों की तरह ऐसा ही नीला था जैसा कि आज है। धुला हुआ, निथरा हुआ......... और धूप भी ऐसी ही कनकनी थी......... सुहाने ख़्वाबों की तरह। मिट्टी की बॉस भी ऐसी ही थी जैसी कि इ

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शारदा

9 अप्रैल 2022
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नज़ीर ब्लैक मार्कीट से विस्की की बोतल लाने गया। बड़क डाकख़ाने से कुछ आगे बंदरगाह के फाटक से कुछ इधर सिगरेट वाले की दुकान से उस को स्काच मुनासिब दामों पर मिल जाती थी। जब उस ने पैंतीस रुपये अदा करके काग़

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सिराज

9 अप्रैल 2022
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नागपाड़ा पुलिस चौकी के उस तरफ़ जो छोटा सा बाग़ है। उस के बिलकुल सामने ईरानी के होटल के बाहर, बिजली के खंबे के साथ लग कर ढूंढ़ो खड़ा था। दिन ढले, मुक़र्ररा वक़्त पर वो यहां आ जाता और सुबह चार बजे तक अपने धंद

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हज्ज-ए-अकबर

9 अप्रैल 2022
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इम्तियाज़ और सग़ीर की शादी हुई तो शहर भर में धूम मच गई। आतिश बाज़ियों का रिवाज बाक़ी नहीं रहा था मगर दूल्हे के बाप ने इस पुरानी अय्याशी पर बे-दरेग़ रुपया सर्फ़ किया। जब सग़ीर ज़ेवरों से लदे फंदे सफ़ैद बुर्र

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सजदा

9 अप्रैल 2022
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गिलास पर बोतल झुकी तो एक दम हमीद की तबीयत पर बोझ सा पड़ गया। मलिक जो उसके सामने तीसरा पैग पी रहा था फ़ौरन ताड़ गया कि हमीद के अंदर रुहानी कश्मकश पैदा होगई है। वो हमीद को सात बरस से जानता था, और इन सात बर

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लाइसेंस

9 अप्रैल 2022
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अब्बू कोचवान बड़ा छैल छबीला था। उस का ताँगा घोड़ा भी शहर में नंबर वन था। कभी मामूली सवारी नहीं बिठाता था। उस के लगे बंधे गाहक थे जिन से उस को रोज़ाना दस पंद्रह रुपय वसूल हो जाते थे जो अब्बू के लिए काफ़ी थ

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हाफ़िज़ हुसैन दीन

9 अप्रैल 2022
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हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त रमज़ान अली था, जिस ने ज़फ़र शाह से उस का तआरुफ़ कराया। वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उन की

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संतर पंच

9 अप्रैल 2022
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मैं लाहौर के एक स्टूडियो में मुलाज़िम हुआ जिस का मालिक मेरा बंबई का दोस्त था उस ने मेरा इस्तिक़बाल क्या मैं उस की गाड़ी में स्टूडियो पहुंचा था बग़लगीर होने के बाद उस ने अपनी शराफ़त भरी मोंछों को जो ग़ालिबन

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शैदा

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शैदे के मुतअल्लिक़ अमृतसर में ये मशहूर था कि वो चट्टान से भी टक्कर ले सकता है उस में बला की फुर्ती और ताक़त थी गो तन-ओ-तोश के लिहाज़ से वो एक कमज़ोर इंसान दिखाई देता था लेकिन अमृतसर के सारे गुंडे उस से ख़ौ

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राम खेलावन

9 अप्रैल 2022
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खटमल मारने के बाद में ट्रंक में पुराने काग़ज़ात देख रहा था कि सईद भाई जान की तस्वीर मिल गई। मेज़ पर एक ख़ाली फ़्रेम पड़ा था....... मैंने इस तस्वीर से उस को पुर कर दिया और कुर्सी पर बैठ कर धोबी का इंतिज़ार

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रहमत-ए-खुदा-वंदी के फूल

9 अप्रैल 2022
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ज़मींदार, अख़बार में जब डाक्टर राथर पर रहमत-ए-ख़ुदा-वंदी के फूल बरसते थे तो यार दोस्तों ने ग़ुलाम रसूल का नाम डाक्टर राथर रख दिया। मालूम नहीं क्यूँ, इस लिए कि ग़ुलाम रसूल को डाक्टर राथर से कोई निसबत नह

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मिस फ़र्या

9 अप्रैल 2022
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शादी के एक महीने बाद सुहेल परेशान होगया। उस की रातों की नींद और दिन का चैन हराम हो गया। उस का ख़याल था कि बच्चा कम अज़ कम तीन साल के बाद पैदा होगा मगर अब एक दम ये मालूम करके उस के पांव तले की ज़मीन निक

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मिस अडना जैक्सन

9 अप्रैल 2022
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कॉलिज की पुरानी प्रिंसिपल के तबादले का एलान हुआ, तालिबात ने बड़ा शोर मचाया। वो नहीं चाहती थीं कि उन की महबूब प्रिंसिपल उन के कॉलेज से कहीं और चली जाये। बड़ा एहतिजाज हुआ। यहाँ तक कि चंद लड़कियों ने भूक हड़

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बुड्ढ़ा खूसट

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ये जंग-ए-अज़ीम के ख़ातमे के बाद की बात है जब मेरा अज़ीज़ तरीन दोस्त लैफ़्टीनैंट कर्नल मोहम्मद सलीम शेख़ (अब) ईरान इराक़ और दूसरे महाज़ों से होता हुआ बमबई पहुंचा। उस को अच्छी तरह मालूम था, मेरा फ़्लैट कहाँ ह

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शह नशीं पर

9 अप्रैल 2022
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वो सफ़ैद सलमा लगी साड़ी में शह-नशीन पर आई और ऐसा मालूम हुआ कि किसी ने नक़रई तारों वाला अनार छोड़ दिया है। साड़ी के थिरकते हूए रेशमी कपड़े पर जब जगह जगह सलमा का काम टिमटिमाने लगता तो मुझे जिस्म पर वो तमाम

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चुग़द

9 अप्रैल 2022
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लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा। सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लचर

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