मेरे प्रिय आत्मन्!
व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते हैं।
भारत एक स्त्री देश है और स्त्री देश रहा है। भारत की पूरी मनःस्थिति स्त्रैण है। ठीक उसके उलटे जर्मनी या अमेरिका जैसे देशों को पुरुष देश कहा जा सकता है। भारत की पूरी आत्मा नारी है। और इसलिए ही भारत कभी भी आक्रामक नहीं हो पाया–पूरे इतिहास में आक्रामक नहीं बन पाया। इसीलिए भारत में हिंसा का कोई प्रभाव पैदा नहीं हो सका। भारत की पूरे विचार की कथा अहिंसा की कथा है। भारत के पूरे इतिहास को देखें तो एक बहुत आश्चर्यजनक घटना मालूम पड़ती है। दुनिया का कोई भी देश उस अर्थों में स्त्रैण, नारी नहीं है, जिस अर्थों में भारत है।
यही भारत का दुर्भाग्य भी सिद्ध हुआ। क्योंकि सारा जगत पुरुषों का, सारा जगत पुरुष-वृत्तियों का, सारा जगत आक्रामक, सारा जगत हिंसात्मक, भारत अकेला आक्रामक नहीं, हिंसात्मक नहीं! तो भारत के पिछले तीन हजार वर्ष का इतिहास दुख, परेशानी और कष्ट का इतिहास रहा है।
लेकिन यही तथ्य आने वाले भविष्य में सौभाग्य का कारण भी बन सकता है। क्योंकि जिन देशों ने पुरुष के प्रभाव में विकास किया, वे अपनी मरण घड़ी के निकट पहुंच गए हैं। पुरुष का चित्त आक्रमण का चित्त है, एग्रेशन। पुरुष का चित्त हिंसा का चित्त है, वायलेंस का। पश्चिम के जिन देशों ने पुरुष चित्त के अनुकूल विकास किया, वे सारे देश धीरे-धीरे युद्धों से गुजर कर अंतिम युद्ध, टोटल वार के करीब पहुंच गए हैं। अब कोई परिणति नहीं मालूम होती सिवाय इसके कि या तो वे टकराएं और टूट जाएं, नष्ट हो जाएं; और उनके साथ पुरुष ने जो सभ्यता खड़ी की है आज तक, वह सारी की सारी नष्ट हो जाए। या दूसरा उपाय यह है कि इतिहास का चक्र घूमे और पुरुष की सभ्यता की कथा बंद हो, और एक नया अध्याय शुरू हो, जो अध्याय स्त्री चित्त की सभ्यता का अध्याय होगा।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। इसे हम समझें तो हम मनुष्य चेतना के भीतर चलने वाले सबसे बड़े ऊहापोह से परिचित हो सकेंगे।
नीत्शे जैसा व्यक्ति भारत में हम लाख कोशिश करें तो पैदा नहीं हो सकता है। नीत्शे जर्मनी में ही पैदा हो सकता है। और जर्मनी लाख उपाय करे तो भी गांधी और बुद्ध जैसे आदमी को पैदा करना जर्मनी के लिए असंभव है। गांधी और बुद्ध जैसे व्यक्ति भारत में ही पैदा हो सकते हैं। यह पैदा हो जाना आकस्मिक नहीं है, यह एक्सीडेंटल नहीं है। कोई व्यक्ति पैदा होता है, कोई विचारधारा पैदा होती है, पूरे देश के प्राणों के हजारों वर्षों के मंथन का परिणाम होता है।
यह आश्चर्यजनक है कि भारत का आज तक का पूरा इतिहास भूल कर भी पुरुष का इतिहास नहीं रहा है। और इसीलिए भारत में विज्ञान का जन्म भी नहीं हो सका। विज्ञान एक पुरुष कर्म है। विज्ञान का अर्थ है: प्रकृति पर विजय। विज्ञान का अर्थ है: जो चारों तरफ फैला हुआ जगत है, उसको जीतना है। पुरुष का मन जीत में बहुत आतुर है।
भारत ने प्रकृति को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। असल में, भारत ने कभी भी किसी को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। जीतने की धारणा ही भारत के चित्त में बहुत गहरे नहीं जा सकी। कभी किन्हीं ने छोटे-मोटे प्रयास किए तो भारत की आत्मा उनके साथ खड़ी नहीं हो सकी।
स्वभावतः, जिस दुनिया में सारे लोग जीतने के लिए आतुर हों, उसमें भारत पिछड़ता चला गया। यह भी दिखाई पड़ेगा कि इस पिछड़ जाने में अब तक तो दुर्भाग्य रहा। लेकिन आगे सौभाग्य हो सकता है। क्योंकि वे जो जीत की दौड़ में आगे गए थे, वे अपनी जीत के ही अंतिम परिणाम में वहां पहुंच गए हैं, जहां आत्मघात के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता।
बुद्ध ने कहा था, वैर से वैर को नहीं जीता जा सकता और हिंसा से हिंसा भी नहीं जीती जा सकती।
लेकिन यह किसी ने भी सुना नहीं। सुना नहीं जा सकता था, समय नहीं था परिपक्व सुनने के लिए। आज यह बात सुनी जा सकती है। आज यह समझ में आना शुरू हो गया कि आज तो हिंसा का अर्थ है सार्वजनिक विनाश!
पिछले महायुद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर जो एटम गिराया गया था, उस समय विचारशील लोगों ने सोचा था, इससे खतरनाक अस्त्र अब पैदा नहीं हो सकेगा। लेकिन बीस ही वर्षों में उन विचारशीलों को पता चला कि आज हिरोशिमा और नागासाकी में गिराए गए एटम बम बच्चों के खिलौने मालूम पड़ते हैं। इतने बीस वर्षों में हमने बड़े अस्त्र पैदा कर लिए!
एक उदजन बम चालीस हजार वर्गमील में किसी तरह के जीवन को नहीं बचने देगा। और आज पृथ्वी पर पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। ये पचास हजार उदजन बम जरूरत से ज्यादा हैं, सरप्लस हैं। अगर हम पूरी पृथ्वी को भी नष्ट करना चाहें तो थोड़े से बम से काम हो जाएगा, इतनों की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन राजनैतिज्ञ बहुत होशियार हैं। वे सोचते हैं, कोई भूल-चूक न हो जाए, इसलिए पूरा–और पूरा जरूरत से ज्यादा–इंतजाम कर लेना उचित है। पचास हजार उदजन बम इस तरह की सात पृथ्वियों को नष्ट करने के लिए काफी हैं। यह पृथ्वी बहुत छोटी है। या हम ऐसा समझ सकते हैं कि अभी मनुष्य-जाति की कुल संख्या साढ़े तीन अरब है, पच्चीस अरब लोगों को मारने के लिए हमने इंतजाम कर लिया है। या हम ऐसा भी समझ सकते हैं कि अगर एक-एक आदमी को सात-सात बार मारना पड़े तो हमारे पास सुविधा और व्यवस्था है। हालांकि आदमी एक ही बार में मर जाता है, दुबारा मारने की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन भूल-चूक न हो जाए, इसलिए इंतजाम कर लेना ठीक से उचित और जरूरी है।
एक-एक आदमी को सात-सात बार मारने के इंतजाम का अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? यह क्या पागल दौड़ है? क्या मनुष्य-जाति का मन विक्षिप्त हो गया है?
मनुष्य-जाति का मन निश्चित विक्षिप्त हो गया है, क्योंकि मनुष्य-जाति का पूरा का पूरा अब तक का विकास अकेले पुरुष का विकास है। पुरुष आधा है मनुष्य-जाति का। आधी स्त्री का उस विकास में कोई भी हाथ नहीं है! इसलिए संतुलन खो गया है, बैलेंस खो गया है।
यह दुनिया करीब-करीब ऐसी है, जैसे एक देश में स्त्रियां बिलकुल न हों, सिर्फ पुरुष ही पुरुष रह जाएं, तो वह देश पागल हो जाएगा। ठीक इससे उलटा भी हो जाएगा। अगर किसी देश में सिर्फ स्त्रियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों, तो भी वह देश पागल हो जाएगा। स्त्री और पुरुष परिपूरक हैं। वे दोनों साथ हैं, तभी पूरे हैं। लेकिन सभ्यता के मामले में जो सभ्यता आज तक निर्मित हुई है, वह अकेले पुरुष की सभ्यता है, उसमें स्त्री का कोई योगदान नहीं है। स्त्री से कोई मांग भी नहीं की गई। स्त्री ने आगे बढ़ कर योगदान किया भी नहीं। यह पुरुष की सभ्यता पागल होने के करीब आ गई है।
एक छोटी सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं, जो मुझे बहुत प्रीतिकर रही है।
एक झूठी कहानी है। मैंने सुना है कि ईश्वर दूसरे महायुद्ध के बाद बहुत परेशान हो गया। ईश्वर तो तभी से परेशान है, जब से उसने आदमी को बनाया। जब तक आदमी नहीं था, बड़ी शांति थी दुनिया में। जब से आदमी को बनाया, तब से ईश्वर बहुत परेशान है। सुना तो मैंने यह है कि तब से वह ठीक से सो नहीं सका है बिना नींद की दवा लिए। सो भी नहीं सकता है। आदमी सोने दे तब! न आदमी खुद सोता है, न किसी और को सोने देता है। और इतने आदमी मिल कर ईश्वर को तो सोने कैसे देंगे! इसीलिए आदमी को बनाने के बाद ईश्वर ने फिर और कुछ नहीं बनाया। बनाने का काम ही बंद कर दिया। इतना घबड़ा गया होगा कि अब बस क्षमा चाहते हैं, अब आगे बनाना ठीक नहीं। दूसरे महायुद्ध के बाद वह घबड़ा गया होगा। ऐसे तो इतने युद्ध हुए हैं कि ईश्वर की छाती पर कितने घाव पड़े होंगे, कहना मुश्किल है। और सबसे बड़ा मजा तो यह है कि हर घाव पहुंचाने वाला ईश्वर की प्रार्थना करके ही घाव पहुंचाता है। और मजा तो यह है कि हर युद्ध करने वाला ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हमें विजेता बनाना। चर्चों में घंटियां बजाई जाती हैं, मंदिरों में प्रार्थनाएं की जाती हैं–युद्धों में जीतने के लिए! पोप आशीर्वाद देते हैं–युद्धों में जीतने के लिए! ईश्वर की छाती पर जो घाव लगते होंगे, उन घावों का हिसाब लगाना मुश्किल है।
तीन हजार साल के इतिहास में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं। और आगे का पीछे का इतिहास तो पता नहीं है। हम यह मान नहीं सकते कि उसके पहले आदमी नहीं लड़ता रहा होगा। लड़ता ही रहा होगा। जब तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध करता है आदमी, प्रतिवर्ष पांच युद्ध करता है, तो ऐसा मानना बहुत मुश्किल है कि उसके पहले वह शांत रहा होगा। इतना ही है कि उसके पहले का इतिहास हमें ज्ञात नहीं।
दूसरे महायुद्ध के बाद तो ईश्वर बहुत घबड़ा गया। क्योंकि पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या हुई थी। दूसरे महायुद्ध में हत्या की संख्या साढ़े सात करोड़ पहुंच गई! क्या हो गया आदमी को? उसने दुनिया के तीन बड़े प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया–रूस को, अमेरिका को, ब्रिटेन को। और उनसे पूछा कि मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूं! तुम एक-एक वरदान मांग लो, ताकि यह दुनिया की पागल दौड़ बंद हो जाए। युद्ध बंद हो जाएं। आदमी बच सके। और फिर यह तो ठीक भी है, अगर आदमी यह तय करता हो कि हमें मरना है तो मर जाए। लेकिन अपने साथ सारे जीवन को नष्ट करने का तो कोई हक मनुष्य को नहीं है। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं!
ईश्वर से हमेशा प्रार्थना की गई थी, लेकिन समय बदल गया। कभी नाव नदी पर होती है, कभी नदी नाव पर हो जाती है! ईश्वर ने हाथ जोड़ कर घुटने टेक दिए उन तीनों के सामने कि हम प्रार्थना करते हैं, एक-एक वरदान मांग लो। तुम जो भी चाहते हो, मैं पूरा कर दूं।
अमेरिका के प्रतिनिधि ने कहा, हे महाप्रभु, एक ही इच्छा है हमारी, वह पूरी हो जाए, फिर दुनिया में कभी युद्ध नहीं होगा। रूस जमीन पर न बचे। उसका कोई निशान न रह जाए जमीन पर। इतना हम चाहते हैं। और हमारी कोई आकांक्षा नहीं।
ईश्वर ने घबड़ा कर रूस की तरफ देखा। जब अमेरिका यह कहता हो–धार्मिक देश! तो रूस क्या कहेगा?
रूस ने कहा, महाशय! या हो सकता है कहा हो, कामरेड! क्षमा करें। पहले तो मैं विश्वास नहीं करता कि आप हैं। कैपिटल पढ़ी है कार्ल माक्र्स की? कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ा है एंजल्स और माक्र्स का? कितने जमाने पहले खबर कर दी उन्होंने कि भगवान नहीं है। और उन्नीस सौ सत्रह से रूस के गिरजों से आपको निकाल बाहर किया है। आप अब नहीं हैं। मुझे शक होता है कि या तो मैं वोदका शराब ज्यादा पी गया हूं, इसलिए आप दिखाई पड़ रहे हैं। और या यह भी हो सकता है कि मैं कोई सपना देख रहा हूं। लेकिन बड़ा आश्चर्यजनक कि सोवियत भूमि पर ऐसा धार्मिक सपना कैसे संभव हो पाता है! अगर सरकार को पता लग गया कि ऐसे धार्मिक सपने भी आदमी देखते हैं, तो सपने देखने पर भी पाबंदी हो जाएगी। सपने देखने की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती आदमी को। गलत सपने देखने की स्वतंत्रता दी जा सकती है? रूस में नहीं दी जा सकती। चीन में नहीं दी जा सकती। लेकिन फिर भी मैं आपसे यह कहता हूं कि हो सकता है आप हों। एक सबूत दे दें अपने होने का, तो हम आपकी पूजा फिर शुरू कर देंगे–दीये जलेंगे, धूप जलेगी, मंदिरों में पूजा होगी, घंटियां बजेंगी–एक इच्छा पूरी कर दें। एक ही इच्छा है हमारी–दुनिया का नक्शा हो, लेकिन अमेरिका के लिए कोई रंग-रेखा उस नक्शे पर हम नहीं चाहते। और घबड़ाएं मत–क्योंकि ईश्वर घबड़ा गया होगा–घबड़ाएं मत! अगर आप न कर सकें तो फिकर मत करें, हमने खुद यह काम करने का पूरा इंतजाम कर लिया है। हम खुद भी कर लेंगे। हम आपके भरोसे पर नहीं कर रहे हैं यह इंतजाम। यह इंतजाम अपने पैरों पर किया है। और हमें इसकी भी कोई चिंता नहीं है कि अमेरिका को मिटाने में हम मिट जाएंगे। हम मिट जाएं, उसकी फिकर नहीं, लेकिन अमेरिका नहीं रहना चाहिए–यह हमारा कस्द है।
ईश्वर ने बहुत घबड़ा कर ब्रिटेन की तरफ देखा। और ब्रिटेन ने जो कहा, वह ध्यान से सुन लेना! ब्रिटेन ने कहा, हे परम पिता–चरणों पर सिर रख दिया, और कहा–हमारी कोई आकांक्षा नहीं, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी कर दी जाएं, हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।
यह हमें हंसने जैसा मालूम होता है। लेकिन किस पर हंसते हैं हम–ब्रिटेन पर, अमेरिका पर, रूस पर, भगवान पर–किस पर हंसते हैं? या कि अपने पर, या कि मनुष्य पर, या कि मनुष्यता पर?
मनुष्य को क्या हुआ है? कौन सा रोग है उसके मन में? उसके प्राणों को कौन सी चीज खा रही है कि मिटाना, मिटाना, यही इसके प्राणों की पुकार बन गई है–मृत्यु और मृत्यु!
पुरुष जीतना चाहता है। और जीत उसको एक ही तरह सूझती है–मारने से, मृत्यु से, मिटाने से। पुरुष को सूझता ही नहीं कि मिटाने के अलावा भी कोई जीत होती है। उसे यह पता ही नहीं है कि मिटा कर कभी कोई जीता ही नहीं है। एक और जीत भी होती है, जो मिटाने से नहीं आती! उसे यह पता ही नहीं है कि एक और जीत भी होती है, जो हार जाने से आती है। यह पुरुष को पता ही नहीं है! एक ऐसी जीत भी हो सकती है, जो उसको मिलती है जो हार जाता है, जो लड़ता ही नहीं। इसका पुरुष को कोई भी पता नहीं। उसे पता हो भी नहीं सकता। उसके चित्त की पूरी की पूरी प्रकृति एग्रेसिव है, आक्रामक है। उसका एक ही खयाल है: दबो या दबाओ, हारो या जीतो। और जीतने की दौड़ में चाहे कुछ भी हो जाए–खुद मिटो, चाहे कोई मिट जाए–लेकिन जीतना जरूरी है।
लेकिन जीतना किसलिए जरूरी है? जीतना जीने के लिए जरूरी है, और जीतने में मौत लानी पड़ती है और जीना मुश्किल हो जाता है। अजीब चक्कर है! जीतना जीने के लिए जरूरी मालूम पड़ता है, और जीतने में मौत आती है और जीना मुश्किल हो जाता है।
लेकिन इसी विसियस सर्किल में, इसी दुष्टचक्र में पिछले तीन-चार हजार वर्ष का इतिहास आदमी का घूमते-घूमते आखिरी जगह, क्लाइमेक्स पर आ गया है, जहां कि विश्वयुद्ध की पूरी संभावना खड़ी हो गई है। या तो विश्वयुद्ध होगा और सारी मनुष्यता समाप्त होगी। और या फिर अब तक मनुष्य-जाति के दूसरे हिस्से ने कोई भी कंट्रीब्यूशन, कोई भी मनुष्य की सभ्यता को निर्माण करने में, मनुष्य को जीने में, सहयोग देने में, जो आधी दुनिया अब तक चुपचाप खड़ी रही है, उसे कुछ करना पड़ेगा। और एक नई सभ्यता को, जो पुरुष प्रधान न हो, एक नई सभ्यता को, जो स्त्री के हृदय और स्त्री के गुणों पर खड़ी होती हो, उसको जन्म देना पड़ेगा।
नीत्शे ने बहुत क्रोध से यह बात लिखी है कि मैं बुद्ध को और क्राइस्ट को स्त्रैण मानता हूं, वूमेनिश मानता हूं। यह उसने गाली दी है बुद्ध को और क्राइस्ट को। अगर वह गांधी को जानता होता तो वह गांधी के बाबत भी यही कहता कि ये तीनों के तीनों आदमी ठीक अर्थों में पुरुष नहीं हैं। और उसने यह सोचा होगा कि किसी पुरुष को स्त्री कह देने से और बड़ी गाली क्या हो सकती है?
लेकिन पुरुष होना ही आज–वह जो पुरुष की आज तक की प्रकृति रही है, उसमें होना आज–संकट, क्राइसिस पैदा कर दिया है। और आज खोजबीन करनी जरूरी है कि स्त्री के चित्त से क्या सभ्यता का आधार, मूल आधार रखा जा सकता है? क्या यह हो सकता है कि हम दूसरी तरफ भी देखें और ध्यान करें कि क्या उस तरफ से भी जीवन की नई दिशाएं, विकास के नये स्रोत, मनुष्यता का एक नया इतिहास रचा जा सकता है?
मुझे लगता है कि रचा जा सकता है। और अगर नहीं रचा जा सकता तो फिर पुरुष के हाथ में अब आगे कोई भविष्य नहीं है, वह अपने अंतिम चरण क्षण पर आ गया है।
लेकिन स्त्रियों को कोई खयाल नहीं है। या तो स्त्रियां गुलाम हैं पुरुष की और या स्त्रियां नंबर दो के पुरुष बनने की कोशिश में संलग्न हैं। दोनों ही हालतें बुरी हैं और स्लेवरी की हैं, गुलामी की हैं। भारत जैसे मुल्कों में स्त्रियों की अपनी कोई आवाज नहीं, अपनी कोई आत्मा भी नहीं। भारत में स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व नहीं। उसकी कोई पुकार नहीं। उसका कोई होना नहीं। वह न होने के बराबर है।
हालांकि पूरे देश का विचार कभी भी पुरुष चित्त के अनुकूल नहीं रहा, क्योंकि भारत को जिन लोगों ने प्रभावित किया, उन्होंने जीवन के बहुत कोमल गुणों पर जोर दिया–बुद्ध ने करुणा पर, महावीर ने अहिंसा पर। उन्होंने जोर दिया जीवन के प्रेम तत्व पर। लेकिन उनकी आवाज गूंज कर खोती रही। लेकिन यह किसी को खयाल नहीं आया कि यह आवाज अगर स्त्रियां पकड़ लेंगी तो ही सफल हो सकती है, अन्यथा यह आवाज सफल नहीं हो सकती।
अगर पुरुष प्रेम की बात भी करेगा तो अहिंसा से आगे नहीं जा सकता। और इसे थोड़ा समझ लेना। अहिंसा का मतलब होता है, हम हिंसा नहीं करेंगे। यह निगेटिव बात है। हम किसी को चोट नहीं पहुंचाएंगे। अहिंसा से आगे पुरुष का जाना मुश्किल है। वह या तो हिंसा कर सकता है या अहिंसा कर सकता है। लेकिन प्रेम का उसे सूझता ही नहीं! प्रेम पाजिटिव बात है। अहिंसा का मतलब है, हम दूसरे को दुख नहीं पहुंचाएंगे।
एक बात है कि हम दूसरे को दुख पहुंचाएंगे, यही हमारे जीवन का सूत्र होगा। चाहे दूसरे को कितना ही दुख पहुंचे, हम अपना सुख पाएंगे, यही जीवन की आधारशिला होगी। एक सूत्र तो यह है पुरुष का। फिर पुरुष अगर बहुत ही सोच-समझ और विचार का उपयोग करता है, तो वह इसके उलटे सूत्र पर पहुंचता है। वह कहता है, हम दूसरे को दुख नहीं पहुंचाएंगे।
लेकिन स्त्री का चित्त अहिंसा से राजी नहीं हो सकता। स्त्री का चित्त कहता है: प्रेम।
प्रेम का अर्थ है: हम दूसरे को सुख पहुंचाएंगे।
इसलिए अहिंसा ठीक अर्थों में हिंसा का विरोध नहीं है, सिर्फ हिंसा का अभाव है। हिंसा का ठीक विरोध प्रेम है। क्योंकि हिंसा कहती है: हम दूसरे को दुख पहुंचाएंगे, यही हमारे सुख का मार्ग है। प्रेम कहता है: हम दूसरे को सुख पहुंचाएंगे, यही हमारे सुख का मार्ग है। और अहिंसा बीच में है, अहिंसा कहती है: हम दूसरे को दुख नहीं पहुंचाएंगे। अहिंसा बहुत इम्पोटेंट है। अहिंसा बीच में अटक जाती है, बहुत आगे नहीं जाती। वह पुरुष को हिंसा करने से रोक लेती है, लेकिन प्रेम करने तक नहीं पहुंचाती।
तो हिंदुस्तान ने अहिंसा की तो बात की। लेकिन चूंकि पुरुषों ने बात की थी, वह भी बहुत थी कि वे अहिंसा तक की बात कर सके। पश्चिम के पुरुषों से उन्होंने एक कदम बहुत आगे उठाया। स्त्री के हृदय की तरफ एक कदम आगे बढ़ाया। लेकिन आखिर पुरुष कितने दूर जा सकते हैं? वह बात अहिंसा पर आकर अटक गई।
और मैंने ऐसा अनुभव किया है कि अगर पुरुष अहिंसा की भी बात करे तो बहुत जल्दी उसकी अहिंसा में भी हिंसा शुरू हो जाती है। अगर पुरुष सत्याग्रह भी करेगा, अगर पुरुष अनशन भी करेगा, तो वह अनशन भी दूसरे की गर्दन दबाने के उपाय की तरह करेगा। वह भी प्रेशर, वह भी दबाव होगा, वह भी जबरदस्ती होगी। अगर दस आदमी अनशन करेंगे किसी काम के लिए, तो वे धमकी दे रहे हैं कि हम मर जाएंगे, नहीं तो हमारी बात मानो! यह धमकी बहुत हिंसापूर्ण है। यह धमकी अहिंसक नहीं है। यह बहुत हिंसापूर्ण है। अहिंसा का भी हिंसात्मक उपयोग है यह।
मैंने सुना है कि ऐसा ही एक युवक एक युवती को प्रेम करता था। उसने जाकर उसके घर के सामने अहिंसक अनशन कर दिया–कि मुझसे विवाह करो, अन्यथा मैं भूखा मर जाऊंगा!
उस घर के लोग घबड़ा गए। क्योंकि अगर वह छुरा लेकर आता तो पुलिस में खबर कर देते। वह छुरा लेकर नहीं आया था। वह धमकी देकर आया था कि मैं मर जाऊंगा। उसने बोरिया-बिस्तर लगा कर द्वार के सामने बैठ गया। गांव में उसका प्रचार करने वाले लोग मिल गए। बेवकूफों का प्रचार करने वालों की कोई कमी नहीं है। उन्होंने जाकर गांव भर में खबर कर दी कि एक अहिंसक आंदोलन हो रहा है! एक युवक ने अपने प्राण बाजी पर लगा दिए हैं!
सारे गांव की सहानुभूति उस युवक के साथ होने लगी। जो भी मरता हो, उसके साथ सहानुभूति स्वाभाविक हो जाती है। घर के लोग बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा, हम क्या करें? यह तो बड़ी मुसीबत हो गई! तो घर के लोगों को किसी परिचित ने सलाह दी कि गांव में एक और भी अहिंसक सत्याग्रह करने वाला अनुभवी व्यक्ति है, तुम उससे जाकर पूछो। उन्होंने जाकर सलाह ली। उसने कहा, घबड़ाओ मत, हर चीज का उपाय है। अहिंसात्मक धमकी का उपाय अहिंसात्मक ढंग से दिया जा सकता है। मैं रात आ जाऊंगा। घबड़ाओ मत।
वह रात एक बूढ़ी औरत को लेकर वहां पहुंच गया। और उस बूढ़ी औरत ने जाकर अपना बिस्तर लगा दिया और उस युवक से कहा कि मेरे हृदय में तेरे लिए भारी प्रेम का उदय हुआ है। मैं मर जाऊंगी, अगर तूने मुझ से विवाह नहीं किया! मैं अनशन शुरू करती हूं। यह आमरण अनशन है।
उस युवक ने सुना और अपना पेटी-बिस्तर लेकर वह रात भाग गया। स्वाभाविक है।
इस देश में यह हो रहा है। अहिंसा के नाम पर यही हो रहा है। हर आदमी अहिंसा के नाम पर हिंसा की धमकी देता है। आंध्र को अलग करो, नहीं तो आमरण अनशन करके मर जाएंगे! पंजाब को अलग करो, नहीं तो यह हो जाएगा! कोई भी आदमी धमकी दे रहा है।
यह बड़ी हैरानी की बात है कि गांधी ने अहिंसा की बात की और अहिंसा का पुरुष उपयोग बिलकुल हिंसात्मक ढंग से कर रहे हैं! किसी को कल्पना भी नहीं हो सकती कि पुरुष का मन ऐसा है कि उसके हाथ में जो भी हथियार आ जाएगा–चाहे तलवार और चाहे सत्याग्रह–वह दोनों का उपयोग हिंसात्मक ढंग से करेगा।
पुरुष के चित्त की बनावट आक्रामक है, हिंसात्मक है। और अब तक चूंकि सारी संस्कृति उसके आधार पर निर्मित हुई है, इसलिए सारी संस्कृति हिंसात्मक है।
क्या यह नहीं हो सकता कि स्त्री के हृदय की आवाज को भी इस संस्कृति के निर्माण में पत्थर बनाया जाए?
लेकिन स्त्री तो चुप है! या तो वह गुलाम है, जैसा मैंने कहा, या वह पुरुष होने की दौड़ में है।
पूरब की स्त्री गुलाम है। उसने कभी यह घोषणा ही नहीं की कि मेरे पास भी आत्मा है। वह चुपचाप पुरुष के पीछे चल पड़ती है।
अगर राम को सीता को फेंक देना है, तो सीता की कोई आवाज नहीं है। अगर राम कहते हैं कि मुझे शक है तेरे चरित्र पर, तो उसे आग में डाला जा सकता है।
यह बड़े मजे की बात है। यह किसी के खयाल में कभी नहीं आती कि सीता लंका में बंद थी, अकेली थी, तो राम को उसके चरित्र पर शक होता है। लेकिन सीता को राम के चरित्र पर शक नहीं होता–वे इतने दिन अकेले थे! और अगर अग्नि से गुजरना ही है तो राम को आगे और सीता को पीछे गुजरना चाहिए। जैसा कि हमेशा शादी-विवाह में राम आगे रहे और सीता पीछे रही, चक्कर लगाती रही। फिर आग में घुसते वक्त सीता अकेली आग में चली गई, राम बाहर खड़े निरीक्षण करते रहे। बड़े धोखे की बात मालूम पड़ती है!
और तीन-चार हजार वर्ष हो गए रामायण को लिखे, यह मैं आपसे पहली दफे कह रहा हूं। यह बात कभी नहीं उठाई गई कि राम की अग्नि-परीक्षा क्यों नहीं होती?
नहीं, पुरुष का तो सवाल ही नहीं है। ये सब सवाल स्त्री के लिए हैं।
स्त्री की कोई आत्मा नहीं, उसकी कोई आवाज नहीं। फिर यह अग्नि-परीक्षा से गुजरी हुई स्त्री भी एक दिन दूध में से मक्खी की तरह फेंक दी गई, तो भी कोई आवाज नहीं है! कोई आवाज नहीं है! और हिंदुस्तान भर की स्त्रियां राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहे चली जाएंगी; मंदिर में जाकर दीया घुमाती रहेंगी और पूजा-प्रार्थना करती रहेंगी।
राम की पूजा स्त्रियां करती रहेंगी! तो फिर स्त्रियों के पास कोई आत्मा नहीं है, कोई सोच-विचार नहीं है। सारे हिंदुस्तान की स्त्रियों को कहना था कि बहिष्कार हो गया राम का! कितने ही ऊंचे आदमी रहे होओगे, लेकिन बात खत्म हो गई। स्त्रियों के साथ भारी अपमान हो गया, भारी असम्मान हो गया।
लेकिन राम को स्त्रियां ही जिंदा रखे हैं। राम बहुत प्यारे आदमी हैं, बहुत अदभुत आदमी हैं, लेकिन राम को भी यह खयाल पैदा नहीं होता कि वे स्त्री के साथ क्या कर रहे हैं! वह हमारी कल्पना में नहीं है, वह हमारे खयाल में नहीं है।
युधिष्ठिर जैसा अदभुत आदमी द्रौपदी को जुए में दांव पर लगा देता है! फिर भी कोई यह नहीं कहता कि हम अब युधिष्ठिर को धर्मराज नहीं कहेंगे। नहीं, कोई यह नहीं कहता! बल्कि कोई कहेगा तो हम कहेंगे–अधार्मिक आदमी है, नास्तिक आदमी है, इसकी बात मत सुनो।
लेकिन स्त्री को जुए पर दांव पर लगाया जा सकता है, क्योंकि भारत में स्त्री संपदा है, संपत्ति है। हम हमेशा से कहते ही रहे हैं, स्त्री संपत्ति। शब्द भी उपयोग करते हैं: स्त्री संपत्ति। और इसीलिए तो पति को स्वामी कहते हैं। स्वामी का मतलब आप समझते हैं क्या होता है?
अगर हिंदुस्तान की स्त्री में थोड?ी भी अक्ल होगी तो एक-एक शब्दकोश से “स्वामी’ को निकाल बाहर कर देना चाहिए। कोई पुरुष किसी स्त्री का स्वामी नहीं हो सकता। स्वामी का क्या मतलब होता है?
स्त्री दस्तखत करती है अपनी चिट्ठी में–आपकी दासी। और पतिदेव बहुत प्रसन्न होकर पढ़ते हैं, बड़े आनंदित होते हैं कि बड़ी प्रेम की बात लिखी है।
लेकिन इसका पता है कि स्वामी और दास में कभी प्रेम नहीं हो सकता। कैसे प्रेम हो सकता है? प्रेम की संभावना समान तल पर हो सकती है। स्वामी और दास में क्या प्रेम हो सकता है?
इसलिए हिंदुस्तान में प्रेम की संभावना ही समाप्त हो गई है। हिंदुस्तान में स्त्री-पुरुष साथ रह रहे हैं और उस साथ रहने को प्रेम समझ रहे हैं। वह प्रेम नहीं है। हिंदुस्तान में प्रेम का सरासर धोखा है। साथ रहना भर प्रेम नहीं है। किसी तरह कलह करके चौबीस घंटे गुजार देना प्रेम नहीं है। जिंदगी गुजार देनी प्रेम नहीं है। प्रेम की पुलक और है। प्रेम की प्रार्थना और है। प्रेम की सुगंध और है। प्रेम का संगीत और है।
लेकिन वह कहीं भी नहीं है! असल में, गुलाम में और दास में और मालिक में और स्वामी में कोई प्रेम नहीं हो सकता है। लेकिन हमारे खयाल में नहीं है यह बात कि पूरब की स्त्री ने–विशेषकर भारत की स्त्री ने–अपनी आत्मा का अधिकार ही स्वीकार नहीं किया है। आत्मा की आवाज भी नहीं दी है। उसने हिम्मत भी नहीं जुटाई कि वह कह सके–मैं भी हूं!
“अ’ स्त्री को शादी करके ले आते हैं एक सज्जन। अगर उनका नाम कृष्णचंद्र मेहता है तो उनकी पत्नी मिसेज कृष्णचंद्र मेहता हो जाती है। लेकिन कभी उससे उलटा देखा कि इंदुमती मेहता को एक सज्जन प्रेम करके विवाह कर लाए हों और उनका नाम मिस्टर इंदुमती मेहता हो जाए? वह नहीं हो सकता। लेकिन क्यों नहीं हो सकता? नहीं, वह नहीं हो सकता, क्योंकि हमारी यह सिर्फ व्यवहार की बात नहीं है, उसके पीछे पूरा हमारे जीवन को देखने का ढंग छिपा हुआ है।
स्त्री पुरुष के पीछे आकर पुरुष का अंग हो जाती है, तो वह मिसेज हो जाती है। लेकिन पुरुष स्त्री का अंग नहीं होता! स्त्री पुरुष का आधा अंग है, लेकिन पुरुष स्त्री का अंग नहीं है! इसलिए पुरुष मरता है तो स्त्री को सती होना चाहिए, आग में जल जाना चाहिए। वह उसका अंग है, उसको बचने का हक कहां है? हिंदुस्तान में हजारों वर्षों में कितनी लाखों स्त्रियों को आग में जलाया है, उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। और किस पीड़ा से उन स्त्रियों को गुजरना पड़ा है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
फिर भी बड़ी कृपा थी–जो आग में जल गईं उन स्त्रियों के लिए। लेकिन जब से आग में जलना बंद हो गया है तो करोड़ों विधवाओं को हम रोके हुए हैं। उनका जीवन आग में जलने से भी ज्यादा बदतर है। सती की प्रथा विधवा की प्रथा से ज्यादा बेहतर थी। आदमी एक बार में मर जाता है, खत्म हो जाता है। आखिर एक बार में मरना फिर भी बहुत दयापूर्ण है, बजाय चालीस-पचास साल धीरे-धीरे मरने के, अपमानित होने के। और जिंदगी में जहां प्रेम की कोई संभावना न रह जाए, उस जीवन को जीवित कहने का क्या अर्थ है?
और यह ध्यान रहे कि पुरुष के लिए प्रेम चौबीस घंटे में आधी घड़ी, घड़ी भर की बात है। उसके लिए और बहुत काम हैं। प्रेम भी एक काम है। प्रेम से भी वह निपट कर जल्दी से दूसरे कामों में लग जाता है। स्त्री के लिए प्रेम ही एकमात्र काम है, वह उसकी चौबीस घंटे की जिंदगी है। वह और कामों में एक काम नहीं है। प्रेम ही एकमात्र काम है। और सारे काम उसी प्रेम से निकलते हैं और पैदा होते हैं।
तो अगर पुरुष को विधुर रखा जाए तो उतना टार्चर नहीं है वह, जितना स्त्री को विधवा रखना अत्याचार है। क्योंकि उसकी चौबीस घंटे प्रेम की जिंदगी है। प्रेम गया–कि उसकी जिंदगी में फिर कुछ भी नहीं रह गया। और दूसरे प्रेम की कोई संभावना समाज छोड़ता नहीं।
लेकिन हजारों साल तक हम उसको जलाते रहे और कभी किसी ने न सोचा! और अगर कोई पूछता था कि स्त्रियों को क्यों जलना चाहिए आग में? तो पुरुष कहते कि उसका प्रेम है, वही जी नहीं सकती पुरुष के बिना। लेकिन किसी पुरुष को प्रेम नहीं था इस मुल्क में कि वह किसी स्त्री के लिए सती हो जाता? वह सवाल नहीं है। वह सवाल नहीं है, वह सवाल ही नहीं उठाना चाहिए। क्योंकि सारे धर्मग्रंथ पुरुष लिखते हैं, अपने हिसाब से लिखते हैं, अपने स्वार्थ से लिखते हैं। स्त्रियों का लिखा हुआ न कोई धर्मग्रंथ है, न स्त्रियों का कोई मनु है, न स्त्रियों का कोई याज्ञवल्क्य है! स्त्रियों का कोई स्मृतिकार नहीं, स्त्रियों का कोई धर्मग्रंथ नहीं! स्त्रियों का कोई सूत्र नहीं! उनकी कोई आवाज नहीं! तो पूरब की स्त्री तो एक गुलाम छाया है, जो पति के आगे-पीछे घूमती रहती है।
पश्चिम की स्त्री ने विद्रोह किया है। और मैं कहता हूं कि अगर छाया ही बना रहना है, तो उससे बेहतर है वह विद्रोह। लेकिन वह विद्रोह बिलकुल गलत रास्ते पर चला गया। वह गलत रास्ता यह है कि पश्चिम की स्त्री ने विद्रोह का मतलब यह लिया है कि ठीक पुरुष जैसी वह भी खड़ी हो जाए! पुरुष जैसी हो जाए! तो पश्चिम की स्त्री पुरुष होने की दौड़ में पड़ गई। वह पुरुष जैसे वस्त्र पहनेगी, पुरुष जैसे बाल कटाएगी, पुरुष जैसे सिगरेट पीना चाहेगी, पुरुष जैसे सड़कों पर चलना चाहेगी, पुरुष जैसे अभद्र शब्दों का उपयोग करना चाहेगी। वह पुरुष के मुकाबले खड़ी हो जाना चाहती है।
एक लिहाज से फिर भी अच्छी बात है। कम से कम बगावत तो है। कम से कम हजारों साल की गुलामी को तोड़ने का खयाल तो है।
लेकिन गुलामी ही नहीं तोड़नी है; क्योंकि गुलामी तोड़ कर भी कोई कुएं से खाई में गिर सकता है। पश्चिम की स्त्री उसी हालत में खड़ी हो गई है। वह जितना अपने को पुरुष के जैसा बनाती जा रही है, उतना ही उसका व्यक्तित्व फिर खोता चला जा रहा है। भारत में वह छाया बन कर खत्म हो गई। पश्चिम में वह नंबर दो का पुरुष बन कर खत्म होती जा रही है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व वहां भी नहीं रह जाएगा।
और यह ध्यान रहे, स्त्री के पास एक अपने तरह का व्यक्तित्व है, जो पुरुष से बहुत भिन्न, बहुत विरोधी, बहुत अलग, बहुत दूसरा है। उसका सारा आकर्षण, उसके जीवन की सारी सुगंध उसके अपने होने में है, उसके निज होने में है। अगर वह अपनी निजता के बिंदु से च्युत होती है और पुरुष जैसे होने की दौड़ में लग जाती है, तो यह बात उतनी ही बेहूदी होगी जैसे कोई पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहन कर और दाढ़ी-मूंछ घुटा कर और स्त्रियों जैसा बन कर घूमने लगता है तो बेहूदा हो जाता है। यह बात उतनी ही बेहूदी है।
लेकिन पुरुष इसकी निंदा नहीं करेगा। पुरुष इसकी निंदा नहीं करेगा; क्योंकि स्त्रियां पुरुष जैसी हो रही हैं, पुरुष को क्या चिंता है? आपने हमेशा सुना होगा, अगर कोई पुरुष स्त्रियों जैसे ढंग से रहे तो लोग कहेंगे–नामर्द! उसकी निंदा होगी। लेकिन अगर कोई स्त्री पुरुषों जैसी रहे तो वे कहेंगे–खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। इज्जत देंगे उसको। स्त्री अगर पुरुषों जैसे ढंग अख्तियार करे तो उसको इज्जत मिलेगी और पुरुष अगर स्त्रियों जैसे ढंग अख्तियार करे तो उसका अपमान होगा। पुरुष को भी इसमें मजा आता है कि स्त्री पुरुष जैसे होने की कोशिश कर रही है। इसका अर्थ है कि उसने हमारी श्रेष्ठता फिर स्वीकार कर ली। कल तक वह पति के रूप में श्रेष्ठता स्वीकार करती थी, हम तब भी सुपीरियर थे, मालिक थे। अब भी हम सुपीरियर हैं, अब वह हमारे जैसे होने की कोशिश कर रही है।
और ध्यान रहे, स्त्री कितना ही पुरुष जैसी हो जाए, कार्बन कापी से ज्यादा नहीं हो सकती। कैसे हो सकती है? कैसे हो सकती है स्त्री पुरुष जैसी? और कार्बन कापी फिर छाया रह जाएगी। और यह बड़े मजे की बात है–हिंदुस्तान में पुरुष ने जबरदस्ती स्त्री को छाया बना दिया, पश्चिम की स्त्री अपने हाथ से मेहनत करके छाया बनी जा रही है।
क्या कोई तीसरा रास्ता नहीं है? ये दोनों बातें स्त्री जाति के लिए खतरनाक हैं। ये दोनों बातें प्रतिक्रियावादी हैं, रिएक्शनरी हैं। स्त्री की जिंदगी में एक क्रांति चाहिए। पश्चिम में क्रांति भटक गई और विद्रोह हो गई है। विद्रोह क्रांति नहीं है। बगावत क्रांति नहीं है।
क्रांति का मतलब है: एक नये व्यक्तित्व का उदघाटन।
बगावत का मतलब है: पुराने व्यक्तित्व को तोड़ देना है, इसकी बिना फिक्र किए कि नया व्यक्तित्व कुछ बनता है कि नहीं बनता है।
बगावत क्रोध है, क्रांति विचार है।
बगावत कर देना बहुत आसान है। क्रांति करना बहुत सोच-विचार और चिंतन की बात है।
भारत की स्त्री को भी पश्चिम की स्त्री की दौड़ पकड़ेगी, क्योंकि भारत के पुरुष को पश्चिम के पुरुष की दौड़ पकड़ी। उसी के पीछे स्त्री भी जाएगी। आज नहीं कल वह भी…और उसने होना शुरू कर दिया है, वह पुरुष के साथ पुरुष जैसा होने की दौड़ में वह शामिल हो गई है। आज नहीं कल भारत में भी वही होगा जो पश्चिम में हो रहा है। और पश्चिम में जो हो गया है वह इतना दुखद है कि अब भारत में उसको फिर दोहरा लेना, एक बहुत बढ़िया मौका खो देना है; एक परिवर्तन का, एक ट्रांजिशन का मौका खो देना है। एक बदलाहट का वक्त आया है और फिर बदलाहट में हम वही गलती किए ले रहे हैं–वही गलती जिसमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, वही भूल फिर हो जाएगी।
सी.ई.एम.जोड ने कहीं लिखा है कि जब मैं पैदा हुआ, छोटा था, तो होम्स थे मेरे देश में, घर थे। अब सिर्फ हाउसेज हैं; अब सिर्फ मकान हैं।
स्वभावतः, अगर स्त्री पुरुष जैसी हो जाती है, तो होम जैसी चीज समाप्त हो जाएगी। घर जैसी चीज समाप्त हो जाएगी, मकान रह जाएंगे। मकान रह जाएंगे, क्योंकि मकान घर बनता था एक व्यक्तित्व से स्त्री के। वह खो गया। अब वह ठीक पुरुष जैसी कलह करती है, पुरुष जैसी झगड़ती है, पुरुष जैसी बात करती है, विवाद करती है। वह सब ठीक पुरुष जैसा कर रही है!
लेकिन उसे पता नहीं है कि उसकी आत्मा कभी भी यह करके तृप्त नहीं हो सकती। क्योंकि आत्मा तृप्त होती है वही होकर जो होने को आदमी पैदा हुआ है। एक गुलाब गुलाब बन जाता है तो तृप्ति आती है। एक चमेली चमेली बन जाती है तो तृप्ति आती है। वह तृप्ति फ्लावरिंग की है। जो हमारे भीतर छिपा है वह खिल जाए–पूरा खिल जाए–तो आनंद उपलब्ध होता है।
स्त्री आज तक कभी भी आनंदित नहीं रही, न पूरब के मुल्कों में, न पश्चिम के मुल्कों में। पूरब के मुल्कों में वह गुलाम थी, इसलिए आनंदित नहीं हो सकी; क्योंकि कोई आनंद बिना स्वतंत्रता के कभी उपलब्ध नहीं होता है। सारे आनंद के फूल स्वतंत्रता के आकाश में खिलते हैं।
और ध्यान रहे, अगर स्त्री आनंदित नहीं है तो पुरुष कभी आनंदित नहीं हो सकता है। वह लाख सिर पटके। क्योंकि समाज का आधा हिस्सा दुखी है। घर का केंद्र दुखी है। तो वह दुखी केंद्र अपने चारों तरफ दुख की किरणें फेंकता रहता है। और उस दुख के केंद्र की किरणों में सारा व्यक्तित्व समाज का दुखी हो जाता है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, जितना दुख होता है, उतनी हिंसा शुरू हो जाती है। क्यों? क्योंकि दुखी आदमी दूसरे को दुखी करने को आतुर हो जाता है। दुखी आदमी फिर किसी को सुखी नहीं देखना चाहता। दुखी आदमी चाहता है, दूसरे को दुख दो! दुखी आदमी का एक ही सुख होता है, दूसरे को दुख देने का सुख।
स्त्री के दुख ने सारे समाज के जीवन को दुख की छाया से भर दिया है।
स्त्री आनंदित हो सकती है मुक्त होकर, लेकिन पुरुष होकर नहीं। मुक्त हो जाए और पुरुष जैसी होने लगे, फिर दुखी हो जाएगी। आज पश्चिम की स्त्री कोई सुखी नहीं है। वह फिर उसने नये दुख खोज लिए हैं। फिर नये दुखों में उसने अपने व्यक्तित्व को कस लिया है। और फिर समाज वहां एक नये तनाव में भरता चला जाएगा। क्या किया जा सकता है? कौन सी क्रांति?
मैं एक तीसरा सुझाव देना चाहता हूं। और वह यह कि एक वक्त है, इस वक्त मुल्क के सामने बदलाहट होगी। बदलाहट का समय है। अब स्त्री की गुलामी ज्यादा दिन नहीं चलेगी। हालांकि स्त्री की अभी भी कोई इच्छा नहीं है बहुत कि गुलामी टूट जाए। और पुरुष तो चाहेगा क्यों।
लेकिन सारी दुनिया की हवाएं धक्के दे रही हैं और गुलामी टूट रही है। भारत की स्त्रियां यह न सोचें कि उनके कुछ करने से गुलामी टूट रही है।
भारत बहुत अजीब देश है। सारी दुनिया की हवाएं बदलीं। उन्नीस सौ सैंतालीस में हम आजाद हो गए। हमने समझा कि हमने आजादी ले ली। वह हमने आजादी ली नहीं। वह दुनिया की हवाएं बदलीं, दुनिया का पूरा मौसम बदला, दुनिया में एक परिवर्तन का वक्त आया–आजादी हमें मिली। हिंदुस्तान के किसी नेता को पता भी नहीं था कि आजादी उन्नीस सौ सैंतालीस में मिल सकती है। कल्पना भी नहीं थी। आंदोलन तो हमारा बयालीस में खत्म हो गया था! और बड़ा भारी आंदोलन था, सात दिन में खत्म हो गया था! ऐसी महान क्रांति दुनिया में कभी नहीं हुई थी! वह सात दिन में खत्म हो गया था, उसके बाद हम ठंडे पड़ चुके थे। अब बीस साल तक कोई दुबारा जाने को जेल में राजी भी नहीं हो सकता था। अचानक आजादी आ गई, तो हमने कहा कि हमने आजादी ले ली! ठीक वैसे ही भारत की स्त्री की आजादी भी आ रही है। यह भूल में मत पड़ना कि वह आजादी ले रही है।
और ध्यान रहे, जो आजादी आती है उस आजादी में और जो आजादी ली जाती है उस आजादी में जमीन-आसमान का फर्क होता है। जो आजादी मिलती है वह मुर्दा होती है। वह कभी जिंदा नहीं हो सकती। भीख रहती है। और आजादी भी भीख में मिल सकती है?
इसीलिए इस मुल्क को जो आजादी मिली, वह मुर्दा आजादी है, बिलकुल डेड–उसमें कोई जिंदगी नहीं है। सड़ी हुई लाशों वाली आजादी है। इसलिए बीस साल से हम सड़ रहे हैं। उस आजादी से कोई पुलक नहीं आई जीवन में, न कोई नृत्य आया, न कोई खुशी आई, न कोई उत्साह आया, न कुछ ऐसा हुआ कि हम बदल दें अब जिंदगी को, हजारों साल के सिलसिले को तोड़ दें, नया मुल्क बनाएं, नया आदमी पैदा करें। वह कुछ भी पैदा नहीं हुआ। बस इतना हुआ कि हमने झंडा बदल दिया, दूसरा झंडा फहरा दिया और नेता बदल दिए। हालांकि सिर्फ शरीर बदला नेताओं का। उनकी बुद्धि वही रही, जो पिछले नेताओं की थी, जो पिछले हुकूमत करने वालों की थी। बुद्धि वही की वही रही। कपड़े बदल गए, वे शेरवानी पहन कर खड़े हो गए। हमको लगा कि सब भारतीय हो गए।
ठीक वैसी ही आजादी स्त्रियों के मामले में घटित हो रही है।
नहीं, यह ठीक नहीं हो रहा है। हिंदुस्तान की नारी को, हिंदुस्तान की स्त्री को आजादी लेनी है। क्योंकि मूल्य आजादी मिलने का नहीं है। वह जो लेने की प्रक्रिया है, उसी में आत्मा पैदा होती है। इसको ठीक से समझ लेना चाहिए। वह जो लेने की प्रक्रिया है, वह जो जद्दोजहद है, वह जो संघर्ष है, वह जो स्ट्रगल है, उस स्ट्रगल में लेने की ही आत्मा पैदा होती है। आजादी मिलने से आत्मा पैदा नहीं होती। आजादी लेने की प्रक्रिया में से गुजरना ही आजाद आत्मा का पैदा हो जाना है। आजादी उसका परिणाम है। आजादी के परिणाम में आत्मा कभी पैदा नहीं होती। आत्मा पैदा हो जाए तो आजादी आती है।
लेकिन भारत की स्त्री के साथ भी वही हो रहा है। आजादी उस पर आ रही है, थोपी जा रही है। वह बेमन से उसको स्वीकार करती चली जा रही है। और धीरे-धीरे पश्चिम की हवाएं उसको पश्चिम की तरफ ले जाएंगी और एक मौका चूक जाएगा।
इस मौके को मैं बहुत क्रांति का अवसर कहता हूं। भारत की स्त्री को करना यह है कि पहले तो उसे स्पष्ट रूप से यह समझ लेना है कि पुरुष के व्यक्तित्व की शोध और खोज खत्म हो गई। पुरुष ने जो मार्ग पकड़ा था पांच-छह हजार वर्षों में, वह डेड एंड पर आ गया, अब उसके आगे कोई रास्ता नहीं है।
स्त्री को पहली दफे यह सोचना है कि क्या स्त्री भी एक नई संस्कृति को जन्म देने के आधार रख सकती है? कोई संस्कृति जहां युद्ध और हिंसा न हो। कोई संस्कृति जहां प्रेम, सहानुभूति और दया हो। कोई संस्कृति जो विजय के लिए बहुत आतुर न हो, जीने के लिए आतुर हो। जीने की आतुरता हो। जीवन को जीने की कला और जीवन को शांति से जीने की आस्था और निष्ठा पर खड़ी कोई संस्कृति स्त्री जन्म दे सकती है?
स्त्री जरूर जन्म दे सकती है।
आज तक चाहे युद्ध में कोई कितना ही मरा हो, स्त्री का मन निरंतर–प्राण उसके दुख से भरे रहे हैं। उसका भाई मरता है, बेटा मरता है, बाप मरता है, पति मरता है, प्रेमी मरता है। स्त्री का कोई न कोई युद्ध में जाकर मरता है। अगर सारी दुनिया की स्त्रियां एक बार तय कर लें–भाड़ में जाने दें रूस को और अमेरिका को–सारी दुनिया की स्त्रियां एक बार तय कर लें कि युद्ध नहीं होगा; दुनिया का कोई राजनीतिज्ञ युद्ध में कभी किसी को नहीं घसीट सकता। सिर्फ स्त्रियां तय कर लें कि युद्ध अब नहीं होगा, तो युद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि कौन जाएगा युद्ध पर? कोई बेटा जाता है, कोई पति जाता है, कोई बाप जाता है। अगर स्त्रियां एक बार तय कर लें!
लेकिन स्त्रियां पागल हैं। युद्ध होता है तो वे टीका करती हैं कि जाओ युद्ध पर! पाकिस्तानी मां पाकिस्तानी बेटे के माथे पर टीका करती है कि जाओ युद्ध पर! हिंदुस्तानी मां हिंदुस्तानी बेटे के माथे पर टीका करती है कि जाओ बेटे, युद्ध पर जाओ!
पता चलता है कि स्त्री को कुछ पता नहीं कि क्या हो रहा है। वह पुरुष के पूरे जाल में सिर्फ एक खिलौना, हर जगह एक खिलौना बन जाती है। चाहे पाकिस्तानी बेटा मरता हो और चाहे हिंदुस्तानी, किसी मां का बेटा मरता है–यह स्त्री को समझना होगा। और चाहे रूस का पति मरता हो और चाहे अमेरिका का, स्त्री को समझना होगा, उसका पति मरता है।
और अगर सारी दुनिया की स्त्रियों को एक खयाल पैदा हो जाए कि अब हमें अपने पति को, अपने बेटे को, अपने बाप को युद्ध पर नहीं भेजना है, तो फिर पुरुष की लाख कोशिश और राजनीतिज्ञों की हर चेष्टा व्यर्थ हो सकती है। युद्ध नहीं हो सकता है। और यह स्त्री की इतनी बड़ी शक्ति है, लेकिन उसने उसका कभी कोई उपयोग नहीं किया। उसने कभी कोई आवाज नहीं दी, उसने कभी कोई फिक्र नहीं की। वह आदमी ने, पुरुष ने जो रेखाएं खींची हैं राष्ट्रों की, उनको वह भी मान लेती है।
प्रेम कोई रेखाएं नहीं मान सकता, हिंसा रेखाएं मानती है।
हम कहते हैं भारत माता! भारत माता जैसी कोई चीज दुनिया में नहीं है। अगर है भी कोई तो पृथ्वी माता जैसी कोई चीज हो सकती है। भारत माता पुरुष की ईजाद है! अपने हाथ से उसने कीलें ठोंक कर झंडे गाड़ लिए हैं और कहा है कि यह भारत अलग!
लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री के मन में आज भी और हमेशा से कभी भी सीमा नहीं रही है, उस अर्थों में जिस अर्थों में पुरुष के मन में सीमा है। क्योंकि जहां भी प्रेम है, वहां सीमा नहीं होती।
सारी दुनिया की स्त्रियों को एक तो बुनियादी यह खयाल जाग जाना चाहिए कि हम एक नई संस्कृति को, एक नये समाज को, एक नई सभ्यता को जन्म दे सकते हैं–जो पुरुष के आधार हैं, उनके ठीक विपरीत आधार रख कर। भारत में यह बहुत सुविधा से हो सकता है। भारत में यह रूपांतरण बहुत आसानी से हो सकता है।
तो पहली तो बात यह है कि दुनिया की स्त्रियों की एक शक्ति और एक आवाज और एक आत्मा निर्मित होनी चाहिए। और वह आवाज दो तरह की बगावत करे। पुरुष की सारी संस्कृति को कहे कि गलत। और वह गलत है। अधूरी है और खतरनाक है।
दूसरी बात, स्त्री के मन में जो प्रेम है, उस प्रेम का भी पूरा विकास नहीं हो सका है। पुरुष ने उस पर भी दीवालें बांधी हैं। उस पर भी उसने कारागृह खड़ा किया है कि प्रेम की इतनी सीमा है, इससे आगे मत जाने देना। प्रेम से पुरुष बहुत भयभीत है। वह प्रेम पर पच्चीस रुकावटें डालता है, कारागृह बनाता है। उन कारागृहों ने दुनिया में स्त्रियों के प्रेम को विकसित नहीं होने दिया, फैलने नहीं दिया; उस सुगंध से दुनिया को भरने नहीं दिया। स्त्री को उस तरफ भी बगावत करनी जरूरी है कि वह कहे कि प्रेम पर सीमाएं हम तोड़ेंगे। प्रेम की कोई सीमा नहीं है और प्रेम की अपनी पवित्रता है। सारी सीमाएं उस पवित्रता को नष्ट करती हैं और गंदा करती हैं। उस सीमा को फैलाना है। उसकी सीमा बढ़नी चाहिए, फैलनी चाहिए।
और अगर वह फैलती है, तो जैसे पजेसिव पुरुष की एक प्रवृत्ति है पजेस करने की…। कभी आपने खयाल किया? पुरुष की सारी प्रवृत्ति है–इकट्ठा करो! मालिक बन जाओ! स्त्री की सारी प्रवृत्ति होती है–दे दो! मालकियत छोड़ दो, किसी को दे दो! स्त्री का सारा आनंद दे देने में है और पुरुष का सारा आनंद कब्जा कर लेने में है। यह कब्जा करने वाला पुरुष ही दुनिया में युद्ध का कारण बना है।
अगर दुनिया में कभी भी हमें एक गैर-युद्ध वाली दुनिया बनानी हो, तो ध्यान रखना पड़ेगा, इकट्ठा कर लेना, पजेस कर लेना, मालिक बन जाना, इसकी प्रवृत्ति की जगह दे देने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी।
मैंने सुना है, एक छोटा सा गीत रवींद्रनाथ ने लिखा है। और मुझे बहुत प्रीतिकर लगी वह कहानी जो उस गीत में उन्होंने गाई है। गाया है कि एक भिखारी एक दिन सुबह अपने घर के बाहर निकला। त्यौहार का दिन है। आज गांव में बहुत भिक्षा मिलने की संभावना है। वह अपनी झोली में थोड़े से दाने डाल कर चावल के बाहर आया।
चावल के दाने उसने डाल लिए हैं अपनी झोली में। क्योंकि झोली अगर भरी दिखाई पड़े तो देने वाले को आसानी होती है, उसे लगता है कि किसी और ने भी दिया है। सब भिखारी अपने हाथ में पैसे घर से लेकर निकलते हैं, ताकि देने वाले को संकोच मालूम पड़े कि नहीं दिया तो अपमानित हो जाऊंगा, और लोग दे चुके हैं! आपकी दया…आपकी दया काम नहीं करती भिखारी को देने में। आपका अहंकार काम करता है–और लोग दे चुके हैं, अब मैं कैसे न दूं!
वह डाल कर निकला है थोड़े से दाने। थोड़े से दाने उसने डाल रखे हैं चावल के। बाहर निकला है। सूरज निकलने के करीब है। रास्ता सोया है। अभी लोग जाग रहे हैं। देखा है उसने, राजा का रथ आ रहा है! स्वर्ण-रथ, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ! उसने कहा, धन्य भाग्य मेरे! भगवान को धन्यवाद! आज तक कभी राजा से भिक्षा नहीं मांग पाया, क्योंकि द्वारपाल बाहर से ही लौटा देते हैं। आज तो रास्ता रोक कर खड़ा हो जाऊंगा। आज तो झोली फैला दूंगा। और कहूंगा, महाराज! पहली दफे ही भिक्षा मांगता हूं। फिर सम्राट तो भिक्षा देंगे तो वह कोई ऐसी भिक्षा तो न होगी। जन्म-जन्म के लिए मेरे दुख पूरे हो जाएंगे। वह कल्पनाओं में खोकर खड़ा हो गया।
रथ आ गया। वह भिखारी अपनी झोली खोले, इससे पहले ही राजा नीचे उतर आया। राजा को देख कर भिखारी घबड़ा गया है और राजा ने अपनी झोली, अपना वस्त्र उस भिखारी के सामने कर दिया। तब तो वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा, आप! और झोली फैलाते हैं?
राजा ने कहा, ज्योतिषियों ने कहा है कि देश पर हमले का डर है। और अगर मैं जाकर आज राह पर भीख मांग लूं तो देश बच सकता है। तो पहला आदमी जो मुझे मिले, उसी से भीख मांगनी है। तुम्हीं पहले आदमी हो। कृपा करो, कुछ दान दे दो! राष्ट्र बच जाए।
उस भिखारी के तो प्राण निकल गए। उसने हमेशा मांगा था। दिया तो कभी भी नहीं था। देने की उसे कोई कल्पना ही नहीं थी। कैसे दिया जाता है, इसका कोई अनुभव न था। सब मांगता था। बस मांगता था। और देने की बात आ गई, तो उसके प्राण तो रुक ही गए! मिलने का तो सपना गिर ही गया। और देने की उलटी बात! उसने झोली में हाथ डाला। मुट्ठी भर दाने हैं वहां। भरता है मुट्ठी, छोड़ देता है। हिम्मत नहीं होती कि दे दे।
राजा ने कहा, कुछ तो दे दो! देश का खयाल करो! ऐसा मत करना कि मना कर दो। अन्यथा बहुत हानि हो जाएगी।
बामुश्किल, बहुत कठिनाई से एक दाना भर उसने निकाला और राजा के वस्त्र में डाल दिया। राजा रथ पर बैठा। रथ चला गया। धूल उड़ती रह गई। और साथ में दुख रह गया कि एक दाना अपने हाथ से आज देना पड़ा है। भिखारी का मन देने का नहीं होता। दिन भर भीख मांगी, बहुत भीख मिली, लेकिन चित्त में दुख वही बना रहा एक दाने का, जो दिया था।
कितना ही मिल जाए आदमी को, जो मिल जाता है उसका धन्यवाद नहीं होता, जो नहीं मिल पाया, जो छूट गया, जो नहीं है पास, उसकी पीड़ा होती है।
लौटा सांझ दुखी। इतना कभी नहीं मिला था! झोला लाकर पटका। पत्नी नाचने लगी। कहा, इतनी मिल गई भीख!
उसने कहा, नाच मत पागल! तुझे पता नहीं, एक दाना कम है, जो अपने पास हो सकता था।
फिर झोली खोली। सारे दाने गिर पड़े। फिर वह भिखारी छाती पीट कर रोने लगा। अब तक तो सिर्फ उदास था, अब रोने लगा। देखा कि दानों की उस कतार में, उस भीड़ में, उस ढेर में, एक दाना सोने का हो गया है! तब तो वह चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा कि मैं अवसर चूक गया। बड़ी भूल हो गई। मैं सब दाने दे देता तो वे सब सोने के हो जाते। लेकिन कहां खोजूं अब उस राजा को? कहां जाऊं? कहां वह रथ मिलेगा? कहां राजा द्वार पर हाथ फैलाएगा? बड़ी मुश्किल हो गई। अब क्या होगा? अब क्या होगा? वह तड़फने लगा।
उसकी पत्नी ने कहा, तुझे पता नहीं, तुझे आज तक पता नहीं शायद कि जो हम देते हैं, वही स्वर्ण का हो जाता है। जो हम इकट्ठा कर लेते हैं, वह सदा मिट्टी का हो जाता है।
जो जानते हैं, वे गवाही देंगे इस बात की–कि जो दिया है, वही स्वर्ण का हो गया है।
मृत्यु के क्षण में आदमी को पता चलता है, जो रोक लिया था, वह पत्थर की तरह छाती पर बैठ गया है। जो दिया था, जो बांट दिया था, वह हलका कर गया है। वह पंख बन गया है। वह स्वर्ण हो गया है। वह दूर की यात्रा पर मार्ग बन गया है।
लेकिन स्त्री का पूरा व्यक्तित्व देने वाला व्यक्तित्व है।
और अब तक हमने जो दुनिया बनाई है, वह लेने वाले व्यक्तित्व की है। लेने वाले व्यक्तित्व के कारण पूंजीवाद है। लेने वाले व्यक्तित्व के कारण साम्राज्यशाही है। लेने वाले व्यक्तित्व के कारण युद्ध हैं, हिंसा है। क्या हम देने वाले व्यक्तित्व के आधार पर कोई समाज का निर्माण कर सकते हैं?
यह हो सकता है। लेकिन यह पुरुष नहीं कर सकेगा। यह स्त्री कर सकती है। और स्त्री सजग हो, कांशस हो, जागे, तो कोई भी कठिनाई नहीं है। एक क्रांति–बड़ी से बड़ी क्रांति–दुनिया में स्त्री को लानी है। वह यह कि एक प्रेम पर आधारित, देने वाली संस्कृति–जो मांगती नहीं, इकट्ठा नहीं करती, देती है–ऐसी एक संस्कृति निर्मित करनी है। ऐसी संस्कृति के निर्माण के लिए जो भी किया जा सके, वह सब…उस सबसे बड़ा धर्म स्त्री के सामने आज कोई और नहीं।
यह थोड़ी सी बात मैंने कही। पुरुष के संसार को बदल देना है आमूल। स्त्री के हृदय में जो छिपा है, उसकी छाया को फैलाना है, उस वृक्ष को बड़ा करना है, तो शायद एक अच्छी मनुष्यता का जन्म हो सकता है। स्त्री के जीवन और चेतना की क्रांति सारी मनुष्यता के लिए क्रांति बन सकती है।
कौन करेगा लेकिन यह?
स्त्रियां न सोचतीं, न विचारतीं। स्त्रियां न इकट्ठी हैं, न उनकी कोई सामूहिक आवाज है, न उनकी कोई आत्मा है! शायद पुरानी पीढ़ी नहीं कर सकेगी। लेकिन नई पीढ़ी की लड़कियां कुछ अगर हिम्मत जुटाएंगी और सिर्फ पुरुष होने की नकल और बेवकूफी में नहीं पड़ेंगी, तो यह क्रांति निश्चित हो सकती है। उनकी तरफ बहुत आशा से भर कर देखा जा सकता है।
मेरी ये बातें इतने प्रेम और शांति से सुनीं, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।