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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

20 अप्रैल 2022

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मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है।

पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति।

दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति।

और तीसरा सूत्र आज। इस तीसरे सूत्र को समझने के लिए मन का एक बहुत अदभुत राज समझ लेना आवश्यक है।

मन की बड़ी अदभुत प्रक्रिया है, साधारणतः पहचान में न पड़े ऐसी। और वह प्रक्रिया यह है कि मन को जिस ओर से बचाने की कोशिश की जाए, मन उसी ओर जाना शुरू हो जाता है; जहां से मन को हटाया जाए, मन वहीं पहुंच जाता है; जिस तरफ पीठ की जाए, मन के सामने वही सदा के लिए उपस्थित हो जाता है। निषेध मन के लिए निमंत्रण है, विरोध मन के लिए बुलावा है। और मनुष्य-जाति इस नियम को बिना समझे आज तक जीने की कोशिश की है!

फ्रायड ने अपनी जीवन-कथा में एक छोटा सा उल्लेख किया है। लिखा है उसने कि एक संध्या विएना के बगीचे में वह अपनी पत्नी और अपने छोटे बेटे के साथ घूमने गया। देर तक फ्रायड अपनी पत्नी से बातचीत करता रहा, टहलता रहा। फिर सांझ हो गई, द्वार बंद होने लगे बगीचे के, तो वे दोनों बगीचे के द्वार पर आए, तब पत्नी को खयाल आया कि उनका बेटा तो न मालूम कितनी देर से उन्हें छोड़ कर चला गया है! इतने बड़े बगीचे में वह पता नहीं कहां होगा! द्वार बंद होने के करीब हैं, उसे कहां खोजूं? फ्रायड की पत्नी चिंतित हो गई और घबड़ा गई।

फ्रायड ने कहा, घबड़ाओ मत! एक प्रश्न मैं पूछता हूं, तुमने उसे कहीं जाने को मना तो नहीं किया? अगर मना किया हो तो सौ में निन्यानबे मौके तुम्हारे बेटे के उसी जगह होने के हैं, जहां तुमने मना किया हो।

उसकी पत्नी ने कहा, मैंने मना किया था कि फव्वारे पर मत पहुंच जाना।

फ्रायड ने कहा, अगर तुम्हारे बेटे में थोड़ी भी बुद्धि है, तो वह फव्वारे पर होगा। कई बेटे ऐसे भी होते हैं, जिनमें बुद्धि नहीं होती। उनका हिसाब रखना फिजूल है।

पत्नी बहुत हैरान हुई। वे गए दोनों भागे हुए, वह बेटा फव्वारे पर पैर लटकाए हुए पानी से खिलवाड़ करता था।

फ्रायड की पत्नी उससे कहने लगी, बड़ा आश्चर्य! तुमने कैसे पता लगा लिया कि बेटा वहां होगा?

फ्रायड ने कहा, आश्चर्य इसमें कुछ भी नहीं। जहां रोका जाए जाने से मन को, मन वहां जाने के लिए आकर्षित हो जाता है। जहां कहा जाए, मत जाओ! वहां एक छिपा हुआ रस, एक रहस्य शुरू हो जाता है। फ्रायड ने कहा, यह तो आश्चर्य नहीं है कि मैंने तुम्हारे बेटे का पता लगा लिया, आश्चर्य यह है कि मनुष्य-जाति इस छोटे से सूत्र का पता अब तक नहीं लगा पाई है!

और सच ही मनुष्य-जाति अब तक इस छोटे से सूत्र का पता नहीं लगा पाई। और इस छोटे से सूत्र को बिना जाने जीवन का कोई रहस्य कभी उदघाटित नहीं हो सकता। इस छोटे से सूत्र का पता न होने के कारण मनुष्य-जाति ने अपना सारा धर्म, सारी नीति, सारी समाज की व्यवस्था सप्रेशन पर, दमन पर खड़ी की है। मनुष्य का जो व्यक्तित्व हमने खड़ा किया है, वह दमन पर खड़ा है, दमन उसकी नींव है।

और दमन पर खड़ा हुआ आदमी लाख उपाय करे, जीवन की ऊर्जा का साक्षात्कार उसे कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जिस-जिस का उसने दमन किया है, मन उसी से उलझा-उलझा नष्ट हो जाता है।

थोड़ा सा प्रयोग करें, और पता चल जाएगा। किसी बात से मन को बचाने की कोशिश करें, और पाएंगे मन उसी बात के आस-पास घूमने लगा। किसी विचार को भूलने की कोशिश करें, और वही भूलने की कोशिश उस बात को स्मरण करने का आधार बन जाएगी। किसी तत्व को, किसी विचार को, किसी स्मृति को, किसी इमेज को, किसी प्रतिमा को मन से निकालने की कोशिश करें, और मन के मंदिर में वही प्रतिमा विराजमान हो जाएगी। लड़ें और देखें, और पाएंगे कि जिससे लड़ेंगे, उसी से हार जाएंगे; जिससे भागेंगे, वही पीछा करेगा। जैसे छाया पीछा करती है। भागते चले जाएं, और छाया उतनी ही तेजी से पीछा करती है।

मन को हम भगा रहे हैं। और मन को हमने इतनी जगह से भगाया है कि हम यह भूल ही गए हैं अब कि मन को कहां होना चाहिए। मन वहीं-वहीं हो गया है, जहां-जहां हमने उसे इनकार किया है; जहां-जहां हमने द्वार बंद किए हैं, मन वहीं दस्तक दे रहा है।

क्रोध से लड़ें–और मन क्रोध के पास ही खड़ा हो जाएगा। हिंसा से लड़ें–और मन हिंसक हो जाएगा। मोह से लड़ें–और मन मोह से बंध जाएगा। लोभ से लड़ें–और मन लोभ में गिर जाएगा। धन से लड़ें–और मन धन के प्रति ही पागल हो उठेगा। काम से लड़ें, सेक्स से लड़ें–और मन सेक्सुअल हो जाएगा, कामुक हो जाएगा। जिससे लड़ेंगे, मन वही हो जाएगा। यह बड़ी अजीब बात है! जिसको दुश्मन बनाएंगे, मन पर उस दुश्मन की ही प्रतिछवि अंकित हो जाएगी। मित्रों को मन भूल जाता है, शत्रुओं को मन कभी भी नहीं भूलता है।

लेकिन यह हो सकता है कि जिससे हम लड़ें, मन उसके साथ ढल जाए, लेकिन उसकी शक्ल बदल ले, नाम बदल ले।

मैंने सुना है, एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी था। इतना क्रोधी कि उसने अपनी पत्नी को धक्का देकर कुएं में गिरा दिया। जब पत्नी मर गई और उसकी लाश निकाली गई, तो वह क्रोधी आदमी जैसे एक नींद से जाग गया! उसे याद आया कि उसने जिंदगी में सिवाय क्रोध के और कुछ भी नहीं किया! इस दुर्घटना में वह एकदम सचेत हो गया। उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ। गांव में एक मुनि आए थे। वह मुनि के दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर रख कर रोया, और उसने कहा कि मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊं? क्या रास्ता है? मैं कैसे इस क्रोध से बचूं?

मुनि ने कहा कि संन्यासी हो जाओ। छोड़ दो वह सब, जो तुम कल तक पकड़े थे।

लेकिन मजा यह है कि जिसे छोड़ो, छोड़ने के कारण ही वह और पकड़ जाता है। लेकिन वह थोड़ी गहरी बात है, वह एकदम से दिखाई नहीं पड़ती!

कहा, छोड़ दो सब! क्रोध को भी छोड़ दो! संन्यासी हो जाओ, शांत हो जाओ!

अब कोई क्रोध को छोड़ सकता है?

वह आदमी संन्यासी हो गया। उसने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिए और नग्न हो गया! और उसने कहा कि मुझे दीक्षा दें इसी क्षण!

मुनि बहुत हैरान हुए। बहुत लोग उन्होंने देखे थे, ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं देखा था जो इतनी शीघ्रता से संन्यासी हो जाए। उन्होंने कहा कि तू अदभुत है! तेरा संकल्प महान है! तेरा संयम महान है! तू इतनी शीघ्रता से संन्यासी होने को तैयार हो गया है सब छोड़ कर!

लेकिन मुनि को भी पता नहीं कि यह क्रोध ही है। यह क्रोध का ही दूसरा रूप है। वह आदमी, जो अपनी पत्नी को एक क्षण में धक्का दे सकता है, वह एक क्षण में नंगा खड़ा होकर संन्यासी भी हो सकता है। इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। ये एक ही क्रोध के दो रूप हैं।

मुनि बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम रख दिया–शांतिनाथ।

वह मुनि शांतिनाथ हो गया। और भी शिष्य थे मुनि के, लेकिन उस मुनि शांतिनाथ का मुकाबला करना बहुत मुश्किल था, क्योंकि उतना क्रोधी उनमें कोई भी नहीं था। दूसरे दिन में एक बार भोजन करते, तो शांतिनाथ दो-दो दिन तक भोजन नहीं करते। क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है! दूसरे सीधे रास्ते से चलते थे, तो मुनि शांतिनाथ उलटे, कांटों भरे रास्ते पर चलते! दूसरे छाया में बैठते थे, तो मुनि शांतिनाथ धूप में खड़े रहते! सूख गया शरीर, कृश हो गया, काला पड़ गया, पैर में घाव पड़ गए; लेकिन मुनि की कीर्ति फैलनी शुरू हो गई, कि मुनि महान तपस्वी हैं। वह सब क्रोध ही था, जो स्वयं पर लौट आया था। वह क्रोध था, जो दूसरों पर प्रकट होता रहा था, अब वह अपने पर ही प्रकट हो रहा था।

सौ में से निन्यानबे तपस्वी स्वयं पर लौटे हुए क्रोध का परिणाम होते हैं। दूसरों को सताने की चेष्टा रूपांतरित होकर खुद को सताने की चेष्टा भी बन सकती है। असल में, सताने की इच्छा असली सवाल है। किसको सताने का, यह बड़ा सवाल नहीं है। दूसरों को भी सताया जा सकता है, खुद को भी सताया जा सकता है। सताने में मजा है, क्रोधी आदमी का रस है।

अब उसने दूसरों को सताना बंद कर दिया था, क्योंकि दूसरे तो थे ही नहीं; अब तो वही था, अपने को ही सता रहा था। और पहली बार एक नई घटना घटी थी: दूसरों को सताने में लोग अपमान करते थे, खुद को सताने में लोग सम्मान करने लगे थे! लोग कहते थे महातपस्वी! मुनि की कीर्ति फैलती गई। जितनी कीर्ति फैलती गई, मुनि अपने को उतना ही टार्चर, उतना ही अपने साथ दुष्टता करते चले गए। जितनी उन्होंने दुष्टता की, उतना यश, उतना सम्मान। दो-चार वर्षों में ही गुरु से भी ज्यादा उनकी प्रतिष्ठा हो गई। फिर वे देश की राजधानी में आए।

मुनियों को देश की राजधानी में जाना बहुत जरूरी रहता है। अगर आप संन्यासियों को खोजना चाहते हों तो हिमालय जाने की कोई जरूरत नहीं है, देश की राजधानियों में चले जाइए और वहां सब मुनि और सब संन्यासी अड्डा जमाए हुए मिल जाएंगे।

वे मुनि भी राजधानी की तरफ चले। राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था। उसे खबर मिली, वह बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी था, वह शांतिनाथ हो गया! चमत्कार है! जाऊं, दर्शन करूं। वह मित्र दर्शन करने आया। मुनि अपने तखत पर सवार थे। देख लिया, मित्र को पहचान भी गए। लेकिन जो लोग भी तखत पर सवार हो जाते हैं, वे कभी किसी को आसानी से नहीं पहचानते। फिर पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक भी न था। उससे हम भी कभी इसी जैसे रहे हैं, इसका पता चलता है। देख लिया, पहचाने नहीं। मित्र भी समझ गया कि पहचान तो लिया है, लेकिन फिर भी पहचान नहीं रहे हैं।

आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जाएं, उनको पहचाने न। और जब बहुत लोग उसको पहचानने लगते हैं, तो वह सबको पहचानना बंद कर देता है। पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही यह है: तुम्हें सब पहचानें, लेकिन तुम्हें किसी को न पहचानना पड़े।

मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि मुनि जी, क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है?

मुनि जी को क्रोध आ गया। कहा, अखबार नहीं पढ़ते हो! रेडियो नहीं सुनते हो! मेरा नाम पूछते हो? मेरा नाम जगत-जाहिर है, मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ!

उनके बताने का ढंग, मित्र समझ गया कि कोई बदलाहट तो नहीं हुई है, आदमी तो यह वही है, सिर्फ नग्न खड़ा हो गया है। दो मिनट दूसरी बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछा कि महाराज, मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?

मुनि की तो आंखों में आग जल उठी। उन्होंने कहा, मूढ़! नासमझ! इतनी भी बुद्धि नहीं है! अभी मैंने तुझे कहा था कि मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ।

मित्र, दो मिनट और दूसरी बातें चलती रहीं, सुनता रहा। फिर उसने पूछा कि महाराज, मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?

मुनि ने डंडा उठा लिया और कहा कि सिर तोड़ दूंगा! नाम समझ में नहीं आता? मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ!

तो उस मित्र ने कहा, सब समझ में आ गया। वही समझ में आने के लिए तीनत्तीन बार पूछ रहा हूं। नमस्कार है! आप वही के वही हैं, कोई फर्क नहीं पड़ा! आप वही के वही हैं, कोई फर्क नहीं पड़ा!

दमन से कभी कोई फर्क नहीं आता है। लेकिन दमन से चीजों की शक्ल बदल जाती है। और शक्ल बदल जाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि तब बदली हुई शक्ल में उनको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है। आदमी के भीतर काम हो, सेक्स हो, वासना हो, उसे पहचानना सरल है। लेकिन आदमी ब्रह्मचर्य की जबरदस्ती कोशिश में लग जाए, तो उस ब्रह्मचर्य के पीछे भी सेक्सुअलिटी होगी, कामुकता होगी; लेकिन उसको पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि वस्त्र बदल कर आ गई है वह।

ब्रह्मचर्य एक तो वह है, जो चित्त के परिवर्तन से उपलब्ध होता है, जो जीवन के अनुभव से उपलब्ध होता है। एक शांति वह है, जो जीवन की अनुभूति की छाया की तरह आती है। और एक शांति वह है, जो क्रोध को दबा कर, थोप कर ऊपर बैठ जाती है। एक ब्रह्मचर्य वह है, जो भीतर वासना को दबा कर, उसकी गर्दन को पकड़ कर खड़ा हो जाता है। ऐसा ब्रह्मचर्य कामुकता से भी बदतर है; क्योंकि कामुकता पहचान में आती है। और दुश्मन पहचान में आता हो तो उसके साथ कुछ किया जा सकता है; और दुश्मन पहचान में भी न आता हो, तब बहुत कठिनाई हो जाती है। खुद को ही पहचान मुश्किल हो जाती है।

मैं एक साध्वी के साथ समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। वे साध्वी परमात्मा की और आत्मा की बातें कर रही थीं। हम सभी बातें आत्मा-परमात्मा की करते हैं, जिनसे हमारा कोई भी संबंध नहीं है। और जिन बातों से हमारा संबंध है, उनकी हम बात नहीं करते। क्योंकि वे छोटी-छोटी क्षुद्र बातें हैं। हम तो ऊंची बातें, आकाश की बातें करते हैं, पृथ्वी की बातें नहीं करते–जिस पृथ्वी पर चलना पड़ता है, और जिस पृथ्वी पर जीना पड़ता है, और जिस पृथ्वी पर जन्म होता है, और जिस पृथ्वी पर लाश गिरती है अंत में–उस पृथ्वी की हम बात नहीं करते! हम बात आकाश की करते हैं, जहां न हम जीते हैं, न हम चलते हैं!

वे भी आत्मा-परमात्मा की बात कर रही थीं। आत्मा-परमात्मा की बात आकाश की बात है। हवा का झोंका आया, मेरी चादर उड़ी और साध्वी को छू गई–जैसे बिच्छू छू गया हो, वे इतनी घबड़ा गईं!

मैंने पूछा, क्या हुआ?

उन्होंने कहा, पुरुष की चादर! पुरुष की चादर छूने का निषेध है।

मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा, चादर भी पुरुष और स्त्री हो सकती है, यह मैंने पहली दफे जाना। चमत्कार है! चादर भी स्त्री और पुरुष हो सकती है!

लेकिन ब्रह्मचर्य चादर को भी स्त्री-पुरुष में परिवर्तित कर देता है। यह सेक्सुअलिटी की अति हो गई, कामुकता की अति हो गई।

मैंने कहा, देवी, अभी तुम आत्मा की बातें करती थीं और कहती थीं–मैं शरीर ही नहीं हूं। और अब तुम चादर भी हो? अभी क्षण भर पहले तुम शरीर भी नहीं थीं। यह शरीर तो मिट्टी है।

अब यह चादर भी सेक्स-सिंबल बन गई, अब वह भी प्रतीक बन गई। सागर की हवाओं को क्या पता कि चादर भी पुरुष की होती है, अन्यथा सागर की हवाएं भी नियम, कोई नीति का ध्यान रखतीं। गलती हो गई सागर की हवाओं से।

वे कहने लगीं कि पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, उपवास करना पड़ेगा।

मैंने उनसे कहा, करो उपवास जितना करना हो! लेकिन चादर के संपर्क से भी जिसे पुरुष का भाव पैदा होता हो, उसका चित्त ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता।

लेकिन नहीं, हम इसी तरह के ब्रह्मचर्य को पकड़े रहते हैं, इसी तरह का अलोभ, इसी तरह का त्याग, इसी तरह की नैतिकता, इसी तरह का धर्म! सब झूठा है।

दमन जहां है, वहां सब झूठा है। भीतर कुछ और हो रहा है, बाहर कुछ और हो रहा है।

अब इस साध्वी को दिखाई ही नहीं पड़ सकता कि यह अति कामुकता है। यह रुग्ण कामुकता हो गई; यह बीमार स्थिति हो गई कि चादर भी स्त्री और पुरुष होती है! चादर से भी डर पैदा हो जाएगा। ठीक ब्रह्मचर्य हो तो स्त्री और पुरुष ही मिट गए। जिस ब्रह्मचर्य में पुरुष और स्त्री न मिट गए हों, वह ब्रह्मचर्य नहीं है।

बुद्ध एक जंगल में कुछ दिनों साधना करते थे। एक रात, पूर्णिमा की रात, पूरा चांद आकाश में खिला था, कुछ युवा एक वेश्या को लेकर वहां आए–रात्रि भ्रमण को, नौका विहार को। पास में झील थी। लाए होंगे शराब, पीकर शराब नाचने लगे होंगे। उस वेश्या के वस्त्र छीन कर उसे नंगा कर दिया होगा। उन्हें शराब में झूमता देख कर वह वेश्या भाग गई। रात आधी उन्हें होश आया, तो खोजने निकले। वेश्या तो नहीं मिली, एक झाड़ के नीचे बुद्ध बैठे हुए मिल गए। वे उनसे पूछने लगे कि महाशय, यहां से एक नंगी स्त्री को, एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा? रास्ता यही है। यहीं से वह गई होगी। रास्ते पर धूल पर उसके पदचिह्न बने हैं। आप यहां कब से बैठे हुए हैं? यहां से कोई नंगी स्त्री भागती तो नहीं गई? एक वेश्या यहां से भाग गई है।

बुद्ध ने कहा, कोई गया जरूर है, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह बताना मुश्किल है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था, तब मुझे स्त्री दिखाई पड़ती थी। न भी देखो, तो दिखाई पड़ती थी। बचना भी चाहो, तो भी दिखाई पड़ती थी। आंखें कितनी ही और कहीं मोड़ो, वे आंखें स्त्री को ही देखती थीं। जब से मेरा पुरुष विदा हो गया, तब से बहुत खयाल करूं तो पता चलता है कौन स्त्री है, कौन पुरुष है। कोई निकला जरूर, लेकिन कौन था, यह कहना मुश्किल है। तुम पहले क्यों न आए? कह गए होते कि यहां से कोई निकले थोड़ा ध्यान रखना, तो मैं ध्यान रख सकता था। और यह बताना तो और भी मुश्किल है कि जो निकला है वह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था। क्योंकि जब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थी, तब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिन अब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गई है। इसलिए खयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है।

दूसरे में हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हममें होता है। दूसरे में हमें वह नहीं दिखाई पड़ता, जो हममें न हो। बहुत मुश्किल है! हर दूसरा आदमी दर्पण की तरह काम करता है, उसमें हम दिखाई पड़ते हैं।

बुद्ध कहने लगे, अब तो मुझे याद नहीं आता, क्योंकि किसी को नंगा देखने की कोई कामना नहीं है। इसलिए पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी। लेकिन तुम उसकी चिंता में क्यों पड़े हो?

उन्होंने कहा कि हम चिंता न करें? हम उसे लाए थे आमोद-प्रमोद के लिए, आनंद के लिए। और वह भाग गई है। हम उसे खोज रहे हैं।

बुद्ध ने कहा, तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करे लेकिन किसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जाए कि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोज कर अपने को खोजते, तो शायद आनंद के ज्यादा निकट हो सकते थे। लेकिन तुम जाओ, तुम खोजो जिसे तुम्हें खोजना है। मैंने भी बहुत दिन तक दूसरों को खोजा, लेकिन दूसरों को खोज कर मैंने कुछ भी न पाया। और जब से अपने को खोजा है, तब से वह सब पा लिया है जिसे पाने की कोई भी कामना हो सकती है।

यह आदमी, यह बुद्ध ब्रह्मचर्य में रहा होगा। लेकिन चादर पुरुष हो जाए तो ब्रह्मचर्य नहीं है। और इस देश का दुर्भाग्य कि दमन के कारण इस देश का सारा व्यक्तित्व कुरूप, विकृत, परवर्टेड हो गया है। एक-एक आदमी भीतर उलटा है, बाहर उलटा है। भीतर आत्मा शीर्षासन कर रही है। भीतर हम सब सिर के बल खड़े हुए हैं। जो नहीं है भीतर, वह हम बाहर दिखला रहे हैं। और दूसरे धोखे खा जाएं, इससे कोई बहुत हर्जा नहीं है। हम खुद ही धोखा खा जाते हैं। लंबे अर्से में हम खुद ही भूल जाते हैं कि हम यह क्या कर रहे हैं। दमन मनुष्य की आत्मा की असलियत को छिपा देता है और झूठा आवरण पैदा कर देता है। और फिर इस दमन में हम, जिंदगी भर जिसे दमन किया है, उससे ही लड़ कर गुजारते हैं।

ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला आदमी चौबीस घंटे सेक्स की ही चिंतना में व्यतीत करता है। उपवास करने वाला चौबीस घंटे भोजन करता है। यह तो आपने उपवास किया होगा तो पता होगा। उपवास करें, और चौबीस घंटे भोजन करना पड़ेगा। हां, भोजन मानसिक होगा, शारीरिक नहीं होगा। लेकिन शारीरिक भोजन का कुछ फायदा भी हो सकता है, मानसिक भोजन का सिवाय नुकसान के और कोई भी फायदा नहीं है। वह जिसने दिन भर खाना नहीं खाया है, वह दिन भर खाने की सोचेगा ही। स्वाभाविक है।

नहीं, उपवास का यह अर्थ नहीं है कि आदमी खाना न खाए। उपवास का अर्थ अनाहार नहीं है। अनाहार करने वाला दिन भर आहार करता है। उपवास का अर्थ दूसरा है। दमन नहीं है उपवास का अर्थ। लेकिन दमन ही उसका अर्थ बन गया है। उपवास का अर्थ भोजन न करना नहीं है।

उपवास का अर्थ है: आत्मा के निकट आवास।

और आत्मा के निकट कोई इतना पहुंच जाए कि उसे भोजन का खयाल न आए, वह बात दूसरी है; कोई इतने भीतर उतर जाए कि बाहर का पता भी न चले कि शरीर भूखा है, वह बात दूसरी है; कोई इतने गहरे में चला जाए कि शरीर को प्यास लगी है कि भूख लगी है, इसकी खबर न पहुंचती हो, यह बात दूसरी है। लेकिन कोई, भोजन नहीं खाऊंगा–ऐसा संकल्प करके बैठ जाए, तो दिन भर उसे भोजन करना पड़ता है; वह उपवास नहीं है।

दमन धोखा पैदा करता है। दमन, वह जो असलियत है उपलब्धि की, वह जो अनुभूति की, वह जो सत्य है, उसकी तरफ बिना ले जाए, बाहर परिधि पर ही संघर्ष करके जबरदस्ती कुछ पैदा करने की कोशिश करता है। और यह कोशिश बहुत मंहगी पड़ जाती है।

हिंदुस्तान में ब्रह्मचर्य की बात चल रही है तीन हजार वर्ष से। और इस बात को कहने में मुझे जरा भी अतिशयोक्ति नहीं मालूम पड़ती कि आज इस पृथ्वी पर हमसे ज्यादा कामुक चित्त किसी समाज का नहीं है। नहीं होगा। नहीं हो सकता है। क्योंकि जिससे हम लड़े हैं वही हमारे भीतर घाव की तरह पैदा हो गया है। चौबीस घंटे उसी से लड़ रहे हैं। छोटे से बच्चे से लेकर मरते हुए बूढ़े तक सेक्स की लड़ाई चल रही है।

कोरिया में दो फकीर थे, मैंने उनके जीवन में पढ़ा। दो भिक्षु एक दिन सांझ अपने आश्रम वापस लौटते हैं। एक बूढ़ा भिक्षु है, एक युवा भिक्षु है। आश्रम के पहले ही एक छोटी सी पहाड़ी नदी है। सांझ हो गई है, सूरज ढलता है। एक युवती खड़ी है उस पहाड़ी नदी के किनारे। उसे भी नदी पार होना है। लेकिन डरती है, अनजान है शायद नदी, परिचित नहीं है, पता नहीं कितनी गहरी हो! भयभीत है।

तो वह बूढ़ा साधु आगे आया है। उसको भी समझ में पड़ गया कि वह स्त्री पार होने के लिए चिंतित है, शायद कोई सहारा मांगती है। उसका भी मन हुआ कि हाथ से सहारा दे दूं, नदी पार करवा दूं। लेकिन हाथ का सहारा देने का खयाल भर–वर्षों की दबी हुई वासना एकदम खड़ी हो गई। वह हाथ को छूने की कल्पना ही–भीतर जैसे नस-नस में, रग-रग में कोई बिजली दौड़ गई हो। तीस वर्ष से स्त्री को नहीं छुआ था। अभी छुआ नहीं था, अभी भी छुआ नहीं था। अभी सिर्फ सोचा था कि हाथ का सहारा दे दूं। लेकिन सारे प्राण कंप गए हैं। एक बुखार सारे व्यक्तित्व को घेर लिया। अपने मन को डराया, कहा कि मैंने कैसी गंदी बात सोची! कैसे पाप की बात सोची! मुझे क्या मतलब है? कोई नदी पार हो या न हो, मुझे क्या प्रयोजन है? मैं अपना जीवन क्यों बिगाडूं? अपनी साधना क्यों बिगाडूं?

बड़ी कीमती साधना होगी, जो एक लड़की का हाथ छूने से बिगड़ जाती! बड़ी बहुमूल्य साधना रही होगी! और ऐसी ही बहुमूल्य साधना के सहारे लोग मोक्ष तक पहुंचना चाहते हैं! ऐसी ही कीमती, मजबूत साधना के पुल पर चढ़ कर परमात्मा की यात्रा करना चाहते हैं!

आंख बंद कर ली उसने, क्योंकि वह स्त्री दिखाई पड़ती थी। और वह बहुत जोर से दिखाई पड़ती थी, क्योंकि मन जाग गया था, सोई हुई वासना जाग गई थी। आंख बंद करके वह नदी उतरने लगा।

अब यह आपको पता होगा, जिस चीज से आंख बंद कर ली जाए, वह उतनी सुंदर कभी नहीं होती आंख खुले में, जितनी आंख बंद करने पर हो जाती है।

आंख बंद हुई, और वह स्त्री अप्सरा हो गई!

अप्सराएं इसी तरह पैदा होती हैं–बंद आंख से पैदा हो जाती हैं। दुनिया में स्त्रियां हैं, आंख बंद करो कि अप्सराएं पैदा हुईं। अप्सराएं कहीं भी नहीं हैं; लेकिन आंख बंद से स्त्री अप्सरा हो जाती है! एकदम कविता पैदा हो जाती है; फूल खिल जाते हैं; चांदनी फैल जाती है। एक ऐसा सौंदर्य आ जाता है जो स्त्री में कहीं भी नहीं है, जो सिर्फ आदमी की कामवासना के सपने में होता है। आंख बंद करते ही सपना शुरू हो जाता है।

अब वह असली स्त्री को नहीं देख रहा है। अब एक ड्रीम, अब एक सपना, और वह स्त्री उसे बुला रही है। उसका मन कभी कहता है कि चलूं, यह तो बड़ी बुरी बात है कि किसी असहाय स्त्री को सहारा न दूं। फिर तत्काल उसका दूसरा मन कहता है कि यह सब बेईमानी है, अपने को धोखा देने की तरकीब कर रहे हो। यह सेवा वगैरह नहीं है, तुम स्त्री को छूना चाहते हो! बड़ी मुश्किल है उसकी। साधुओं की बड़ी मुश्किल होती है। खींचत्तान है भीतर, तनाव है भीतर। सारा प्राण पीछे लौट जाना चाहता है, और वह दमन करने वाला मन आगे चला जाना चाहता है। उस नदी के छोटे से घाट पर वह आदमी दो हिस्सों में बंट गया है; एक हिस्सा आगे जा रहा है, एक हिस्सा पीछे जा रहा है। उसकी अशांति, उसका टेंशन, उसकी तकलीफ हम समझ सकते हैं। यही अशांति आदमी को पागल कर देगी।

आधा हिस्सा इस तरफ जा रहा है, आधा हिस्सा उस तरफ जा रहा है। किसी तरह खींचत्तान कर उसने अपने को उस पार कर लिया है। आंखें खुल कर देखना चाहती हैं, लेकिन वह बहुत डरा हुआ है। वह भगवान का नाम लेता है, जोर-जोर से भगवान का–नमो बुद्धाय! नमो बुद्धाय!

भगवान का नाम आदमी जब भी जोर-जोर से ले, तब समझ लेना कि भीतर कुछ गड़बड़ है। उसको दबाने के लिए आदमी जोर-जोर से नाम लेता है। आदमी को ठंड लग रही हो नदी में नहाते वक्त, वह कहता है, सीता-राम, सीता-राम! वह ठंड जो लग रही है। बेचारे सीता-राम को क्यों तकलीफ दे रहे हो? उस ठंड को भुलाने की कोशिश कर रहे हो! अंधेरी गली में आदमी जाता है और कहता है, अल्लाह ईश्वर तेरे नाम! वह अंधेरे की घबड़ाहट को भुलाना चाह रहे हो।

जो आदमी परमात्मा के निकट जाता है, वह चिल्ल-पों नहीं करता भगवान के नाम की; वह चुप हो जाता है। ये जितने चिल्ल-पों और शोरगुल मचाने वाले लोग हैं, समझ लेना कि भीतर कुछ और चल रहा है। भीतर काम चल रहा है, और ऊपर राम का नाम चल रहा है।

वह भीतर औरत खींच रही है और वह किसी तरह भगवान का सहारा लेकर आगे बढ़ा जा रहा है–कि कहीं ऐसा न हो कि औरत मजबूत हो जाए और खींच ही ले। उस स्त्री को बेचारी को पता भी नहीं है कि साधु किस मुसीबत में पड़ गया है। वह अपने रास्ते पर खड़ी है।

तभी उस साधु को खयाल आया कि पीछे उसका जवान साधु भी आ रहा है। लौट कर उसने देखा कि उसको सचेत कर दे कि वह भी कहीं इसी दया करने की भूल में न पड़ जाए जिसमें मैं पड़ गया हूं। लेकिन लौट कर देखा तो भूल तो हो चुकी है। वह जवान आदमी उस औरत को कंधे पर लिए नदी पार कर रहा है। आग लग गई उस बूढ़े साधु को! न मालूम कैसा-कैसा मन होने लगा। कई बार होने लगा कि मैं उसकी जगह कंधा लगाए होता! फिर झिड़का उसने कि यह क्या पागलपन की बात, मैं और उस औरत को कंधे पर ले सकता हूं? तीस साल की साधना नष्ट करूंगा? गंदगी का ढेर है औरत का शरीर, तो उसको कंधे पर लूंगा? नरक का द्वार है यह औरत, इसको कंधे पर लूंगा?

लेकिन वह दूसरा युवक लिए चला आ रहा है। आग जल गई कि आज जाकर गुरु को कहूंगा कि यह युवक भ्रष्ट हो गया, पतित हो गया; इसे निकालो आश्रम के बाहर!

फिर उस युवक ने आकर उस युवती को किनारे पर छोड़ दिया और फिर वह चल पड़ा। फिर वे दोनों चलते रहे, मील भर तक बूढ़े ने कोई बात न की। जब वे आश्रम के द्वार पर प्रविष्ट हो रहे थे तो उस बूढ़े ने सीढ़ी पर खड़े होकर कहा कि याद रखो, मैं जाकर गुरु को कहूंगा! तुम पतित हो चुके हो! तुमने उस स्त्री को कंधे पर क्यों उठाया?

वह आदमी एकदम से चौंका। उस युवक ने कहा, स्त्री? उसको मैंने उठाया था और छोड़ भी आया। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि आप उसे अभी भी कंधे पर लिए हुए हैं। उस युवक ने कहा, सर, यू आर स्टिल कैरीइंग हर ऑन योर शोल्डर! आप अभी भी ढो रहे हैं उसे कंधे पर! मैं तो उसे उतार भी आया। और आपने तो उसे कभी कंधे पर लिया भी नहीं था; आप अभी तक उसे क्यों ढो रहे हैं? मैं तो दो घंटे से सोचता था आप किसी ध्यान में लीन हैं। मुझे यह खबर भी न थी कि आप वही ध्यान कर रहे हैं–वही नदी का किनारा, वही स्त्री को नदी का पार करना।

यह तो मैंने कहानी सुनी थी। अभी ऐसी कहानी ठीक मेरे साथ हो गई दिल्ली में, वह आपने अखबार में जरूर पढ़ ली होगी। एक महिला आई और मेरे साथ ठहर गई। उसने मुझसे पूछा कि मैं यहां ठहर जाऊं आपके पास? मैंने कहा, बिलकुल ठहर जाओ।

मुझे पता नहीं था कि मनुभाई पटेल को बड़ी तकलीफ हो जाएगी इस बात से। अगर मुझे पता होता तो संसद-सदस्य को मैं तकलीफ नहीं देता। मैं किसी को तकलीफ नहीं देना चाहता। कहता कि देवी, तुम्हारे ठहरने से मुझे तकलीफ नहीं, लेकिन मनु भाई पटेल को, बड़ौदा वालों को, उनको तकलीफ हो जाएगी। और किसी को तकलीफ देना अच्छा नहीं है। तो तुम्हें ठहरना ही हो तो जाओ, मनुभाई के कमरे में ठहर जाओ। यहां मेरे पास काहे के लिए ठहरती हो! लेकिन मुझे पता ही नहीं था। पता होता तो यह भूल न होती। लेकिन यह भूल हो गई, अज्ञान में हो गई। वह आकर सो भी गई। लेकिन दूसरे दिन तकलीफ हुई। पता चला कि मनुभाई को, उनके मित्रों को बहुत कष्ट हो गया इस बात से कि वह मेरे कमरे में सो गई। मैं तो हैरान हुआ! वह कमरे में मेरे सोई, तकलीफ उनको हो गई!

लेकिन आदमी कंधे पर उन चीजों को ढोने लगता है, जिनसे भीतर कोई लड़ाई जारी रही हो। पता नहीं चलता, खयाल में नहीं आता, पता ही नहीं चलता कि यह सब भीतर क्या हो रहा है। फिर इस बात को हुए दो महीने हो गए। वह मनुभाई मुझे मिलें तो उनसे कहूं–सर, यू आर स्टिल कैरीइंग हर ऑन योर शोल्डर? अभी भी ढो रहे हैं उस औरत को? लेकिन दो महीने हो गए, अब उनको अखबारों में, प्रेस कांफ्रेंस बुला कर खबर देने का मौका आया!

मैंने उनसे वहीं दिल्ली में कहा था कि मनुभाई, तकलीफ होगी। पीछे यह बात चलेगी, यह मिटने वाली नहीं है। तो मैं ही इसकी बात कर लूं सबके सामने।

तो वहां कहा कि नहीं, क्या बात करनी है! कुछ हर्जा नहीं है; जो हो गया, हो गया।

लेकिन मैं जानता था कि बात तो उठेगी ही, करनी ही पड़ेगी। फिर वे संसद-सदस्य हैं। संसद-सदस्यों को मुझ जैसे फकीरों के आचरण का ध्यान रखना चाहिए, नहीं तो मुल्क का आचरण बिगाड़ देंगे हम जैसे लोग। और ऐसे अच्छे संसद-सदस्य हैं, इसीलिए तो मुल्क का आचरण इतना अच्छा है, नहीं तो कभी का बिगड़ जाता। धन्यभाग हैं हमारे, मुल्क का आचरण कितना अच्छा है, अच्छे संसद-सदस्यों के कारण! जो पता लगाते हैं कि किसके कमरे में कौन सो रहा है! इसका हिसाब रखते हैं! ये लोक-सेवक हैं! लोक-सेवक होना चाहिए। मैं तो, जैसे ही मुझे खबर मिली, मैंने कहा कि इस बार इलेक्शन के वक्त अगर मुझे वक्त मिला तो जाऊंगा बड़ौदा में, लोगों से कहूंगा कि मनुभाई को ही वोट देना! इस तरह के लोगों की वजह से ही देश का चरित्र ऊंचा है, नहीं तो सब खराब हो जाएगा।

लेकिन यह दिमाग, यह दिमाग कहां से पैदा होता है? यह दिमाग कहां से आता है? यह भीतर क्या छिपा हुआ है?

वह भीतर है दमन की लंबी परंपरा। यह एक आदमी का सवाल नहीं है। यह हमारी पूरी जाति संस्कार का सवाल है। यह कोई मनुभाई का सवाल नहीं है। वे तो प्रतिनिधि हैं हमारे और आपके। हमारी सब बीमारियों के प्रतिनिधि हैं हमारे सब प्रतिनिधि–वह जो हमारे भीतर छिपा है।

हमारे भीतर क्या छिपा है?

हमने एक अजीब सप्रेशन की धारा में अपने को जोड़ रखा है! दबा रहे हैं सब! वह दबाया हुआ घाव हो जाता है। वह घाव पीड़ा देता है। उस घाव की वजह से हमें बाहर वही-वही दिखाई पड़ने लगता है जो भीतर है। सारा जगत फिर एक दर्पण बन जाता है।

नहीं! यह सप्रेशन की लंबी धारा, यह दमन की लंबी यात्रा व्यक्तित्व को नष्ट करती है। इसने जीवन के सारे स्रोतों को पायज़न से भर दिया, जहर से भर दिया। जीवन के सारे स्रोत विकृत और कुरूप हो गए हैं।

इसलिए तीसरा सूत्र आज आपसे कहना चाहता हूं: दमन से बचना, अगर जीवन को और सत्य को जानना हो! और कभी प्रभु के, परमात्मा के द्वार पर दस्तक देनी हो, तो दमन वाला चित्त वहां तक कभी नहीं पहुंचता। वह वहीं रुक जाता है, जहां दमन करता है। जिसका दमन करता है, वहीं ठहर जाता है। और उसको वहीं ठहरना पड़ता है, क्योंकि जरा ही हटा कि दमन उखड़ जाएगा और जिसको दबाया है वह प्रकट होना शुरू हो जाएगा।

अगर एक आदमी की छाती पर आप सवार हो गए, तो फिर आप उसको छोड़ कर नहीं जा सकते, क्योंकि छोड़ कर आप गए तो वह फिर निकल कर आपके ऊपर हमला करेगा। तो अगर किसी आदमी की छाती पर आप सवार हो गए, तो आप समझना कि जितना वह आपसे बंध गया, उससे भी ज्यादा आप उससे बंध गए हैं! क्योंकि आप छोड़ कर नहीं हट सकते।

तो मनुष्य जिन चीजों को दबा लेता है, उन्हीं के साथ बंध जाता है। उनको छोड़ कर हट नहीं सकता, और कहीं नहीं जा सकता। इसलिए दमन से अत्यंत साधक को सावधान रहना है। दमन पैदा करेगा–पागलपन, विक्षिप्तता, इनसेनिटी।

जितने मनोचिकित्सक हैं, उनसे पूछें, वे क्या कहते हैं। वे यह कहते हैं कि सारी दुनिया पागल हुई जा रही है दमन के कारण। पागलखाने में सौ आदमी बंद हैं, उनमें अट्ठानबे आदमी दमन के कारण बंद हैं! जिन्होंने भी जोर से दबा लिया है, उन्होंने एक विस्फोट की आग को भीतर रख लिया है। वह विस्फोट फूटना चाहता है, वह सारे व्यक्तित्व को किसी दिन तोड़ देता है, किसी दिन खंड-खंड बिखेर देता है सारे मकान को। आदमी बिखर कर टूट कर खड़ा हो जाता है। इसलिए जितना आदमी सभ्य होता चला जा रहा है, उतना ही पागल होता जा रहा है, क्योंकि सभ्यता का सूत्र दमन है।

नहीं, स्वभाव को अगर जानना है, तो दमन से नहीं जाना जा सकता है।

लेकिन आप कहेंगे, अगर हम दमन नहीं करेंगे तब तो आदमी पशु हो जाएगा। तब तो क्रोध आए तो क्रोध करना चाहिए–आप यह कहते हैं? वासना आए तो वासना भोगनी चाहिए–आप यह कहते हैं? आप लोगों को वासना में डूब जाने के लिए कहते हैं?

बिलकुल नहीं, जरा भी नहीं कहता हूं। दमन से बचने को कह रहा हूं, अभी भोग करने को नहीं कह रहा हूं। अभी एक सूत्र समझ लें, कल हम दूसरे सूत्र की बात करेंगे।

दमन से बचने का अर्थ भोग में कूद जाना नहीं है। अनिवार्यरूपेण वही एक दूसरा आल्टरनेटिव नहीं है, और विकल्प भी हैं। उन विकल्प की हम बात करेंगे। इसलिए जल्दी से यह नतीजा लेकर घर मत लौट जाना। मेरी बातों में जल्दी नतीजा नहीं लेना चाहिए, नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती है।

दमन नहीं! खुद के व्यक्तित्व से संघर्ष नहीं! खुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व नहीं!

क्योंकि खुद के व्यक्तित्व से द्वंद्व का अर्थ है, जैसे मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाने लगूं। कौन जीतेगा, कौन हारेगा? दोनों हाथ मेरे हैं! दोनों हाथों के पीछे लड़ने वाली शक्ति मेरी है! दोनों हाथों के पीछे मैं हूं। कौन जीतेगा?

कोई नहीं जीत सकता। लेकिन दोनों हाथों की लड़ाई में जीतेगा कोई भी नहीं, क्योंकि जीतने वाले दो हैं ही नहीं। लेकिन एक अदभुत घटना घट जाएगी। जीतेगा तो कोई नहीं–न बायां, न दायां–लेकिन मैं हार जाऊंगा दोनों को लड़ाने में; क्योंकि मेरी शक्ति दोनों के साथ नष्ट होगी। और मैं हार जाऊंगा शक्ति के क्षीण होने से।

जो भी दमन कर रहा है, वह किसका दमन कर रहा है? अपना ही! अपने ही चित्त के खंडों को दबा रहा है। किससे दबा रहा है? खुद के ही चित्त के दूसरे खंडों से दबा रहा है। चित्त के एक खंड को चित्त के दूसरे खंड से दबा रहा है। खुद को ही खुद से लड़ा रहा है! ऐसा आदमी अगर पागल हो जाए अंततः तो आश्चर्य क्या है!

वह तो आदमी पागल नहीं हो पाता, क्योंकि दमन करने वालों की बात पूरी तरह से कोई भी नहीं मानता है। नहीं तो सारी मनुष्यता पागल हो जाए। वह दमन करने वालों की बात पूरी तरह कोई नहीं मानता। और न मानने की वजह से थोड़ा सा रास्ता बचा रहता है कि आदमी बच जाता है।

हां, न मानने की वजह से, ऊपर से दिखलाता है कि मानता हूं, भीतर से पूरा मानता नहीं, इसलिए पाखंड और हिपोक्रेसी पैदा होती है। हिपोक्रेसी दमन की सगी बहन है। वह जो पाखंड है, वह दमन का चचेरा भाई है। दमन चलेगा, तो पाखंड पैदा होगा।

अगर पाखंड पैदा न होगा तो पागलपन पैदा होगा। पागलपन से बचना है तो पाखंडी हो जाना पड़ेगा। दुनिया को दिखाना पड़ेगा कि ब्रह्मचर्य, और पीछे से वासना के रास्ते खोजने पड़ेंगे। दुनिया को दिखाना पड़ेगा कि मुझे तो मिट्टी है धन, और भीतर गुप्त मार्गों से तिजोरियां बंद करनी पड़ेंगी। वह भीतर से चलेगा। फिर पाखंड होगा, फिर एक झूठ। लेकिन यह पाखंड बचा रहा है आदमी को, नहीं तो आदमी पागल हो जाए। अगर सीधा-सादा आदमी दमन के चक्कर में पड़ जाए तो पागल हो जाता है।

ये साधु-संन्यासी बहुत बड़े अंश में पागल होते देखे जाते हैं, उसका कारण आप समझते हैं?

लोग समझते हैं कि भगवान का उन्माद छा गया! भगवान के लिए दीवाने हो गए!

भगवान का कोई उन्माद नहीं होता है। सब उन्माद भीतर की रुग्णता से पैदा होता है। लेकिन वह भीतर अगर बहुत दमन हो तो रोग पैदा हो जाता है, उन्माद पैदा हो जाता है, पागलपन पैदा हो जाता है। लेकिन उसको हम कहते हैं–हर्षोन्माद, एक्सटैसी! एक्सटैसी वगैरह नहीं है, मैडनेस है, इनसेनिटी है।

या तो आदमी पूरा दमन करे तो पागल होगा। और या फिर पाखंड का रास्ता निकाल ले तो बच जाएगा, लेकिन पाखंडी हो जाएगा। और पाखंडी होना पागल होने से अच्छा नहीं है। पागल की फिर भी एक सिंसिआरिटी है, पागल की फिर भी एक निष्ठा है; पाखंडी की तो कोई निष्ठा नहीं, कोई नैतिकता नहीं, कोई ईमानदारी नहीं।

मगर दमन यही दो विकल्प पैदा करता है। आप अपने से लड़े, और आप गलत रास्ते पर गए।

अपने से नहीं लड़ना है। अपने से लड़ना अधार्मिक है। दमन मात्र अधार्मिक है। दमन मात्र मनुष्य को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना दुनिया में किसी और शत्रु ने कभी नहीं पहुंचाया। उस दिन ही मनुष्य पूरी तरह स्वस्थ होता है, जिस दिन सारे दमन से मुक्त होता है; जिस दिन उसके भीतर कोई कांफ्लिक्ट नहीं, कोई द्वंद्व नहीं। जिस दिन भीतर द्वंद्व नहीं होता है, उसी दिन उस एक का दर्शन होता है, जो भीतर है।

अगर ठीक से समझें, तो दमन मनुष्य को विभक्त करता है, डिवाइड करता है। और दमन जिस व्यक्ति के भीतर होगा, वह फिर इंडिविजुअल नहीं रह जाएगा, वह व्यक्ति नहीं रह जाएगा; वह विभक्त हो जाएगा, उसके कई टुकड़े हो जाएंगे; वह स्कीजोफ्रेनिक हो जाएगा। दमन न होगा व्यक्ति में तो योग की स्थिति उपलब्ध होगी।

योग का अर्थ है–जोड़; योग का अर्थ है–इंटीग्रेशन; योग का अर्थ है–एक।

लेकिन एक कौन हो सकता है? एक व्यक्तित्व किसका हो सकता है?

उसका जो लड़ नहीं रहा है; उसका जो अपने को खंड-खंड में नहीं तोड़ रहा है; जो अपने भीतर नहीं कह रहा है–यह बुरा है, यह अच्छा है; इसको बचाऊंगा, इसको छोडूंगा। जिसने भी अपने भीतर बुरे और अच्छे का भेद किया, वह दमन में पड़ जाएगा।

दमन से बचने का सूत्र है: अपने भीतर जो भी है, उसकी पूर्ण स्वीकृति, टोटल एक्सेप्टबिलिटी। जो भी है–सेक्स है, लोभ है, क्रोध है, मान है, अहंकार है–जो भी है भीतर, उसकी सर्वांगीण स्वीकृति प्राथमिक बात है। तो व्यक्ति आत्मज्ञान की तरफ विकसित होगा। नहीं तो नहीं विकसित होगा।

अगर उसने अस्वीकार किया कि इस हिस्से को मैं अस्वीकार करता हूं–उसने कहा कि मैं लोभ को फेंक दूंगा; उसने कहा कि मैं क्रोध को फेंक दूंगा–बस फिर वह नहीं कभी भी शांत हो पाएगा; इस फेंकने में ही अशांत हो जाएगा।

और इसीलिए तो संन्यासी जितने क्रोधी देखे जाते हैं, उतने साधारण लोग क्रोधी नहीं होते! संन्यासी का क्रोध बहुत अदभुत है। दुर्वासा की कथाएं तो हम जानते हैं। वे परम संन्यासी, परम ऋषि थे। इतना क्रोध क्रोध छोड़ने वाले लोगों में इकट्ठा हो जाता है! इतना अहंकार कि दो संन्यासी एक-दूसरे को मिल नहीं सकते; क्योंकि कौन किसको पहले नमस्कार करेगा! दो संन्यासी एक साथ बैठ नहीं सकते; क्योंकि किसका तखत ऊंचा होगा और किसका नीचा होगा! ये संन्यासी हैं कि पागल हैं? अभी तखत की ऊंचाई-नीचाई नापने में लगे हैं, परमात्मा की ऊंचाई-नीचाई का इन्हें पता भी क्या होगा!

मैं कलकत्ते में एक सर्व-धर्म-सम्मेलन में बोलने गया। वहां कई तरह के संन्यासी कई धर्मों के उन्होंने आमंत्रित किए थे। उनको क्या पता बेचारों को कि सब संन्यासियों को एक मंच पर नहीं बिठाला जा सकता। कोई उसमें शंकराचार्य है, वे कहते हैं, हम अपने सिंहासन पर बैठेंगे। और शंकराचार्य सिंहासन पर बैठें तो दूसरा आदमी कैसे नीचे बैठ सकता है! किसका तखत ऊंचा होगा? संयोजकों ने मुझे आकर कहा कि सबकी खबरें आ रही हैं कि हमारे बैठने का इंतजाम क्या है?

बच्चों जैसी बात मालूम पड़ती है। छोटे-छोटे बच्चे कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं और अपने बाप से कहते हैं, तुमसे ऊंचे हैं हम! इससे ज्यादा बुद्धि नहीं मालूम पड़ती तखत ऊंचा-नीचा रखने वालों में। इससे ज्यादा ऊंची बुद्धि है? तखत से ऊंचे हो जाएंगे आप? तो हद हो गई, आदमी का ऊंचा होना बहुत आसान हो गया!

लेकिन दबा रहे हैं अहंकार को, तो अहंकार दूसरे रास्तों से खोज कर रहा है निकलने के लिए। इधर अहंकार को दबा रहे हैं, इधर कह रहे हैं कि मैं कुछ भी नहीं हूं! हे परमात्मा, मैं तो तेरी शरण में हूं! इधर यह कह रहे हैं, उधर वह अहंकार कह रहा है कि अच्छा, ठीक है बेटे! इधर तुम शरण में जाओ, हम दूसरा रास्ता खोजते हैं। हम कहते हैं कि सोने का सिंहासन चाहिए! क्योंकि हमसे ज्यादा भगवान की शरण में और कोई भी नहीं गया है, तो हमको सोने का सिंहासन चाहिए!

इधर कि मैं कुछ भी नहीं हूं; आदमी तो कुछ भी नहीं है, सब संसार माया है! और उधर? उधर अगर जगतगुरु न लिखो आगे, तो नाराज हो जाती है तबीयत कि मुझे जगतगुरु नहीं लिखा! और मजा यह है कि जगत से पूछे बिना ही गुरु हो गए हैं? जगत से भी तो पूछ लिया होता, यह जगत बहुत बड़ा है!

एक गांव में मैं गया था। वहां भी एक जगतगुरु थे। जगतगुरुओं की कोई कमी है! जिसको भी खयाल पैदा हो जाए, वह जगतगुरु हो सकता है। इस वक्त सबसे सस्ता काम यह है। गांव में जगतगुरु थे। मैंने कहा, इतना छोटा सा गांव, जगतगुरु कहां से ले आए? उन्होंने कहा, वे यहीं रहते हैं सदा। मैंने कहा, जगत से पूछ लिया है उन्होंने? उन्होंने कहा, जगत से तो नहीं पूछा। लेकिन वे बहुत होशियार आदमी हैं। उनका एक शिष्य है। मैंने कहा, और कितने हैं? उन्होंने कहा, बस एक ही है। लेकिन उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया है। तो वे जगतगुरु हो गए हैं।

बिलकुल ठीक बात है। अब और कोई कमी न रही–लीगली, कांस्टीटयूशनली। अदालत में मुकदमा नहीं चला सकते हैं इस आदमी पर। यह जगतगुरु है। सारे जगतगुरु इसी तरह के हैं। किसी का एक शिष्य होगा, किसी के दस होंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है। लेकिन उधर कहते हैं कि नहीं कुछ, आदमी तो माया है; असली तो ब्रह्म है, एक ही ब्रह्म है। और इधर जगतगुरु होने का भी रोग सवार रहता है! वह अहंकार, उधर से बचाओ, इधर से रास्ता खोजता है।

आदमी जिस-जिस को दबाएगा, वही-वही नये-नये मार्गों से प्रकट होगा। दमन करके कभी कोई किसी चीज से मुक्त नहीं होता। इसलिए दमन से बचना, दमन से सावधान रहना। दमन ही मनुष्य को तोड़ देने का सूत्र है। और अगर जुड़ना है और एक हो जाना है, तो दमन से बच जाना पहली शर्त है।

चौथे सूत्र में आपसे मैं बात करूंगा कि अगर दमन से बच जाएं तो फिर भोग एकदम निमंत्रण देगा कि आओ! अब तो क्रोध से बचना नहीं है, इसलिए आओ, क्रोध करो! अब तो सेक्स से बचना नहीं है, इसलिए आओ और कूद जाओ! अब तो लोभ से बचना नहीं है, इसलिए दौड़ो और रुपये इकट्ठे करो! जैसे ही दमन से बचेंगे, वैसे ही भोग निमंत्रण देगा कि आ जाओ। उस भोग के लिए क्या करना है, वह चौथे सूत्र में आपसे बात करूंगा।

 

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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रचनाएँ
संभोग से समाधि की ओर- ओशो
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'संभोग से समाधि की ओर' ओशो की सबसे चर्चित और विवादित किताब है, जिसमें ओशो ने काम ऊर्जा का विश्लेषण कर उसे अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी बताया है। साथ ही यह किताब काम और उससे संबंधित सभी मान्यताओं और धारणाओं को एक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है। ओशो कहते हैं।''जो उस मूलस्रोत को देख लेता है...., यह बुद्ध का वचन बड़ा अद्भुत है : 'वह अमानुषी रति को उपलब्ध हो जाता है। ' वह ऐसे संभोग को उपलब्ध हो जाता है, जो मनुष्यता के पार है। जिसको मैने 'संभोग से समाधि की ओर' कहा है, उसको ही बुद्ध अमानुषी रति कहते हैं। एक तो रति है मनुष्य की-सी और पुरुष की।
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संभोग से समाधि की ओर (पहला प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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परमात्मा की सृजन-ऊर्जा मेरे प्रिय आत्मन्! प्रेम क्या है? जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों तरफ,

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संभोग से समाधि की ओर (दूसरा प्रवचन)

23 अक्टूबर 2021
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संभोग: अहं-शून्यता की झलक मेरे प्रिय आत्मन्! एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़

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संभोग से समाधि की ओर (चौथा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! एक छोटा सा गांव था। उस गांव के स्कूल में शिक्षक राम की कथा पढ़ाता था। करीब-करीब सारे बच्चे सोए हुए थे। राम की कथा सुनते समय बच्चे सो जाएं, यह आश्चर्य नहीं। क्योंकि राम की कथा सुनते

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संभोग से समाधि की ओर (पांचवा प्रवचन)

25 अक्टूबर 2021
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मेरे प्रिय आत्मन्! मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि मैंने बोलने के लिए सेक्स या काम का विषय क्यों चुना है? इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को

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संभोग से समाधि की ओर (छठा प्रवचन)

26 अक्टूबर 2021
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यौन: जीवन का ऊर्जा-आयाम प्रश्न: धर्मशास्त्रों में स्त्रियों और पुरुषों का अलग रहने में और स्पर्श आदि के बचने में क्या चीज है? इतने इनकार में अनिष्ट वह नहीं होता है? धर्म के दो रूप हैं। जैसे कि सभी च

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संभोग से समाधि की ओर (सातवां प्रवचन)

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युवक और यौन एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक बहुत अदभुत व्यक्ति हुआ है। उस व्यक्ति का नाम था नसरुद्दीन। एक मुसलमान फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्हीं मित्रों से मिलन

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संभोग से समाधि की ओर (चौदवां प्रवचन)

28 अक्टूबर 2021
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1. क्या मेरे सूखे हृदय में भी उस परम प्यारे की अभीप्सा का जन्म होगा? 2. आप वर्षों से बोल रहे हैं। फिर भी आप जो कहते हैं वह सदा नया लगता है। इसका राज क्या है? 3. मैं संसार को रोशनी दिखाना चाहता हूं।

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 1)

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मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण निरंतर ही परमात्मा को पाने के लिए आतुर हैं। लेकिन किस परमात्मा को? कैसे परमात्मा को? उसका कोई अनुभव, उसका कोई आकार, उसकी कोई दिशा मनुष्य को ज्ञात नहीं है। सिर्फ एक छोट

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संभोग से समाधि की ओर (आठवाँ प्रवचन) (भाग 2)

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जब एक स्त्री और पुरुष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते हैं, तो वह मिलन एक स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है, एक आध्यात्मिक कृत्य हो जाता है। फिर उसका सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है, व

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 1)

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पृथ्वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की तलहटी में खोजे गए ऐसे बहुत से पशुओं के अस्थिपंजर मिले हैं जिनका अब कोई भी निशान शेष नहीं रह गया। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-09) (भाग 2)

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गरीब समाज रोज दीन होता है, रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप दो बेटे पैदा करता है तो अपने से दुगने गरीब पैदा कर जाता है, उसकी गरीबी भी बंट जाती है। हिंदुस्तान कई सैकड़ों सालों से अमीरी नहीं बांट रहा ह

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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विद्रोह क्‍या है हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।   इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-

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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 2)

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इस संबंध में एक बात और मुझे कह लेने जैसी है कि हिप्‍पी क्रांतिकारी, रिव्‍योल्‍यूशनरी नहीं है—विद्रोहो, रिबेलियस है। क्रांतिकारी नहीं है—बगावती है। विद्रोहो है। और क्रांति और बगावत के फर्क को थोड़ा सम

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संभोग से समाधि कि ओर (ग्‍याहरवां प्रवचन)

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युवकों के लिए कुछ भी बोलने के पहले यह ठीक से समझ लेना जरूरी है कि युवक का अर्थ क्या है? युवक का कोई भी संबंध शरीर की अवस्था से नहीं है। उम्र से युवा है। उम्र का कोई भी संबंध नहीं है। बूढ़े भी युवा हो

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-12)

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मेरे प्रिय आत्मन्! सोरवान विश्वविद्यालय की दीवालों पर जगह-जगह एक नया ही वाक्य लिखा हुआ दिखाई पड़ता है। जगह-जगह दीवालों पर, द्वारों पर लिखा है: प्रोफेसर्स, यू आर ओल्ड! अध्यापकगण, आप बूढ़े हो गए हैं!

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-13)

20 अप्रैल 2022
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मेरे प्रिय आत्मन्! व्यक्तियों में ही, मनुष्यों में ही स्त्री और पुरुष नहीं होते हैं–पशुओं में भी, पक्षियों में भी। लेकिन एक और भी नई बात आपसे कहना चाहता हूं: देशों में भी स्त्री और पुरुष देश होते ह

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-15)

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सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! अभी-अभी सूरज निकला। सूरज के दर्शन करता था। देखा आकाश में दो पक्षी उड़े जाते हैं। आकाश में न तो कोई रास्ता है, न कोई सीमा है, न कोई दीवाल है, न

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-16)

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भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति  मेरे प्रिय आत्मन्! मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे पाने के लिए पैदा होता है–वही चूक जाता है, वही नहीं मिल पाता है। कभी

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-17)

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मेरे प्रिय आत्मन्! जीवन-क्रांति के सूत्र, इस चर्चा के तीसरे सूत्र पर आज आपसे बात करनी है। पहला सूत्र: सिद्धांत, शास्त्र और वाद से मुक्ति। दूसरा सूत्र: भीड़ से, समाज से–दूसरों से मुक्ति। और

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संभोग से समाधि की ओर-(प्रवचन-18)

20 अप्रैल 2022
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तीन सूत्रों पर हमने बात की है जीवन-क्रांति की दिशा में। पहला सूत्र था: सिद्धांतों से, शास्त्रों से मुक्ति। क्योंकि जो किसी भी तरह के मानसिक कारागृह में बंद है, वह जीवन की, सत्य की खोज की यात्रा नही

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