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संभोग से समाधि की ओर (प्रवचन दसवां) (भाग 1)

20 अप्रैल 2022

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विद्रोह क्‍या है

हिप्‍पी वाद मैं कुछ कहूं ऐसा छात्रों ने अनुरोध किया है।  

इस संबंध में पहली बात, बर्नार्ड शॉ ने एक किताब लिखी है: मैक्‍सिम्‍प फॉर ए रेव्‍होल्‍यूशनरी, क्रांतिकारी के लिए कुछ स्‍वर्ण-सूत्र। और उसमें पहला स्‍वर्ण बहुत अद्भुत लिखा है। और एक ढंग से पहले स्‍वर्ण सूत्र लिखा है: ‘दि फार्स्‍ट गोल्‍डन रूल इज़ दैट देयर आर नौ गोल्‍डन रूल्‍स’ पहला स्‍वर्ण नियम यही है कि कोई भी स्‍वर्ण-नियम नहीं है।

हिप्‍पी वाद के संबंध में जो पहली बात कहना चाहूंगा, वह यह कि हिप्‍पी वाद कोई वाद नहीं है, समस्‍त वादों का विरोध है। पहली पहले इस ‘वाद’ को ठीक से समझ ले।

पाँच हजार वर्षों से मनुष्‍य को जिस चीज ने सर्वाधिक पीड़ित किया है वह है वाद—वह चाहे इस्‍लाम हो, चाहे ईसाइयत हो, चाहे हिन्‍दू हो, चाहे कम्यूनिज़म हो, सोशलिज्‍म हो, फासिस्ट, या गांधी-इज्‍म हो। वादों ने मनुष्‍य को बहुत ज्‍यादा पीड़ित किया है।

मनुष्‍य इतिहास के जितने युद्ध है, जितना हिंसा पात है, वह सब वादों के आसपास धटित हुआ है। वाद बदलते चले गये है, लेकिन नये वाद पुरानी बीमारियों को जगह ले लेते है और आदमी फिर वही का वहीं खड़ा हो जाता है।

1917 में रूस में पुराने वाद समाप्‍त हुए, पुराने देवी-देवता विदा हुए तो नये देवी-देवता पैदा हो गये। नया धर्म पैदा हो गया। क्रेमलिन अब मक्‍का और मदीना से कम नहीं है। वह नयी काशी है, जहां पूजा के फूल चढ़ाने सारी दूनिया के कम्‍युनिस्‍ट इकट्ठे होते है। मूर्तियां हट गई, जीसस क्राइस्‍ट के चर्च मिट गये। लेकिन लेनिन की मृत देह क्रेमलिन के चौराहे पर रख दी गयी है। उसकी भी पूजा चलती है।

वाद बदल जाता है,लेकिन नया वाद उसकी जगह ले लेता है।

हिप्‍पी समस्‍त बादों से विरोध है। हिप्‍पी के नाम से जिन युवकों को आज जाना जाता है, उनकी धारणा यह है कि मनुष्‍य बिना वाद के जी सकता है। न किसी धर्म की जरूरत है, न किसी शास्‍त्र, न किसी सिद्धांत की, न किसी विचार सम्‍प्रदाय, आइडियालॉजी की। क्‍योंकि उनकी समझ यह है जितना ज्‍यादा विचार की पकड़ जोती है, जीवन उतना ही कम हो जाता है। हिप्‍पियों की इस बात से मैं अपनी सहमति जाहिर करना चाहता हूं। इन अर्थों में वे बहुत सांकेतिक है, सिम्‍बालिक है और आने वाले भविष्‍य की एक सूचना देते है।

आज से 100 वर्ष बाद दुनिया में जो मनुष्‍य होगा, वह मनुष्‍य वादों के बाहर तो निश्‍चित ही चला जायेगा। वाद का इतना विरोध होने का कारण क्‍यो है?

हिप्‍पियों के मन में उन युवकों के मन में जो समस्‍त वादों के विरोध में चले गए है। समस्‍त मंदिरों, समस्‍त चर्चों के विरोध में चले गये है। जाने का कारण है। और कारण है इतने दिनों का निरंतर का अनुभव। वह अनुभव यह है कि जितना ही हम मनुष्‍य के ऊपर वाद थोपते है। उतनी ही मनुष्‍य की आत्‍मा मर जाती है।

जितना बड़ा ढांचा होगा वाद का, उतनी ही भीतर की स्‍वतंत्रता समाप्‍त हो जाती है।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि हममें से बहुत से लोग मर तो बहुत पहले जाते है दफनाए बहुत बाद में जाते है। कोई 30 साल में मर जाता है और 70 साल में दफनाया जाता है। हम उसी दिन अपनी स्‍वतंत्रता, अपना व्‍यक्‍तित्‍व अपनी आत्‍मा खो देते है, जिस दिन कोई विचार का कोई ढांचा हमें सब तरफ से पकड़ लेता है।

सींकचे तो दिखाई पड़ते है लोहे के, कारागृह दिखाई पड़ते है लोहे के, लेकिन विचार के कारागृह दिखाई नहीं पड़ते और जो कारागृह जितना कम दिखाई पड़ता है उतना ही खतरनाक है।

अभी में एक नगर से विदा हुआ। बहुत से मित्र छोड़ने आए थे जिस कम्‍पार्टमेंट में मैं था उसमें एक साथी थे। उन्‍होंने देखा कि बहुत मित्र मुझे छोड़ने आये है। तो जैसे ही मैं अंदर प्रविष्‍ट हुआ, गाड़ी चली, उन्‍होंने जल्‍दी से मेरे पैर छुए और कहा कि महात्‍मा जी, नमस्‍कार करता हूं। बड़ा आनंद हुआ कि आप मेरे साथ होंगे। मैंने उनसे कहा कि ठीक से पता लगा लेना कि महात्‍मा हू या नहीं। आपने तो जल्‍दी पैर छू लिये। अब अगर मैं महात्‍मा सिद्ध न हुआ तो पैर छूने को वापस कैसे लेंगे?

उन्‍होंने कहा, नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो सकता है, आपके कपड़े कहते है। मैंने कहा, अगर कपड़ों से कोई महात्‍मा होता तो तब तो पृथ्‍वी सारी की सारी कभी की महात्‍मा हो गई होती। उन्‍होंने कहा कि नहीं इतने लोग छोड़ने आये थे? तो मैंने कहा कि किराये के आदमी इतने ज्‍यादा लोगों को छोड़ने आते है कि उसका कोई मतलब नहीं रहा है। वे कहने लगे, कम से कम आप हिन्‍दू तो है?

उन्‍होंने सोचा कि न सही कोई महात्‍मा हों, हिन्‍दू होंगे तो भी चलेगा। कोई ज्‍यादा गुनाह नहीं हुआ, पैर छू लिए। तो मैंने कहा, नहीं, हिन्‍दू भी नहीं हूं। तो उन्‍होंने कहा,आप आदमी कैसे है? कुछ तो होंगे, मुसलमान होंगे, ईसाई होंगे? मैंने उनसे पूछा कि क्‍या मेरे सिर्फ आदमी होने से आपको कोई एतराज है? क्‍या सिर्फ आदमी होकर मैं नहीं हो सकता हूं, मुझे कुछ और होना ही पड़ेगा? उनकी बेचैनी देखने जैसी थी। कंडक्‍टर को बुलाकर वे दूसरे कंपार्टमेंट में अपना सामान ले गये।

मैं थोड़ी देर बाद उनके पास गया और मैंने उनको कहा आप तो कहते थे सत्‍संग होगा, बड़ा आनंद होगा। आप तो चले गये। क्‍या एक आदमी के साथ सफर कना उचित नहीं मालूम पड़ा? हिन्‍दू के साथ सफर हो सकता था। आदमी के साथ बहुत मुश्‍किल है।

आज पश्‍चिम में जिन युवकों ने हिप्‍पियों का नाम ले रखा है, उनकी पहली बगावत यह है कि वे कहते है कि हम सीधे आदमी की तरह जीयेंगे। न हम हिन्‍दू होंगे, न हम कम्‍युनिस्‍ट होंगे। न हम सोशलिस्‍ट होंगे, न ईसाई होंगे; हम सीधे निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश करेंगे। निपट आदमी की तरह जीने की जो भी कोशिश है, वह मुझे तो बहुत प्रीतिकर हे।

हिप्‍पी नाम तो नया है। लेकिन घटना बहुत पुरानी है। मनुष्‍य के इतिहास में आदमी ने कई बाद निपट आदमी की तरह जीने की कोशिश की है। निपट आदमी की तरह जीने में बहुत से सवाल है।

धर्म नहीं, चर्च नहीं, समाज नहीं—अंतत: देश भी नहीं; क्‍योंकि देश, राष्‍ट्र सब उपद्रव है। सब बीमारियां है।

कल तक पाकिस्‍तान की भूमि हमारी मातृभूमि हुआ करती थी। अब वह हमारे शत्रु की मातृभूमि है। जमीन वहीं की वही है। कहीं टूटी नहीं, कहीं दरार नहीं पड़ी।

मैंने सुना है, एक पागल खाना था हिन्‍दुस्‍तान के बंट वारे के समय। हिन्‍दुस्‍तान पाकिस्‍तान की सीमा पर। अब वह भी सवाल उठा कि इस पागल खाने को कहां जाने दे—हिन्‍दुस्‍तान में कि पाकिस्‍तान में। कोई राजनैतिक उत्‍सुक न था कि वह पागलखाना कहीं भी ला जाये। तो पागलों से ही पूछा अधिकारियों ने कि तुम कहां जाना चाहते हो। हिन्‍दुस्‍तान में या पाकिस्‍तान में? तो उन पागलों ने कहा हम तो जहां है, वहां बड़े आनंद में है। हमें कहीं जाने की कोई इच्‍छा नहीं है। पर उन्‍होंने कहा कि जाना तो पड़ेगा ही, यह इच्‍छा का सवाल नही है। और तुम घबराओ मत। तुम हिन्‍दुस्‍तान में चाहो तो हिन्‍दुस्‍तान में चले जाओ,पाकिस्‍तान में चाहो तो पाकिस्‍तान में चले जाओ। तुम जहां हो वहीं रहोगे। यहां से हटना न पड़ेगा।

तब तो वे पागल बहुत हंसने लगे। उन्‍होंने कहा,हम तो सोचते थे कि हम ही पागल है। लेकिन ये अधिकारी और भी पागल मालूम पड़ता है। क्‍योंकि ये कहता है कि जाना कहीं न पड़ेगा और पूछते है जाना कहां चाहते हो। उन पागलों ने कहा, कि जब जाना ही नहीं पड़ेगा तो जाना चाहते हो का सवाल क्‍या है? उन पागलों को समझाना बहुत मुश्‍किल हुआ। आखिर आधा पागलखाना बीच से दीवार उठाकर पाकिस्‍तान में चला गया, आधा हिन्‍दुस्‍तान में चला गया।

मैंने सुना है कि अभी वे पागल एक दूसरे की दीवार पर चढ़ जाते है और आपस में सोचते है कि बड़ी अजीब बात है, हम वहीं के वहीं है, लेकिन तुम पाकिस्‍तान में चले गये हो और हम हिन्‍दुस्‍तान में चले गये है।

ये पागल हमसे कम पागल मालूम होत है। हमने जमीन को बांटा है, आदमी को बांटा है।

हिप्‍पी कह रहा है, हम बांटेंगे नहीं; हम निपट बिना बटे हुए आदमी की तरह जीना चाहते है। और बाद बांटते है। बांटने की सबसे सुविधापूर्ण तरकीब बाद है इज्‍म है।     

इसलिए हिप्‍पी कहते है कि हम किसी इज्‍म में नहीं है। ऊब चुके तुम्‍हारे बादों से, तुम्‍हारे धर्मों से। हमें निपट आदमी की तरह छोड़ दो—हम जैसे है, वैसे जीना चाहते है।

यह तो पहला सूत्र है। इसलिए मैंने कहा, यह बात पहले समझ लेना जरूरी है। हिप्पी इज्म जैसी चीज नहीं है, हिप्‍पीज है। हिप्‍पी वाद नहीं है। हिप्‍पी जरूर है।

दूसरी बात ध्‍यान में लेने जैसी है और वह यह कि हिप्‍पियों की ऐसी धारण है कह न केवल आदमी की तरह जीयें बल्‍कि सहज आदमी की तरह जीयें। हजारों साल से सभ्‍यता ने आदमी को असहज बनाया है, जैसा वह नहीं है वैसा बनाया है। हजारों साल की सभ्‍यता संस्‍कार, व्‍यवस्‍था ने आदमी को कृत्रिम को झूठा बनाने की कोशिश की है। उसके हजार चेहरे बना दिये है।

मैने सुना है कह अगर एक कमरे में मैं और आप दो जन मिलें तो वहां दो जन नहीं होंगे, वहां कम से कम 6 जन होंगे। एक मैं—जैसा मैं हूं, एक मैं—जैसा की मैं सोचता हूं। और एक मैं—जैसाकि आप मुझे समझते है कि मैं हूं। और तीन आप और तीन मैं। उस कमरे में जहां दो आदमी मिलते है कम से कम 6 आदमी मिलते है। हजार मिल सकते है, क्‍योंकि हमारे हजार चेहरे है, मुखौटे है।

हर आदमी कुछ है ओर, कुछ दिखला रहा है। कुछ है, कुछ बन रहा है। और कुछ दिखला रहा है। और फिर न मालुम कितने चेहरे है—जैसे दर्पण के आगे दर्पण, और दर्पण के आगे दर्पण और एक दूसरे के प्रतिबिम्‍ब हजार-हजार प्रतिबिम्‍ब हो गये है। इन प्रतिबिम्‍बों की भीड़ में पता लगाना ही मुश्‍किल है कि कौन है आप। तय करना ही मुश्‍किल है कि कौन सा चेहरा है आपका अपना?

पत्‍नी के सामने आपका चेहरा दूसरा होता है। बेटे के सामने दूसरा हो जाता है। नौकर के सामने एक होता है। मालिक के सामने एक हो जाता है। जब आप मालिक के सामने खड़े होते है तो जो पूंछ आपके पास नहीं है, वह हिलती रहती है। और जब आप नौकर के पास खड़े होते है तब जो पूंछ उसके पास नहीं है, आप गौर से देखते रहते है कि वह हिला रहा है या नहीं हिला रहा है।

हिप्‍पियों की धारण मुझे प्रीतिकर मालूम पड़ती है। वे कहते है कि हम सहज आदमियों की तरह जीयेंगे। जैसे हम है। धोखा न देंगे। प्रवंचना, पाखंड, डिसेप्‍शन खड़ा न करेंगे। ठीक है, तकलीफ होगी तो तकलीफ झेलेंगे। लेकिन हम जैसे हम है, वैसे ही रहेंगे।

अगर हिप्‍पी को लगता है कि वह किसी से कहे कि मुझे आप पर क्रोध आ रहा है और गाली देने का मन होता है तो वह आपसे आकर कहेगा पास में बैठकर कि मुझे आप पर बहुत क्रोध आ रहा है और मैं आपको दो गाली देना चाहता हूं।

मैं समझता हूं कि वह बड़ा मानवीय गुण है। और वह क्षमा मांगने नहीं आयेगा पीछे, जब तक उसे लगे न, क्‍योंकि वह कहेगा गाली देने का मेरा मन था, मैंने गाली दी और अब जो भी फल हो उसे लेने के लिए मैं तैयार हूं। लेकिन गाली भीतर ऊपर मुस्‍कराहट इस बात को इंकार कर रहा हूं। लेकिन हमारी स्‍थिति यह है कि भीतर कुछ है, बहार कुछ। भीतर एक नर्क छिपाये हुए है हम, बाहर हम कुछ और हो गये है। एक आदमी एक जीता-जागता झूठ है।

हिप्‍पी का दूसरा सूत्र यह है कि हम जैसे है, वैसे है। हम कुछ भी रूकावट न करेंगे, छिपा वट न करेंगे।

मेरे एक मित्र हिप्‍पियों के एक छोटे से गांव में जाकर कुछ दिन तक रहे तो मुझसे बोले कि बहुत बेचैनी होती है वहां। क्‍योंकि वहां सारे मुखौटे उखड जाते है। वहां बजाय एक युवक एक युवती के पास आकर कविताएं कहे, प्रेम की और बातें करे हजार तरह की, वह उससे सीधा ही आकर निवेदन कर देगा कि मैं आपको भोगना चाहता हूं। वह कहेगा कि इतने सारे जाल के पीछे इरादा तो वही है। उस इरादे के लिए इतने जाल बनाने की कोई जरूरत नहीं है। वह कह सकता है एक लड़की को जाकर कि मैं तुम्‍हारे साथ बिस्‍तर पर सोना चाहता हूं।

बहुत घबरानें वाली बात लगेगी। लेकिन सारी बातचीत और सारी कविता और सारे संगीत और सारे प्रेम चर्चा के बाद यही घटना अगर घटने वाली है। तो हिप्‍पी कहता है कि इसे सीधा ही निवेदन कर देना उचित है। किसी को धोखा तो न हो, वह लड़की अगर न चाहती है सोना, तो कह तो सकती है कि क्षमा करो।

एक जाल सभ्‍यता ने खड़ा किया है, जिसने आदमी को बिलकुल ही झूठी इकाई बना दिया है।

अब एक पति है, वह अपनी पत्‍नी से रोज कहे जा रहा है कि मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। और भीतर जानता है कि यह मैं क्‍यों कहा रहा हूं। एक पत्‍नी है, वह अपने पति से रोज कहे जा रही है कि मैं तुम्‍हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकती और उसी पति के साथ एक क्षण जीना मुश्‍किल हुआ जा रहा है।

बाप बेटे से कुछ कह रहा है। कि बाप बेटे से कहा रह है कि मैं तुम्‍हें इसलिए पढ़ा रहा हूं कि मैं तुझे बहुत प्रेम करता हूं। और वह पढ़ा इसलिए रहा है कि बाप अपढ़ रह गया है। और उसके अहंकार की चोट घाव बन गयी है। वह अपने बेटे को पढ़ा कर अपने अहंकार की पूर्ति करना चाहता है। बाप नहीं पहुंच पाया मिनिस्‍टरी तक, वह बेटे को पहुंचाना चाहता है। पर वह कहता है बेटे को मैं बहुत प्रेम करता हूं इसलिए.....लेकिन उसे पता नहीं है कि बेटे को मिनिस्‍टरी तक पहुंचाना बेटे को नर्क तक पहुंचा देना है। अगर प्रेम है तो कम से कम बाप एक बात तो न चाहेगा कि बेटा राजनीतिज्ञ हो जाए।

सारी दूनिया प्रेम कर रही है। लेकिन प्रेम का कोई विस्‍फोट कभी नहीं होता है। सारी दूनिया प्रेम कर रही है और जब भी विस्‍फोट होता है तो घृणा का होता है। हिप्‍पी कहता है जरूर हमारा प्रेम कहीं धोखे का है। कर रहे है घृणा कह रहे है प्रेम।

मैं एक स्‍त्री को कहता हूं कि मैं तुझे प्रेम करता हूं और मेरी स्‍त्री जरा पड़ोस के आदमी की तरफ गौर से देख ले तो सारा प्रेम विदा हो गया और तलवार खिंच गयी। कैसा प्रेम है। अगर मैं इस स्‍त्री को प्रेम करता हूं तो ईर्ष्‍यालु नहीं हो सकता। प्रेम में ईर्ष्‍या की कहां जगह है? लेकिन जिस को हम प्रेम कहते है वे सिर्फ एक दूसरे के पहरेदार बन जाते है और कुछ भी नहीं,और एक दूसरे के लिए ईर्ष्‍या का आधार खोज लेते है। जलते है,जलाते है परेशान करते है।

हिप्‍पी यह कह रहा है कि बहुत हो चुकी यह बेईमानी। अब हम तो जैसे है, वैसे है। अगर प्रेम है तो कह देंगे कि प्रेम है और जिस चुक जायेगा उस दिन निवेदन कर देंगे कि प्रेम चुक गया। अब झूठी बातों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है, मैं जाता हूं।

 लेकिन पुराने प्रेम की धारणा कहती है कि प्रेम होता है तो फिर कभी नहीं मिटता, शाश्‍वत होता है। हिप्‍पी कहता है होता होगा। अगर होगा तो कह दूँगा कि शाश्‍वत है, टिका है। नहीं होगा तो कह दूँ की नहीं है।

एक जाल है जो सभ्‍यता ने विकसित किया है। उस जाल में आदमी की गर्दन ऐसे फंस गई है, जैसे फांसी लग गई हो उस जाल से बगावत है हिप्‍पी की।

हज जीवन—जैसे हैं, है।

लेकिन सहज होना बहुत कठिन है। सहज होना सच में ही बहुत कठिन बात है। क्‍योंकि हम इतने असहज हो गए है कि हमने इतनी यात्रा कर ली है। अभिनय की कि वहां लौट जाना, जहां हमारी सच्‍चाई प्रकट हो जाये, बहुत मुश्‍किल है।

डॉक्‍टर पर्ल्‍स एक मनोवैज्ञानिक है, जो हिप्पियों का गुरु कहा जा सकता है। एक महिला गई थी वहां। मैंने उससे कहा था कि जरूर उस पहाड़ी पर हो आना, 2-4दिन रूक जाना। तो जब वह पर्ल्‍स के पास गयी और वहां का सारा हिसाब देखा, वह तो घबरा गई। बहुत घबरा गयी, क्‍योंकि वहां सहज जीवन सूत्र है। सारे लोग बैठे है और एक आदमी नंगा चला आयेगा हाल में और आकर बैठ जायेगा। अगर उसको नंगा होना ठीक लग रहा है तो यह उसकी मरजी है। इसमें किसी को कुछ लेना देना नहीं है। न कोई हाल में चीखेगी, न कोई चिल्‍लायेगा, न कोई गौर से देखेगा, उसे जैसा ठीक लग रहा है, उसे वैसा करने देना है।

और जो लोग पर्ल्‍स के पास महीने भर रह आते है। उनकी जिंदगी में कुछ नये फूल खिल जाते है। क्‍योंकि पहली दफा वे हल्‍के, पक्षियों की तरह जी पाते है। पौधों की तरह, या जैसे आकाश में कभी चील को उड़ते देखा हो—पंख भी नहीं चलाती। पंख भी बंद हो जाते है। बस हवा पर तैरती रहती है। उसे पहाड़ी पर पर्ल्‍स के पास भी व्‍यक्‍ति हवा में तैर रहे है। एक आदमी बहार नाच रहा है। कोई गीत गा रहा है। तो गीत गा रहा है। कोई रो रहा है तो रो रहा है। कोई रूकावट नहीं है।

लेकिन हमने तो आदमी को सब तरह से रोक रखा है। बच्‍चे को निर्देश देने से शुरू हो जाती है कहानी। हमारी सारी शिक्षा–‘डू नाट’ से शुरू हो जाती है। और हर बच्‍चे के दिमाग में हम ज्‍यादा से ज्‍यादा ‘मत करो’ थोपते चले जाते है। अंतत: करने की सारी क्षमता, सृजन की सारी क्षमता, ‘न-करने’ के इस जाल में लुप्‍त हो जाती है। या तो वह आदमी चोरी से शुरू कर देता है, जो-जो हमने रोका था, कि यह मत करो। और या फिर भीतर परेशानी में पड़ जाता है।

दो ही रास्‍ते है, या पाखंडी हो जाये, या पागल हो जाये।

अगर भीतर लड़ा और अगर सिंसियर होगा, ईमानदार होगा तो पागल हो जायेगा। अगर होशियार हुआ, चालाक हुआ, कौनिंग हुआ ता पाखंडी हो जायेगा। एक दरवाजा मकान के पीछे से बना लेगा। जहां से करने की दुनिया रहेगी। एक दरवाजा बाहर से रहेगा जहां ‘न करने’ के सारे ‘टेन कमांडमैंट्स’ लिखे हुए है। वहां वह सदा ऐसा खड़ा होगा कि यह में नहीं करता हूं। और करने की अलग दुनिया बना लेगा।

मनुष्‍य को खंडित, स्‍किजोफ्रेनिक बनाने में, मनुष्‍य के मन को खंड-खंड करने में सभ्‍यता की ‘न करने’ की शिक्षा ने बड़ा काम किया है।

हिप्‍पी कह रहा है कि जो हमें करना है, वह हम करेंगे। और उसके लिए जो भी हमें भोगना है, हम भोग लेंगे। लेकिन एक बात हम न करेंगे कि करें कुछ, और दिखायें कुछ। यही बड़ी बगावत है।

हालांकि सदा से साधु-संतों ने कहा था कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। हिप्‍पी भी यही कहते है। लेकिन एक बुनियादी फर्क है। साधु-संत कहते है। कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। तब उनका मतलब है: बाहर जैसे हो वैसे ही भीतर होना चाहिए। हिप्‍पी जब कहता है कि बाहर भीतर एक होना चाहिए: तो वह कहता है कि भीतर जैसे हो वैसे ही बाहर भी होना चाहिए। इन दोनो में फर्क है।

साधु संत जब कहते है कि बहार भीतर एक जैसा होना चाहिए। तो वह कहते है कि भीतर का दरवाजा बंद करो। हिप्‍पी कहता है बहार भीतर एक होना चाहिए। तो वह कहता है: बाहर जो दस निषेध आज्ञाओं, टेन कमांडमैंट्स की तख्‍ती लगी है उसको उखाड़कर फेंक दो। और जैसे भी हो, वैसे हो जाओ। अगर चोर हो तो चोर अगर बेईमान हो तो बेईमान, क्रोधी हो तो क्रोधी। बड़ा खतरा तो यह है कि क्रोधी अभिनय कर रहा अक्रोध का, हिंसक अभिनय कर रहा है अहिंसक का, कामी अभिनय कर रहा है ब्रह्मचर्य का। और पुरानी सारी संस्‍कृतियां अभिनय को बड़ी कीमत देती है। और कुशल अभिनेता की बड़ी पूजा हाथी है।

हिप्‍पी कह रहा है हम अभिनय की पूजा नहीं करते। हम जीवन के पूजक है। हिप्‍पी यह कह रहा है कि झूठे ब्रह्मचर्य से सच्‍चा यौन भी अर्थपूर्ण है। झूठे ब्रह्मचर्य में भी वह सुगंध नहीं है, जो सच्‍चे यौन में हो सकती है। सच्‍चे ब्रह्मचर्य की तो बात ही दूसरी है। उसकी सुगंध का हमे क्‍या पता? लेकिन सच्‍चा यौन न हो तो सच्‍चे ब्रह्मचर्य की कोई संभावना ही नहीं है। अभी हिप्‍पी यह नहीं कह रहे है, लेकिन शीध्र ही जानेंगे तो कहेंगे। हम अगर पशु है तो स्‍वीकृत है कि हम पशु है और हम पशु की भांति ही जीयेंगे।

तीसरी बात, जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि अगर खोज की जाये तो ईसाईयों की कहानी के अदम और ईव हिप्‍पियों के आदि पुरूष कहे जाने चाहिए। क्‍योंकि अदम और ईव को ईश्‍वर ने कहा था कि तुम ज्ञान के वृक्ष का फल मत चखना। उन्‍होंने बगावत कर दी और जिस वृक्ष का फल नहीं चखने को कहा था, उसी का फल चख लिया और ईड़न के बग़ीचे से बहिष्‍कृत कर दिये गये।

तीसरा सूत्र है हिप्‍पी का: विद्रोह, इनकार का साहस। एक तो कन्‍फरमिस्‍ट की जिन्‍दगी है, ‘हां-हुजूर की’ ‘यस सर’ की। वह जो भी कह रहा है, ‘हां’ कह रहा है। वह सदा ‘हां हुजूर’ कहने के लिए तैयार है। उसने चाहे बात भी ठीक से नहीं सुनी है, लेकिन ‘हां हुजूर’ कहे जा रहा है। उसे पता भी नहीं कि वह किस चीज में हां भर रहा है। लेकिन वह हां भरे चला जा रहा है। एक गुरु एक सीक्रेट उसे पता है। जिन्‍दगी में जीना हो तो सब चीज में ‘हां’ कहे चले जाओ।

हिप्‍पी कह रहा है जब तक हम समाज की हर चीज में ‘हां’ कह रहे है, तब तक व्‍यक्‍ति का जन्‍म नहीं होता। व्‍यक्‍ति का जन्‍म होता है ‘नौ से इंग’ से, न कहना शुरू करने से।

असल में मनुष्‍य की आत्‍मा ही तब पैदा होती है, जब कोई आदमी ‘नो’ नहीं कहने की हिम्‍मत जुटा लेता है।

जब कोई कह सकता है, नहीं, चाहे दांव पर पूरी जिंदगी लग जाती हो। और जब एक बार आदमी नहीं, कहना शुरू कर दे, ‘नहीं’ कहना सीख ले, तब पहली दफा उसके भीतर इस ‘नहीं’ कहने के कारण, ‘डिनायल’ के कारण व्‍यक्‍ति का जन्‍म शुरू होता है। यह ‘न’ की जो रेखा है, उसको व्‍यक्‍ति बनाती है। ‘हां’ की रेखा उसको समूह का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा आज्ञाकारिता पर जोर देता है।

बाप अपने ‘गोबर गणेश’ बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है। क्‍योंकि गोबर गणेश बेटे से न निकलती ही नहीं। असल में ‘न’ निकलने के लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए। हां निकलने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं है। हां तो कम्प्युटराइज्ड है, वह तो बुद्धि जितनी कम होगी, उतनी जल्‍दी निकलता है। न तो सोच विचार मांगता है। न तो तर्क आर्गुमेंट मांगता है। न जब कहेंगे तो पच्‍चीस बार सोचना पड़ता है। क्‍योंकि न कहने पर बात खत्‍म नहीं होती। शुरू होती है। हां कहने पर बात खत्‍म हो जाती है। शुरू नहीं होती।

बुद्धिमान बेटा होगा तो बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि बुद्धिमान बेटा बहुत बार बाप को निर्बुद्धि सिद्ध कर देगा। बहुत क्षणों में बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि अपने आप को भी वह निर्बुद्धि मालूम पड़ रहा है। बड़ी चोट है, अहंकार को। वह कठिनाई में डाल देगा।

इसलिए हजारों साल से बाप, पीढ़ी, समाज ‘हां’ कहने की आदत डलवा रहा है। उसको वह अनुशासन कहे, आज्ञाकारिता कहे और कुछ नाम दे लेकिन प्रयोजन एक है। और वह यह है कहे विद्रोह नहीं होना चाहिए। बगावती चित नहीं होना चाहिए।

हिप्‍पियों का तीसरा सूत्र है कि अगर चित ही चाहिए हो तो सिर्फ बगावती ही हो सकता है। अगर आत्‍मा चाहिए हो तो वह ‘रिबैलियस’ ही हो सकती है। अगर आत्‍मा ही न चाहिए तो बात दूसरी।

कन्‍फरमिस्‍ट के पास कोई आत्‍मा नहीं होती।

यह ऐसा ही है, जैसे एक पत्‍थर पडा है, सड़क के किनारे। सड़क के किनारे पडा हुआ पत्‍थर मूर्ति नहीं बनता। मूर्ति तो तब बनता है। जब छैनी और हथौड़ी उस पर चोट करती और काटती है। जब कोई आदमी ‘न’ कहता है। और बगावत करता है। तो सारे प्राणों पर छैनी और हथौड़ियां पड़ने लगती है। सब तरफ से मूर्ति निखरना शुरू होती है। लेकिन जब कोई पत्‍थर कह देता है ‘’हां’’ तो छैनी हथौड़ी नहीं होती वहां पैदा। वह फिर पत्‍थर ही रह जाता है। सड़क के किनारे पडा हुआ।

लेकिन समस्‍त सत्ताधिकारी यों को चाहे वे पिता हो, चाहे मां, चाहे शिक्षक हो। चाहे बड़ा भाई हो, चाहे राजनेता हो, समस्‍त सत्ताधिकारी यों को ‘’हां-हुजूर’’ की जमात चाहिए।

हिप्‍पी कहते है कि इससे हम इंकार करते है। हमें जो ठीक लगेगा। वैसा हम जीयेंगे। निश्‍चित ही तकलीफ है और इसलिए हिप्‍पी भी एक तरह का संन्‍यासी है। असल में संन्‍यासी कभी एक दिन एक तरह का हिप्‍पी ही था, उसने भी इंकार किया था, अ-नागरिक था, समाज छोड़ दिया, चला गया स्‍वछंद जीने की राह पर।

जैसे महावीर नग्‍न खड़े हो गए, महावीर जिस दिन बिहार में नग्‍न हुए होंगे। उस दिन मैं नहीं समझता कि पुरानी जमात ने स्‍वीकार किया होगा। यहां तक बात चली कि अब महावीर को मानने वालों के दो हिस्‍से है। एक तो कहता है कि वस्‍त्र पहनते थे। लेकिन वे अदृश्‍य वस्‍त्र थे, दिखाई नहीं देते थे। यह पुराना कन्‍फरमिस्‍ट जो होगा, उसने आखिर महावीर को भी वस्‍त्र पहना दिये, लेकिन ऐसे वस्‍त्र जो दिखाई नहीं पड़ रहे है। इस लिए कुछ लोगों को भूल हुई कि वे नंगे थे। वे नंगे नहीं थे। वस्‍त्र पहने थे।

जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे लोग सभी बगावती है। असल में मनुष्‍य जाति के इतिहास में जिनके नाम भी गौरव से लिये जा सकें वे सब बगावती है।.............

दूसरा सूत्र है—सहज जीवन—जैसे हैं, है।

लेकिन सहज होना बहुत कठिन है। सहज होना सच में ही बहुत कठिन बात है। क्‍योंकि हम इतने असहज हो गए है कि हमने इतनी यात्रा कर ली है। अभिनय की कि वहां लौट जाना, जहां हमारी सच्‍चाई प्रकट हो जाये, बहुत मुश्‍किल है।

डॉक्‍टर पर्ल्‍स एक मनोवैज्ञानिक है, जो हिप्पियों का गुरु कहा जा सकता है। एक महिला गई थी वहां। मैंने उससे कहा था कि जरूर उस पहाड़ी पर हो आना, 2-4दिन रूक जाना। तो जब वह पर्ल्‍स के पास गयी और वहां का सारा हिसाब देखा, वह तो घबरा गई। बहुत घबरा गयी, क्‍योंकि वहां सहज जीवन सूत्र है। सारे लोग बैठे है और एक आदमी नंगा चला आयेगा हाल में और आकर बैठ जायेगा। अगर उसको नंगा होना ठीक लग रहा है तो यह उसकी मरजी है। इसमें किसी को कुछ लेना देना नहीं है। न कोई हाल में चीखेगी, न कोई चिल्‍लायेगा, न कोई गौर से देखेगा, उसे जैसा ठीक लग रहा है, उसे वैसा करने देना है।

और जो लोग पर्ल्‍स के पास महीने भर रह आते है। उनकी जिंदगी में कुछ नये फूल खिल जाते है। क्‍योंकि पहली दफा वे हल्‍के, पक्षियों की तरह जी पाते है। पौधों की तरह, या जैसे आकाश में कभी चील को उड़ते देखा हो—पंख भी नहीं चलाती। पंख भी बंद हो जाते है। बस हवा पर तैरती रहती है। उसे पहाड़ी पर पर्ल्‍स के पास भी व्‍यक्‍ति हवा में तैर रहे है। एक आदमी बहार नाच रहा है। कोई गीत गा रहा है। तो गीत गा रहा है। कोई रो रहा है तो रो रहा है। कोई रूकावट नहीं है।

लेकिन हमने तो आदमी को सब तरह से रोक रखा है। बच्‍चे को निर्देश देने से शुरू हो जाती है कहानी। हमारी सारी शिक्षा–‘डू नाट’ से शुरू हो जाती है। और हर बच्‍चे के दिमाग में हम ज्‍यादा से ज्‍यादा ‘मत करो’ थोपते चले जाते है। अंतत: करने की सारी क्षमता, सृजन की सारी क्षमता, ‘न-करने’ के इस जाल में लुप्‍त हो जाती है। या तो वह आदमी चोरी से शुरू कर देता है, जो-जो हमने रोका था, कि यह मत करो। और या फिर भीतर परेशानी में पड़ जाता है।

दो ही रास्‍ते है, या पाखंडी हो जाये, या पागल हो जाये।

अगर भीतर लड़ा और अगर सिंसियर होगा, ईमानदार होगा तो पागल हो जायेगा। अगर होशियार हुआ, चालाक हुआ, कौनिंग हुआ ता पाखंडी हो जायेगा। एक दरवाजा मकान के पीछे से बना लेगा। जहां से करने की दुनिया रहेगी। एक दरवाजा बाहर से रहेगा जहां ‘न करने’ के सारे ‘टेन कमांडमैंट्स’ लिखे हुए है। वहां वह सदा ऐसा खड़ा होगा कि यह में नहीं करता हूं। और करने की अलग दुनिया बना लेगा।

मनुष्‍य को खंडित, स्‍किजोफ्रेनिक बनाने में, मनुष्‍य के मन को खंड-खंड करने में सभ्‍यता की ‘न करने’ की शिक्षा ने बड़ा काम किया है।

हिप्‍पी कह रहा है कि जो हमें करना है, वह हम करेंगे। और उसके लिए जो भी हमें भोगना है, हम भोग लेंगे। लेकिन एक बात हम न करेंगे कि करें कुछ, और दिखायें कुछ। यही बड़ी बगावत है।

हालांकि सदा से साधु-संतों ने कहा था कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। हिप्‍पी भी यही कहते है। लेकिन एक बुनियादी फर्क है। साधु-संत कहते है। कि बाहर और भीतर एक होना चाहिए। तब उनका मतलब है: बाहर जैसे हो वैसे ही भीतर होना चाहिए। हिप्‍पी जब कहता है कि बाहर भीतर एक होना चाहिए: तो वह कहता है कि भीतर जैसे हो वैसे ही बाहर भी होना चाहिए। इन दोनो में फर्क है।

साधु संत जब कहते है कि बहार भीतर एक जैसा होना चाहिए। तो वह कहते है कि भीतर का दरवाजा बंद करो। हिप्‍पी कहता है बहार भीतर एक होना चाहिए। तो वह कहता है: बाहर जो दस निषेध आज्ञाओं, टेन कमांडमैंट्स की तख्‍ती लगी है उसको उखाड़कर फेंक दो। और जैसे भी हो, वैसे हो जाओ। अगर चोर हो तो चोर अगर बेईमान हो तो बेईमान, क्रोधी हो तो क्रोधी। बड़ा खतरा तो यह है कि क्रोधी अभिनय कर रहा अक्रोध का, हिंसक अभिनय कर रहा है अहिंसक का, कामी अभिनय कर रहा है ब्रह्मचर्य का। और पुरानी सारी संस्‍कृतियां अभिनय को बड़ी कीमत देती है। और कुशल अभिनेता की बड़ी पूजा हाथी है।

हिप्‍पी कह रहा है हम अभिनय की पूजा नहीं करते। हम जीवन के पूजक है। हिप्‍पी यह कह रहा है कि झूठे ब्रह्मचर्य से सच्‍चा यौन भी अर्थपूर्ण है। झूठे ब्रह्मचर्य में भी वह सुगंध नहीं है, जो सच्‍चे यौन में हो सकती है। सच्‍चे ब्रह्मचर्य की तो बात ही दूसरी है। उसकी सुगंध का हमे क्‍या पता? लेकिन सच्‍चा यौन न हो तो सच्‍चे ब्रह्मचर्य की कोई संभावना ही नहीं है। अभी हिप्‍पी यह नहीं कह रहे है, लेकिन शीध्र ही जानेंगे तो कहेंगे। हम अगर पशु है तो स्‍वीकृत है कि हम पशु है और हम पशु की भांति ही जीयेंगे।

तीसरी बात, जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि अगर खोज की जाये तो ईसाईयों की कहानी के अदम और ईव हिप्‍पियों के आदि पुरूष कहे जाने चाहिए। क्‍योंकि अदम और ईव को ईश्‍वर ने कहा था कि तुम ज्ञान के वृक्ष का फल मत चखना। उन्‍होंने बगावत कर दी और जिस वृक्ष का फल नहीं चखने को कहा था, उसी का फल चख लिया और ईड़न के बग़ीचे से बहिष्‍कृत कर दिये गये।

तीसरा सूत्र है हिप्‍पी का: विद्रोह, इनकार का साहस। एक तो कन्‍फरमिस्‍ट की जिन्‍दगी है, ‘हां-हुजूर की’ ‘यस सर’ की। वह जो भी कह रहा है, ‘हां’ कह रहा है। वह सदा ‘हां हुजूर’ कहने के लिए तैयार है। उसने चाहे बात भी ठीक से नहीं सुनी है, लेकिन ‘हां हुजूर’ कहे जा रहा है। उसे पता भी नहीं कि वह किस चीज में हां भर रहा है। लेकिन वह हां भरे चला जा रहा है। एक गुरु एक सीक्रेट उसे पता है। जिन्‍दगी में जीना हो तो सब चीज में ‘हां’ कहे चले जाओ।

हिप्‍पी कह रहा है जब तक हम समाज की हर चीज में ‘हां’ कह रहे है, तब तक व्‍यक्‍ति का जन्‍म नहीं होता। व्‍यक्‍ति का जन्‍म होता है ‘नौ से इंग’ से, न कहना शुरू करने से।

असल में मनुष्‍य की आत्‍मा ही तब पैदा होती है, जब कोई आदमी ‘नो’ नहीं कहने की हिम्‍मत जुटा लेता है।

जब कोई कह सकता है, नहीं, चाहे दांव पर पूरी जिंदगी लग जाती हो। और जब एक बार आदमी नहीं, कहना शुरू कर दे, ‘नहीं’ कहना सीख ले, तब पहली दफा उसके भीतर इस ‘नहीं’ कहने के कारण, ‘डिनायल’ के कारण व्‍यक्‍ति का जन्‍म शुरू होता है। यह ‘न’ की जो रेखा है, उसको व्‍यक्‍ति बनाती है। ‘हां’ की रेखा उसको समूह का अंग बना देती है। इसलिए समूह सदा आज्ञाकारिता पर जोर देता है।

बाप अपने ‘गोबर गणेश’ बेटे को कहेगा कि आज्ञाकारी है। क्‍योंकि गोबर गणेश बेटे से न निकलती ही नहीं। असल में ‘न’ निकलने के लिए थोड़ी बुद्धि चाहिए। हां निकलने के लिए बुद्धि की कोई जरूरत नहीं है। हां तो कम्प्युटराइज्ड है, वह तो बुद्धि जितनी कम होगी, उतनी जल्‍दी निकलता है। न तो सोच विचार मांगता है। न तो तर्क आर्गुमेंट मांगता है। न जब कहेंगे तो पच्‍चीस बार सोचना पड़ता है। क्‍योंकि न कहने पर बात खत्‍म नहीं होती। शुरू होती है। हां कहने पर बात खत्‍म हो जाती है। शुरू नहीं होती।

बुद्धिमान बेटा होगा तो बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि बुद्धिमान बेटा बहुत बार बाप को निर्बुद्धि सिद्ध कर देगा। बहुत क्षणों में बाप को ठीक नहीं लगेगा, क्‍योंकि अपने आप को भी वह निर्बुद्धि मालूम पड़ रहा है। बड़ी चोट है, अहंकार को। वह कठिनाई में डाल देगा।

इसलिए हजारों साल से बाप, पीढ़ी, समाज ‘हां’ कहने की आदत डलवा रहा है। उसको वह अनुशासन कहे, आज्ञाकारिता कहे और कुछ नाम दे लेकिन प्रयोजन एक है। और वह यह है कहे विद्रोह नहीं होना चाहिए। बगावती चित नहीं होना चाहिए।

      हिप्‍पियों का तीसरा सूत्र है कि अगर चित ही चाहिए हो तो सिर्फ बगावती ही हो सकता है। अगर आत्‍मा चाहिए हो तो वह ‘रिबैलियस’ ही हो सकती है। अगर आत्‍मा ही न चाहिए तो बात दूसरी।

      कन्‍फरमिस्‍ट के पास कोई आत्‍मा नहीं होती।

यह ऐसा ही है, जैसे एक पत्‍थर पडा है, सड़क के किनारे। सड़क के किनारे पडा हुआ पत्‍थर मूर्ति नहीं बनता। मूर्ति तो तब बनता है। जब छैनी और हथौड़ी उस पर चोट करती और काटती है। जब कोई आदमी ‘न’ कहता है। और बगावत करता है। तो सारे प्राणों पर छैनी और हथौड़ियां पड़ने लगती है। सब तरफ से मूर्ति निखरना शुरू होती है। लेकिन जब कोई पत्‍थर कह देता है ‘’हां’’ तो छैनी हथौड़ी नहीं होती वहां पैदा। वह फिर पत्‍थर ही रह जाता है। सड़क के किनारे पडा हुआ।

      लेकिन समस्‍त सत्ताधिकारी यों को चाहे वे पिता हो, चाहे मां, चाहे शिक्षक हो। चाहे बड़ा भाई हो, चाहे राजनेता हो, समस्‍त सत्ताधिकारी यों को ‘’हां-हुजूर’’ की जमात चाहिए।

हिप्‍पी कहते है कि इससे हम इंकार करते है। हमें जो ठीक लगेगा। वैसा हम जीयेंगे। निश्‍चित ही तकलीफ है और इसलिए हिप्‍पी भी एक तरह का संन्‍यासी है। असल में संन्‍यासी कभी एक दिन एक तरह का हिप्‍पी ही था, उसने भी इंकार किया था, अ-नागरिक था, समाज छोड़ दिया, चला गया स्‍वछंद जीने की राह पर।

जैसे महावीर नग्‍न खड़े हो गए, महावीर जिस दिन बिहार में नग्‍न हुए होंगे। उस दिन मैं नहीं समझता कि पुरानी जमात ने स्‍वीकार किया होगा। यहां तक बात चली कि अब महावीर को मानने वालों के दो हिस्‍से है। एक तो कहता है कि वस्‍त्र पहनते थे। लेकिन वे अदृश्‍य वस्‍त्र थे, दिखाई नहीं देते थे। यह पुराना कन्‍फरमिस्‍ट जो होगा, उसने आखिर महावीर को भी वस्‍त्र पहना दिये, लेकिन ऐसे वस्‍त्र जो दिखाई नहीं पड़ रहे है। इस लिए कुछ लोगों को भूल हुई कि वे नंगे थे। वे नंगे नहीं थे। वस्‍त्र पहने थे।

जीसस, बुद्ध, महावीर जैसे लोग सभी बगावती है। असल में मनुष्‍य जाति के इतिहास में जिनके नाम भी गौरव से लिये जा सकें वे सब बगावती है।

और कृष्‍ण से बड़ा-महा हिप्‍पी खोजना तो असंभव ही है। इसलिए कृष्‍ण को मानने वाल कृष्‍ण को काट-काटकर स्‍वीकार करता है। अगर सूरदास के पास जायें तो वे कृष्‍ण को बच्‍चे से ऊपर बढ़ने ही नहीं देते। क्‍योंकि बच्‍चे के ऊपर बढ़कर वह जो उपद्रव करेगा, वह सूरदास की पकड़ के बाहर है। तो बालकृष्‍ण को ही वे स्‍वीकार कर सकते है, छोटे बच्‍चे को। तब उसकी चोरी भी निर्दोष हो जाती है। लेकिन सूरदास सोच ही नहीं सकते कि उनका कृष्‍ण रास रचा सकता है। गोपियों से प्रेम कर सकता है। नहाती हुई स्‍त्रियों के कपड़े लेकर वृक्ष पर चढ़ कर कहता है। हाथ उठाओं। फिर पूराना कन्‍फरमिस्‍ट जब आयेगा व्‍याख्‍या करने तो वह कहेगा वे गोपियां नही है। गोपी का मतलब होता है इंद्रियां। तो इंद्रियों को निवारण करने वे वृक्ष पर चढ़ गये है। किसी स्‍त्री को निवारण करके नहीं।

कन्‍फरमिस्‍ट बार-बार लौटकर विद्रोहो को भी अपने कैंप में खड़ा कर लेता है। इसलिए जीसस को सूली देनी पड़ती है। लेकिन दो चार सौ वर्ष बाद जीसस भी उसी कतार में सम्‍मिलित हो जाते है। अब कभी हमने नहीं सोचा कि जीसस को सूली देने का कारण क्‍या था?

जीसस को सूली देने का कारण बड़ा अजीब था। बड़े से बड़े कारणों में एक तो यह था कि गैर-पारंपरिक, नान-कन्‍फरमिस्‍ट थे। वे अंध-स्‍वीकारी नहीं थे। वे इंकार करने वाल व्‍यक्‍ति थे। लोगों ने कहां वह मेग्‍दलीन वेश्‍या के, उसके घर में मत ठहरो। तो जीसस ने कहा, मैं भी अगर वैश्‍या के घर में नहीं ठहरूंगा तो फिर कौन ठहरेगा?

इसलिए जानकर हैरानी होगी कि जिस दिन जीसस को सूली हुई, उस सूली के पास ने तो जीसस को कोई अनुयायी था, न कोई शिष्‍य था। उसकी सूली के पास जीसस के बुद्धिमान शिष्‍यों में से कोई भी न था। जीसस के पास सिर्फ दो औरते थी। एक तो वह वेश्‍या थी, जो उनकी फांसी का कारण थी। सूली से जिसने लाश को उतारा वह मेग्‍दलीन थी।

तो जीसस को स्‍वीकार करना उस समाज के लिए असंभव रहा होगा। इसलिए जीसस को जब सूली दी तो दो चोरों के बीच में सूली दी। दो तरफ दो चोर लटकाये, बीच में जीसस को लटकाया। और जनता में से लोगों ने यह भी चील्‍लाकर कहा कि इन चोरों को क्‍यों मार रहे हो। लेकिन किसी ने यह न कहा कि जीसस का क्‍यों मार रहे हो। फिर हम सब साफ-सुथरा कर लेते है।

बग़ावत आत्‍मा का जन्‍म है।

हिप्‍पी विद्रोह को जी रहा है।

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