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संस्कृति

नवलपाल प्रभाकर दिनकर

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संस्कृति हमारी संस्कृति जर्जर सी पुराने मकान की नींव पर खड़ी है । जिस मकान की नींव ही पुरानी हो चुकी है, तथा उसके कभी भी ढहने की आशंका है भला हममें से कोई ऐसे पुराने मकान में रहना चाहेगा। नही हमें ऐसी विरासत में मिली संस्कृति नही चाहिए। मेरे एक अजीज दोस्त ने मुझसे कहा। वाह-वाह, मैं तालियां पीटने लगा । क्या बात है भाई तुझे तो वक्ता या फिर नेता होना चाहिए था । और ऐसा नेता जो एक दिन सारे देख को बदल दे। वह बहुत खुश हुआ, मानों उसकी किसी ने ऐसी तारीफ कर दी जिसको पहले किसी ने न किया था। अब वह कहने लगा कि वास्तव में मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूंगा और हमारी संस्कृति को ही नही वरन् देश की भी तस्वीर बदल दूंगा । वह तारीफ के पूल बांधे जा रहा था और मैं चुपचाप उस की ये बकवास सुने जा रहा था तभी बीच में रूक कर वह कहने लगा कि यार मैं ही बोलता रहूंगा या तुम भी कुछ बोलोगे । मैं बोला यार तुम बोलने का समय दोगे तभी तो मैं बोलूंगा । चल अब बोलने का समय दिया है तो मैं बोलूंगा जरूर । और तुम भी कान खोलकर सूनो । जिस विरासत (संस्कृति) को बचाने के लिए हमारे देश के बड़े-बड़े नेता, वीर, शहीद हो गए हैं । हम उस संस्कृति को बुरी संस्कृति बताकर दुत्कार रहे हैं । माना हमारा देश स्वतंत्र हो चुका है, और अब हम स्वतंत्र हैं । कुछ भी करने हमारा अधिकार है, मगर हमें ऐसा कुछ भी नही करना चाहिए। जिससे वीर-शहीदों की आत्माओं को ठेस पहुंचे । अरे वीरों ने तो प्राण त्याग दिए । परन्तु हम उनसे विरासत में मिली उनकी संस्कृति की हिफाजत भी नही कर सकते क्या ? हमारे बुजुर्गों ने तो अंग्रेजो की भाषा तक को नही अपनाया और हम पाश्चात्य सभ्यता में गमगीन होते जा रहे हैं । यह हमारा दायित्व ही नही बल्कि कर्तव्य भी होना चाहिए कि हम उनकी संस्कृति को आने वाली पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ाते जाएं । पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर हम जीते हुए भी हारे हुए हैं क्योंकि किसी भी देश की पहचान उस देश की संस्कृति से होती है । क्या फर्क रह जायेगा, पाश्चात्य संस्कृति और हमारी संस्कृति में । संस्कृति में रहन-सहन, वेष-भूषा, भाषा, खान-पान आदि आते हैं । जिनमें से कोई भी चीज अब हमारे पास नही है । खाने में लाया जाये तो विदेशों से कॉफी, फास्ट फूड वगैरह हमारे देश में आते हैं । जिनका प्रतिदिन किसी-न-किसी न रूप में हम प्रयोग करते हैं । भाषा को लिया जाए तो हमारी हिन्दी भाषा भी एक खिचड़ी बन कर रह गई है । इसमें अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग होने लगा है । यहां तक कि आजकल लोग अंग्रेजी तो आसानी से पढ़ लेते हैं, मगर हिन्दी के बारे में उन्हें पता तक नही होता । वेष-भूषा की बात की जाए तो वह सभी चरम सीमा को भी पार कर चुकी है । उसने हमारे देश की बहु-बेटियों के कपड़े ही निगल लिए हैं । जिससे देश में बलात्कार जैसे जघन्य अपराध पैदा हो रहे हैं । शर्म, हया, आदि का नामोंनिशान नही छोड़ा देश में । यदि ऐसा होता रहा तो हमारा देश एक दिन फिर से गुलाम होगा । किसी देश का या फिर अपनी ही संस्कृति भूलकर विदेशी संस्कृति का । -:-०-:-  

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