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सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

8 फरवरी 2022

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बेचारी पूर्णा पंडाइन व चौबाइन बगैरहूम के चले जाने के बाद रोने लगी। वो सोचती थी कि हाय, अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत से नफरत है। अभी नहीं मालूम क्या-क्या भोगना भाग में बदा है। या नारायण, तू ही मुझ दुखिया का बेड़ा पार लगा। मेरी शामत आयी थी कि खामखाह सर में तले डलवा लिया। यही बाल कमबख्त न होते तो काहे को आज इतना फजीता होता। इन्हीं बातो का ख्याल करते करते जब यह जुमला याद आ गया कि ‘बाबू अमृतराय का रोज रोज आना ठीक नहीं’ तो उसने सर पर हाथ मारकर कहा—
वो आते है तो मै कैसे मना करूँ। मैं तो उनका दिया खाती हूँ। सिवाय उनके अब मेरी खबर लेनेवाला और कौन है। उनसे कैसे कह दूँ कि तुम मत आओ। और फिर उनके आने मे हर्ज ही क्या है।बेचारे सीधे-सादे शरीफ आदमी है। कुछ शोहदे नहीं, आवारा नहीं, फिर उनके आने में क्या हर्ज है। नहीं-नहीं, मुझसे मना न किया जायेगा। अब तो मुझ पर मुसीबत आ हीपड़ी है। अब जिसके जी में जोआवे कहे। नहीं मालूम कल मुझे क्या हो गया। क्या भंग खा गयी थी कि प्रेमा के यहाँ जाकर आज इतनी फजीता करवायी। अब भूलकर भी उधर का रूख न करूँगी। मगर हाय, प्यारी प्रेमा के देखे बगैर क्योंकर रहा जायगा। मै नजाउंगी तो वो अपने दिल में क्या समझेगी। समझेगी क्या, उनकी माँ ने उनको पहले से ही मना कर दिया होगा।
इन ख्यालों से फुरसत पाकर उसने हस्बे मामूल गंगाजी का कस्द किया। तब से पंडितजी का इंतकाल हुआ था कि वो रोज बिला नागा गंगा नहाने जाया करती थी। मगर मुँह अँधेरे जाती औरसूरज निकलते निकलते लौट आती। आज इनबिन बुलाये मेहमानो की वजह सेदेर हो गयी। थोड़ी दूर चली थी कि रास्ते में सेठानी जी की बहू से मुलाकात हो गयी। उसका नाम रामकली था। बेचारी दो बरस से रँडापा भोग रही थी। उसका सिन भी मुश्किल से सोलह सत्रह बरस होगा।चेहरा मोहरा भी बुरा न थ। खदो-खाल निहायत दिलफरेब। अगर पूर्णा आम की तरह तुर्द थी तो उसका चेहरा जोशे जवानी से गुलाबी हो रहा था। बाल मेंतेल न था। न आँखो में काजल। न माँग मेंसेंदुर। न दॉँतो पर मिस्सी। ताहम उसकी आँखो में वो शोखी थी, चाल में वो लचक और होंठो परवो तबस्सुम जिनसे इन बनावटी आराइशों की जरुरत बाकी न रही थी। वो मटकती, इधर-उधर ताकती, मुस्कराती चलो जा रहीथी कि पूर्णा को देखते ही ठिठक गयी और बड़े अंदाज से हँसकर बोली—आओ बहन, आओ। तुम ऐसा चलती हो जानूँ बताशे पर पैर धर रही हो।
पूर्णा को ये जुमला नागवार मालूम हुआ। मगर उसने बड़ी नर्मी से जवाब दिय—क्या करूँ बहन, मुझसे तो औरतेज नहीं चला जाता।
रामकली—सुनती हूँ, कल हमारी डायन कई चुडैलों के साथ तुमको जलाने गयी थी। मुझे सताने से अभी तक जी नहीं भरा। क्या कहूँ बहन। ये सब ऐसा दुख देती है कि जी चाहता है जहर खा लूँ। और अगर यही हाल रहा तो एक न एक दिनयही होना है। नहीं मालूम ईश्वर का क्या बिगड़ा था कि एक दिन भी जिंदगी का सुख न भोगने पायी। भला तुम तो अपने पति के साथ दो बरस रही भी। मैने तो उसका मुँह भी नहीं देखा। जब तमाम औरतो को बनाव-सिंगार किये हँसी-खुशी चलते-फिरते देखती हूँ तो छाती पर सापँ लोटने लगता है। विधवा क्या हो गयी, घर भर की लौड़ी बना दी गयी। जो काम कोई न करे वो मै करूँ, उस पर रोज उठते जूती बैठते लात। काजल मत लगाओ, मिस्सी मत लगाओ, बाल मत गूँथाओ, रंगीन साड़ियाँ मत पहनो, पान मत खाओ। एक रोज एक गुलाबी साड़ी पहन ली थी तो वह चुडैल मारने उठी थी। जी मे तो आया कि सर के बाल नोच लूँ। मगर जहर का घूँट पी के रह गयी और वो तो वो उसकी बेटियाँ और दूसरी बहुऍ मेरी सूरत से नफरत रखती है। सुबह को कोई मेरा मुँह नहीं देखता। अभी पड़ोस ही में एकशादी हुई थी। सब की सब गहने में लद कर गाती बजाती गई। एक मै ही अभागिन घर में पड़ी रोती रही। भला बहन, अब कहाँ तक कोई जब्त करे। आखिर हम भी तो आदमी है। हमारी भी तो जवानी है। दूसरों की खुशी चहलपहल देख खामखाह दिल मे हौंसले होते है। जब भूख लगती है और खाना नहीं मिलता तो चोरी करनी पड़ती है।
ये कहकर रामकली ने पूर्णा का हाथ अपनेहाथ में ले लिया और मुस्कराकर आहिस्ता-आहिस्ता एक गीत गुनगुनाने लगी। पूर्णा को ये बेत कल्लुफियां सख्त नागवार मालूम होती थीं मगर मजबूर थी।,
रास्ते में हजारों ही आदमी मिले। सबकी नजरें इन दोनों औरतों की तरफ फिरती थी। फ़िके चुस्त किये जाते थे। मगर पूर्णा सर को ऊपर उठाती हीन थी। हाँ रामकली अलबत्ता मुस्करा-मुस्कराकर माशूकाना अंदाज से इधर उधर देखती थी। एक आध बरजस्ता जवाब भी देदेती। पूर्णा जब सड़क पर मर्दो को खड़े देखती तो बचाके कतराकर निकल जाती मगर रामकली को उनके बीच में घुसकर निकलने की जिंद थी। नहीं मालूम क्यूँ उसकी चादर सर से बार-बार ढलक जाती जिसको वो एक अंदाज से ओढ़ती थी। इसी तरह दरिया किनारे पहुँची। यहाँ हजारों मर्दऔर औरतें और बच्चे नहा रहे थे।
रामकली को देखते ही एक पंडित ने कहा—इधर सेठानी जी, इधर।
पंडा—(घूरकर)यह कौन है?
रामकली—(आँखे नचाकर)कोई होंगी। क्या तुम काजी हो क्या?
पंडा—जरा नाम सुन के कान खुस कर लें।
रामकली—ये मेरी सखी है। इनका नाम पूर्णा है।
पंडा—(हँसकर) अहा हा, क्या अच्छा नाम है। है भी तो पूरन चंद्रमा की तरह। अच्छा जोड़ा है।
पूर्णा बेचारी झेंपी। ये मजाक उसको निहायत नागवार मालूम हुआ। मगर रामकली ने अपने सर की लट एक हाथ से पकड़ औरदूसरे हाथ से छिटकाकर कहा—खबरदार, उनसे दिल्लगी मत करना।ये बाबू अमृतराय से पुजवाती है।
पंडा—ओ हो हो, खूब घर ताका है। है भी तो चंद्रमा की तरह। बाबू अमृतराय भी बड़े रसिया है, कभूँ-कभूँ यहाँ चले आते है। वो देखो जो नया घाट बन रहाहै वो बाबू साहब बनवा रहे है। फिर ऐसी मनोहर सूरतों का दशन हमको कैसे मिलेगा।
पूर्णा दिल में सख्त पशेमान थी कि काहे को इसके साथ आयी, अब तक तो नहा-धो के घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बहन, नहाना हो तो नहाओ। मुझको देर होती है। अगर तुम अभी देर में जाओ तो मै अकेली जाए।
पंडा—नहीं-नहीं रानी, हम गरीबों पर इतनी खपा(खफा) मत होओ। जाओ सेठानी जी इनको नहला लाओ। सुनता हूँ आज कचहरी बंद है। बाबू साहब घर होंगे।
पूर्णा ने चादर उतारकर धर दी और साड़ी लेकर नहाने के लिए उतरना चाहती थी कि यकायक सब पंडे उठ-उठकर खड़े होने लगे। और एक लमहे मे बाबू अमृतराय एक सादा कुरता पहने, सादी टोपी सर पररखे, चश्मा लगाये, हाथ में पैमाइश का फीता लिये, चंद ठेकेदारों के साथ इधर आते दिखायी दिये। उनको देखते ही पूर्णा ने एक लंबी घूँघट निकाल ली। उसने चाहा कि नीचे के जीने पर उतर जाऊँ। मगर शर्मो-हया ने उसके पैरों को वहीं बॉँध दिया। बाबू साहब को इन जीनों की चौड़ाई-लंबाई नापना थी, चुनांचे वह पूर्णा से दो कदम के फासले पर खड़े होकर नपवाने लगे और कागज पेसिंल पर कुछ लिखने लगे। लिखते-लिखते आगेको कदम जो बढ़ाया तो पैर जीने के नीचे जा पड़ा और करीब थाकि वो औंधे मुँह गिरें और उसी वक्त इस कीमती जिंदगी काखातमा हो जाय कि पूर्णा ने झपटकर उनको सम्हाल लिया। बाबूसाहब ने चौंककर देखा तो दाहिना हाथ एक नाज़नीन के हाथ में है। जब तक पूर्णा अपना घूघँट बढ़ाये वो उसको पहचान गये औरबोले—अख्वाह, ‘तुम होपूर्णा। तुमने मेरी जान बचा ली।
पूर्णा ने उसका कुछ जवाब न दिया, बल्कि सर नीचा किये हुए जीने से उतर गयी। जब तक बाबू साहब पैमाइश करवाते रहे वो गंगा की तरफ रूख किये खड़ी रही। जब वो चलो गये तो रामकली मुस्कराती हुई आयी और बोली—बहन, आज तो तुमने बाबू साहब को गिरते-गिरते बचा लिया। आज से तो वो और भी तुम्हारे पैरो पर सर रखेंगे।
पूर्णा—(कड़ी निगाहों से देखकर) रामकली, ऐसी बातें न करों। मुझे ऐसी फ़िजूल दिल्लगी भली नहीं मालूम होती। आदमी आदमी के काम आता है। अगर मैनें उनको बचा लिया तो इसमें क्या अनोखी बात हो गयी।
रामकली—ऐ लो, तुम तो जामे से बाहर हो गयी। बस इसी जरा-सी बात पर।
पूर्णा—नहीं, मैं गुस्से मेंनहीं हूँ। मगर ऐसी बातें मुझको अच्छी नहीं लगती। ले, नहाकर चलोगी भी या आज सारा दिन यहीं बिताओगी?
रामकली—जब तक इधर-उधर जी बहले अच्छा है। घर पर सिवाय जलते अंगारो के और क्या रक्खा है।
कुछ देर में दोनों सखियाँ यहाँ से रवाना हुई तो रामकली नेकहा—क्यूँ बहन, पूजा करने चलोगी?
पूर्णा—नहीं सखी, मुझे बहुत देर हो जायगी और न मै कभी मंदिरों में पूजा करने गयी हूँ।
रामकली—आज तुमको चलना पड़ेगा, जरा देखो तो कैसी बहार की जगह है अगर दो-चार दिन जाओ तो फिर बिला गये तबीयत न माने। यही दो-तीन घंटे जो स्नान-पूजा में काटता है, मेरी खुशी का वक्त है। बाकी दिन-रात सिवाय गाली सुनने के और कोई काम नहीं।
पूर्णा—तुम जाओ। मैं न जाऊँगी। जी नहीं चाहता।
रामकली—चलो-चलो, नखरे न बघारो। दम की दम में तो लौटे आते है।
रास्ते में एक तमोली की दुकान पड़ी। काठ के जीनेनु मा तख्तों पर सफेद कपड़े पानी से भिगाकर बिछाये हुए थे। उस पर बँगला देसी व मघई पान बडी सफाई से चुने हुए थे। सामने दो बड़े-बड़े चौखटेदार आइने लगे हुए थे और एक छोटी सी चौकी पर खुशबूयात की शीशियाँ और मसालो की डिबियाँ खूबी से सजाकर धरी हुई थीं। तमोली एक सजीला जवान था। सर पर दुपल्ली टोपी चुनकर कज रखती थी, बदन में आबेरवाँ का चुन्नत पड़ा हुआ कुर्ता था। गले मेंसोने की ताबीजें, आंखो में सुर्मा, पेशानी पर सुर्ख टीका, होंठ पर पान की लाली नमूदार। इन दोनो औरतों को देखते ही बोला—सेठानी जी, सेठानी जी, आओ, पान खाती जाओ।
रामकली ने चट सर से चादर खिसका दी और फिर उसको एक अंदाज से ओढकर और दिलरूबायाना अंदाज से हंसकर कहा—अभी ठाकुरजी का परशाद नहीं पाया है।
तमोली—आओ, यह भी तो परशाद से कम नहीं। संतों के हाथ की चीज परशाद से बढ़कर होती है। आजकल तो कई दिन से तुम्हारे दर्शन ही नहीं हुए, ये तुम्हारे साथ कौन सखी है।
रामकली—(मटककर) ये हमारी सखी है, बेढब ताक रहे हो। क्या कुछ जी ललचा रहा है।
तमोली—वो तो हमारी तरफ ताकती ही नहीं। हाँ भाई, बड़े घर की है। हम जैसे तो तलुओं से सर रगड़ते होंगे।
यह कहकर तमोली ने बीड़े लगाये और एक पत्ते मे लपेटकर रामकली की तरफ तकल्लुफ से हाथ बढ़ाया। जब उसने लेने के लिए अपना हाथ फैलाया तो तमोली ने अपना हाथ खेंच लिया और हँसकर बोला—तुम्हारी सखी लें तो दें।
रामकली—लो सखी, पान खाओ।
पूर्णा—मैं न खाऊँगी।
रामकली—तुम्हारी कौन-सी सास बैठी है जो कोसेगी, मेरी तो सास मना करती है, उस पर भी हर रोज पान खाती हूँ।
पूर्णा—तुम्हारी आदत होगी। मैं पान नहीं खाती।
रामकली—आज मेरी खातिर से खाओ। तुम्हें हमारे सर की कसम लो।
लाचार पूर्णा ने गिलौरियाँ लीं और र्श्माते हुए खायी। अब जरा धूप तकलीफदेह मालूम होने लगी थी। उसने रामकली से कहा—किधर है तुम्हारा मंदिर। वहाँ तक चलते-चलते तो शायद शाम हो जावेगी।
रामकली—जितनी देर यहाँ हो, होने दो। घर पर क्या धरा है।
पूर्णा खामोश हो गयी। उसको बाबू अमृतराय के पैर फिसलने का ख्याल आ गया। हाय, जो कहीं वे आज गिर पड़ते तो दुश्मनों की जान परबन जाती। बड़ी खैरियत हो गयी। मैं बड़े मौके से आ गयी थी। आज देर मे आना सफल हो गया। इन्हीं ख्यालों में महत्व थी कि दफअतन रामकली ने कहा—लो सखी, आ गया मंदिर।
पूर्णा ने चौंककर दाहिने जानिब देखा तो एक निहायत आलीशान संगीन इमारत है। दरवाजा सतहें जमीन से बहुत ऊँचा है और वहाँ तक जाने के लिए दस बारह जीने बने हुए है। रामकली को इस इमारत में ले गयी। अंदर जाकर क्या देखती है कि एक पुश्ता वसीह सहन है जिसमे सैकड़ो मर्द और औरत जमा है। दाहिने जानिब एक बारदारी हैं जो तमाम तकल्लुफ़ात से आ रास्ता-ओ-पीरास्ता नज़र आती है। इस बारादरी में एक निहायत वजीह-ओ-शकील शख्स जर्द रेशम की मिर्जई पहने सर पर खूबसूरत गुलाबी रंग की पगड़ी बांधे मसनद पर तकिया लागाये बैठा है। पेचवाना लगा हुआ है। उसके रुबरू साज़िन्दे बैठे सुर मिला रहे हैं और एक महपार नाज़नीन पेशवाज़ पहने बसद नाजो-अंदाजा जलवा अफ़रोज है। सैकड़ों आदमी इधर-उधर बैठे हैं और सैकड़ों खड़े हैं। पूर्णा ने अन्दाज़ की यह कैफियत देखी तो चौंककर बोली—क्यूँ, तो नाचघर मालूम होता है। कहीं भूल तो नहीं गयी?
रामकली—(मुस्कराकर) चुप, ऐसा भी कोई कहता है? यही देवी का मन्दिर है। वे महंत जी बैठे हैं। देखती हो कैसा सजीला जवान है। आज सोमवार हैं। हर सोमवार को यहाँ कंचानियों का नाच है।
इसी आसना में एक बुलन्द क़ामत शख्स आता दिखायी दिया। कोई छ: फ़ीट का कद था और निहायत लहीम-ओ शहीम। बालों में कंधी की हुई थी, मुँह पान से भरे, माथे पर भभूत रमायेख् गले में बड़े-बड़े दानों की रुद्राक्ष माला पहने, शानों पर एक रेशमी दोपट्टा रक्खें, बड़ी, और सुर्ख आँखें से इधर-उधर ताकत उन दोनों औरतों के क़रीब आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ़ एक अंदाज से देखकर कहा—क्यूँ बाबा इन्द्रदत्त, कुछ परशाद-वरशाद नहीं बनाया?
बाबा इन्द्रदत्त ने फरमाया—तुम्हारे ख़ातिर सब हाज़िर है। पहले चलकर नाच देखो। ये कंचनी से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे है। एक हजार रुपया इनाम दे चुके है।
रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की तरफ़ चली। बीचारी पूर्णा जाना न चाहती थी मगर वहाँ सबके सामने इन्कार करते भी न बन पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। बेशुमार औरतों जमा थी। एक से एक हसीन, गहने से गोंडनी की तरह लदी हुई थी। बेशुमार मर्द था। एक से एक खुशरु, आता दर्जे की पोशाकें पहने हुए, सब के सब एक ही जगह मिले-जुले खड़े थे। आपस में नजर-बाज़ियाँ हो रही थी। नज़रबाज़ियाँ ही नहीं, बल्कि दस्तदराज़ियाँ भी होती जाती थी, मुस्कार-मुस्कुरा राजो-नियाज़ की बातें की जा रही थी। औरतें मर्दो में, मर्द में, औरतों में ये मेलजोल, ख़िलत-मिलत, पूर्णा को कुछ ताज्जुबख़ेज मालूम हुआ। उसकी हिम्मत अन्दर घुसने की न पड़ी। एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुस गयी और वहाँ कोई आधा घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वो निकली है तो पसीने में ग़र्क थी। एक तमाम कपड़े मसल गये थे।
पूर्णा ने उसे देखते ही कहा—क्यूँ बहन, पूजा से ख़ाली हो गयी? अब भी घर चलोगी या नहीं।
रामकली—(हँसकर) अरे तुम बाहर ही खड़ी थीं क्या? ज़रा अन्दर चलकर देखो, क्या बहार है। ईश्वर जाने, कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती। अब आज उसकी चाँदी हैं हज़ारों रुपये ले जायगी।
पूर्णा—दर्शन भी किया या गाना ही सुनती रही?
रामकली—दर्शन करने आती है मेरी बला। यहाँ तो ज़रा दिल बहलने से काम है। तुम्हारे साथ न होती तो कहीं घंटों में घर जाती। बाबा इन्द्रदत्त राय ने ऐसा लज़ीज परशाद दिया है कि क्या बताऊँ।
पूर्णा—क्या है? चरनामृत है?
रामकली—(हँसकर) चनामृत का बाबा है—भंग।
पूर्णा—ऐ है, तुमने भंग पी ली?
रामकली-यही तो परशाद है देवी जी का इसके पीने में क्या हर्ज है? सभी पीते है, देवीजो को शराब भी चढ़ती है। कहो तुमको पिलाऊँ?
पूर्णा—नहीं बहन, मुझे मुआफ, रक्खो।
इधर यही बातें हो रही थीं कि दस-पन्द्रह आदमी बारदरी से आकर उन दोनों औरतों के इर्द-गिर्द खड़े हो गये।
एक—(पूर्णा की तरफ़ घूरकर) अरे यारो, ये तो कोई नया सुरुप है।
दूसरा—ज़रा बचकर चलो, बचकर
इतने में किसी ने पूर्णा के शाने को आहिस्ता से धक्का दिया वो बिचारी सख्त अजाब में मुबतला हैं। जिधर देखती है, आदमी ही आदमी नज़र आते है। कोई इधर से क़हकहा लगाता है, कोई उधर से आवाज़े कसता है। रामकली हँस रही हैं। मज़ाको का बरजस्ता जवाब देती है। कभी चादर को खिसकाती है, कभी दुपट्टे को सम्हालती है।
एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है?
रामकली—ये हमारी सखी हैं ज़रा दर्शन कराने लिवा लगी थी।
दूसरा—नहीं, ज़रुर लाया करो, ओ हो क्या रुप है
बारे ख़ुद-ख़ुद करके उन आदमियों से निजात मिली। पूर्णा बेतहाश भागी। रामकली भी उसके साथ हुई। घर पर आकर पूर्णा ने अहद किया कि अब कभी मन्दिर न जाऊँगी। 

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रचनाएँ
हमखुर्मा व हमसवाब
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संध्या का समय है, डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणें रंगीन शीशो की आड़ से, एक अंग्रेजी ढंग पर सजे हुए कमरे में झॉँक रही हैं जिससे सारा कमरा रंगीन हो रहा है। अंग्रेजी ढ़ंग की मनोहर तसवीरें, जो दीवारों से लटक रहीं है, इस समय रंगीन वस्त्र धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है।
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पहला बाब-सच्ची क़ुर्बानी

8 फरवरी 2022
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शाम का वक्त है। गुरुब होनेवाले आफताब की सुनहरी किरने रंगीन शीशे की आड़ से एक अग्रेजी वज़ा पर सजे हुए कमरे में झांक रही हैं जिससे तमाम कमरा बूकलूमूँ हो रहा है। अग्रेजी वजा की खूबसूरत तसवीरे जो दीवारों

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दूसरा बाब-हसद बुरी बला है

8 फरवरी 2022
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लाल बदरीप्रसाद साहब अमृतराय के वालिद मरहूम के दोस्तों में थे और खान्दी इक्तिदार, तमव्वुल और एजाज के लिहाज से अगर उन पर फ़ौकियत न रखते थे तो हेठ भी न थे। उन्होंने अपने दोस्त मरहूम की जिन्दगी ही में अमृ

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तीसरा बाब-नाकामी

8 फरवरी 2022
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बाबू अमृतराय रात-भर करवटें बदलते रहे । ज्यूँ-2 वह अपने इरादों और नये होसलों पर गौर करते त्यूँ-2 उनका दिल और मजबूत होता जाता। रौशन पहलुओं पर गौर करने के बाद जब उन्हौंने तरीक पहलूओं को सोचना शुरु किया त

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चौथा बाब-जवानामर्ग

8 फरवरी 2022
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वक्त हवा की तरह उड़ता चला जाता है । एक महीना गुजर गया। जाड़े ने रुखसती सलाम किया और गर्मी का पेशखीमा होली सआ मौजूद हुई । इस असना में अमृतराय नेदो-तीन जलसे किये औरगो हाजरीन की तादाद किसी बार दो –तीन से

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छठा बाब-मुए पर सौ दुर्रे

8 फरवरी 2022
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पूर्णा ने गजरा पहन तो लिया मगर रात भर उसकी आँखो में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी कि बाबू अमृतराय ने उसको गज़रा क्यों दिया। उसे मालूम होता था किपंडित बसंतकुमार उसकी तरफ निहायत कहर आलूद न

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सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

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आठवाँ बाब-देखो तो

8 फरवरी 2022
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आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी। बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन

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नवाँ बाब-तुम सचमुच जादूगार हो

8 फरवरी 2022
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बाबू अमृतराय के चले जाने के बाद पूर्णा कुछ देर तक बदहवासी के आलम में खड़ी रही। बाद अज़ॉँ इन ख्यालात के झुरमुट ने उसको बेकाबू कर दिया। आखिर वो मुझसे क्या चाहते है। मैं तो उनसे कह चुके कि मै आपकी कामया

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दसवाँ बाब-शादी हो गयी

8 फरवरी 2022
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तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतरा

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ग्यारहवाँ बाब-दुश्मन चे कुनद चु मेहरबाँ बाशद दोस्त

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मेहमानों की रूखमती के बाद ये उम्मीद की जाती थी कि मुखालिफीन अब सर न उठायेगें। खूसूसन इस वजह से कि उनकी ताकत मुशी बदरीप्रसाद और ठाकुर जोरावर सिंह के मर जाने से निहायत कमजोर-सी हो रही थी। मगर इत्तफाक मे

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बारहवाँ बाब-शिकवए ग़ैर का दिमाग किसे यार से भी मुझे गिला न रहा।

8 फरवरी 2022
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प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, पर

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तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

8 फरवरी 2022
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हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय

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