shabd-logo

तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

8 फरवरी 2022

29 बार देखा गया 29

हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय कचहरी चले जाते तो अकेले उसका जी घबराता। पस उसने एक रोज़ उनसे कहा—कि अगर कोई हर्ज न हो तो रामकली और लछमी को इसी जगह बुला लीजिए ताकि उनकी सोहबत में वक्त कट जाया करे। रामकली को नाज़रीन जानते है। लछमी भी एक कायस्थ की लड़की थी और गौने के ही दिन बेवा हो गयी थी। इन दोनों औरतों ने पूर्णा की शादी हो जाने के बाद अपनी रजामंदी से दूसरी शादियाँ की थीं और बाबू अमृतराय ने उनके लिए मकान किराए पर लिया था और उनकी ख़ानादारी के एखराजात के मुतहम्मिल भी होते थे। बाबू साहब को पूर्णा की तजवीज़ बहुत अच्छी मालूम हुई और दूसरे ही दिन रामकली और लछमी इसी बँगले के एक हिस्से में ठहरा दी गयीं। पूर्णा ने इन दोनों औरतों को शादी होने के बाद नदेखा था। अब रामकली को देखा तो पहचानी न जाती थी और लछमी ने भी खूब रंग-रूप निकाले थे। दोनो औरतें पूर्णा के साथ हँसी-खुशी रहने लगी। बाबू साहब की तजबीज थी कि इन औरतों की तालीम अच्छी हो जाय तो अनाथलय की निगरानी उन्हीं के सुपुर्द रि दूँ। चुनांचे एक हुनरमंद लेड़ी अपनी सास को कोसा करतीथी। एक रोज पूर्णा ने उससे मुस्कराकर पूछा—क्यूँ रमन, आजकल मंदिर पूजा करने नहीं जाती हो?
रामकली ने झेंपकर जवाब दिया—सखी, तुम भी कहाँ का जिक्र ले बैठी। अब तो मुझको मंदिर के नाम से नफ़रत है।
लछमी को रामकली के पहले हालात मालूम थे। वो अक्सर उसको छेड़ा करती। उस वक्त् भी न रहा गया। बोल उठी—हाँ बुआ, अब मंदिर काहे का जाओगे। अब तो हँसने-बोलने का सामान घर ही पर मौजूद है।
रामकली—(तुनककर) तुमसे कौन बोलता है, जो लगीं ज़हर उगलने। बहन, इनको मना कर दो, ये हमारी बातों में न दखल दिया करें नहीं तो मै कभी कुछ कह बैठूँगी तो रोती फिरेंगी।
लछमी—(मुस्कराकर) मैंने झूठ थोंड़े कहा था जो तुमको ऐसा कड़वा मालूम हुआ। सो अगर सच बात कहने में ऐसी गर्म होती हो तो झूठ ही बोला करूँगी। मगर एक बात बतला दो। महतजी ने मंतर देते वक्त तुम्हारे कान में क्या कहा था। हमारी भती खाये जो झूठ बोले।
पूर्णा हँसने लगी मगर रामकली रूआँसी होकर बोली—सुनो लछमी, हमसे शरारत करोगी तो ठीक न होगा। मैं जितना तरह देती हूँ तुम उतना ही सर चढ़ी जाती हो। आपसे मतलब: महंत ने मेरे कान में कुछ ही कहा था। बड़ी आयी वहाँ से सीता बन के।
पूर्णा—लछमी, तुम हमारी सखी को नाहक सताती हो। जो पूछना हो ज़र मुलायमत से पूछना चाहिए कि यूँ। हाँ बुआ, तुम उनसे न बोलो, मुझको बतला दो उस तमोली ने तुमको पान खिलाते वक्त क्या कहा था?
रामकली—(बिगड़कर) अब तुम्हें भी छेड़खानी की सूझी। मैं कुछ कह बैठूगी तो बुरा मान जाओगी।
इसी तरह तीनों सखियों में हॅसी-मजाक, बोली-ठोली हुआ करती थी। साथ पढ़तीं साथ हवा खाने जाया करतीं, कई मर्तबा-गंगा स्नान को गयीं। मगर उस जनाने घाट पर जो अमृतराय ने बनवाया था। मालूम होता थाकि तीनों बहनें है। इन्हीं खुशियों में एक महीना गुजर गया। गोया वक्त़ भागा जाता था। मगर फ़लके नाहजा से किसी की खुशी कब देखी जाती है। एक रोज पूर्णा अपनी सखियों के साथ बाग में टहल-टहल के गहने बनाने के लिए फूल चुन रही थी कि एकऔरत ने आके उसके हाथ मे एक खत दिया। पूर्णा ने हर्फ पहचाना। प्रेमा का खत। ये लिखा हुआ था-
‘प्यारी पूर्णा, तुमसे मुलाकात करने का बहुत जी चाहता है। मगर यहाँ घर से पाँव बाहर निकालने की मुमानियत है। इसलिए मजबूरन यह ख़त लिखती हूँ। मुझे तुमसे एक बात कहनी है जो खत में नहीं लिख सकती। अगर तुम किसी मोतबर औरत को इस खत का जवाब देकर भेजो तो उससे जबानी कह दूँगी। निहायत जरूरीबात है।

तुम्हारी सखी,
प्रेमा
ख़त पढ़ते ही पूर्णा का चेहरा जर्द हो गया। उसको इस ख़त की मुख्तसर इबारत नहीं मालूम क्यूँ खटकने लगी। फौरन बिल्लों को बुलाया और प्रेमा के ख़त का जवाब देकर उधर रवाना किया। और उसके वापस आने में आध घंटा जो लगा वो पूर्णा ने निहायत बेचैनी से काटा। नौ बजते-बजते बिल्लों वापस आयी।
चेहरा ज़र्द, रंग फ़क, बदहवास, पूर्णा ने उसको देखते ही पूछा—क्यूँ बिल्लों खैरियत तोहै।
बिल्लों—(परेशानी ठोंककर) क्या कहूँ बहू, कुछ नहीं बनता। न जाने अभी क्या होनेवाला है।
पूर्णा—(घबराकर) क्या कहा, कुछ ख़त-वत तो नहीं दिया?
बिल्लों—ख़त कहाँ से देतीं। हमको अंदर बुलाते डरती थी। देखते ही रोने लगीं और कहा—बिल्लो, मैं क्या करूँ, मेरा जी यहाँ बिलकुल नहीं लगता। मैं अक्सर पिछली बातें याद करके रोया करती हूँ। एक दिन उन्होंने (बाबू दाननाथ) मुझे रोते देख लिया, बहुत बिगड़े, झल्लाये और चलते वक्त धमकाकर कहा कि एक औरत के दो चाहने वाले नहीं जिंदा रह सकते।
यह कहकर बिल्लो ख़ामोश हो गयी। पूर्णा की समझ मे पूरी बात न आयी। उसने कहा—हाँ-हाँ, खामोश क्यूँ हुई। जल्दी कहो, मेरा दम रूका हुआ है।
बिल्लों ने रोकर जवाब दिया—बहू, अब और क्या कहूँ। दाननाथ की नीयत बुरी है। वो समझते है किप्रेमा बाबू अमृतराय की मुहब्बत में रोती है।
इतना सुनना था कि पूर्णा पर सारी बातें रोशन हो गयीं। पैर तले से मिटटी निकल गयी। कुछ ग़शी-सी आ गयी। दोनों सखियाँ दौड़ी हुई आयीं, उसको संभाला, पूछने लगीं क्या हुआ, क्या हुआ। पूर्णा ने बहाना करके टाल दिया। मगर ये मनहूस खबर उसके कलेजे में तीर की तरह चुभ गयी। ईश्वर से दुआ माँगने लगी कि आज किसी तरह वो सही सलामत घर वापस आ जाते तो सब बातें कहती। फिर ख़याल आया कि अभी उनसे कहना मुनासिब नहीं, घबरा जायेंगे। इसी हैस-बैस में पड़ी थी। शाम के वक्त जब बाबू अमृतराय हस्बे मामूल कचहरी से आये तो देखा कि पूर्णा पिस्तौल लिये खिड़की से किसी चीज पर निशाना लगा रही है। उनको देखते ही उसने पिस्तौला अलग रख दिया। अमृतराय ने हँसकर कहा—शिकार के लिए नजरें काफी है, पिस्तौल पर मश्क करने की क्या जरूरत है।
पूर्णा ने अपनी सरासीमगी को छुपाया और बोली—मुझे पिस्तौल चलाना सिखा दो। मैंने दो-तीन बार चलाया मगर निशाना ठीक नहीं पड़ता।
बाबू साहब को पूर्णा के इस शौक पर अचम्भा हुआ। कहाँ तो रोज उनको देखते ही सब धंधा छोड़कर खिदमत के लिए दौड़ती थी और कहाँ आज पिस्तौल चलाने की धुन सवार है। मगर हसीनों के अंदाज कुछ निराले होते है, ये सोचकर उन्होंने पिस्तौल को हाथ में लिया और दो-तीन मर्तबा निशाना लगाकर उसको चलाना सिखाया। और अब पूर्णा ने फायर किया तो निशाना ठीक पड़ा। दूसरा फायर किया वो भी ठीक, चेहरा खुशी से चमक गया। पिस्तौल रख दिया और शौहर की खातिर व मुदारात में मसरूफ हो गयी।
अमृतराय—प्यारी, आज मैंने एक निहायत होशियार मुसव्विर बुलाया है जो तुम्हारी पूरे क़द की तसवीर बनायेगा।
पूर्णा—मेरी तस्वीर खिंचाकर क्या करोगे?
अमृतराय—कमरे में लगाऊँगा।
पूर्णा—तुम भी मेरे साथ बैठो।
अमृतराय—आज तुम अपनी तसवीर खिंचवा लो, फिर दूसरे दिन हम दोनों साथ बैठेंगे।
पूर्णा तसवींर खिंचाने की तैयारियाँ करने लगी। उसकी दोनों सखियाँ उसका बनाव-सँवार करने लगे। मगर उसका दिल आज बैठा जाता था। किसी नामालूम हादसे का खौफ़ उसके दिल पर गालिब होता जाता था। चार बजे के करीब मुसव्विर आया और डेढ़ घण्टे तक पूर्णा की तसवीर का ख़ाका खींचता रहा। उसके चले जाने के बाद गरूबे आफ़ताब के वक्त बाबू अमृतराय हस्बे मामूल सैर के लिए जाने लगे तो पूर्णा ने पूछा—कहाँ जा रहे हो?
अमृतराय—जरा सैर करता आऊँ, दो-चार साहबों से मुलाकात करना है।
पूर्णा—(प्यार से हाथ पकड़कर) आज मेरे साथ बाग में सैर करों। आज न जाने दूँगी।
अमृतराय—प्यारी, मैं अभी लौट आता हूँ। देर न होगी।
पूर्णा—नहीं, मैं आज न जाने दूँगी।
यह कहकर पूर्णा ने शौहार का हाथ पकड़कर खींच लिया। वो बीवी की इस भोली ज़िद पर बहुत खुश हुए। गले लगाकर कहा—अच्छा लो, प्यारी, आज न जायेंगे।
बड़ी देर तक पूर्णा अपने प्यारे पति के हाथ में हाथ दिये रविशो में टहलती रही और उनकी प्यारी बातों को सुन-सुन अपने कानों को खुश करती रही। वह बार-बार चाहती कि उनसे दाननाथ का सारा भेद खोल दूँ। मगर फिर सोचती कि उनको ख़ामखा तकलीफ होगी। जो कुछ सर पे आयेगी। उनकी खातिर से मै अकेले भुगत लूँगी।
सैर करने के बाद थोड़ी देर तक सखियों ने चंद नगमें अलापे। बाद अजाँ कई साहब मुलाकात के लिए आ गये। उनसे बातें होने लगी। इसी असना में नौ बजने को आए।बाबू साहब ने खाना खाया और अखबार लेकर लेटे। और पढ़ते-पढ़ते सो गये। मगर गरीब पूर्णा की आँखो मेंनींद कहाँ। दस बजे तकवो उनके सिरहानों बैठी एक किस्से की किताब पढ़ती रही। जब तमाम कुनबे के लोग सो गये और चारों तरफ सन्नाटा छा गया तो उसे अकेले डर मालूम होने लगा। वो डरते-डरते उठी और चारों तरफ के दरवाजे बंद कर लिये। अब जरा इत्मीनान हुआ तो पंखा लेकर शौहार को झलने लगी। जवानी की नींद, हजार जब्त करने पर भी एक झपकी आ ही गयी। मगर ऐसा डरावना खाब देखा कि चौंक पडी। हाथ-पाँव थर-थर काँपने लगे। दिल धड़कने लगा, बेअख्तियार शौहर का हाथ पकड़ा कि जगा दो मगर फिर यह समझकर कि उनकी प्यारी नींद उचट जायगी तो उनको तकलीफ़ होगी, उनका हाथ छोड़ दिया, अब इस वक्त उसकी हालत नागुफ्ताबेह है। चेहरा ज़र्द हो रहा है। डरी हुई निगाहों से इधर-उधर ताक रही है। पत्ता भी खड़कता है तो चौंक पड़ती है। लैम्प में शायद तेल नहीं है, उसकी धुँधली रोशनी में वो सन्नाटा और भी खौफ़नाक हो रहा है। तसवीरें जो दीवारों को जीनत दे रही है इस वक्त उसको घूरती हुई मालूम होती है।
यकायक घंटे की आवाज कान में आयी। घड़ी की सुइयों पर निगाह पड़ी। बारह बजे थे। वो उठी कि लैम्प गुल कर दे। दफअतन उसको कई आदमियों के पाँव की आहट मालूम हुई। उसका दिल बॉँसो उछलने लगा। झट पिस्तौल हाथ मे लिया और जब तक वो बाबू अमृतराय को जगाये कि वो मज़बूत दरवाजा आप ही खुल गया और कई आदमी धड़बडाते अंदर घुस आये। पूर्णा ने फौरन पिस्तौल सर किया। तड़ाके की आवाज़ आयी और उसके साथ ही कुछ खटपट की आवाजें भी सुनायी दीं। दो आवाजें पिस्तौल के छुटने की और हुई। फिर धमाके की आवाज़ आयी। इतने में बाबू अमृतराय चिल्लाये—दौड़ो दौड़ो। चोर, चोर।
हम आव़ाज के सुनते ही दो आदमी उनकी तरफ लपके मगर इतने में दरवाजे पर लालटेन की रोशनी नजर आयी और कई सिपाही वर्दियाँ डाले कमरे में दाखिल हो गये। चोर भागने लगे मगर दोनो पकड़े गये। सिपाहियों ने लालटेन लेकर ज़मीन पर देखा तो दो लाशें नज़र आयीं, एक पूर्णा की लाश थी। उसको देखते ही बाबू सिपाहियों ने गौर से देखा तो चौंककर बोले—अरे, यह तो बाबू दाननाथ है। सीने में गोली लग गयी।

ख़ात्मा

पूर्णा को दुनिया से उठे एक बरस बीत गया है। शाम का वक्त़ है। ठंडी, रूहपरवर हवा चल रही है। सूरज की रूखसती निगाहें खिड़की के दरवाजों से बाबू अमृतराय के आरास्ता-ओ-पीरास्ता कमरे में जाती और पूर्णा की कदे आदम तसवीर के क़दमों का चुपके से बोसा लेकर खिसक जाती है। सारा कमरा जगमगा रहा है। रामकली और लछमी जिनके चेहरे इस वक्त़ खिले जाते है, कमरे की आराइश में मसरूक है और रह-रहकर खिड़की की ओट से ताकती हैं, गोया किसी के आने का इंतजार कर रही है। दफ़अतन रामकली ने खुश होकर कहा—सखी, वो देखो, वो आ रहे है। इस वक्त़ उनके लिबास कैसे खुशनुमा होते है।
एक लमहे में एक निहायत खूबसूरत फिटन फाटक के अंदर दाखिल हुई और बरामदे में आकर रूकी। उसमें से बाबू अमृतराय उतरे मगर तनहा नहीं। उनका एक हाथ प्रेमा के हाथ में था। बाबू अमृतराय का वजीह चेहरा गो ज़र्द था मगर उस वक्त़ होंठो पर एक हल्का सा तबस्सुम नुमायाँ था। और गुलाबी रंग की नौशेरवानी और धानी रंग का बनारसी दोपटटा और नीले किनारे की रेशमी धोती उस वक्त़ उन पर कयामत का फबन पैदा कर रही थी। पेशानी पर जाफ़रान का टीका और गले में खूबसूरत हार इस जेबाइश के और भी पर लगा रहे थे।
प्रेमा हुस्न की तसवीर और जवानी की तसवीर हो रही थी। उसके चेहरे पर वह जर्दी और नकाहत, वह पजमुर्दगी और खामोशी न थी जो पहले पायी जाती थी बल्कि उसका गुलाबी रंग, उसका गदराया हुआ बदन, उसका अनोखा बनाव-चुनाव उसे नजरों में खुबाये देते है। चेहरा कुदंन की तरह दमन रहा है। गुलाबी रंग की सब्ज हाशिये की साड़ी और ऊदे रंग की कलाइयों पर चुनत की हुई कुर्ती इस वक्त़ ग़ज़ब ढा रही है। उस पर हाथों में जड़ाऊ कड़े, सर पर आड़ी रक्खी हुई झूमर और पाँव में ज़रदोजी के काम की खुशनुमा जूती और भी सोने में सुहागा हो रही है। इस वजा और इस बनाव से बाबू साहब को ख़ास उल्फत है क्यूँकि पूर्णा की तसवीर भी यही लिबास पहले दिखायी देती है और नजरें अव्वल में कोई मुश्किल से कह सकता है कि इस वक्त़ प्रेमा ही की सूरत मुनअकिस होकर आईने में यह जोबन नहीं दिखा रही है।
बाबू अमृतराय ने प्रेमा को उस कुर्सी पर बिठा दिया जो ख़ास इसीलिए बड़े तकल्लुफ़ से सजायी गयी थी और मुसमराकर बोले—प्यारी प्रेमा, आज मेरी जिंदगी का सबसे मुबारक दिन है।
प्रेमा ने पूर्णा की तसवीर की तरफ़ हसरत-आलूद निगाहों से देखकर कहा—हमारी जिंदगी का क्यों नहीं कहते।
प्रेमा ने यह जवाब दिया ही था कि उसकी नज़र एक सुर्ख चीज़ पर जा पड़ी जो पूर्णा की तसवीर के नीचे एक खूबसूरत दीवारगीरी पर धरी हुई थी। उसने फ़र्ते शौक़ से उसे हाथ में ले लिया, देखा तो पिस्तौल था।
बाबू अमृतराय ने गिरी हुई आवाज़ में कहा—ये प्यारी पूर्णा की आखिरी यादगार है। उस देवी ने इसी से मेरी जान बचायी थी।
ये कहते-कहते आवाज़ काँपने लगी और आँखो में आँसू डबडबा आये।
ये सुनकर प्रेमा ने उस पिस्तौल का बोसा लिया और फिर बड़े अदब के साथ उसको उसी मुकाम पर रख दिया।
 

12
रचनाएँ
हमखुर्मा व हमसवाब
0.0
संध्या का समय है, डूबने वाले सूर्य की सुनहरी किरणें रंगीन शीशो की आड़ से, एक अंग्रेजी ढंग पर सजे हुए कमरे में झॉँक रही हैं जिससे सारा कमरा रंगीन हो रहा है। अंग्रेजी ढ़ंग की मनोहर तसवीरें, जो दीवारों से लटक रहीं है, इस समय रंगीन वस्त्र धारण करके और भी सुंदर मालूम होती है।
1

पहला बाब-सच्ची क़ुर्बानी

8 फरवरी 2022
0
0
0

शाम का वक्त है। गुरुब होनेवाले आफताब की सुनहरी किरने रंगीन शीशे की आड़ से एक अग्रेजी वज़ा पर सजे हुए कमरे में झांक रही हैं जिससे तमाम कमरा बूकलूमूँ हो रहा है। अग्रेजी वजा की खूबसूरत तसवीरे जो दीवारों

2

दूसरा बाब-हसद बुरी बला है

8 फरवरी 2022
0
0
0

लाल बदरीप्रसाद साहब अमृतराय के वालिद मरहूम के दोस्तों में थे और खान्दी इक्तिदार, तमव्वुल और एजाज के लिहाज से अगर उन पर फ़ौकियत न रखते थे तो हेठ भी न थे। उन्होंने अपने दोस्त मरहूम की जिन्दगी ही में अमृ

3

तीसरा बाब-नाकामी

8 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू अमृतराय रात-भर करवटें बदलते रहे । ज्यूँ-2 वह अपने इरादों और नये होसलों पर गौर करते त्यूँ-2 उनका दिल और मजबूत होता जाता। रौशन पहलुओं पर गौर करने के बाद जब उन्हौंने तरीक पहलूओं को सोचना शुरु किया त

4

चौथा बाब-जवानामर्ग

8 फरवरी 2022
0
0
0

वक्त हवा की तरह उड़ता चला जाता है । एक महीना गुजर गया। जाड़े ने रुखसती सलाम किया और गर्मी का पेशखीमा होली सआ मौजूद हुई । इस असना में अमृतराय नेदो-तीन जलसे किये औरगो हाजरीन की तादाद किसी बार दो –तीन से

5

छठा बाब-मुए पर सौ दुर्रे

8 फरवरी 2022
0
0
0

पूर्णा ने गजरा पहन तो लिया मगर रात भर उसकी आँखो में नींद नहीं आयी। उसकी समझ में यह बात न आती थी कि बाबू अमृतराय ने उसको गज़रा क्यों दिया। उसे मालूम होता था किपंडित बसंतकुमार उसकी तरफ निहायत कहर आलूद न

6

सातवाँ बाब-आज से कभी मंदिर न जाऊँगी

8 फरवरी 2022
0
0
0

बेचारी पूर्णा पंडाइन व चौबाइन बगैरहूम के चले जाने के बाद रोने लगी। वो सोचती थी कि हाय, अब मै ऐसी मनहूस समझी जाती हूँ कि किसी के साथ बैठ नहीं सकती। अब लोगों को मेरी सूरत से नफरत है। अभी नहीं मालूम क्या

7

आठवाँ बाब-देखो तो

8 फरवरी 2022
0
0
0

आठवाँ बाब-देखो तो दिलफ़रेबिये अंदाज़े नक्श़ पा मौजे ख़ुराम यार भी क्या गुल कतर गयी। बेचारी पूर्णा ने कान पकड़े कि अब मन्दिर कभी न जाऊँगी। ऐसे मन्दिरों पर इन्दर का बज़ भी गिरता। उस दिन से वो सारे दिन

8

नवाँ बाब-तुम सचमुच जादूगार हो

8 फरवरी 2022
0
0
0

बाबू अमृतराय के चले जाने के बाद पूर्णा कुछ देर तक बदहवासी के आलम में खड़ी रही। बाद अज़ॉँ इन ख्यालात के झुरमुट ने उसको बेकाबू कर दिया। आखिर वो मुझसे क्या चाहते है। मैं तो उनसे कह चुके कि मै आपकी कामया

9

दसवाँ बाब-शादी हो गयी

8 फरवरी 2022
0
0
0

तजुर्बे की बात कि बसा औकात बेबुनियाद खबरें दूर-दूर तक मशहूर हो जाया करती है, तो भला जिस बात की कोई असलियत हो उसको ज़बानज़दे हर ख़ासोआम होने से कौन राक सकता है। चारों तरफ मशहूर हो रहा था कि बाबू अमृतरा

10

ग्यारहवाँ बाब-दुश्मन चे कुनद चु मेहरबाँ बाशद दोस्त

8 फरवरी 2022
0
0
0

मेहमानों की रूखमती के बाद ये उम्मीद की जाती थी कि मुखालिफीन अब सर न उठायेगें। खूसूसन इस वजह से कि उनकी ताकत मुशी बदरीप्रसाद और ठाकुर जोरावर सिंह के मर जाने से निहायत कमजोर-सी हो रही थी। मगर इत्तफाक मे

11

बारहवाँ बाब-शिकवए ग़ैर का दिमाग किसे यार से भी मुझे गिला न रहा।

8 फरवरी 2022
0
0
0

प्रेमा की शादी हुए दो माह से ज्यादा गुजर चुके है। मगर उसके चेहरे पर मसर्रत व इत्मीनान की अलामतें नजर नहीं आतीं। वो हरदम मुतफ़क्किर-सी रहा करती है। उसका चेहरा जर्द है। आँखे बैठी हुई सर के बाल बिखरे, पर

12

तेरहवाँ बाब-चंद हसरतनाक सानिहे

8 फरवरी 2022
0
0
0

हम पहले कह चुके है कि तमाम तरद्दुदात से आजादी पाने के बाद एक माह तक पूर्णा ने बड़े चैन सेबसर की। रात-दिन चले जाते थें। किसी क़िस्म की फ़िक्र की परछाई भी न दिखायी देते थी। हाँ ये था कि जब बाबू अमृतराय

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए