बाबू अमृतराय रात-भर करवटें बदलते रहे । ज्यूँ-2 वह अपने इरादों और नये होसलों पर गौर करते त्यूँ-2 उनका दिल और मजबूत होता जाता। रौशन पहलुओं पर गौर करने के बाद जब उन्हौंने तरीक पहलूओं को सोचना शुरु किया तो तबीयत जरा हिचकी प्रेमा से ताल्लुक टूट जाने का अंदेशा हुआ मगर जब उन्हौंने सोचा कि मैं अपनी कौम के लिये अपने अरमानों का खूँन नहीं कर सकता तो ये अंदेशा भी रफा हो गया । रात तो किसी तरह काटी, सुबह होते ही हाजरी खा, कपड़े पहन और बाइसिकिलपरसवार हो अपने दोस्तों की तरफ रुख किया। पहले पहल मिस्टर हजारीलाल बी.ए.एल.एल.बी.के यहाँ दाखिल हुए। वकील साहब निहायत आला ख्यालात केआदमी थे और रिफार्म की को शिशों से बड़ी हमदर्दी रखते थे। उन्हौंने जब अमृतराय के इरादे और उन पर कारबन्द होनेकी तजवीजें सुनीं तों बड़े खुश हुए और फरमाया-आप मेरी जानिब से मुतमइन रहिए और मुझे अपना सच्चा हमदर्द समझिये। मुझे निहायत मसर्रत हुई कि हमारे शहरमें आप जैसे काबिल शख्स ने इस बारे गरॉँ को अपने जिम्मे लिया। आप जो खिदमद मेरे सपुर्द करें। मुझे उसके बजा लाने में मुतलक पसोपेश न होगा बल्कि मैं उसको बाइसे फख समझूँगा। अमृतराय बकीलसाहब की बातों पर लटट हो गये, तहे दिल से उनका शुक्रिया अदा किया और खुश होकर कहा कि अच्छा शुगून हुआ। इस शहर में एक इसलाही अंजुम न कायम करने की ख्वाहिश जाहिर की, वकील साहब ने इसको पंसद किया और मुआविनत का सच्चा बादा फरमाया और अमृतराय खुश –खुश दाननाथ के दौलतखाने पर जा धमके। दाननाथ जैसा हम पहले कह चुके हैं, अमृतराय सच्चे दोस्तों में थे। उनको देखते ही बड़ी गर्मजोशी से मुसाफा किया और पूछा-क्यों जनाब क्या इरादें हैं ?
अमृतराय ने संजीदगी से जवाब दिया –इरादे में आप पर सब जाहिर कर चुका हूँ। और आप जानते हैं कि में ढुलमुलयकीन आदमी नहीं हूँ। इस वक्त में आपकी खिदमतमें ये पूछने आया हूँ कि इस कारे खैर में आप मेरी मदद कर सकते हैं या नहीं।
दाननाथ की उम्मीदबरारियों के लिए जरुरी था कि वो इस तहरीक में शरीकन हों वर्ना लाला बदरीप्रसाद फौरन उससे बदगुमान हो जायेंगे क्योंकि उसके पास न वो खानदानी अजमत थी न वो जाह –ओ- नमव्वुल जिस अमृतराय को फर्क था । इसलिये उसने सोचकर जवाब दिया –अमृतरय, तुम जानते हो कि तुम्हारे हर काम से मुझाको हमदर्दी है, मगर बात ये है कि अभी मेरा शरीक होना मेरे लिए सख्त मुजिर होगा। मैं रुपये और पैसे से मदद करने के लिये तैयार हूँ मगर पोशीदा तौर पर। अभी इस तहरीक में एलानिया शरीक होकर नुकसान उठाना मुनसिब नहीं समझता, खूबसूरत इस वजह से कि मेरी शिरकत से इस अंजुमन को जरा भी तकवियत पहूँचने की उम्मींद नहीं है।
बाबू अमृतराय ने उनकी सलाह पसन्द की और उनसे इमदाद का बादा लेकर अपनी कामयाबियों पर खुश होते हुऐ मिस्टर आर.बी.शर्मा के दौलतखाने पर पहुँचे। साहिबे मौसूफबिरहमन थे और रुतबए आलाओ अजमत के एकबार से शहर के मुअज्तिजीन में समझे जाते थे। उनके मजहबी और इखलाकी ख्यालात से अभी तक अमृतराय को जरा भी वाकफियत न थी मगर जब उन्हौंने इस अंजुमन की तजवीज पेश की तो पंडितजी उछल पड़े और फरमाया –मिस्टर अमृतराय मुझे तुमहारे खयालात से निहायत मसर्रत हुई। मैं खुद इसी तरह की एक तजवीज बहुत जल्द पेश करने था। आपने मुझे फुर्सत दे दी और मुझे कामिल उम्मीद है कि आप इस कारे अंजीम को मेरी निस्बत में बेहतर तरीके पर अंजाम देंगे। मुझे इस अंजुन का मेम्बर तसब्बुर किजियें।
बाबू अमृतराय को पंडितजी के यहाँ ऐसी बारोनक कामयाबी की उम्मीद न थी। उन्हौंने सोचा था कि पंडित जी अगर उसूलन इख्तलाफ न करेंगे तो दीमुलफुर्सती बगैरह का जरुर उज्ज करेंगे मगर पंडितजी की गर्म हमदर्दी वदिलचस्पी ने उनका हौसला और भी बढाया। अमृतराय यहाँ से निकले तो वह अपनी ही नजरों में दो इंच ऊँचे मालूम होते थे। यहाँ से सीधे कामयाबी के जोम में ऐंडते हुए एन.बी. अगरवाला साहब की खिदमत में हाजिर हुए। मिस्टर अगरवाला अलावा अच्छी अँग्रेजी इस्तेबाद रखने के जबाने संस्कृत के भी जैयद आलाम थे और खास –ओ-आम में उनकी बड़ी इज्जत थी। उन्हौंने भी अमृमराय का नवावाप्ज्ञ से सच्ची दिलसोजी जाहिर की। अजगरज नौ बजते बजते अमृतराय सारे शहर के सरबर आर्वुदा व नयी रोशनीबाले असहाब से मुलाकात कर आये और कोई ऐसा न था जिसने उनके अगराज से दिलचस्पी न जतायी हो या मदद देने का वादा न किया हो।
तीन बजे के वक्त मिस्टर अमृतराय के बँगले पर एक ऐसे जलसे के इनएकाद की तैयारियाँ होने लगी जो अजुमंन को बाकायदा तौर पर मुन्जबित करे।उसके इन्सराम केलिए दस्तूर –उल-अलम तैयार करे औरउसके अगराज ओ मकासिद पबलिक के रुबरु पेश करे ।कामयाबी केजोश में खूब तैयारियाँ हुई फर्श –फुरुश लगाये गये, झाड़ –फानूस, मेजें व कुर्सियाँ सजाकर धरी गयीं। हाजिरीन के खुर्द -ओ –नोश का भी इंतजाम किया गया और इन तरददुदात से फुर्सत पाकर अमृतराय उनके मुंतजिर हो बैठे । दो बज गये मगर कोई सा हब के पास तसरीफ न लाये। चार बजे मगर किसी की सवारी नहीं आयी हाँ इंजीनियर साहब के पास एक नौकर यह संदेसा लेकर आया –इस बक्त मैं हाजिरी से कासिर हूँ। अब तो अममृतराय का इन्तिशार बढ़ने लगा। ज्यूँ –ज्यूँ देर होती थी उनका दिल बैठा जाता था कि कहीं कोई साहब न आये तो मेरी सख्त तजहीक होगी और चारों तरफ नादिम होना पड़ेगा । आखिर इंतजाम करते करते पाँच बज गये और अभी तक कोई साहब नजर नहीं आये । तब तो अमृतराय कोयह कामिल यकीनहो गया कि हजरात ने मुझे धोका दिया । मुंशी गुलजारी लाल से उनको बड़ी उम्मीद थी । चुनांचे अपना आदमी उनके पास दौड़ाया । एक लम्हे के बाद मालूम हुआ कि वह नहीं हैं पोलो खेलने सतशरीफ ले गये। इससवक्त तक छै बजे और जब इसवक्कत तक भी कोई साहब नआयेतो अमृतराय निहायत दिलशिकस्ता हो गये । कुछ गुस्सा, कुछ नाकामी कुछ अपनी तौहीन और कुछहमदर्दो कीसर्दमेही ने उनको ऐसा पारीशान किया कि सरे –शाम चारपाई पर लैट रहे और लगे सोचने –कहीं मुझको नादिम तो न होना पड़ेगा । अफसोस मुझे इन हजरात सेऐसी उम्मीदें न थी । अगर नआना था मुझसे साफ साफ कह सदिया होता। अब कल तमाम शहर में ये बात समशहूर हो जायेगी कि अमृतराय तमाम रईसों केघर दौड़ते फिरे मगर कोई उनके दरवाजे पर बातपूछने को भी न गया । मैं जलसे की तजवीजें न करता, मुफ्त की नदामता तो न उठानी पड़ती । सबेचारे इन्ही तफक्कुरात में गोते खाते थै । अभी नौजवान आदमी थे और गो बात के धनी और धुन के पूरे थे मगर अभी तक पब्लिक की सर्दमही और मुआविनीन की नाहमदर्दी का तर्जुवा न हूआ था और यह तजुर्वे कारी जो खुदा जाने कितने पूरजोश दिलों को सर्द कर देती है उनके इरादों को भी डेगमगाने लगी । मगर ये बुजदिली के खयालात महज एक दम के लिए आ गये थे । जब जरा आज की नाकामी का अफसोस कम हुआ तो इरादों ने और भी मुस्तकिल सूरत पकड़ी । अपने दिल को समझाया –अमृतराय, तू इन जरा –जरा सी बातों से मायूस या दिलशिकस्ता मत हो । जब तूने सलीब उठायी तो नहीं मालूम तुझको क्या –क्या कुर्बानिया करनी पडेगीं । अगर तेरी हिम्मत यही रही तो कोमी काम तुझसे हो चुके । दिल को मजबूत कर और कमरे –हिम्मतको चुस्त बॉँध।
यह मुसम्मम इरादा करके अमृतराय अपने कमरे से निकले, सिगार लिया और बाग की रविशों में टहलने लगे । चाँदनी ठिटकी हुई थी. हवाके धीरे धीरे झोंके आ रहे थे, सब्जे की मलमली फर्श पर बैठ गये और अपने इरादो के पूरा होने की तरकीबें सोचने लगे । मगर वक्त ऐसा सुहाना था और मंजूर ऐसा तअश्शुकखेज कि बेअख्तियार खयाल प्रेमाकी तरफ जा पहुँचा। अपनी जेब ससे तसवीर के पूर्जे निकाल लिये और चाँदनी रात में उसे बड़ी देर तक गौर से देखते रहे। हाय-हाय ओ नाकाम अमृतराय, तूक्योंकर जब्त करेगा। हॉ जिसके फिराक में तूले से चार बरस रो रोकर काटें हैं, उसी के फिराक में सारी जिन्दगी क्योंकर काटेगा। हाय –हाय वह गरीबजबतेरे इरादों का हाल सुनेगी तो क्या कहेगी। उसको तुझसे मुहब्बत है । कंम्बख्त वहतुझ् परजान देती है, देखता नहीं कि उसके उसके खुतूत जोश मुहब्बत से कैसे भरे होते हैं । तब क्या वह तुझे बेवफा जालिम मक्का न बनायेगी । तू चाहता है कि अमृतराय सब से भी भला बने अभी कुछ नहीं बिगड़ा । इन सब फिजूल खयालात को छोड़ो, अपने अरमानों को खाक में न मिलाओ। दुनिया में तुम्हारे जैसे बहुत से पुरजोश नौजवान मौजूद हैं और तुम्हाराहोना नहोना दोनों बराबर है । लाला बदरीप्रसाद मुँह खोले बैठे हैं शादी करलो प्यारी प्रेमा के साथ जिन्दगी के मजे लूटो ।(बेकरार होकर)मैं भी कैसा नादान हूँ । इस तसवीर ने क्या बिगडा था जो खामखाह इसको फाड़ ड़ाला। ईश्वर करे अभी प्रेम यह बात न जानती हो । घबराकर पूछा –किसका खतसहै? नौकर ने जवाब दिया- लाला बदरीप्रसाद का आदमी लाया है।
अमृतराय ने काँपते हुऐ हाथों से खत लिया तो यह तहरीर थी –
बमुलाहिजाए जनाब मुंशी अमृतराय साहब, जाद नवाजिशोहू-
हमको मोतबार जरायेसेखबर मिली है कि अब आप सनातन धर्म से मुनहरिफ होकर उस ईसाई जमात में दाखिल हो गये हैं जिसको गलती से इसलाहे तमदुदुन से मंससूब करते हैं । हमको हमेशा से यकीन है कि हमारा तर्जे मुआशरत बेद मुकददस के अहकाम पर मबनी हैऔर उसमें रददोबदल तगैयुर ओ तबददुल करने वाले अहसाब हमसे
कोई ताल्लुक पैदा नहीं कर सकते ।
बदरीप्रसाद
इस मुख्तसर शुक्के को अमृतराय ने दो बार पढ़ा और उनके दिले अब एक जंग शुरु हो गयी । नफ्सानियत कहती थी कि ऐसी नाजनीन को हाथ से न जाने दो अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। और जोशे कौमी कहता था कि जो इरादा किया है उस पर कायम रहो। जिंदगी चंदरोज है । उसकों दूसरों पर कर देने से बेहतर कोई तरीका उसका गुजारने का नहीं है । कभी एक फरीक गालिबआता था कभी दूसरा फरीक। लड़ाई का फैसला भी दो हुरुफ लिखने पर था । आखिर बहुत रददो कद के बाद अमृतराय ने बाक्स से कागज निकाला और उस पर जवाब यों लिखा हुब्बे कोमी नेफ्स पर गलबा पालिया था।
किबला ओ काबा, जनाब मुंशी बदरीप्रसाद साहब,
दाम इगबालहू
इफ्तखारनामे ने सादिर होकर मुम्ताज किया । मुझको सख्त अफसोस है कि आपने उस उम्मीद को जो मुददत से बँधी हुई थी यकायक मुन्कता कर दिया । मगर चूँकि मुझको यकीनद है कि हमारा तर्जे मुआशरत अहकामे बेद से मुतनाकिस है और जिसकी गलती से सनातन धर्म कहते हैं वो पुराने और बोसीदा खयाल के लोगों की जमात है जो मजहब के पर्दे मे जाती फलाह ढूँढ़ते हैं । इसलिय हमको मजबूरन उससे किनाराकाश होना पड़ा । अगर इस हैसियत में आप मुझ्को फर्जन्दी में कुबूल फरमाया तो खैर बर्ना मुझे अपनी बदकिस्मती पर अफसोस भी न हो।
नियाजमन्द
अमृतराय
कौमी जज्बात के जोश में ये खत लिख डाला और मुलाजिम को देकर रवाना किया। मगर लब चाँदनी में देर तक बैठे और उसकी कशिश ने दिल में जज्बए मुहब्बत बढाया तो उस नुकसाने अजीम का अन्दाजा हुआ जो उन्हौंने अभी अभी उठाया था । हाय, मैने अपनी जिन्दगी, अपने सारे अरमान और दूनियाकी सबसे प्यारी चीज को खैरबाद कह दिया।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D