[दोपहर का समय। हजरत हुसैन अब्बास के साथ खेमे के दरवाजे पर खड़े मैदाने-जंग की तरफ ताक रहे हैं।]
हुसैन– कैसे-कैसे जांबाज दोस्त रुखसत हो गए और होते जा रहे हैं। प्यास से कलेजे मुंह को आ रहे हैं, और ये जालिम नमाज तक की मुहलत नहीं देते। आह! जहीर का सा दीनदार उठ गया, मुसलिम बिन ऊसजा इस आलमेजईफ़ी में भी कितने जोश से लड़े। किस-किसका नाम गिनाऊं।
अब्बास-या हजरत, मुझे अंदेशा हो रहा है कि शिमर कोई नया सितम ढाने की तैयारियां कर रहा है। यह देखिए, वह सिपाहियों की एक बड़ी जमैयत लिए इधर चला जाता है।
हबीब– (जोश से) शिमर, खबरदार, अगर इधर एक कदम भी बढ़ाया, तो तेरी लाश पर कुत्ते रोवेगे। तुझे शर्म नहीं आती जालिम कि अहलेबैत के खेमे पर हमला करना चाहता है।
शिमर– हम इस हमले से जंग का फैसला कर देना चाहते हैं। जवानो, तीर बरसाओ।
हुसैन– अफसोस, घोड़े मरे जा रहे हैं। घुटने टेककर बैठ जाओ, और तीरों का जवाब दो। खुदा ही हमारा वाली और हाफ़िज हैं।
शिमर– बढ़ो-बढ़ो, एक आन में फैसला हुआ जाता है।
सिपाही– देखते नहीं हो; हमारी सफ़ें खाली होती जाती हैं! यह तीर हैं। या खुदा का गजब। हम आदमियों से लड़ने आए हैं, देवों से नहीं।
शिमर– लड़कियां जलाओ, फौरन इन खेमों पर आग के अंगारे फेंको, जलते हुए कुंदे फेंको जलाकर स्याह कर दो।
[आग की बारिश होने लगती है। औरतें खेमे से चिल्लाती हुई बाहर निकल आती है।]
जैनब– तुफ् है तुझ पर जालिम, मर्दों से नहीं, औरतों पर अपनी दिलेरी दिखाता है।
हुसैन– साद! यह क्या सितम हैं? तुम लोगों का दुश्मन मैं हूं। मुझसे लड़ो, खेमों में और औरतों और बच्चों के सिवा कोई मर्द नहीं है। वे गरीब निकलकर भाग न सकी, तो हम इधर चले जायेगें, तुमसे लड़ न सकेंगे। अफसोस है कि इतनी जमैयत के होते हुए भी तुम यह विदअतें कर रहे हो।
शिमर– फेंको अंगारे। मुझे दोजख में जलना नसीब हो, अगर मैं इन सब खेमों को जला न डालूं।
शीस– शिमर, तुम्हारी यह हरकत आईने जंग के खिलाफ़ है। हिसाब के दिन तुम्हीं इसके जिम्मेदार होंगे।
कीस– रोको अपने आदमियों को।
शिमर– मैं अपने फ़ैल का मुख्तार हूं। आग बरसाओ, लगा दो आग।
शीस– साद, खुदा को क्या मुंह दिखाओगे?
हबीब– दोस्त, टूट पड़ो, शिमर, पर, बाज की तरह टूट पड़ो। नामूसे-हुसैन पर निसार हो जाओ। एकबारगी नेजों का वार करो।
[हबीब और उनके साथ दस आदमी नेजे ले जाकर शिमर पर टूट पड़ते हैं। शिमर भागता है, और उसकी फौज भी भाग जाती है।]
हुसैन– हबीब, तुमने आज अहलेबैत की आबरू रख ली। खुदा तुम्हें इसकी सज़ा दे।
हबीब– या मौला, दुश्मन दो-चार लम्हों के लिए हट गया है, नमाज का वक्त आ गया है, हमारी तमन्ना है कि आपके साथ आखिरी नमाज पढ़ ले। शायद फिर यह मौका न मिले।
हुसैन– खुदा तुम पर रहम करे, अजान दो। ऐ साद, क्या तू इस्लाम की शरियत को भी भूल गया? क्या इतनी मुहलत न देगा कि नमाज पढ़कर जंग की जाय?
शिमर– खुदा पाक की कसम, हर्गिज नहीं। तुम बेनमाज़ क़त्ल किए जाओगे। शरियत बागियों के लिए नहीं है।
हबीब– या मौला, आप नमाज अदा फरमाएं, इस मूजी को बकने दें। इसकी इतनी मजाल नहीं है कि नमाज में मुखिल हो।
[लोग नमाज पढ़ने लगते हैं। साहसराय और उनके सातों भाई हुसैन की पुश्त पर खड़े शिमर के तीरों से उनको बचाते रहते हैं। नमाज खत्म हो जाती है।]
हुसैन– दोस्तों, मेरे प्यारे ग़मसारो, यह नमाज इस्लाम की तारीख में यादगार रहेगी। अगर खुदा के इन दिलेर बंदों ने, हमारे पुश्त पर खड़े होकर, हमें दुश्मनों के तीरों से न बचाया होता, तो हमारी नमाज हर्गिज न पूरी होती। ऐ हक़परस्तों, हम तुम्हें सलाम करते हैं। अगर्चे तुम मोमिन नहीं हो, लेकिन जिस मजहब के पैरों ऐसे हक़परजर, ऐसे इंसाफ पर जान देन वाले, जिंदगी को इस तरह नाचीज समझने वाले, मजलूमों की हिमायत में सिर काटने वाले हों, वह सच्चा और मिनजानिब खुदा है। वह मजहब दुनिया में हमेशा कायम रहे और नूरे इस्लाम के साथ उसकी रोशनी भी चारों तरफ फैले।
साहसराय– भगवन् आपने हमारे प्रति जो शुभेच्छाएं प्रकट की हैं, उनके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। मेरी भी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि जब कभी इस्लाम को हमारे रक्त की आवश्यकता हो, तो हमारी जाति में अपना वक्ष खोल देने वालों देने वालों की कमी न रहे। अब मुझे आज्ञा हो कि चलकर अपने प्रायश्चित की क्रिया पूरी करूं।
हुसैन– नहीं, मेरे दोस्तों, जब तक हम बाकी हैं, अपने मेहमानों में न जाने देंगे?
साहस०– हजरत, हम आपके मेहमान नहीं, सेवक हैं। सत्य और न्याय पर मरना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह हमारा कर्त्तव्य मात्र है, पर किसी पर एहसान नहीं।
हुसैन– आह! किस मुंह से कहूं कि जाइए। खुदा करे इस मैदान में हमारे और आपके खून से जिस इमारत की बुनियाद पड़ी है, वह जमाने की नज़र में हमेशा महफूज रहे, वह कभी वीरान न हो, उसमें हमेशा नग़मे की सदाएं बुलंद हों, और आफ़ताब की किरणें हमेशा उस पर चमकती रहें।
[सातों भाई गाते हुए मैदान में जाते हैं।]
जय भारत, जय भारत, जय मम प्राणपते!
भाल विशाल चमत्कृत सित हिमगिर राजे,
परसत बाल प्रभाकर हेम-प्रभा ब्राजे।
जय भारत…
ऋषि-मुनि पुण्य तपोनिधि तेज-पुंजधारी,
सब विधि अधम अविद्या भव-भय-तमहारी।
जय भारत…
जय जय वेद चतुर्मुख अखिल भेद ज्ञाता,
सुविमल शांति सुधा-निधि मुद मंगलदाता।
जय भारत…
जय जय विश्व-विदांवर जय विश्रुत नामी,
जय जय धर्म-धुरंधर जय श्रुति-पथगामी।
जय भारत…
अजित अजेय अलौकिक अतुलित बलधामा,
पूरन प्रेम-पयोनिधि शुभ गुन-गुन-ग्रामा।
जय भारत…
हे प्रिय पूज्य परम मन नमो-नमो देवा,
बिनवत अधम-पापि जन ग्रहन करहु सेवा।
जय भारत…
अब्बास– गज़ब जांबाज हैं। अब मुझ पर यह हकीकत खुली कि इस्लाम के दायरे के बाहर भी इस्लाम है। ये सचमुच मुसलमान हैं और रसूल पाक ऐसे आदमियों की शफ़ाअत न करें, मुमकिन नहीं।
हुसैन– कितनी दिलेरी से लड़ रहे हैं!
अब्बास– फौज़ में बेखौफ़ घुसे जाते हैं। ऐसी बेजिगरी से किसी के मौत के मुंह में जाते नहीं देखा।
अली अक०– ऐसे पांच सौ आदमी भी हमारे साथ होते, तो मैदान हमारा था।
हुसैन– आह! वह साहसहाय घोड़े से गिरे। मक्कार शिमर ने पीछे से वार किया। इस्लाम को बदनाम करने वाला मूजी!
अब्बास– वह दूसरा भाई भी गिरा।
हुसैन– इनके रिवाज के मुताबिक लाशों को जलाना होगा। चिता तैयार कराओ।
अली अक०– तीसरा भाई भी मारा गया।
अब्बास– जालिमों ने चारों तरफ़ से घेर लिया, मगर किस गजब के तीरंदाज हैं। तीर का शोला-सा निकलता है!
अली अक०– अल्लाह, उनके तीरों से आग निकल रही है। कोहराम मच गया, सारी जमैयत परेशान भागी जा रही है।
अब्बास– चारों सूरमा दुश्मन के खेमों की तरफ जा रहे हैं। फौज़ काई की तरह फटती जाती है। वह खेमों से शोला निकलने लगे!
अली अक०– या खुदा, चारों देखते-देखते गायब हो गये।
हुसैन– शायद उनके सामने कोई खदक खोदी गई है।
अब्बास– जी हां, यही मेरा भी खयाल है।
हुसैन– चिताएं तैयार कराओ। अगर फ़रेब न किया जाता, तो ये सारी फौज़ को खाक़ कर देते। तीर है या मौजजा।
अब्बास– खुदा के ऐसे बंदे भी है, जो बिना गरज के हक़ पर सिर कटाते हैं।
हुसैन– ये उस पाक मुल्क के रहने वाले हैं, जहां सबसे पहले तौहीद की सदा उठी थी। खुदा से मेरी दुआ है कि इन्हें शहीदों में ऊंचा रुतबा दे। वह चिता शोले उठे! ऐ खुदा, यह सोज इस्लाम के दिल से कभी न मिटे, इस क़ौम के लिए हमारे दिलेर हमेशा अपना खून बहाते रहें, यह बीज जो आज आग में बोया गया है, क़यामत तक फलता रहे।