लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या, पैंतीस रुपये कुछ अर्थ रखते है।
दूसरे संस्करण में मैंने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया था। टंकण और मुद्रण या किसी और प्रमादवश जो अशुद्धियां रह गई थीं उन्हें ठीक कर दिया था। यहां-वहां आए कुछ उद्धरण या तो निकाल दिए थे या उनका कलेवर कुछ कम कर दिया था। महात्मा गांधी पर उनका लेख परिशिष्ट में दे दिया था । ऐसा करने का उद्देश्य यही था कि 'तीसरे खण्ड' में भारीपन की जो शिकायत कुछ मित्रों ने की थी वह कम हो जाए। शायद हुई भी है।
शरद बाबू की जन्मशताब्दी के उत्सव सितम्बर, 1997 तक समाप्त हो गए। आशा की थी कि उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ नए तथ्य उजागर होंगे, कहने को कुछ हुए भी पर में कोई ऐसा न था जो इस पुस्तक की मूल स्थापनाओं को प्रभावित कर सकता।
फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनका उल्लेख करना आवश्यक है। गुजराती में सबसे पहले सन् 1925 के आसपास श्री महादेव देसाई ने उनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद किया था। ऐसा उन्होंने स्वयं महात्मा गांधी के आदेश पर किया था। वे रचनाएं थीं- विराजबहू, बिन्दो का लल्ला, राम की सुमति और मंझली दीदी।
उनके मधुर कण्ठ की चर्चा इस पुस्तक में विस्तार से हुई है पर उनका रचा कोई गीत भी है इसकी प्रामाणिक जानकारी मुझे नहीं थी। श्री सत्येश्वर मुखोपाध्याय ने अपने लेख 'सुर-पियारी शरच्चन्द्र” में यह दावा किया है कि ' षोडशी' नाटक का यह गीत उन्हीं की रचना है -
तोर' पाबर समय छिल जखन
ओरे अबोध मन,
मरण खेलार नेशाय मेते
इलि अचेतन ।
ओरे अबोध मन ।।
तखन छिल मणि, छिल माणिक
पथेर धारे,
एखन डूबल तारा दिनेर शेषे
विषम अन्धकारे ।
आज मिथ्ये जे तोर खोजां खूंजि मिथ्ये चोखेर जल
तारे कोथाय पावि बल?
तोर अतल तले तलिये गेल
शेष साधनार धन ।
ओरे अबोध मन ।।
हिरण्मयी देवी के विवाह को लेकर एक बार फिर विवाद चल पड़ा है, लेकिन 'वसीयतनामे' में उन्हें शरद बाबू ने अपनी पत्नी स्वीकार किया है। वही हमारे लिए सत्य है। शास्त्रसम्मत विधि- विधान से उन्हें यह पद मिला अथवा हृदय के मिलन द्वारा - यह विवाद अब अर्थ खो बैठा है।
वह मुक्त मन से क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता करते थे, यह बात भी इस पुस्तक में बार-बार कही गई है। इस बात को प्रमाणित करनेवाले कुछ और तथ्य सामने आए हैं। हेनरीवुड के उपन्यास 'इस्टलीन' के आधार पर शरद बाबू ने एक उपन्यास 'अभिमान' नाम देकर लिखा था। उसे पढ़कर एक युवक उन्हें मारने दौड़ा था। श्री गोपालचन्द्र राय का अनुमान है कि वह युवक ब्रह्मसमाजी रहा होगा, क्योंकि 'अभिमान' में एक ब्राह्म गृहिणी पति को त्यागकर दूसरा विवाह कर लेती है। 'इस्टलीन' जिस परिवेश का उपन्यास है वहां ऐसा करना पाप नहीं समझा जाता था, परन्तु उस युग के भारतीय परिवेश में ऐसा चित्रित करना निस्सन्देह निन्दनीय समझा जाता था ।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य जिसका उल्लेख करना आवश्यक है, यह है कि श्रीमती निरुपमा देवी ने पत्र लिखकर उनसे विधवा चरित्र कई आलोचना न करने कि प्रार्थना की थी। उन्होंने वचन दिया था, “तुम्हारे मन को आघात पहुंचाए ऐसा कुछ कभी नहीं लिखूंगा।” निरुपमा देवी से उनके सम्बन्धों की विवेचना करते समय इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। मेरी स्थापना को इससे समर्थन ही मिला है।
उनके अपने चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने वाली कुछ और कथाएं सामने आई हैं। उनमें से कम से कम एक का उल्लेख करना अत्यन्त आवश्यक है। एक रात अचानक वह सोते-सोते जाग पड़े। गांव में शोर मच रहा था। बीच-बीच में किसी का चीत्कार भी सुनाई दे जाता था। वह विचलित हो उठे । तुरन्त बाहर आए। पता लगाने पर जाना कि दो युवक चोरी करते हुए पकड़े गए हैं। उन्हीं को गांव वाले पीट रहे हैं।
पशु का क्रंदन सुनकर जो विकल हो उठते थे वह मनुष्य को पिटते देखकर कैसे शान्त रह सकते थे! तुरन्त घटनास्थल पर पहुंचे। लोगों को समझाया बुझाया। कहा कि मारो मत। चोरी की है तो पुलिस को सूचना दो।
गांवों वालों ने उनकी बात मान ली। शरद बाबू उन दोनों युवकों को अपने घर ले गए। पुलिस के आने तक वे वहीं रहे। बेचारी के प्राण बचे।
लेकिन जब पुलिस उनको लेकर चली गई तब क्या अवस्था हुई उनकी ? दिन चढ़ गया पर वे कमरे से बाहर नहीं निकले। पत्नी ने अनुनय-विनय की, मित्र आये, पर वह रोते ही रहे। कहते रहे कि कितना बड़ा पाप किया है मैंने। दो युवकों को चोर बना दिया। उन्हें पुलिस को सौंप दिया। वहां से अब वे दागी चोर बनकर ही निकलेंगे।
मेरे समीक्षक मित्रों ने 'आवारा मसीहा' का जहां स्वागत किया वहां कुछ त्रुटियों की ओर भी संकेत किया है, कुछ सुझाव भी दिये हैं। कृतज्ञ भाव से उस दिशा मे जो कुछ कर सकता था, किया है। जो नहीं कर सका, वह किसी जिद के कारण नहीं बल्कि असमर्थता के कारण ही हुआ है। प्रामाणिकता का अभाव उनमें सबसे बड़ा कारण है। कहीं-कहीं मतभेद भी है, जो स्वाभाविक है।
इसके प्रणयनकाल में कैसी-कैसी कठिनाइयां मेरे सामने आईं, इसकी एक झलक मैंने प्रथम संस्करण की भूमिका में दी है पर उससे मेरे समीक्षक और पाठक सन्तुष्ट नहीं हो सके हैं। सबकी चर्चा करना तो कई कारणों से अब भी सम्भव नहीं होगा, पर एक बात की ओर संकेत अवश्य करना चाहूंगा। शरद बाबू का जीवनक्रम इतना उलझा हुआ, इतना विश्रंखल है कि उसमें तारतम्य बैठाना, उसके क्रम को ठीक करना बड़ा दुष्कर कार्य है। कौन-सी घटना कब घटी, कैसे घटी, कब कहां रहे, कितने दिन रहे, कौन-सा भाषण कब दिया, क्या ठीक-ठीक कहा, इसका सही लेखा-जोखा कहीं उपलब्ध नहीं है। जो है वह एकदम विश्रंखल है। उसकी तलाश में मुझे बरसों यहां-वहां भटकना पड़ा। ज्योतिषियों की शरण ली, विश्वविद्यालय के, कैलेण्डर देखे, स्कूल-कालेज के रजिस्टर टटोले, पुरानी पत्रिकाएं ढूंढी, तब कुछ रूप बन सका ।
वह भागलपुर से कब भागे, इसका कुछ-कुछ सही पता तब चला जब भागलपुर में ही रचित और हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित उनकी जुलाई सन् 1901 की एक रचना देखने में आई। दिसम्बर सन् 1902 के अन्त में उन्होंने अपनी बहन के घर गोविन्दपुर से मामा गिरीन्द्रनाथ को जो पत्र लिखा था वह मुझे दिल्ली में ही उनके पुत्र श्री 'अमलकुमार गांगुली के सौजन्य से सन् 1973 में मिल सका। उसके मिलने से बहुत-सी तिथियां आप से आप ठीक हो गईं। वह बरमा से कब लौटे, इसकी तिथि भी अनुमान प्रमाण के सहारे निश्चित की गई है। नहीं तो एक लेखक ने उन्हें उसके बहुत बाद भी रंगून में रवीन्द्रनाथ से मिल दिखाया है।
उनके प्रायः सभी जीवनीकारों ने लिखा है कि उन्होंने मैट्रिक दिसम्बर, सन् 1894 में पास किया, लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हो सका । विश्वविद्यालय जाकर कैलेण्डर देखा तो पाया कि परीक्षाएं, सोमवार 12 फरवरी सन् 1894 से आरम्भ हुई थीं । परीक्षा फल अधिक से अधिक अप्रैल सन् 1894 में घोषित हुआ होगा, पर कैलेण्डर में वह दिसम्बर में ही छप सका। उसी को देखकर सभी ने मान लिया कि उन्होंने दिसम्बर सन् 1894 में मैट्रिक पास किया। यदि ऐसा होता तो वे उस वर्ष कालेज में प्रवेश कैसे पा सकते थे?
बंगाली निश्चित रूप से बंगाब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए मेरे सामने यह एक और समस्या थी कि इन तिथियों को ईसवी सन् के अनुसार तिथियों में कैसे परिवर्तित करूं । पुराने कैलेण्डरों की तलाश में अनेक मित्रों और पुस्तकालयों की शरण लेनी पड़ी क्योंकि तिथियों का अपना महत्त्व है। जो ज्योतिषशास्त्र में विश्वास करते हैं वे इस बात को खूब समझते हैं।
तो इन विसंगतियों का कोई अन्त नहीं है। बेशक वे विसंगतियां मनुष्य शरच्चन्द्र को प्रभावित नहीं करती। वे कब कहां रहे, कब कहां गये, यह अन्ततः कोई महत्त्व नहीं रखता पर जीवनक्रम को समझने के लिए इसकी आवश्यकता होना स्वाभाविक ही है।
मैंने अपनी भूमिका में 'सिक्स्थ सेन्स' की बात कही है, पर वह जितनी भ्रान्त और अभ्रान्त से परे जो वास्तविक शरच्चन्द्र है उसको पहचानने के सम्बन्ध में है उतनी स्वयं घटनाओं की प्रामाणिकता के सम्बन्ध मे नहीं ।
'आवारा मसीहा' नाम को लेकर भी काफी ऊहापोह मची है। वे वे अर्थ किए गए जिनकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो इस नाम के माध्यम से यही बताना चाहता था कि कैसे एक आवारा लड़का अन्त में पीड़ित मानवता का मसीहा बन गया। आवारा और मसीहा दो शब्द हैं। दोनों में एक ही अन्तर है। आवारा के सामने दिशा नहीं होती । जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है। मुझे खुशी है कि अधिकतर मित्रों ने इस नाम को, इसी सन्दर्भ में, कबूल किया है।
अन्त में एक बात और स्पष्ट कर दूं। 'आवारा मसीहा' में आई किसी घटना के बारे में मैंने कल्पना नहीं की। जितनी और जैसी जानकारी पा सका हूं उतना ही मैंने लिखा है। प्रथम पुरुष के रूप में उनके मुख से जो कुछ कहलवाया है वह सब उनके उन मित्रों के संस्मरणों से लिया है जो उसके साक्षी रहे हैं। यथासम्भव उन्हीं की भाषा का प्रयोग मैंने किया है। प्रामाणिका की दृष्टि से एक-दो स्थानों पर उनकी रचनाओं में आए उन्हीं स्थलों के वर्णन का भी सहारा लिया है पर ऐसा बहुत ही कम किया है। मैंने अगर स्वतन्त्रता ली भी है तो उतनी ही जितनी एक अनुवादक ले सकता है।
मनचाहा तो कभी होता नहीं, पर अनेक विसंगतियों और असंगतियों के बावजूद मित्रों ने, विशेषकर बंगाली मित्रों ने मेरे इस तुच्छ प्रयत्न का जैसा स्वागत किया है उससे मेरा उत्साह ही बढ़ा है। प्रसन्नता की बात यह है कि इसका अनुवाद बंगला भाषा में भी प्रकाशित हो चुका है। दूसरी भाषाओं में भी अच्छी प्रगति हुई है। उन सबके प्रति कृतज्ञ भाव से नत हूं। और शरच्चन्द्र के प्रति, एक बार फिर, कवि नजरुल के शब्दों में नतमस्तक होकर कहूंगा-
अवमाननार अतल गहरे ये मानुष छिलो लुकाये,
शरत्चांदेर ज्योत्सना तादेर दिलो राजपथ दिखाये ।
29 सितम्बर 1977
818, कुण्डेवालान,
अजमेरी गेट, दिल्ली- 110006
1. 'दिगन्त' दिल्ली, दिसम्बर, 1975
- विष्णु प्रभाकर