तू धूल भरा ही आया!
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!
साधों ने पथ के कण मदिरा से सींचे,
झंझा आँधी ने फिर-फिर आ दृग मींचे,
आलोक तिमिर ने क्षण का कुहक बिछाया!
अंगार-खिलौनों का था मन अनुरागी,
पर रोमों में हिम-जड़ित अवशता जागी,
शत-शत प्यासों की चली लुभाती छाया!
गाढ़े विषाद ने अंग कर दिए पंकिल,
बिंध गए पगों में शूल व्यथा के दुर्मिल,
कर क्षार साँस ने उर का स्वर्ण उड़ाया!
पाथेय-हीन जब छोड़ गए सब सपने
आख्यानशेष रह गए अंक ही अपने,
तब उस अंचल ने दे संकेत बुलाया!
जिस दिन लौटा तू चकित थकित-सा उन्मन,
करुणा से उसके भर-भर आए लोचन,
चितवन छाया में दृग-जल से नहलाया!
पलकों पर धर-धर अगणित शीतल चुंबन,
अपनी साँसों से पोंछ वेदना के क्षण,
हिम-स्निग्ध करों से बेसुध प्राण सुलाया!
नूतन प्रभात में अक्षय गति का वर दे,
तन सजल घटा-सा तड़ित्-छटा-सा उर दे
हँस तुझे खेलने फिर जग में पहुँचाया!
तू धूल भरा जब आया,
ओ चंचल जीवन-बाल! मृत्यु-जननी ने अंक लगाया!