सब कुछ तो है
फिर भी क्या है
होकर भी जो ना होता
अचरज करता ये मिज़ाज
मैं ना भी होता क्या होता
नद्दी नाले बरखा बादल
वैसे के वैसे रहते
पर फिर भी जो ना होता ‘वो
जो ना होता’ वो क्या होता
खड़ी ज़िंदगी मोड़ की पुलिया
पे जा के सुस्ता लेती
धीमी पगडंडी पे बैठा
एक तेज़ रस्ता होता
पनघट नचता धम्म-धम्म
और जाके रुकता मरघट पे
पनघट के संग मरघट की
जोड़ी का अलग मज़ा होता
शाम की महफ़िल रात अँधेरे
राख बनी मिट्टी होती
ठंडी ग़ज़लें सर्द नज़्म
बस एक शे'र सुलगा होता
आग गई और ताब गई
इंसाँ पग्गल-सा नाच उठा
काश कि कल की तरह आज भी
मैं बिफरा-बिफरा होता...