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विश्व सूक्ष्म ब्रह्माण्ड

26 अप्रैल 2022

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स्वभाव से ही मनुष्य का मन बाहर की ओर प्रवृत्त होता है, मानो वह इन्द्रियों के द्वारा शरीर के बाहर झाँकना चाहता हो। आँखें अवश्य देखेंगी, कान अवश्य सुनेंगे, इन्द्रियाँ अवश्य बाहरी जगत् को प्रत्यक्ष करेंगी। इसीलिए स्वभावतः प्रकृति का सौन्दर्य और महिमा मनुष्य की दृष्टि को एकदम आकृष्ट कर लेती है । मनुष्य ने पहले-पहल बहिर्जगत् के बारे में प्रश्न उठाया था – आकाश, नक्षत्रपुंज, नभोमण्डल के अन्यान्य पदार्थसमूह, पृथ्वी, नदी, पर्वत, समुद्र आदि वस्तुओं के विषय में प्रश्न किये गये थे। प्रत्येक प्राचीन धर्म में हमें कुछ न कुछ ऐसा परिचय मिलता ही है कि पहले-पहल मानव- मन अन्धकार में टटोलता हुआ बाह्य जगत् में जो कुछ देख पाता था, उसी को पकड़ने की चेष्टा करता था। इसी तरह उसने नदी का एक अधिष्ठाता देवता आकाश का अन्य अधिष्ठाता देवता, मेघ तथा वर्षा का दूसरा अधिष्ठाता देवता मान लिया। जिनको हम प्रकृति की शक्ति के नाम से जानते हैं, वे ही सचेतन पदार्थ में परिणत हो गयीं। किन्तु इस प्रश्न की जितनी अधिक गहराई से खोज होने लगी इन बाह्य देवताओं से मानव के मन को उतनी ही अतृप्ति होने लगी। तब मानव की सारी शक्ति उसके अपने अन्दर प्रवाहित होने लगी – उसकी अपनी आत्मा के सम्बन्ध में प्रश्न होने लगे। बहिर्जगत् से यह प्रश्न अन्तर्जगत् में आ पहुंचा। बहिर्जगत् का विश्लेषण हो जाने पर मनुष्य ने अन्तर्जगत् का विश्लेषण करना शुरू किया। यह अन्तःस्थ मनुष्य के सम्बन्ध में प्रश्न उच्चतर सभ्यता से आता है, प्रकृति के विषय में गम्भीर अन्तर्दृष्टि से आता है, विकास के उच्चतम सोपान पर आरूढ होने से आता है ।

यह अन्तर्मानव ही आज हमारी आलोचना का विषय है। अन्तर्मानव-सम्बन्धी यह प्रश्न मनुष्य को जितना प्रिय है तथा उसके हृदय के जितना निकट है, उतना और कुछ नहीं । कितनी बार कितने देशों में यह प्रश्न पूछा गया है । संन्यासी या सम्राट अमीर या गरीब, साधु या पापी – सभी नर-नारियों के मन में यह प्रश्न एक, बार अवश्य उठा है कि इस क्षणभंगुर मानव-जीवन में क्या कुछ भी शाश्वत नहीं है? इस शरीर का अन्त होने पर क्या ऐसा कुछ नहीं है, जो नहीं मरता? जब यह देह धूल में मिल जाती है, तब क्या ऐसा कुछ नहीं रहता, जो जीवित रहता हो? अग्नि से शरीर भस्मसात् हो जाने पर क्या कुछ भी शेष नहीं रहता? यदि रहता है, तो उसकी नियति क्या है? वह जाता कहाँ है? कहाँ से वह आया था? ये प्रश्न बार बार पूछे गये हैं और जब तक यह सृष्टि रहेगी जब तक मानव-मस्तिष्क की चिन्तन-क्रिया बन्द नहीं होगी, तब तक यह प्रश्न पूछा ही जाएगा। इससे तुम लोग यह न समझो कि इसका उत्तर कभी मिला ही नहीं; जब कभी यह प्रश्न पूछा गया, तभी इसका उत्तर मिला है और जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, वैसे-वैसे इसका उत्तर अधिकाधिक बल संग्रह करता जाएगा। वास्तव में तो हजारों वर्ष पहले ही इस प्रश्न का निश्चित उत्तर दे दिया गया था, और तब से अब तक वही उत्तर दुहराया जा रहा है, उसी को विशद और स्पष्ट करके हमारी बुद्धि के समक्ष उज्ज्वलतर रूप से रखा भर जा रहा है । अतएव हमें उस उत्तर को फिर से एक बार दुहरा भर देना है। हम इन सर्वग्रासी समस्याओं पर एक नया आलोक डालने का दम्भ नहीं भरते। हम तो चाहते हैं कि वर्तमान युग की भाषा में हम उस सनातन, महान सत्य को प्रकाशित करें प्राचीन लोगों के विचार हम आधुनिकों की भाषा में व्यक्त करें, दार्शनिकों के विचार लौकिक भाषा में प्रकट करें देवताओं के विचार मनुष्यों की भाषा में कहें ईश्वर के विचार मानव की दुर्बल भाषा में अभिव्यक्त करें, ताकि लोग उन्हें समझ सकें। क्योंकि हम बाद में देखेंगे कि जिस ईश्वरीय सत्ता से ये सब भाव निकले हैं, वह मनुष्य में भी वर्तमान है – जिस सत्ता ने इन विचारों की सृष्टि की है, वही मनुष्य में प्रकाशित होकर स्वयं इन्हें समझेगी।

मैं तुम लोगों को देख रहा हूँ। इस दर्शन-क्रिया के लिए किन-किन बातों की आवश्यकता होती है? पहले तो आँखें-आँखें रहनी ही चाहिए। मेरी अन्यान्य इन्द्रियाँ भले ही अच्छी रहें पर यदि मेरी आँखें न हों, तो मैं तुम लोगों को न देख सकूँगा। अतएव पहले मेरी आँखें अवश्य रहनी चाहिए । दूसरे आंखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता है और वही असल में दर्शनेन्द्रिय है। यह यदि हममें न हो, तो दर्शन-क्रिया असम्भव है । वस्तुतः आँखें इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो दृष्टि की यन्त्र मात्र हैं । यथार्थ इन्द्रिय चक्षु के पीछे है – वह मस्तिष्क में अवस्थित नाड़ीकेन्द्र है । यदि यह केन्द्र किसी प्रकार नष्ट हो जाए, तो स्वच्छ चक्षुद्वय रहते हुए भी मनुष्य कुछ देख न सकेगा। अतएव दर्शन-क्रिया के लिए इस असली इन्द्रिय का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है । हमारी अन्यान्य इन्द्रियों के बारे में भी ठीक ऐसा ही है। बाहर के कान ध्वनि-कम्प को भीतर ले जाने के यन्त्र मात्र हैं, उसको मस्तिष्क में स्थित केन्द्र में पहुँचना चाहिए। पर इतने से ही श्रवण-क्रिया पूर्ण नहीं हो जाती । कभी-कभी ऐसा होता है कि पुस्तकालय में बैठकर तुम ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहे हो, घड़ी में बारह बजता है, पर तुम्हें वह ध्वनि सुनाई नहीं देती। क्यों? वहाँ ध्वनि तो है, वायु-स्पन्दन है, कान और केन्द्र भी वहाँ हैं और कान के माध्यम से केन्द्र तक स्पन्दन पहुँच भी गये हैं, पर तो भी तुम नहीं सुन पाते। किस चीज की कमी थी? इस इन्द्रिय के साथ मन का योग नहीं था। अतएव हम देखते हैं कि मन का रहना भी नितान्त आवश्यक है । पहले चाहिए बहिर्यन्त्र, यह बहिर्यन्त्र मानो विषय को वहन कर इन्द्रिय के निकट ले जाता है; फिर उस इन्द्रिय के साथ मन को युक्त रहना चाहिए। जब मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय से मन का योग नहीं रहता, तब कर्ण-यन्त्र और मस्तिष्क के केन्द्र पर भले ही कोई विषय आकर टकराए, पर हमें उसका अनुभव न होगा। मन भी केवल वाहक है, वह इस विषय की संवेदना को और भी आगे ले जाकर बुद्धि को ग्रहण कराता है । बुद्धि उसके सम्बन्ध में निश्चय करती है, पर इतने से ही नहीं हुआ। बुद्धि को उसे फिर और भी भीतर ले जाकर शरीर के राजा आत्मा के पास पहुँचाना पड़ता है। उसके पास पहुँचने पर आत्मा आदेश देती है “हाँ, यह करो” या “मत करो” । तब जिस क्रम से वह : विषय-संवेदना केन्द्र में गयी थी, ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यन्त्र में आती है – पहले बुद्धि में उसके बाद मन में फिर मस्तिष्क-केन्द्र में और अन्त में बहिर्यन्त्र में; तभी विषय-ज्ञान की क्रिया पूरी होती है ।

ये सब यन्त्र मनुष्य की स्थूल देह में अवस्थित हैं, पर मन और बुद्धि नहीं। मन और बुद्धि तो उसमें हैं, जिसे हिन्दू-शास्त्र सूक्ष्म शरीर कहते हैं और ईसाई-शाल आध्यात्मिक शरीर। वह इस स्थूल शरीर से अवश्य बहुत ही सूक्ष्म है, परन्तु फिर भी वह आत्मा नहीं है। आत्मा इन सब के अतीत है । कुछ ही दिनों में स्थूल शरीर का अन्त हो जाता है – किसी मामूली कारण से ही उसमें क्षोभ पैदा हो जाता है और वह नष्ट हो जा सकता है । पर सूक्ष्म शरीर इतनी आसानी से नष्ट नहीं होता, फिर भी वह कभी सबल और कभी दुर्बल होता रहता है। हम देखते हैं कि बूढ़े लोगों के मन में उतना जोर नहीं रहता। फिर शरीर में बल रहने से मन भी सबल रहता है; विविध औषधियाँ मन पर अपना प्रभाव डालती हैं । बाहर की वस्तुएँ उस पर अपना प्रभाव डालती हैं और वह भी बाह्य जगत् पर अपना प्रभाव डालता है । जैसे शरीर में उन्नति और अवनति होती है, वैसे ही मन भी कभी सबल और कभी निर्बल हो जाता है; अतः मन आत्मा नहीं है; क्योंकि आत्मा कभी जीर्ण या क्षयग्रस्त नहीं होती। यह हम कैसे जान सकते हैं? हम कैसे जान सकते हैं कि मन के पीछे और भी कुछ है? चूँकि ज्ञान स्वप्रकाश और बुद्धि का आधार है, अतः वह कभी जड़ का धर्म नहीं हो सकता। ऐसी कोई जड़ वस्तु दिखाई नहीं देती, जिसमें स्वरूपत: ज्ञान है । जड़ भूत स्वयं ही अपने को कभी प्रकाशित नहीं कर सकता । बुद्धि ही समस्त जड़ को प्रकाशित करती है। यह जो सामने हॉल देख रहे हो, बुद्धि को ही इसका मूल कहना पड़ेगा, क्योंकि बिना किसी बुद्धि के सहारे हम उसका अस्तित्व अनुभव नहीं कर सकते थे। यह शरीर स्वप्रकाश नहीं है – यदि वैसा होता, तो फिर मृत-शरीर भी स्वप्रकाश होता। मन अथवा आध्यात्मिक शरीर भी स्वप्रकाश नहीं हो सकता। वे ज्ञानस्वरूप नहीं है। जो स्वप्रकाश है, उसका कभी क्षय नहीं होता। जो दूसरे के आलोक से आलोकित है, उसका आलोक कभी रहता है और कभी नहीं। पर जो स्वयं आलोकस्वरूप है, उसके आलोक का आविर्भाव-तिरोभाव, हास या वृद्धि कैसी? हम देखते हैं कि चन्द्रमा का क्षय होता है, फिर उसकी कला बढ़ती जाती है – क्योंकि वह सूर्य के आलोक से आलोकित है । यदि लोहे का गोला आग में डाल दिया जाए और लाल होने तक गरम किया जाए, तो उससे आलोक निकलता रहेगा; पर वह दूसरे का आलोक है, इसलिए वह शीघ्र ही लुप्त हो जाएगा। अतएव उसी आलोक का क्षय होता है, जो स्वप्रकाश न हो, जो दूसरे से उधार लिया हुआ हो।

अब हमने देखा कि यह स्थूल देह स्वप्रकाश नहीं है, वह स्वयं अपने को नहीं जान सकती। मन भी स्वयं को नहीं जा न सकता। क्यों ? इसलिए कि मन की शक्ति में हास-वृद्धि होती रहती है – कभी वह सबल रहता है, तो कभी वह दुर्बल हो जाता हैं । कारण, सभी प्रकार की बाह्य वस्तुएँ उस पर अपना-अपना प्रभाव डालकर उसे शक्तिशाली भी बना सकती है और शक्तिहीन भी । अतएव मन के माध्यम से जो आलोक आ रहा है, वह उसका निजी आलोक नहीं है । तब वह किसका है? वह अवश्य ऐसा आलोक है, जो किसी दूसरे से उधार नहीं लिया जा सकता, जो किसी दूसरे आलोक का प्रतिबिम्ब भी नहीं है, पर जो स्वयं आलोक स्वरूप है। अतएव वह आलोक या ज्ञान, उस पुरुष का स्वरूप होने के कारण, कभी नष्ट या क्षीण नहीं होता – वह न तो बलवान हो सकता है, न कमजोर। वह स्वप्रकाश है – वह आलोकस्वरूप है। यह बात नहीं कि ‘आत्मा को ज्ञान होता है’ वरन् वह तो ज्ञान स्वरूप है । यह नहीं कि आत्मा का अस्तित्व है, वरन् वह स्वयं अस्तित्व स्वरूप है । आत्मा सुखी है ऐसी बात नहीं, आत्मा तो सुख स्वरूप है । जो सुखी होता है, वह उस सुख को किसी दूसरे से प्राप्त करता है – वह अन्य किसी का प्रतिबिम्ब है । जिसको ज्ञान है, उसने अवश्य उस ज्ञान को किसी दूसरे से प्राप्त किया है, वह ज्ञान प्रतिबिम्बस्वरूप है । जिसका अस्तित्व सापेक्ष है, उसका वह अस्तित्व दूसरे किसी के अस्तित्व पर निर्भर करता है । जहाँ कहीं गुण हो, वहाँ समझना चाहिए कि वे गुण गुणी में प्रतिबिम्बित हुए हैं । पर ज्ञान, अस्तित्व या आनन्द – ये आत्मा के गुण या धर्म नहीं हैं, वे तो आत्मा के स्वरूप हैं।

फिर, यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि हम इस बात को क्यों स्वीकार कर लें? हम यह क्यों स्वीकार कर लें कि आनन्द अस्तित्व और स्वप्रकाशत्व आत्मा के स्वरूप हैं, आत्मा के उधार लिए गुण नहीं? किन्तु प्रश्न पूछा जा सकता है – यह क्यों नहीं मान लेते कि आत्मा का प्रकाश, उसका ज्ञान और आनन्द भी उसी तरह दूसरे से लिये हुए हैं, जैसे शरीर का प्रकाशत्व मन से ही लिया हुआ है। इस तरह मान लेने से दोष यह होगा कि ऐसी स्वीकृति का फिर कहीं अन्त न होगा – पुनः प्रश्न उठेगा कि इस आत्मा को फिर कहाँ से आलोक मिला? यदि कहो कि दूसरी किसी आत्मा से मिला, तो फिर इस दूसरी आत्मा ने ही कहाँ से वह आलोक प्राप्त किया? अतएव, अन्त में हमें ऐसे एक स्थान पर रुकना होगा, जिसका आलोक दूसरे से नहीं आया है। इसलिए इस विषय में न्यायसंगत सिद्धान्त यही है कि जहाँ पहले ही स्वप्रकाशत्व दिखाई दे, बस वहीं रुक जाना, और अधिक आगे न बढ़ना।

अब आत्मा के स्वरूप के बारे में विविध प्रश्न उठते हैं । आत्मा स्वप्रकाश है, सच्चिदानन्द ही आत्मा का स्वरूप है, इस युक्ति से यदि आत्मा का अस्तित्व मान लिया जाए, तो स्वभावतः ही यह प्रमाणित होता है कि उसकी सृष्टि नहीं होती। जो स्वप्रकाश है, जो अन्य-वस्तु-निरपेक्ष है, वह कभी किसी का कार्य नहीं हो सकता। अतएव सर्वदा ही उसका अस्तित्व था। ऐसा समय कभी न था, जब उसका अस्तित्व न था; क्योंकि यदि तुम कहो कि एक समय आत्मा का अस्तित्व नहीं था, तो प्रश्न यह है कि उस समय फिर काल कहाँ अवस्थित था? काल तो आत्मा में ही अवस्थित है । जब मन में आत्मा की शक्ति प्रतिबिम्बित होती है और मन चिन्तन कार्य में लग जाता है, तभी काल की उत्पत्ति होती है । जब आत्मा नहीं थी, तो विचार भी नहीं था, और विचार न रहने से काल भी नहीं रह सकता। अतएव जब काल आत्मा में अवस्थित है, तब भला हम कैसे कह सकते हैं कि आत्मा काल में अवस्थित है? उसका न तो जन्म है, न मृत्यु वह केवल विभिन्न स्तरों में से होती हुई आगे बढ़ रही है – धीरे-धीरे अपने को निप्नावस्था से उच्च-उच्च भावों में प्रकाशित कर रही है । मन के माध्यम से शरीर पर कार्य करके वह अपनी महिमा का विकास कर रही है, और शरीर से बहिर्जगत् का ग्रहण तथा अनुभव कर रही है। वह एक शरीर ग्रहण कर उसका उपयोग करती है; और जब उस शरीर के द्वारा और कोई कार्य होने की सम्भावना नहीं रहती, तब वह दूसरा शरीर ग्रहण कर लेती है; और इसी प्रकार क्रम आगे चलता रहता है ।

अब आत्मा के पुनर्जन्म का रोचक प्रश्न आता है । पुनर्जन्म के नाम से लोग कभी-कभी डर जाते हैं, और अन्धविश्वास ने उनमें इस तरह अपनी जड़ें जमा रखी हैं कि विचारशील व्यक्ति भी विश्वास कर लेते हैं कि वे शून्य से पैदा हुए हैं, और फिर महामुक्ति के साथ यह सिद्धान्त स्थापित करने का प्रयत्न करते है कि यद्यपि हम शून्य से आये हैं, फिर भी हम चिरकाल तक रहेंगे। जो शून्य से आया है, वह अवश्य शून्य में ही मिल जाएगा। हममें से कोई भी शून्य से नहीं आया, इसलिए हम शून्य में नहीं मिल जाएँगे। हम अनन्त काल से विद्यमान हैं और रहेंगे और विश्वब्रह्माण्ड में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो हम लोगों का अस्तित्व मिटा सके । इस पुनर्जन्मवाद से हमें किसी तरह डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वही तो मानव की नैतिक उन्नति का प्रधान सहायक है । चिन्तनशील व्यक्तियों का यही न्यायसंगत सिद्धान्त है। यदि भविष्य में चिरकाल के लिए तुम्हारा अस्तित्व रहना सम्भव हो, तो यह भी सच है कि अनादि काल से तुम्हारा अस्तित्व था; इसके अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस मत के विरुद्ध कई आपत्तियाँ उठायी गयी है, मैं उनका निराकरण करने की चेष्टा करूँगा। यद्यपि तुममें से अनेक इन आपत्तियों को साधारण सी समझेंगे फिर भी हमें इनका उत्तर देना होगा, क्योंकि हम देखते हैं कि बड़े-बड़े चिन्तनशील व्यक्ति भी कभी-कभी बिलकुल बच्चों की सी बातें किया करते हैं । लोग जो कहते हैं कि ‘इतना असंगत कोई मत नहीं, जिसके समर्थन के लिए कोई दार्शनिक न मिले’ यह बिलकुल सच है । पहली शंका यह है कि हमें अपने जन्म- जन्मान्तर की बातें क्यों याद नहीं रहती? इस पर यह पूछा जा सकता है कि क्या इसी जन्म की सब बीती घटनाओं को हम याद रख सकते हैं? तुममें से कितनों को बचपन की घटनाएँ स्मरण है? किसी को नहीं । अतएव यदि अस्तित्व स्मृति शक्ति पर निर्भर रहता हो, तब तो कहना पड़ेगा कि शिशु-रूप में तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं था क्योंकि उस समय की कोई बात तुमको याद नहीं है । अतः यह कहना निरी मूर्खता है कि हम अपने पूर्वजन्म का अस्तित्व तभी स्वीकार करेंगे, जब हम उसे स्मरण कर सकें । पूर्वजन्म की बातें भला क्यों हमारी स्मृति में रहें? उस समय का मस्तिष्क अब नहीं है – वह बिलकुल नष्ट हो गया है और एक नये मस्तिष्क की रचना हुई है। अतीत काल के संस्कारों का जो समष्टिभूत फल है, वही हमारे मस्तिष्क में आया है – उसी को लेकर मन हमारे इस नये शरीर में अवस्थित है ।

मैं अभी जो कुछ हूँ, वह मेरे अनन्त अतीत काल के कर्मों का फल है और भला मैं उस सारे अतीत का स्मरण क्यों करूँ? जब हम सुनते हैं कि प्राचीन काल के किसी साधु, पैगम्बर या ऋषि ने सत्य को प्रत्यक्ष करके कुछ कहा है, तो हम कह देते हैं कि वह मूर्ख है; परन्तु यदि कोई कहे कि यह हक्सले का मत है या यह टिंन्ड़ाल ने बताया है, तो वह अवश्य ही सत्य होना चाहिए, और उसे हम स्वयंसिद्ध मान लेते हैं। प्राचीन अन्धविश्वासों की जगह हम आधुनिक अन्धविश्वास ले आये हैं, धर्म के प्राचीन पोपों के बदले हमने विज्ञान के आधुनिक पोपों को बिठा दिया है । अतएव हमने देखा कि स्मृतिसम्बन्धी यह शं…कटाक्षों को हँसकर उड़ा दे सकोगे। तभी वीर की भाँति खड़े होकर तुम कह सकोगे, “मृत्यु, तुझसे भी मैं नहीं डरता, क्यों तू व्यर्थ मुझे डराने की चेष्टा कर रही है?” और कालान्तर में सभी इस मृत्युंजय अवस्था की प्राप्ति करेंगे।

आत्मा के पुनर्जन्म के सम्बन्ध में क्या कोई युक्तियुक्त प्रमाण है? अब तक हम शंका का समाधान कर रहे थे, दिखा रहे थे कि पुनर्जन्मवाद के विरोध में जो दलीलें उठायी जाती हैं, वे खोखली हैं । अब पुनर्जन्मवाद के पक्ष में जो युक्तियाँ हैं, उनकी हम आलोचना करेंगे। पुनर्जन्मवाद के बिना ज्ञान असम्भव है। मान लो मैंने रास्ते में एक कुत्ता देखा। मैंने कैसे जाना कि वह कुत्ता ही है? ज्यों ही मेरे मन में उसकी छाप पड़ी, त्योंही उसे मैं अपने मन के पूर्व-संस्कारों के साथ मिलाने लगा। मैंने देखा कि वहाँ मेरे समस्त पूर्व-संस्कार स्तर स्तर में सजे हुए हैं । ज्योंही कोई नया विषय आया त्योंही मैं प्राचीन संस्कारों के साथ उसे मिलाने लगा। और जब मैंने अनुभव किया कि हाँ उसी की भाँति और भी कई संस्कार वहाँ विद्यमान हैं, तो बस मैं तृप्त हो गया। मैंने तब जाना कि उसे कुत्ता कहते हैं, क्योंकि पहले के कई संस्कारों के साथ वह मिल गया। जब हम उस प्रकार का कोई संस्कार अपने भीतर नहीं देख पाते तब हममें असन्तोष पैदा होता है । इसी को ‘अज्ञान’ कहते हैं। और सन्तोष मिल जाना ही ‘ज्ञान’ कहलाता है । जब एक सेब गिरा, तो मनुष्य को असन्तोष हुआ। इसके बाद मनुष्य ने क्रमशः इसी प्रकार की कई घटनाएँ देखी – शृंखला की तरह ये घटनाएँ एक दूसरे से बँधी हुई थीं। यह शृंखला क्या थी? वह शृंखला यह थी कि सभी सेब गिरते हैं। और इसको उसने ‘गुरुत्वाकर्षण’ नाम दे दिया। अतएव हमने देखा कि पहले की अनुभूतियाँ न रहने से कोई नयी अनुभूति प्राप्त करना असम्भव है, क्योंकि उस नयी अनुभूति से तुलना करने के लिए कुछ भी नहीं मिल सकेगा। अतएव यदि कुछ यूरोपीय दार्शनिकों का यह मत कि पैदा होते समय बच्चा संस्कार शून्य मन लेकर आता है, सच हो तो फिर वह बौद्धिक शक्ति अर्जित ही नहीं कर सकेगा, क्योंकि नयी अनुभूति मिलाने के लिए उसमें कोई संस्कार ही नहीं हैं। हम यह भी जानते हैं कि हर व्यक्ति की ज्ञानार्जन की क्षमता भिन्न होती है । इससे सिद्ध होता है कि हम सब अपने पृथक् शान-भाण्डार के साथ आते हैं । ज्ञान केवल अनुभव से प्राप्त होता है, जानने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। हम मृत्यु का भय सर्वत्र देख पाते हैं, पर क्यों? अभी पैदा हुआ मुर्गी का बच्चा चील को आते देख अपनी माँ के पास भाग जाता है। उसने कहाँ से तथा कैसे सीखा कि चील मुर्गी के बच्चों को खा जाती है? इसकी एक पुरानी व्याख्या है, पर उसे व्याख्या कहा नहीं जा सकता। उसे लोग जन्मजात-प्रवृत्ति या सहज-प्रेरणा (instinct) कहते हैं । मुर्गी के उस छोटे-से बच्चे में कहाँ से मरने का डर आया? अण्डे से अभी-अभी निकली बतख पानी के निकट आते ही क्यों कूद पड़ती है और तैरने लगती है? वह तो पहले कभी तैरना नहीं जानती थी और न पहले उसने किसी को तैरते ही देखा है। लोग कहते हैं कि वह ‘जन्मजात-प्रवृत्ति’ है । यह तो हमने एक लम्बा चौड़ा शब्दप्रयोग किया अवश्य, पर उससे हमें कोई नयी बात नहीं मिलती । अब आलोचना की जाए कि यह जन्मजात-प्रवृत्ति है क्या। हमारे भीतर अनेक प्रकार की जन्मजात-प्रवृत्तियाँ वर्तमान हैं । मान लो एक बच्चे ने पियानो बजाना सीखना शुरू किया। पहले उसे प्रत्येक परदे की ओर नजर रखते हुए अंगुलियों को चलाना पड़ता है, पर कुछ महीने, कुछ साल अभ्यास करते-करते अंगुलियाँ अपने आप ठीक-ठीक स्थानों पर चलने लगती हैं, वह स्वाभाविक हो जाता है। एक समय जिसमें ज्ञानपूर्वक इच्छा को लगाना पड़ता था उसमें जब उस प्रकार करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, अर्थात् जब ज्ञानपूर्वक इच्छा लगाये बिना ही वह सम्पन्न होने लगता है, तो उसी को स्वाभाविक-शान या सहज-प्रेरणा कहते हैं । पहले वह इच्छा के साथ होता था, बाद में उसमें इच्छा का कोई प्रयोजन न रहा। पर जन्मजात- प्रवृत्ति का तत्त्व अब भी पूरा नहीं हुआ अभी आधा रह गया है। वह यह कि जो सब कार्य हमारे लिए स्वाभाविक हैं, लगभग उन सभी को हम अपनी इच्छा के वश में ला सकते हैं। शरीर की प्रत्येक पेशी को हम अपने वश में ला सकते हैं। आजकल यह विषय हम सभी को अच्छी तरह से ज्ञात है । अतएव अन्वय और व्यतिरेक इन दोनों उपायों से यह प्रमाणित कर दिया गया कि जिसे हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं, वह इच्छा से किये गये कार्य का भ्रष्ट भाव मात्र है । अतएव जब सारी प्रकृति में एक ही नियम का राज्य है, तो समग्र सृष्टि में ‘उपमान’ प्रमाण का प्रयोग करके हम इस सिद्धान्त पर पहुँच सकते हैं कि तिर्यक्जाति और मनुष्य में जो जन्मजात-प्रवृत्ति है, वह इच्छा का ही भ्रष्ट भाव मात्र है।

बहिर्जगत् में हमें जो नियम मिला था कि “प्रत्येक क्रमविकास-प्रक्रिया के पहले एक क्रमसंकोच-प्रक्रिया रहती है और क्रमसंकोच के साथ-साथ क्रमविकास भी रहता है”, उसका प्रयोग करने पर हमें जन्मजात प्रवृत्ति की कौन-सी व्याख्या मिलती है? यही कि जन्मजात प्रवृत्ति विचारपूर्वक कार्य का क्रमसंकुचित भाव है। अतएव मनुष्य अथवा पशु में जिसे हम जन्मजात- प्रवृत्ति कहते हैं, वह अवश्य पूर्ववर्ती इच्छाकृत कार्य का क्रमसंकोच-भाव होगा। और ‘इच्छाकृत कार्य’ कहने से ही स्वीकृत हो जाता है कि पहले हमने अभिज्ञता या अनुभव प्राप्त किया था। पूर्वकृत कार्य से यह संस्कार आया था और यह अब भी विद्यमान है । मरने का भय, जन्म से ही तैरने लगना तथा मनुष्य में जितने भी अनिच्छाकृत, सहज-कार्य पाये जाते है, वे सभी पूर्व-कार्य, पूर्व-अनुभूति के फल हैं – वे ही अब सहज-प्रेरणा के रूप में परिणत हो गये है । अब तक तो हम विचार में आसानी से आगे बढ़ते रहे और यहाँ तक आधुनिक विज्ञान भी हमारा सहायक रहा। आधुनिक वैज्ञानिक धीरे-धीरे प्राचीन ऋषियों से सहमत हो रहे हैं और जहाँ तक उन्होंने ऐसा किया है, वहाँ तक पूर्ण सहमति है । वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक प्राणी कुछ अनुभूतियाँ की समष्टि लेकर  जन्म लेता है; वे यह भी मानते हैं कि मन के ये सब कार्य पूर्वानुभूति के फल हैं । पर यहाँ पर वे और एक शंका उठाते हैं । वे कहते हैं कि यह कहने की क्या आवश्यकता है कि ये अनुभूतियाँ आत्मा की हैं? वे सब शरीर और केवल शरीर के ही धर्म हैं यह क्यों न कहें? उसे आनुवांशिक-संक्रमण (hereditary transmission) क्यों न कहें? यही अन्तिम प्रश्न है। जिन सब संस्कारों को लेकर मैंने जन्म लिया है, वे मेरे पूर्वजों के संचित संस्कार हैं, ऐसा हम क्यों न कहें? छोटे जीवाणु से लेकर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य तक सभी के कर्म-संस्कार मुझमें हैं, पर वे सब आनुवांशिक-संक्रमण के कारण ही मुझमें आये हैं, ऐसा कहने में अड़चन कौन-सी है? यह प्रश्न बहुत ही सूक्ष्म है। इस आनुवंशिक-संक्रमण को कुछ अंश तक हम मानते भी हैं। लेकिन बस यहीं तक मानते हैं कि इससे आत्मा को रहने लायक एक स्थान मिल जाता है । हम अपने पूर्व-कर्मों के द्वारा एक शरीर विशेष का आश्रय लेते हैं । और उस शरीरविशेष का उपयुक्त उपादान आत्मा उन्हीं लोगों से ग्रहण करती है, जिन्होंने उस आत्मा को सन्तान के रूप में प्राप्त करने के लिए स्वयं को उपयुक्त बना लिया है ।

आनुवंशिक संक्रमणवाद (doctrine of heredity) बिना किसी प्रमाण के ही एक असत बात मान लेता है कि अनुभवों का आलेखन जड़ द्रव्य में हो सकता है, और यह अनुभव जड़ द्रव्य में संकुचित हो जाते हैं । मन के संस्कारों की छाप जुड़ तत्त्व में रह सकती है । जब मैं तुम्हारी ओर देखता हूँ, तब मेरे चित्त-सरोवर में एक तरंग उठ जाती है । यह तरंग थोड़े समय बाद लुप्त हो जाती है, मर सूक्ष्म रूप में वर्तमान रहती है । हम यह समझ सकते हैं। हम यह भी समझ सकते हैं कि भौतिक संस्कार शरीर में रह सकते हैं। किन्तु इसका क्या प्रमाण है कि मानसिक संस्कार शरीर में रहते हैं, क्योंकि शरीर तो नष्ट हो जाता है । किसके द्वारा ये संस्कार संचारित होते हैं? अच्छा, माना कि मन के प्रत्येक संस्कार का शरीर में रहना सम्भव है; यह भी माना कि आनुवंशिकता के अनुसार आदिम मनुष्य से लेकर समस्त पूर्वजों के संस्कार मेरे पिता के शरीर में वर्तमान हैं; पर पूछता हूँ कि वे सब संस्कार मेरे शरीर में कैसे आये? तुम शायद कहो – जीवाणुकोष (bio-plasmic cell) के द्वारा। किन्तु यह कैसे सम्भव है, क्योंकि पिता का शरीर तो सन्तान में सम्पूर्ण रूप से नहीं आता । एक ही माता-पिता की कई सन्तानें हो सकती हैं। अतः यह आनुवंशिक- संक्रमणवाद मान लेने पर तो हमें यह भी अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रत्येक सन्तान के जन्म के साथ ही साथ माता-पिता को अपने निजी संस्कारों का कुछ अंश खोना पड़ेगा चूंकि उन लोगों के मत से संचारक और जिसमें संचार होता हो, वह एक अर्थात् भौतिक हैं और यदि तुम कहो कि उनके सारे संस्कार ही सम्प्रेषित होते हैं, तब तो यही कहना पड़ेगा कि प्रथम सन्तान के जन्म के बाद ही उन लोगों का मन पूर्ण रूप से शून्य हो जाएगा।

फिर यदि जीवोणुकोष में चिरकाल की अनन्त संस्कार-समष्टि रहती हो, तो प्रश्न यह है कि वह है, कहाँ और किस प्रकार है? यह सिद्धान्त बिलकुल असम्भव है । और जब तक ये जड़वादी यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि ये संस्कार कैसे और कहाँ पर उस कोष में रहते हैं, जब तक यह नहीं समझा सकते कि ‘भौतिक कोष में संस्कारों के सुप्त रहने’ का क्या तात्पर्य हैं, तब तक उनका सिद्धान्त माना नहीं जा सकता। इतना तो हम अच्छी तरह समझ सकते हैं कि ये संस्कार मन में ही वास करते हैं, मन बार बार जन्म ग्रहण करता रहता है, मन ही अपने उपयोगी उपादान ग्रहण करता है और इस मन ने जिस शरीर विशेष की प्राप्ति के लायक कर्म किये हैं, उसके निर्माणोपयोगी उपादान जब तक वह नहीं पाता, तब तक उसे राह देखनी पड़ेगी। यह हम समझ सकते हैं । अतएव आत्मा के लिए देहगठनोपयोगी उपादान प्रस्तुत करने तक ही आनुवंशिक-संक्रमणवाद स्वीकृत किया जा सकता है । परन्तु आत्मा देह के बाद देह ग्रहण करती जाती है – एक शरीर के बाद दूसरा शरीर प्रस्तुत करती जाती है; और हम जो कुछ विचार करते हैं, जो कुछ कार्य करते हैं, वह सूक्ष्म भाव में रह जाता है और समय आने पर वही स्थूल रूप धारण कर प्रकट हो जाता है। मैं अपना अभिप्राय तुम्हें और भी अधिक स्पष्ट रूप से कह दूँ। जब कभी मैं तुम लोगों की ओर देखता हूँ? तो मेरे मन में एक तरंग उठ जाती है । वह मानो मेरे चित्त-सरोवर’ में डूब जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है, पर बिलकुल नष्ट नहीं हो जाती। वह मन में ही रहती है और किसी भी समय स्मृति-तरंग के रूप में प्रकट होने को प्रस्तुत रहती है । इसी तरह यह समस्त संस्कार-समष्टि मेरे मन में ही विद्यमान है और मृत्यु के समय उन सारे संस्कारों की समष्टि मेरे साथ ही बाहर चली जाती है । मान लो, इस कमरे में एक गेंद है और हम सब एक एक छड़ी से सब ओर से उसे मारने लगे; गेंद कमरे के एक कोने से दूसरे कोने में दौड़ने लगी और दरवाजे के नजदीक जाते ही वह बाहर चली गयी। अब बताओ वह किस शक्ति से बाहर गयी? – जितनी छड़ियाँ उसे मारी गयी थीं, उनकी सम्मिलित शक्ति से । किस ओर उसकी गति होगी, यह भी इन सभी के समवेत फल से निर्णीत होगा। इसी प्रकार शरीर का त्याग होने पर आत्मा की गति का निर्णायक क्या होगा? उसने जो-जो कर्म किये हैं जो-जो विचार सोचे हैं, वे ही उसे किसी विशेष दिशा में परिचालित करेंगे। अपने भीतर उन सभी की छाप लेकर वह आत्मा अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर होगी। यदि समवेत कर्मफल इस प्रकार का हो कि भोग के लिए उसे पुनः एक नया शरीर गढ़ना पड़े, तो वह ऐसे माता-पिता के पास जाएगी, जिनसे वह उस शरीर-गठन के उपयुक्त उपादान प्राप्त कर सके, और वह उपादानों को लेकर एक नया शरीर गढ़ लेगी। इसी तरह वह आत्मा एक देह से दूसरी देह में जाती रहती है; कभी स्वर्ग में जाती है, तो कभी पृथ्वी पर आकर मानव-देह धारण कर लेती है; अथवा अन्य कोई उच्चतर या निम्नतर जीवशरीर धारण कर लेती है। और इस प्रकार वह तब तक आगे बढ़ती रहती है, जब तक उसका भोग समाप्त होकर वह अपने निजी स्थान पर लौट नहीं आती। और तब वह अपना स्वरूप जान लेती है, यह समझ जाती है कि वह यथार्थत: क्या है। तब सारा अज्ञान दूर हो जाता है और उसकी सारी शक्तियाँ प्रकाशित हो जाती हैं। तब वह सिद्ध हो जाती है, पूर्णता प्राप्त कर लेती है, तब उसके लिए स्थूल शरीर की सहायता से कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती – सूक्ष्म शरीर के माध्यम से भी कार्य करने की आवश्यकता नहीं रहती। तब वह स्वयं ज्योति और मुक्त हो जाती है, उसका फिर जन्म या मृत्यु कुछ भी नहीं होता।

अब इस विषय के अन्य ब्यौरों में हम नहीं जाएँगे। पुनर्जन्म के बारे में केवल एक और बात की ओर तुम लोगों का ध्यान आकर्षित कर मैं यह चर्चा समाप्त करूँगा। यह पुनर्जन्मवाद ही एक ऐसा मत है, जो जीवात्मा की स्वाधीनता की घोषणा करता है। यही एक ऐसा मत है, जो हमारी सारी दुर्बलताओं का दोष किसी दूसरे के मत्थे नहीं मढ़ता। अपने निज के दोष दूसरे के मत्थे मढ़ना मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलता है। हम अपने दोष नहीं देखते। आँखें अपने को कभी नहीं देखतीं, पर, वे अन्य सब की आँखें देखा करती हैं। हम मनुष्य अपनी दुर्बलताएँ, अपनी गलतियाँ मानने को राजी नहीं होते । साधारणतः मनुष्य अपने दोषों और भूलों को पड़ोसियों पर लादना चाहता है; यह न जमा, तो उन सब को ईश्वर के मत्थे मढ़ना चाहता है; और इसमें भी यदि सफल न हुआ तो फिर ‘भाग्य’ नामक एक भूत की कल्पना करता है और उसी को उन सब के लिए उत्तरदायी बनाकर निश्चिन्त हो जाता है । पर प्रश्न यह है कि ‘भाग्य’ नामक यह वस्तु है, क्या और रहती कहाँ है? हम तो जो कुछ बोते हैं, बस वही काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं । हमारा भाग्य यदि खोटा हो, तो भी कोई दूसरा दोषी नहीं; और यदि हमारे भाग्य अच्छे हों, तो भी कोई दूसरा प्रशंसा का पात्र नहीं। वायु सर्वदा बह रही है । जिन जिन जहाजों के पाल खुले रहते हैं, वायु उन्हीं का साथ देती है और वे आगे बढ़ जाते हैं । पर जिनके पाल नहीं खुले रहते उन पर वायु नहीं लगती। तो क्या वह वायु का दोष है? हममें कोई सुखी है, तो कोई दुःखी। यह क्या उन करुणामय पिता का दोष है, जिनकी कृपावायु दिन-रात बह रही है, जिनकी दया का अन्त नहीं है? हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं । उनका सूर्य दुर्बल, बलवान सब के लिए उगता है। साधु, पापी सभी के लिए उनकी वायु बह रही है । वे सब के प्रभु है, पिता हैं, दयामय और समदर्शी हैं। क्या तुम सोचते हो कि हम छोटी-छोटी चीजों को जिस दृष्टि से देखते हैं, वे भी उसी दृष्टि से देखते हैं? भगवान् के सम्बन्ध में यह कितनी भ्रष्ट धारणा! कुत्ते के पिल्लों की तरह हम यहाँ पर नाना विषयों के लिए प्राणपण से चेष्टा कर रहे है और मूर्ख की तरह समझते हैं कि भगवान् भी उन विषयों को ठीक उसी तरह सत्य समझकर ग्रहण करेंगे। इन पिल्लों के इस खेल का क्या अर्थ है, भगवान् अच्छी तरह जानते हैं । उन पर सब दोष लाद देना या यह कहना कि वे ही दण्ड-पुरस्कार देने के मालिक हैं, मूर्खता की बातें हैं। वे किसी को न दण्ड देते हैं, न पुरस्कार। प्रत्येक देश में प्रत्येक काल में, प्रत्येक अवस्था में हर एक जीव उनकी अनन्त दया प्राप्त करने का अधिकारी है । उसका किस प्रकार उपयोग किया जाए, यह हम पर निर्भर करता है। मनुष्य, ईश्वर या और किसी पर दोष लादने की चेष्टा न करो। जब तुम कष्ट पाते हो, तो अपने को ही उसके लिए दोषी समझो और जिससे अपना कल्याण हो सके उसी की चेष्टा करो।

पूर्वोक्त समस्या का यही समाधान है। जो लोग अपने दुःखों या कष्टों के लिए दूसरों को दोषी बनाते हैं (और दुःख की बात तो यह है कि ऐसे लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है) वे साधारणतया अभागे और दुर्बल-मस्तिष्क हैं। अपने ही कर्मदोष से वे ऐसी परिस्थिति में आ पड़े हैं, और अब वे दूसरों को इसके लिए दोषी ठहरा रहे हैं । पर इससे उनकी दशा में तनिक भी परिवर्तन नहीं होता – उनका कोई उपकार नहीं होता, वरन् दूसरों पर दोष लादने की चेष्टा करने के कारण वे और भी दुर्बल बन जाते हैं। अतएव अपने दोष के लिए तुम किसी को उत्तरदायी न समझो अपने ही पैरों पर खड़े होने का प्रयत्न करो सब कामों के लिए अपने को ही उत्तरदायी समझो । कहो कि जिन कष्टों को हम अभी झेल रहे हैं, वे हमारे ही किये हुए कर्मों के फल हैं । यदि यह मान लिया जाए, तो यह भी प्रमाणित हो जाता है कि वे फिर हमारे द्वारा नष्ट भी किये जा सकते हैं । जो कुछ हमने पैदा किया है, उसका हम ध्वंस भी कर सकते हैं; जो कुछ दूसरों ने किया है, उसका नाश हमसे कभी नहीं हो सकता। अतएव उठो, साहसी बनी, वीर्यवान् होओ । सब उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर लो – यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है । अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो । ‘मतस्य शोचना नास्ति’ – अब तो सारा भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है । तुम सदैव यह बात स्मरण रखो कि तुम्हारा प्रत्येक विचार प्रत्येक कार्य संचित रहेगा, और यह भी याद रखो कि जिस प्रकार तुम्हारे असत्-विचार और असत्-कार्य शेरों की तरह तुम पर कूद पड़ने की ताक में हैं, उसी प्रकार तुम्हारे सत्-विचार और सत्-कार्य भी हजारों देवताओं की शक्ति लेकर सर्वदा तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार हैं ।

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रचनाएँ
ज्ञान योग
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एक रूप में ज्ञानयोगी व्यक्ति ज्ञान द्वारा ईश्वरप्राप्ति मार्ग में प्रेरित होता है। स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित ज्ञानयोग में मायावाद,मनुष्य का यथार्थ व प्रकृत स्वरूप,माया और मुक्ति,ब्रह्म और जगत, अंतर्जगत, बहिर्जगत, बहुतत्व में एकत्व, ब्रह्म दर्शन,आत्मा का मुक्त स्वभाव आदि नामों से उनके द्वारा दिये भाषणों का संकलन है।
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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

25 अप्रैल 2022
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“मनुष्य का यथार्थ स्वरूप” नामक यह भाषण स्वामी विवेकानंद ने लंदन में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग का प्रथम अध्याय है। इसमें स्वामी जी ने आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण किया है कि किस तर

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मनुष्य का वास्तविक और प्राति भासिक स्वरूप

26 अप्रैल 2022
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हम यहाँ खड़े है, परन्तु हमारी दृष्टि दूर बहुत दूर, और कभी-कभी तो, कोसों दूर चली जाती है। जब से मनुष्य ने विचार करना आरम्भ किया, तभी से वह ऐसा करता आ रहा है। मनुष्य सदैव आगे और दूर देखने का प्रयत्न करता

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माया और भ्रम

26 अप्रैल 2022
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माया शब्द प्रायः तुम सभी ने सुना होगा। इसका व्यवहार साधारणतः भ्रम, भ्रान्ति अथवा इसी प्रकार के अर्थ में किया जाता है, किन्तु यह उसका वास्तविक अर्थ नहीं है। मायावाद उन स्तम्भों में से एक है, जिन पर वेद

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माया और ईश्वर-धारणा का क्रमविकास

26 अप्रैल 2022
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हमने देखा कि अद्वैत वेदान्त का एक आधारभूत सिद्धान्त मायावाद बीज रूप से संहिताओं में भी देखा जाता है, और जिन विचारों का विकास उपनिषदों में हुआ है वे वस्तुतः किसी न किसी रूप में संहिताओं में विद्यमान है

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माया और मुक्ति

26 अप्रैल 2022
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कवि कहता है “हम जगत् में अपने पीछे मानो एक हिरण्मय मेघजाल लेकर प्रवेश करते हैं ।” पर सच पूछो तो हममें से सभी इस प्रकार महिमामण्डित होकर संसार में प्रवेश नहीं करते; हममें से बहुत से तो अपने पीछे कुहरे

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ब्रह्म एवं जगत

26 अप्रैल 2022
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अद्वैत वेदान्त की इस एक बात की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त है, वह सान्त अथवा ससीम किस प्रकार हुआ। यह प्रश्न मनुष्य सर्वदा करता रहेगा, पर जीवन भर इस प्रश्न पर विचार करते रहने पर भी उस

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विश्व बृहत ब्रह्मांड

26 अप्रैल 2022
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सर्वत्र विद्यमान फूल सुन्दर है, प्रभात के सूर्य का उदय सुन्दर है, प्रकृति के विविध रंग और वर्णावली सुन्दर है। समस्त जगत् सुन्दर है और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है, तभी से इस सौन्दर्य का उपभोग कर रहा

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विश्व सूक्ष्म ब्रह्माण्ड

26 अप्रैल 2022
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स्वभाव से ही मनुष्य का मन बाहर की ओर प्रवृत्त होता है, मानो वह इन्द्रियों के द्वारा शरीर के बाहर झाँकना चाहता हो। आँखें अवश्य देखेंगी, कान अवश्य सुनेंगे, इन्द्रियाँ अवश्य बाहरी जगत् को प्रत्यक्ष करेंग

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अमरत्व

26 अप्रैल 2022
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जीवात्मा के अमरत्व के प्रश्न के सिवा अन्य कौन-सा प्रश्न अधिक बार पूछा गया है, अन्य किस तत्त्व के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए मनुष्य ने सारे जगत् की इतनी अधिक खोज की है, अन्य कौन-सा प्रश्न मानव-हृदय क

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बहुत्व में एकत्व

26 अप्रैल 2022
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स्वयम्भू ने इन्द्रियों को बहिर्मुख होने का विधान बनाया है, इसीलिए मनुष्य सामने की ओर (विषयों की ओर) देखता है, अन्तरात्मा को नहीं देखता। अमृतत्व-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले किसी किसी ज्ञानी ने विषयों से

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सभी वस्तुओं में ब्रह्मदर्शन

26 अप्रैल 2022
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हमने देखा कि हम अपने दुःखों को दूर करने की कितनी ही चेष्टा क्यों न करें, परन्तु फिर भी हमारे जीवन का अधिकांश भाग अवश्यमेव दुःखपूर्ण रहेगा। और यह दुःखराशि वास्तव में हमारे लिए एक प्रकार से अनन्त है। हम

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अपरोक्षानुभूति

26 अप्रैल 2022
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मैं तुम लोगों को एक दूसरी उपनिषद् से कुछ अंश पढ़कर सुनाऊंगा! यह अत्यन्त सरल एवं अतिशय कवित्वपूर्ण है । इसका नाम है कठोपनिषद! सर एडविन अर्नाल्ड कृत इसका अनुवादक1 शायद तुममें से कुछ ने पड़ा होगा। हम लोगों

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आत्मा का मुक्त स्वभाव

26 अप्रैल 2022
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हम जिस कठोपनिषद् की चर्चा कर रहे थे, वह छान्दोग्योपनिषद् के, जिसकी हम अब चर्चा करेंगे बहुत समय बाद रचा गया था। कठोपनिषद् की भाषा अपेक्षाकृत आधुनिक है, उसकी चिन्तन-शैली भी सब से अधिक प्रणालीबद्ध है। प्

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धर्म की आवश्यकता

26 अप्रैल 2022
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मानव-जाति के भाग-निर्माण में जितनी शक्तियों ने योगदान दिया है और दे रही हैं उन सब में धर्म के रूप में प्रगट होनेवाली शक्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण कोई नहीं है। सभी सामाजिक संगठनों के मूल में कहीं न कहीं

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आत्मा

26 अप्रैल 2022
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तुममें से बहुतों ने मैक्समूलर की सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘वेदान्त दर्शन पर तीन व्याख्यान’को पड़ा होगा और शायद कुछ लोगों ने इसी विषय पर प्रोफेसर डॉयसन की जर्मन भाषा में लिखित पुस्तक पढ़ी हो। ऐसा लगता है कि पश्

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आत्मा उसके बंधन तथा मुक्ति

26 अप्रैल 2022
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अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्मेतर समस्त वस्तुएँ मिथ्या है, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनःप्राप्ति ही

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सन्यासी का गीत

26 अप्रैल 2022
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(1) छेड़ो संन्यासी, छेड़ते छेड़ो वह तान मनोहर, गाओ वह गान, जगा जो अत्युच्च हिमाद्रि-शिखर पर  सुगभीर अरण्य जहाँ है, पार्वत्य प्रदेश जहाँ हैं भव-पाप-ताप ज्वालामय करते न प्रवेश जहाँ है  जो संगीत-ध्वनि-

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