शुक्रवार का दिन था अर्थात राधा के साप्ताहिक व्रत का दिन I दिन भर के थके-मांदे पति शिवनारायण साइकिल खड़ी करके जैसे ही घर में घुसे, पत्नी राधा बरस पड़ी, “अब आ रहे हो, कहा था ज़रा जल्दी आने को, तो आज रोज़ से भी देर में आए हो, अब मैं मन्दिर कैसे जाऊँगी I बाबूजी को समय से खाना नहीं मिलेगा तो वे अलग हल्ला मचाएँगे I” शिवनारायण बोले, “घुसने तो दो घर में, तुम तो पहले से ही शुरू हो जाती हो I बाबूजी तो बाद में हल्ला मचाएँगे, तुम तो अभी से मचा रही हो I”
“हाँ-हाँ, सारा दोष मेरा ही तो है I”
“दोष की बात नहीं, कभी-कभी किसी की मजबूरी के तरफ भी ध्यान देना चाहिए I आखिर नौकरी करता हूँ, बेगार तो नहीं I ज़रूरी काम आ गया तो साहब ने रोक लिया I”
“तुम्हें तो अपने दफ़्तर की ही चिंता है, घर का कोई ख्याल नहीं I”
“अब बस भी करो, चलो मन्दिर चलना है तो चलो I”
“अब क्या जाउंगी इतनी देर में I”
“जैसी तुम्हारी मर्ज़ी I वैसे तो मैं अपने दफ़्तर को और तुम अपने घर को मन्दिर मान लें तो क्या हर्ज़ है I आखिर कार्य भी तो पूजा ही है I”
“अब तुम बन्द करो अपना लेक्चर, दफ़्तर में काम करने के बजाय बच्चों को पढ़ाते तो ज़्यादा अच्छा था I”
“हाँ, इच्छा तो मेरी भी यही थी, लेकिन क़िस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था I”
शिवनारायण कपड़े बदलने लगे I “घर का कोई ख्याल नहीं”...राधा के ये शब्द उन्हें तीर के तरह चुभ रहे थे I चुभते भी क्यों नहीं I सुबह-शाम, सोते-जागते वह परिवार के अलावा सोचते ही क्या थे I दफ़्तर में भी लगन से इसीलिए तो काम करते थे कि परिवार का पालन पोषण सुचारू रूप से हो सके I कमरतोड़ मंहगाई में महीने भर की तनख्वाह चौबीस घंटे में समाप्त हो जाती फिर किस तरह से महीना खिंचता था, यह तो वे ही जानते थे I बी.ए. पास करने के बाद पुत्र मोहन वर्षों से बेकार बैठा था, उसके भविष्य की चिंता तो थी ही, साथ में अब यह चिंता सताने लगी कि वो दिन भर कहाँ रहता है और क्या करता है I दो बेटियों की उम्र भी अब ब्याहने लायक हो गयी थी फिर भी बाबूगीरी में मुश्किल से घर का खर्च ही चल पाता था I
राधा भी अपनी गृहस्थी की गाड़ी शिवनारायण के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खींच रही थी I अपनी ओर से परिवार की भलाई के लिए वह भी पूर्णतः समर्पित थी, परन्तु आज की बात और थी I आज उसका व्रत था जिसे उसने परिवार के कल्याण के लिए रखा था I उधर शिव्नायाँ को याद आता है कि उनकी माँ भी व्रत बहुत रखती थी, परन्तु किसी को पता भी नहीं चलता था I उनका व्रत कब शुरू हुआ और कब समाप्त हो गया, व्रत के रोज़ भी उनकी दिनचर्या वैसी ही चलती रहती थी, बल्कि सामान्य रोज़ से भी अधिक शांत भाव से I उस नारी और आज की नारी के समर्पण की उनके मन में अनायास ही तुलना हुई I उन्होंने ठंढी आह भरी I उनके मन में विचार आया कि आज की नारी अपने अधिकार के लिये तो बहुत आगे आ रही है परन्तु अपने कर्तव्य, श्रम विभाजन और पारिवारिक तालमेल से विमुख होती जा रही है I तभी तो पहले की नारी पूज्य होती थी जो देश और समाज को अनगिनत सपूत भेंट करती थी, जो आजकल ढूंढें से भी नहीं मिलती I
-डॉ. अरविन्द अरोड़ा ‘मुक्त’
अध्यक्ष: कानपुर इतिहास समिति