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कुँवर नारायण के बारे में

समकालीन कविता के समादृत कवि कुँवर नारायण का जन्म 19 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद जनपद के अयोध्या में एक संपन्न परिवार में हुआ। उनके परिवार के निकट संपर्क में रहे आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी और राम मनोहर लोहिया जैसे व्यक्तियों के प्रभाव में वह गंभीर अध्ययन और स्वतंत्र चिंतन की ओर प्रेरित हुए। वर्ष 1951 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और इसी दौरान लखनऊ लेखक संघ की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की। रघुवीर सहाय उनके सहपाठी थे। रघुवीर सहाय ने उन्हें अज्ञेय की कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ से परिचित कराया। अज्ञेय की कविताएँ पढ़कर वह हिंदी में कवि कर्म की ओर अग्रसर हुए। 1955 में वह पोलैंड, चेकस्लोवाकिया, रूस, चीन आदि देशों की यात्रा पर गए और इस दौरान वॉर्सा में नाज़िम हिकमत, एंटन स्वानिम्स्की, पाब्लो नेरूदा आदि कवियों से मिलने का विशिष्ट अनुभव पाया। बाद में भी उन्होंने दुनिया के विभिन्न भागों की साहित्यिक यात्राएँ की और हिंदी और विश्व साहित्य के बीच संपर्क सेतु के निर्माण में विशिष्ट भूमिका निभाई। 1956 में उनका पहला कविता-संग्रह ‘चक्रव्यूह’ प्रकाशित हुआ, जबकि 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल किए गए। हिंदी कविता में कुँवर नारायण की उपस्थिति एक विलक्षण प्रतिभा के कवि के रूप में रही है। उनका कविता-कर्म अन्य कवियों से अलग और विशिष्ट है। मुक्तिबोध ने अपने समीक्षा लेख में उन्हें ‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना का कवि’ कहा था। उनकी कविताओं में परंपरा, मानवीय आशा-निराशा और सुख-दुख का प्रवेश किसी प्रसंग की तरह नहीं आधुनिक जीवन यथार्थ की तरह होता है। उनका व्यक्तित्व भी साहित्यिक बिरादरी में आकर्षण का केंद्र रहा है। एक बार उनसे पूछा गया कि कवि होते हुए वे मोटरकार

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कुँवर नारायण की पुस्तकें

 आत्मजयी

आत्मजयी

आत्मजयी' में मृत्यु सम्बंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता ह

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 आत्मजयी

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आत्मजयी' में मृत्यु सम्बंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा। इसमें नचिकेता अपने पिता की आज्ञा, 'मृत्य वे त्वा ददामीति' अर्थात मैं तुम्हें मृत्यु को देता हूँ, को शिरोधार्य करके यम के द्वार पर चला जाता ह

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रुख

रुख

वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण घनी भूत जीवन-विवेक सम्पन्न रचनाकार हैं। इस विवेक की आँख से वे कृतियों, व्यक्तियों, प्रवृत्तियों व निष्पत्तियों में कुछ ऐसा देख लेते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। समय-समय पर उनके द्वारा लिखे गए लेख आदि इसका प्रमाण हैं। ‘रुख’ कुँवर

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रुख

रुख

वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण घनी भूत जीवन-विवेक सम्पन्न रचनाकार हैं। इस विवेक की आँख से वे कृतियों, व्यक्तियों, प्रवृत्तियों व निष्पत्तियों में कुछ ऐसा देख लेते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ है। समय-समय पर उनके द्वारा लिखे गए लेख आदि इसका प्रमाण हैं। ‘रुख’ कुँवर

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 प्रतिनिधि कवितायेँ

प्रतिनिधि कवितायेँ

शुरू से लेकर अब तक की कविताएँ सिलसिलेवार पढ़ी जाएँ तो कुँवर नारायण की भाषा में बदलते मिज़ाज को लक्ष्य किया जा सकता है। आरम्भिक कविताओं पर नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की स्वाभाविक छाप स्पष्ट है। इस छाप के बावजूद छटपटाहट है—कविता के वाक्य-विन्यास को आ

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शुरू से लेकर अब तक की कविताएँ सिलसिलेवार पढ़ी जाएँ तो कुँवर नारायण की भाषा में बदलते मिज़ाज को लक्ष्य किया जा सकता है। आरम्भिक कविताओं पर नई कविता के दौर की काव्य-भाषा की स्वाभाविक छाप स्पष्ट है। इस छाप के बावजूद छटपटाहट है—कविता के वाक्य-विन्यास को आ

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कुँवर नारायण के लेख

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