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मैत्रेयी पुष्पा के बारे में

मैत्रेयी पुष्पा एक हिंदी कथा लेखक हैं। हिंदी की एक प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के नाम दस उपन्यास और सात लघु कहानी संग्रह हैं, वह महिलाओं से संबंधित समसामयिक मुद्दों पर समाचार पत्रों के लिए भी खूब लिखती हैं, और अपने लेखन में एक प्रश्नात्मक, साहसी और चुनौतीपूर्ण रुख अपनाती हैं। वह एक लेखक के रूप में अपनी चक, अल्मा कबूतरी, झूला नट और एक आत्मकथात्मक उपन्यास कस्तूरी कुंडल बेस के लिए जानी जाती हैं। मैत्रेयी पुष्पा का जन्म 30 नवंबर, 1944 को अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गांव में हुआ था। उन्होंने अपना बचपन और शुरुआती साल झांसी के पास बुंदेलखंड के एक और गांव खिली में बिताया। इस प्रकार, उन्हें बुंदेली और बृज की संस्कृतियों और भाषाओं दोनों की जीवन शक्ति विरासत में मिली, जिस पर उनकी गहरी पकड़ है। उन्होंने बुंदेलखंड कॉलेज, झांसी से हिंदी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया। चूँकि वे हिंदी की एकमात्र महिला लेखिका हैं, जिन्होंने ग्रामीण भारत के बारे में लिखना चुना है, उनका लेखन सामंती व्यवस्था के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष है जो अभी भी भारतीय गाँवों में व्याप्त है। उनके नायक हमेशा नारी की गरिमा को बनाए रखने वाली निडर महिलाएं हैं, जो पुरुष वर्चस्व को झेलती हैं और उसका विरोध करती हैं। हिंदी की कोई अन्य महिला लेखिका मैत्रेयी से बेहतर ग्रामीण राजनीति और वास्तविकता को नहीं समझती और उसका चित्रण करती है। वह बोल्ड और स्पष्टवादी है। वह अपनी शक्तिशाली मुहावरेदार भाषा और बेहिचक इलाज के लिए जानी जाती हैं। जैसा कि प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव कहते हैं, मैत्रेयी पुष्पा ने शहरों के बंद और घुटन भरे वातावरण से हिंदी साहित्य को गांवों और खेतों के खुले स्थानों में इस तरह से जारी किया है, जैसा पहले किसी हिंदी लेखक ने नहीं किया है। उन्होंने हमारे किताबी शीर्षक और भाषा दोनों को नई परिभाषाएं दी हैं। आजादी के बाद रंगे राघ

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मैत्रेयी पुष्पा की पुस्तकें

बेतवा बहती रही

बेतवा बहती रही

एक बेतवा ! एक मीरा ! एक उर्वशी ! नही-नहीं, यह अनेक उर्वशियों, अनेक मीराओं, अनेक बेतवाओं की कहानी है। बेतवा के किनारे जंगल की तरह उगी मैली बस्तियों। भाग्य पर भरोसा रखने वाले दीन-हीन किसान। शोषण के सतत प्रवाह में डूबा समाज। एक अनोखा समाज, अनेक प्

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बेतवा बहती रही

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एक बेतवा ! एक मीरा ! एक उर्वशी ! नही-नहीं, यह अनेक उर्वशियों, अनेक मीराओं, अनेक बेतवाओं की कहानी है। बेतवा के किनारे जंगल की तरह उगी मैली बस्तियों। भाग्य पर भरोसा रखने वाले दीन-हीन किसान। शोषण के सतत प्रवाह में डूबा समाज। एक अनोखा समाज, अनेक प्

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झूला नट

झूला नट

गाँव की साधारण–सी औरत है शीलो—न बहुत सुन्दर और न बहुत सुघड़...लगभग अनपढ़—न उसने मनोविज्ञान पढ़ा है, न समाजशास्त्र जानती है। राजनीति और स्त्री–विमर्श की भाषा का भी उसे पता नहीं है। पति उसकी छाया से भागता है। मगर तिरस्कार, अपमान और उपेक्षा की यह मार न शील

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झूला नट

झूला नट

गाँव की साधारण–सी औरत है शीलो—न बहुत सुन्दर और न बहुत सुघड़...लगभग अनपढ़—न उसने मनोविज्ञान पढ़ा है, न समाजशास्त्र जानती है। राजनीति और स्त्री–विमर्श की भाषा का भी उसे पता नहीं है। पति उसकी छाया से भागता है। मगर तिरस्कार, अपमान और उपेक्षा की यह मार न शील

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कस्तूरी कुंडल बसै

कस्तूरी कुंडल बसै

हर आत्मकथा एक उपन्यास है और हर उपन्यास एक आत्मकथा। दोनों के बीच सामान्य सूत्र ‘फिक्शन’ है। इसी का सहारा लेकर दोनों अपने को अपने आप की कैद से निकलकर दूसरे के रूप में सामने खड़ा कर लेते हैं। यानी दोनों ही कहीं-न-कहीं सर्जनात्मक कथा-गढ़न्त हैं। इधर उपन्या

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कस्तूरी कुंडल बसै

कस्तूरी कुंडल बसै

हर आत्मकथा एक उपन्यास है और हर उपन्यास एक आत्मकथा। दोनों के बीच सामान्य सूत्र ‘फिक्शन’ है। इसी का सहारा लेकर दोनों अपने को अपने आप की कैद से निकलकर दूसरे के रूप में सामने खड़ा कर लेते हैं। यानी दोनों ही कहीं-न-कहीं सर्जनात्मक कथा-गढ़न्त हैं। इधर उपन्या

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 नमस्ते समथर

नमस्ते समथर

कुन्तल ने चाहा था कि एक साहित्यिक संस्था के ज़िम्मेदार पद पर आई है तो साहित्य को समाज की मशाल बनाने का उद्योग करेगी। कुछ ऐसा करेगी कि उस मँझोले शहर का कोना-कोना साहित्य के स्पर्श से स्पन्दित हो उठे। युवा प्रतिभाओं को वह आकाश मिले जो उनका हक़ है, और म

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 नमस्ते समथर

नमस्ते समथर

कुन्तल ने चाहा था कि एक साहित्यिक संस्था के ज़िम्मेदार पद पर आई है तो साहित्य को समाज की मशाल बनाने का उद्योग करेगी। कुछ ऐसा करेगी कि उस मँझोले शहर का कोना-कोना साहित्य के स्पर्श से स्पन्दित हो उठे। युवा प्रतिभाओं को वह आकाश मिले जो उनका हक़ है, और म

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गुड़िया भीतर गुड़िया

गुड़िया भीतर गुड़िया

तो यह है मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग। ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ के बाद ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’। आत्मकथाएँ प्रायः बेईमानी की अभ्यास-पुस्तिकाएँ लगती हैं क्योंकि कभी सच कहने की हिम्मत नहीं होती तो कभी सच सुनने की। अक्सर लिहाज़ में कुछ बातें छोड़ दी जात

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गुड़िया भीतर गुड़िया

गुड़िया भीतर गुड़िया

तो यह है मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग। ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ के बाद ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’। आत्मकथाएँ प्रायः बेईमानी की अभ्यास-पुस्तिकाएँ लगती हैं क्योंकि कभी सच कहने की हिम्मत नहीं होती तो कभी सच सुनने की। अक्सर लिहाज़ में कुछ बातें छोड़ दी जात

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अल्मा कबूतरी

अल्मा कबूतरी

मंसाराम कज्जा है और कदमबाई कबूतरी। नाजायज़ सन्‍तान है राणा—न कबूतरा न कज्जा। दोनों के बीच भटकता त्रिशंकु—संवेदनशील और स्वप्नदर्शी किशोर। अल्मा और राणा के बीच पनपते रागात्मक संबंधों की यह कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि राणा कल्पनालोक में रहता है और अ

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अल्मा कबूतरी

अल्मा कबूतरी

मंसाराम कज्जा है और कदमबाई कबूतरी। नाजायज़ सन्‍तान है राणा—न कबूतरा न कज्जा। दोनों के बीच भटकता त्रिशंकु—संवेदनशील और स्वप्नदर्शी किशोर। अल्मा और राणा के बीच पनपते रागात्मक संबंधों की यह कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि राणा कल्पनालोक में रहता है और अ

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इदन्नमम

इदन्नमम

हिंदी कथा-रचनाओं की सुसंस्कृत सटीक और बेरंगी भाषा के बीच गाँव की इस कहानी को मैत्रेयी ने लोक-कथाओं के स्वाभाविक ढंग से लिख दिया है

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हिंदी कथा-रचनाओं की सुसंस्कृत सटीक और बेरंगी भाषा के बीच गाँव की इस कहानी को मैत्रेयी ने लोक-कथाओं के स्वाभाविक ढंग से लिख दिया है

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चाक

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‘चाक’ सामन्ती समाज के भीतर व्याप्त हिंसा और स्वार्थों की टकराहट की प्रामाणिक कहानी है। इस समाज का ताना-बाना हिंसा और सेक्स से बना है। मैत्रेयी इन दोनों को ही एक कथाकार की निगाह से पात्रों के आचार-विचार और सोच के रूप में प्रभावशाली ढंग से पकड़ती हैं।

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चाक

‘चाक’ सामन्ती समाज के भीतर व्याप्त हिंसा और स्वार्थों की टकराहट की प्रामाणिक कहानी है। इस समाज का ताना-बाना हिंसा और सेक्स से बना है। मैत्रेयी इन दोनों को ही एक कथाकार की निगाह से पात्रों के आचार-विचार और सोच के रूप में प्रभावशाली ढंग से पकड़ती हैं।

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फ़रिश्ते निकले

फ़रिश्ते निकले

हाशिये का यथार्थ और संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है। इसे जानने-पहचानने और शब्द देने के लिए सरोकार-सम्पन्न रचनाशीलता की ज़रूरत होती है। कहना न होगा कि मैत्रेयी पुष्पा ऐसी रचनाशीलता का पर्याय बन चुकी हैं। अपने कथा-साहित्य और विमर्श आदि के द्वारा उन्होंने

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फ़रिश्ते निकले

फ़रिश्ते निकले

हाशिये का यथार्थ और संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है। इसे जानने-पहचानने और शब्द देने के लिए सरोकार-सम्पन्न रचनाशीलता की ज़रूरत होती है। कहना न होगा कि मैत्रेयी पुष्पा ऐसी रचनाशीलता का पर्याय बन चुकी हैं। अपने कथा-साहित्य और विमर्श आदि के द्वारा उन्होंने

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