"यादें बचपन की "
इस पीले भूरे रंग की वस्तु को देख रहे हैं ना उसे शायद बहुत से लोग पहचान भी रहे होंगे। नई पीढ़ी और शहरों के लोग शायद ना भी पहचान रहे होंगे। तो आइए बताते हैं इसके बारे में।
यह हमारी इको फ्रेंडली चौकी, बैठकी, स्कूल या सीट आप जो भी कह लें, वही हुआ करती थी।
इसे हमारे यहाँ बीड़ा या बिड़वा कहते हैं।
इसी अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर के महीने में धान की फसल कटने के बाद उसका जो डाँठ या अवशेष बच जाता है, जिसे हमारे यहाँ पैरा, पुयरा या पुआल कहते हैं; उसी को आपस में गूँथ-गूँथ कर मोटी-मोटी लंबी-लंबी रस्सियाँ सी बना ली जातीं और उन्हीं को गोल घेरे में बनाकर बाँध दिया जाता था। लीजिए हो गई देसी चौकी तैयार।
इस पर हम लोग बैठने के काम में लाया करते हैं/थे। इस पर बैठकर तपता, कौड़ा और बोरसी तापते। तपता / कौड़ा के चारों तरफ गोल घेरे में इसी पर बैठा जाता। कई बार कोई बैठने वाला होता तो शरारत में इसे पीछे से खींच लिया जाता, बैठने वाला अपने दोनों पैर आगे को उठाये पीछे लुढ़क जाता।
इस पर बैठकर खाना खाते और ज़मीन पर बैठ कर किए जाने वाले अन्य दैनिक कामों में यह प्रयोग में लाया जाता। एक बार बन गया तो चार-पाँच साल तक चल जाता था।
तब हमारे जीवन में प्लास्टिक का इतना दखल नहीं हुआ करता था, जो भी होता था वह अपने पर्यावरण से मिलता था और उसी में विलीन हो जाता था। ज्यादातर दैनिक उपभोग की चीजें बायोडिग्रेडेबल हुआ करती थीं।
अब इसे बहुत कम लोग बना पाते होंगे और बहुत ही कम लोग प्रयोग में भी लाते होंगे। बनाएँगे भी कैसे, अब तो धान की फसल मशीन से कटने लगी। धान पीटने की ज़रूरत ही नहीं। बचे हुए डाँठ / अवशेष जला दिए जाते हैं। कुछ बनाने वाले लोग हैं भी तो पैरा, पुयरा या पुआल नहीं मिलता।