26 अगस्त 2018
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पगडंडियो के धूल बन उड़ते रहे , छोड़ सड़क महलों की !! धन्यवाद 🙏D
व्यथित हूँ देखकर ,मां बहनों पर ,होते अत्याचारों को ,ताल ठोकते आपस में ही ,सहोदर भाई के हाथों को ,बलात्कार करते ,आस्था के रखवालों को ,आस्था के नाम पर ,अंधे होते भक्त गण के आंखों को ,व्यथित हूँ देखकर ,पुरूषार्थ के शोषण ,करते हाथों को ,नैतिकता के खोजते ,अपने पराये के भेदों को ,खादी पहन निलाम ,करते माँ
हे भगवान हे भगवान ,मन पे मेरे ,माया का साया ,तन मेरा ,स्थूल प्रकृति समान ,पहुंचे तो पहुंचे ,कैसे तेरे दर पे ,कुछ मार्ग दो ,मुझको सुझाव ,हे भगवान हे भगवान ,भटक रहा हुँ ,मंदिर मस्जिद ,अनेकों कृत्रिम धर्म स्थान ,भावनाओं के सागर में ,गोते खा खा कर ,अब तो मैं डुब रहा हूँ ,हे भगवान , हे भगवान ,समझ पाऊं ,म
मेरा अपना क्या है ,सबकुछ तेरा दिया ,तम रज और चाहे ,सत हो पिया ,हम तो मुर्ख अज्ञानी है सब ,जो रूप सम्पदा पर मिटते यहां ,क्रोध भी तेरा ,प्रेम भी तेरा ,तम रज और सत से बना ,ऐ शरीर भी तेरा ,फिर मैं मैं का कैसा झमेला ,चलो इस झमेले को ,अब खत्म भी करें ,नहीं बर्दाश्त होती तेरी दूरी पिया ,कुछ हम बढ़े ,कुछ तु
नास्तिक हो कर भी ,उसने अपने कर्म से ,आस्तिक होने का प्रमाण दिया ,बना के वापु चाचा ,गांधी नेहरू को ,आस्तिक होकर भी ,तुम सबने अपने कर्म से ,सिर्फ अकर्मण्यता का प्रमाण दिया ।🤔😔धन्यवाद 🙏जय हिंद 🇮🇳 ______संजय निराला ✍#भगतसिंह
पहले भी थी अब भी यही जारी है ,कहीं सितमगर ,तो कहीं हवस के पुजारी है ,पट चुकी सरहदें लाशों से ,घर में शत्रुता जारी है ,कभी हिन्दू कभी मुस्लिम ,कभी दलित सबर्ण की बारी है ,किसको पड़ी मानवता की ,सबको तो सिर्फ ,सर्वार्थ की बिमारी है ,करें उपचार कौन इसका ,ये तो सबके खून में ,फैली महामारी है ,लगा के तिलक म
ऐ तपिश से ,इतना उद्वेग कैसा ,जब मौत ही कड़वा सत्य जीवन का ,हिन्दू नहीं कोई उफनती नदियां ,ऐ तो स्थितप्रज्ञ समुद्र जैसा ,क्या अब ऐ बिचलित हो गये ,जयचंदो की गद्दारी से ,या ग्रसित हो गये ,सिर्फ अपनी स्वार्थी महत्वकाक्षां के बिमारी से ,क्योंकि आज जब फिर ,धर्म स्थापना की बारी आई ,अभिमन्यु तो बहुत दिखे ,प
सज रही है अलंकारे ,अलंकृत कृतिमानो की ,अभी तो सब्र कर लें बंदे ,गर्जना बाकी है हुंकारों की ,जाति पाती की बहुत हुई ,राजनीति दलित सवर्ण की ,२०१९ में तो , रण सजने वाली है ,एक तरफ मोदी ,और ,एक तरफ सारे भ्रष्टाचारियों की ,सज रही है अलंकारे ,अलंकृत कृतिमानों की ।🤔धन्यवाद 🙏 _______संजय निरा
एक दुखियारी ऐसी भी इस दुनिया में,जिसके पुत्र अनेकानेक इस धरा पे,फिर भी चिरहरण उसका होता रहा ,बारम्बार इस जहां में,कुछ पुत्रों ने आवाज उठाई,कर न्योछावर जान ,इस दुखियारी की हौसला बढ़ाई,कुछ ने अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति की झलक दिखाई,दमन कर उन आवाजों को ,सिर्फ सत्ता हस्तांतरण की रीति निभाई,भाई बात ये मुझको
हर मोती की यही अभिलाषा ,गुथ जाऊं माला में ,चाहे घट कैसा भी हो मेरा ,काश कुछ अस्तित्व बन जाऊ ,गुथ के धागे में माला कहलाऊं ,फूलो की अभिलाषा भी ,देखो कितनी बड़ी यारों ,भले जीवन गुजरा कांटों संग ,पर किसी भी तरह ,चढ़ के ईश्वर के चरणों में ,अपना जीवन सफल कर जाऊं ,बीज भी चाहे वृक्ष बनना ,जूझ मौसम के थपेड़ो
बोलना पड़े अगर झूठ ही ,खिंच मत कदम ,एक मिशाल बन जाना ,खा कर कसम ,सिर्फ विचार कर जाना ,चाहे बच्चे की कसम ,सच्चे की कसम ,झूठ के लच्छेदार ,बातों की कसम ,हर एक अच्छे की कसम ,चाहे कसमों की कसम ,अच्छा मानो तो खा लो ,गीता , कुरान , बच्चे की मुस्कान,तितली के रंग ,कोयल की बोली,बर्फ की गोली ,तोतली बोली ,मां
बहुत मनाएं फर्स्ट जनवरी ,कांट कर निरपराध जानवरों से ,लाखों गैलन शराबों से ,मचा के नंगा नाच के शोर शराबों से ,ना ही ऋतुओं ने मिआज बदला था ,ना ही नक्षत्रों में बदलाव हुआ था ,सब लोग थे सहमे सहमे ,ठंड से सबका बुरा हाल हुआ था ,वो देखो ,वातावरण में एक नया उल्लास जगा ,पेड़ पौधे लद गए फुलों से ,हर तरफ कली म
उठो धरा के वीर सपूतों ,अब धरा पुकार रही है ,कायरता की नंगा नाच करते ,भेड़ियों की टोली ललकार रही हैं ,कहीं मजहबों का जाल सजा ,कहीं जातिवादी भेदभाव फैला ,बस तुमको सिर्फ तुमसे उलझा रही हैं ,उठो धरा के वीर सपूतों ,अब धरा पुकार रही है ,सरहदों पर गिरते धर ,अपनी बलिदानी गाथा गा रही है ,पार्लियामेंट में बैठ
माना की ,झुकना एक कला है ,लेकिन ,बेवजह झुकना ही तो बला है ,खोकर रह जाती ,अस्तित्व झुकने वालों की ,कर जाती ,सिर्फ अहम का निर्माण सामने वालों की ,झुको उतना ही ,जितना सही हो प्यारो ,बच जाए अस्तित्व तुम्हारी ,ना जड़ जमाये अहम की बिमारी ,ऐसे ही अभिव्यक्ति ने तो ,बहुत कमाल दिखाया है ,सिर्फ गाली दे दूसरों
घुटती है सांसें ,अब देखकर हर तरफ ,हो रही नैतिकता का हनन ,सिर्फ स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षाओं के मद में ,हम बात क्या करें गुनाहगारों की ,जब कन्या पूजते हाथ ही ,अस्मत लुटे बालिकाओं की ,कोई ब्राह्मण बन गया ,कोई क्षत्रीय बन गया ,कोई वैश्य बन गया ,लेकिन कर्म उनके ही ,खोद डाले कब्र उनकी महानता की ,हम बात क
एक करूण पुकार मुझको झकझोर गया,,क्या मिलेगा मुझको न्याय सुनकर मैं चौंक गया,,पुछा जब मुड़कर क्या हुआ,,झरझर आंखों से गिरते झरने,,मेरे मन मस्तिष्क को रौंद गया,,जहां हर तरफ फैला हो अन्याय का साम्राज्य,,वहां मेरे सपनों की सिसकियों को सुने कौन,,जहां हर तरफ मौजूद हो सर्वार्थ की महत्वकाक्षां,,वहां सम्मान को
बात न करों कायरता की ,तुम हाथों में तलवार धरों ,ऐ धरा कराह रही ,तुम बलिदानों की बात करों ,जाति पंथ संप्रदाय और मजहबों में ,फिर बंटने की ना चूक करों ,खंड खंड में बंटे भारत को ,फिर बांटने की ना भूल करों ,हाथ बढ़ाओ म्यानों तक ,खींच तलवार हुंकार भरो ,उठे आवाज जब खिलाफ में ,इस धरा के जिन शीशों से ,उनपर त
ज्यादा ही तो ,जहर है ,चाहे प्रेम हो ,या क्रोध ,ये तो ,तभी हो अमृत ,जब हो ,उचित मात्रा में ,प्रयोग ,बनो नहीं शुतुरमुर्ग ,देख लो ,अपने आस पास ही ,करेले का अस्तित्व बताता ,मिठे हो नष्ट हो जाता ,काटे जाते वो ही ,पेड़ पौधे ,जो सीधे तन खड़ा होता !🤔धन्यवाद 🙏जय हिन्द 🇮🇳वंदे मातरम्धन्यवाद 🙏 _
मनवा रे ,मनवा रे ,काहे भटकाए ,काहे करें तूं खड़ा बखेड़ा ,ऐ जग तो है ,रैन बसेरा ,काहे तू चाहे ,पक्का घरौंदा ,ना कोई तेरा ,ना कोई मेरा ,कर ले सफर ,चल चल तू अकेला ,मनवा रे ,मनवा रे ,काहे भटकाए ,काहे उलझाएं ,काहे करें तू ,खड़ा बखेड़ा ,मोह की गठरी ,छोभ की गगरि ,पाल करें ,काहे करें झमेला ,मनवा रे ,मनवा रे
दोस्तों नमस्कार मैं एक सत्य घटना आप सबसे साथ शेयर कर रहा हूं आप भी विचार करो कि समाज हम और आप जैसे बहुत लोगों का झुंड ही तो है एक लड़की जिसकी शादी १९८७मे परासी चकलाल पोस्ट रोपन छपरा थाना लार तहसील सलेमपुर जिला देवरिया के अन्तर्गत हुआ है जो १९९० में विधवा हो गई तबसे आज तक अपने हक मान सम्मान के लिए स
कैसे भूल जाये ,हम उस इतिहास को ,जिसको तुमने रच बसाया ,अपने स्वार्थ में ,विचार कैद थे ,आवाज कैद थी ,आवाम कैद थी ,सुर ताल की तान कैद थी ,सिंहासन की मोह में ,तिरंगा और संविधान कैद थी ,जब भी तुमने चाहा ,अपने परिवारवाद में ,जनता की लाशों की , ढ़ेर लगा अपनी प्यास बुझा ली ,कैसे भूल जाय ,हम उस कलंक को ,जो
समस्याएं घर कर गई है ,निराकरण के रास्ते नहीं ,क्योंकि हमारा मानस ही ,बन चुका है समस्या यही ,ना उम्मीदी घर कर गई ,लगता हो जैसे ,सबसे खराब दौर से गुजर रही ,अगर पन्ने पलट लोगे इतिहास के जनाब ,हो जाओगे शर्म से पानी-पानी ,अपने सोच पे यार ,धिक्कार उठेगा स्वाभिमान तुम्हारा ,इससे ज्यादा परेशानियों का दौर ,द
सर्द रातों का कहर ,अन्जाने डगर का सफर ,कोई साथ दे ना दे ,थमता कहां ,जिंदगी का सफर ,सब तो शुतुरमुर्ग ही यहां ,किसको पता ,मंजिलें क्या ?रास्ता क्या ?लेकिन सत्य तो ,यही है ,अगर हो हौसला तो ,फासला क्या ?धन्यवाद 🙏 _____संजय निराला ✍
ऐ समाज नहीं महाभारत है,,ऐ जीवन नहीं कुरूक्षेत्र है,,तुम इसके धनुर्धारी हो,,मत चुको ऐ मेरे बंधु,,मत बिको सिर्फ नाम पे देकर दुहाई,,कभी ब्राह्मण , कभी क्षत्रिय ,,कभी वैश्य , कभी शुद्र के जाति पे,,दिखते ऐसे बहुत ब्राह्मण,,निज आचरण से वो शुद्र भी नहीं,,मिलते हैं ऐसे बहुत क्षत्रिय ,,शोषण , अत्याचार के गुन
सोचो कैसे कैसे ,रिश्तों का ऐ खेला ,रिश्तों का ऐ मेला ,लगे जमघट का रेला ,हो जाते ऐ ,संकीर्ण और भी ,जब खत्म ना होती ,सांसों का खेला ,भाई भाई को आंख ना सुहाते ,बचपन जिनके साथ बिताते ,कहकर बाबू और भैया ,सम्पत्ति के लिए ,एक दूसरे का कत्ल कर जाते ,कहते मैं नहीं तेरा बाबू ,नाही तू मेरा भैया ,सोचो कैसे कैसे
ना ऋतुएं बदली ,ना ही मौसम का मिजाज बदला ,ना ही कक्षा बदला ,ना ही सत्र में बदलाव हुआ ,ना फसल बदली ,ना ही खेत खलिहान खुशहाल हुआ ,ना ही पेड़ पौधों की रंगत बदली ,ना ही नूतन पत्तियों का आगाज हुआ ,ना ही सुर्य , चांद की दिशा बदली ,ना ही सितारों की नक्षत्रों में बदलाव हुआ ,माना कि बदल गया कलेंडर ,करोड़ों अर
धनवानों की भरी है झोली ,नित्य मनाएं ईद दिवाली ,तरह तरह की पकवानें ,नये नये परिधान न्यारे ,हरदम ऐ आभास कराएं ,जेब अगर भरी ना हो ,तो सब लगें फिके निराले ,अभावों के आभास में ,जब दरवाजा खोल बाहर निकले ,तभी दूर क्षितिज पर धूंद दिखा ,एक आशा का हूरदंग मचा ,भीड़ लगी थी भारी भरखम ,सब चेहरे अनजाने पहचाने ,पर
स्तब्ध रहना ही दर्शकों की फितरत है ,उन्हें क्या पता ?अगला अदा क्या कलाकार का ?अगला दृश्य क्या निर्देशक का ?जिंदगी तो रंगमंच है ,वक्त ही कलाकार रे ,भूल ना कर अदा करने की ,मानव तो सिर्फ दर्शक रे ,निर्देशक तो वो ईश्वर ही सदा ,जो है सर्वशक्तिमान और महान रे !!🤔धन्यवाद 🙏 ______संजय निराला ✍
सभी फेसबुक के महान पाठकों लेखकों और सम्मानित सदस्यों को मेरा नमस्कार और मकरसंक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाइयां । दोस्तों मैं कोई लेखक या कवि नहीं हूँ , और ना ही मैं कोई आशावादी होने का दिखावा का आदी हूँ । ऐसा नहीं कि मैं भी आशावादी दृष्टिकोण रखना नहीं चाहता , लेकिन क्या करूं जब भी कोशिश करता
सोच सोच के मैं हारा ,जिंदगी के उसूलों का मारा ,नीति नहीं है बेमानी ,तभी तो हो रही दमन हमारी ,हमने तो ऐ माना है ,कण कण में रब समाया है ,खाकर भी लाखों जख्म पीठ पर ,बंधु कहकर ही तुमको पुकारा है ,क्योंकि पीठ पर किए तेरे वार को भी ,नासमझी में उठे हाथ ही माना है ,तुम भी कुछ विचार करों ,रहम नहीं मुझपर ,रख
मतांघ हो गई दुनियाँ ,,आज फिर अपने अहम के प्रभाव में,,कभी महत्त्वाकांक्षाओं के लगाव में,,कभी अपने बल के बहाव में,,खुल गये सिलाई रिश्तों की,,आज भावनाओं के आभाव में,,टुट गये धागे रिश्तों के सिलाई की,,आज अपने आप के मगन में,,मतांघ हो गयी दुनियाँ ,,आज अपने अहम के प्रभाव में,,कुछ सोच विचार करों,,मेरे बंधु
बह जाने दो ,इन आंसुओं को ,सम्भालने में व्यर्थ ,उर्जा ना जाया कर ,ऐ तो मन में इकट्ठे हुए ,भावों का प्रमाण है ,दुःख की पीड़ा का ,सुख की खुशी का ,प्रतिफल प्रसाद है ,शांति की तृप्ति का ,अशांति की अवशाद का ,कड़वा लेकिन सत्य उपहार है ,उत्सव के उल्लास का ,उदासी की अभिलाषा का ,निशब्द जवाब है ,हो चाहे जो भी
काहे पाले अभिमान रे मनवा ,ये तो दो दिन का संसार रे मनवा ,ऐ यौवन नहीं तेरा अजर अमर है ,नाही रुप तेरा हरदम अचल अमिट है ,फिर तु काहे पाले अभिमान रे मनवा ,ये तो दो दिन का संसार रेे मनवा,ऐ मान प्रतिष्ठा तो क्षणभंगुर है ,सौंदर्य भी तेरा कुछ पल ही है ,हो जायेंगे विरक्त कल तुमसे ,आज जो जग मोहित तुमसे है ,का
हो चुका हूं व्यथित मैं ,अब और कुछ कहने ,की हिम्मत नहीं ,सोचता हूं अब कर लूं ,आत्महत्या मैं भी ,अब और बर्दाश्त की ,शक्ति ना रही ,सोचा था ,एक दिन हम जागेगें ,अपनी सभ्यता और ,संस्कृति को पहचानेंगे ,लेकिन अब लगता है ,ऐ तो भ्रम था मेरा ,जहां हर तरफ गिरने ,का सिलसिला हो ,वो क्या नैतिकता दिखायेंगे !🤔😔😈ध
चिरहरण हो दूसरे काचटकारे ले कहते होवाह क्या नज़ारा हैजब बारी अपनी आईतो कहते हो दरिंदगी हैहो अत्याचार दूसरों परकहते हो ये पुरुषार्थ हैजब बारी अपनी आतीतो कहते हो अस्वीकार हैआखिर क्यो ?क्यों बनाते हो ?वो नीति और नियम जो स्वयं तुम्हारे नीयत का विरोधी है।🤔धन्यवाद🙏👉संजय निराला✍
दोस्तों देश में बलात्कार की घटनाएं तो बहुत हो रही है जो बेहद शर्मनाक है । लेकिन मैं दो घटना का जिक्र करता हूं , एक कटुआ की आसिफा और दूसरा गाजियाबाद की गीता की । जहां एक तरफ पूरे देश ने आसिफा को बेटी माना तो दूसरे तरफ मुस्लिम समुदाय ने गीता को भाभी से संबोधित किया । जिस प्रकार तिरंगा यात्रा और रामनवम
वजूद के लिए ,वजूद से लड़ पड़े ,पर शायद ,वजूद से थे ही नगण्य ,तभी तो अस्तित्व खो गये ,बनो नहीं शुतुरमुर्ग ,थोड़ी चिंतन भी कर लो यारों ,सब तो वही करना चाहते ,जिसमें सिर्फ स्वंय का फायदा हो प्यारों ,बात थोड़ी कड़वी है ,लेकिन गांधी और गोडसे से जुड़ी है ,दोनों ने सिर्फ ,एक एक शब्द ही पकड़ा ,जो सिर्फ कर्म
हे प्रिये ,तुम जब भी आओगी ,मेरा दरवाजा ,हमेशा खुला ही पाओगी ,ना कोई शिकन की बूंदें माथे पर ,ना ही कभी ,उतरा हुआ चेहरा पाओगी ,ऐ तो निर्धारित वो क्षण है ,जिस आलिंगन को ,तुम हम तत्पर है ,ना कोई महत्त्वकांक्षा ,ना कोई होड़ है ,तुम प्राप्त हो मुझे ,मैं प्राप्त हूँ तुझे ,बस यही अंतिम सत्य है ।🤔धन्यवाद 🙏
माना की ये एक बला है,फिर ये गज़ब की कला है,जो हर किसी को आती नहीं,कइयों को इसके सिवा कुछ सुहाती नहीं ,ना दरकार किसी योग्यता की,ना पहचान किसी मापदंड की,निशुल्क , बिलकुल निशुल्क ,सिर्फ और सिर्फ लपलपाता जीभ ,निपुरुना दांतों का ,साक्षात दंडवत हाथों का,बस यही सब है प्रमाणपत्र ,मौके से दौड़ जाना,असफलता का
मल मल धोया ,ऐ तन मेरा ,सोचा साथ चलेगा ,उड़ चले हम ,पंक्षी बनके ,छोड़ ऐ पिंजड़ा ,तन का मेरा ,कभी सोचा ना था ,हम जुदा होंगे ,ऐ शमशान में जलेगा ,रोयेगें सर पीट पीट के ,धोयेगें मल मल के अपने ,होंगे साक्षी पराये ,भी बनके बाराती ,ऐ तो है जगरीत पुरानी ,फिर मैं कैसा ,अलवेला , अजूबा , निराला ।🤔धन्यवाद 🙏
धर्म कर्म को ,वो क्या जाने ,जो लिपटें रहे ,अपने पराये की ,नश्वर दिवारों से ,कौन अपना ,कौन पराया ,सिर्फ साधे सर्वार्थ ही जाते ,लिपट के इन दिवारों से ,माता पिता भी रहते तबतक ,जब तक चलता सांसों की जोर ,घर के बाहर कर दिए जाते ,जब छुट जाता सांसों की डोर !!🤔धन्यवाद 🙏 ______संजय निराला ✍
देखो मैं कैसा किसान हूँ जी ,करके नष्ट अपने श्रम का ,सड़कों पर कैसे करता उत्पात हूँ जी ,फ़िक्र कहां मुझे अपने पसीने की खुशबू की ,देखो कैसे लगाने को अपना दाम बेहाल हूँ जी ,कभी राजनितिज्ञों के मोहरे बन कर ,कभी मजबूरीयों का गुलाम बनकर ,कभी महत्त्वाकांक्षा की राह में ,कभी ज्यादा की चाह में ,देखो कैसे बे
क्या खोया ,क्या पाया यहां तो ,किया कहां कभी ,विचार ऐ भैया ,समय बीत गया ,विचरण में ही ,जल गया तन ,शमशान में भैया ,मन की तृप्ति ,हो ना सकी ,तन भी कहां ,हुआ ऐ तृप्त ऐ भैया ,आशा तृष्णा के ,नये कपोलों ने ,बार बार किया ,मन को विचलित भैया ,क्या खोया ,क्या पाया यहां तो ,किया कहां कभी ,ऐ विचार ऐ भैया ,दुख का
चंदन ने कहा सर्प से ,मेरी शीतलता से ही ,शीतल हो मुझको ही ,डंक मारते हो ,क्या ऐ ही है ,नेकी का फल ,जो तुम करते हो ,सर्प ने कहा चंदन से ,मांफ कर दो बंधु ,मैं तो लाचार हूँ ,अपने दुर्जन प्रवृत्तियों से ,अपने कर्म का फल ,हरदम ही पाता हूँ ,रहकर अजन्मा , निर्विकार ,शिव के गले में भी ,लाठी डंडों से ,बेमौत म
संभलते संभालते ,ऐ क्या हो गया ,चैन भी गया ,निंद भी खो गया ,मरते रहे बार बार याद में ,दिल ऐसे खोया ,पता भी न चला ,जीने की चाह में थे ,बेखबर नादान ,ऐ सुहाने जज्बात भी ,चोरी हो गया ,फुर्सत में खामोशी ,लिखते थे जो राज ,सपनों की डायरी ,वो भी गुमशुदा हो गया ,उलझी थी जो जिंदगी ,जो बेबसी की जाल मे ,धर्म के
रिश्तों की विडम्बना!सच कहूं तो जिंदगी एक ही,जिसके रिश्ते अनेकानेक,लगता जैसे रिश्ते एक विशाल जाल सा,पड़ती है नींव जिसकी जन्म से पहले,ममता के वात्सल्य से एक नवागंतुक का रिश्ता,छांव में मिलता जिसके भाई बहन का स्नेह,मिलता है जहां दादा दादी का लाड़ प्यार,वही मन को हर्षित करता ताऊ ताऊजी का दुलार,होती जहां
दोस्तों आज के परिवेश में क्या ऐसा परिवार है की जिसमें स्नेह- सौजन्य एवं सहयोग रूपी अमृत की धारा बहती हो। शायद नहीं ही उत्तर होगा । क्योंकि घर- घर में प्रत्येक सदस्य के बीच कलह- क्लेश, ईर्ष्या- द्वेष, वैमनस्य तथा मनोमालिन्य की भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। परिवार में पति- पत्नी, पिता- पुत्र, भाई- भाई,
उडते रहे बन वायुयान की तरह ,भूलकर आंनद की की वेला , अन्न उत्पन्न होता धरती से रस सींचकर ,धान के खेत से लेकर कांस के फूल तक ,ये धरती कितनी प्राणवान और प्रणम्य है ,भूल चुके हम भी तो उसी के लघु अंश है ,सुत्र सरल है आनंद का ,दुर्लभ नहीं गुरुमंत्र का ,रखना है बस इतना ही ख्याल ,जो कुछ घटता है अपने आसपास ,
अजीब दास्तां सफर की यारों ,प्रारंभ वही से जहां से अंत हो प्यारो ,खत्म कहां होती ये सफर यारों ,यही तो आत्मा ,जिसका ना ही प्रारंभ ना अंत प्यारो ,तम रज सत से कोख में आया ,तम रज सत से ही सींचकर ,मां ने पंच तत्वों (क्षिति जल पावक गगन समीरा )से ,तन का आवरण बनाया ,पंचभूत है ऐ पंचतत्व यारों ,जिससे सृष्टि का
लाचारी का आलम बदस्तूर ऐसे जारी रहा , कोई भटकता रहा न्याय की आस लिये यूं ही दर-ब-दर , ठहाके मार तालियां यूं ही बजते रहे , जैसे कोई नाटक हो रंगमंच का जनाब , मर चुकी हया , बिक गया ईमान , मर गया मानव , आज खुद ही अपनी महत्वाकांक्षा मे जनाब , अब क्या कहे यारों , कहना तो जर
पंचतत्व (क्षिति -जल -पावक -गगन- समीरा )का मिश्रण ऐ तन ,ना तेरा ना मेरा ,हो जायें ऐ नष्ट ही ,जब मिश्रण में हो झमेला ,तम-रज-सत का ही संस्कार ऐ बंधु ,ना पैसों का खेला ,राजा भी पतित हो जायें ,दुर्जन बन जायें साधू अलबेला ,संस्कारों से ही होते कर्म हमारे ,ना संगत का कोई झमेला ,चंदन संग रह बिषधर ,बिस ही उग
दिल तो है ,जैसे एक खाली मकान ,जर्जर तो है हो गया ,पर है खड़ा बन आलीशान ,दुनियाँ के है मसले जितने ,क्या आज तक सुलझे है कितने ,इंसान है जो लोग यहां , वो ही तो है परेशान जनाब ,होते हैं कुछ लोग यूं ही ,माहिर रंग बदलने मे ,जैसे घर उनके न अब घर रहे,बन के रह गये हो अब दुकान ,पूछा जब उनकी ही आत्मा ने ,आप का
पल पल नष्ट होता जीवन ,फिर क्यों दिन सालों में उलझे हो ,हर सांस ही तो जीवन है ,हर उच्छवास ही तो मृत्यु है ,फिर क्यों ५० या १०० सालों का भ्रम पाले हो ,पल पल नष्ट होता जीवन ,फिर क्यों दिन सालों में उलझे हो ,आचरण शील संयम और परोपकार ,यही तो चार धन है मोक्ष के ,फिर क्यों झूठ कपट शत्रुता और दुर्व्यवहार मे
मैं सत्य हूंँ ,,झूठ से दब सकता नहीं,,मैं निश्छल पथीक पथरीली रास्तों का,,भूख प्यास के व्याकुलता से डीग सकता नहीं,,चुभते तिनके की क्या विसात,,कष्ट दुख शोक से मैं अधीर हो सकता नहीं,,मैं प्रकाश हूँ ,,तुम्हारे अंतःकरण का,,अंधेरों से छुप सकता नहीं,,मैं न्याय हूँ ,,इस जगत का,,अन्यायियों से हार सकता नहीं,,म
कौन कहता है कि ,जिंदगी उलझी है ,वो तो कल भी सुलझी थी ,आज भी सुलझी है ,उलझे तो हम ही हैं ,जो साजों समान में खोये है ,कोई चाह कहां जीवन की ,चाह तो बस हमारी है ,ज्यादा हो तो बेहतर ,की तर्ज पर ,चलते चलते ,जीवन को उलझाई है ,न अपने के लिए ,वक्त है ,ना अपनों के लिए ,जीवनशैली को ,भौतिकवादी सोच से पिरो कर ,ह
देख अपने हालात को ,बिचलित हो गई हूँ आज ,सर्वार्थ में खोये अपने ही लालो से ,असुरक्षित हो गई हूँ आज ,रूकते नहीं अब मेरे आंसू ,तेरे लिए ,ऐ बोस , सावरकर, भगत , आजाद ,छोड़ अपने मां को विकल बेहाल ,कहां चले गये आज ,कुछ जयचंदो के लिए। तुमने क्यों मुझको छोड़ा ना थी मैं अंजान ,लेकिन बेड़ियों की कहर से ,हुयी थ
आओ चलें ,होलिका जलाएं ,असत्य को जलाएं ,सत्य को बचाएं ,सत्य की आड़ में ,न असत्य को बचाएं ,असत्य पे सत्य ,के खोल को हटाएं ,आओ चलें ,होलिका जलाएं ,चमन को उजाड़ ,बहुत पेड़े जलाएं ,गोबर के कंडे को ,बहुत घीएं पिलाएं ,बहुत हो गयी ,दिखावे में जो रश्मे निभाई ,मूल ही जलाएं ,अब तक खोल ही बचाएं ,चाहे संमत को ज
आईना ही आईना हरतरफ ,कोई देखता कहां ,चेहरे पर जमी धूल की परतों को ,सब है तन्हा ,सबमें सिर्फ धर्म की खालीपन का एहसास ,बिक चुके ज़मीरो से ,कैसे कोई किसी के ,पीर का करें दीदार ,मर जाय भूख से अगर कोई ,है यही धर्म पर प्रश्नचिन्ह जनाब ,मार दो अगर तुम किसी को ,सिर्फ एक प्लेट चावल के लिए ,फिर तुम कैसे ही अनु
क्या इस बार भी हर बार की तरह ,गुमनाम ही रहेगी २६ जनवरी , दस्तक दे कर हर बार ,सिर्फ खामोश ही रह गयी ,नयी सोच पकड़ कर मना दी जाएगी,हर बार की तरह इस बार भी २६ जनवरी ,फिर भी थक हार कर ,वही की वही खड़ी मिल जाती है २६ जनवरी ,उत्सव , उत्साह , योजनायें और घोषणायें ,हर बार दर-ब-दर यूं ही भटकते रहते हैं,जाने कि
बदलते रहे मानव ही ,नियत तो वही ही रही ,होते रहे कत्ल बेसुमार ,पर मुखौटे अहिंसा की ही रही ,चाहे गांधी हो या अम्बेडकर ,कांग्रेस हो या बीजेपी ,संविधान मे एक देश ,कानून अनेकानेक ,धन्य है भारत के ,तथाकथित अहिंसा के पुजारी ,धन्य है सबके हितो के रक्षक भारतीय संविधान ,जहाँ धर्म जाति देखकर संवेदनाएं हिलोरें
पगडंडियों की धूल से,,सड़कें धूमिल हो गई,,पदचिह्न की क्या बात हो,,जब सड़कें ही ,,अपनी पहचान को तरस गयी,,बनाके जाल जात-पात का,,लगाके आडम्बर मजहबों का,,अब मानव की क्या बात हो,,जब धर्म ही,, उसमें खोकर रह गई ,,!!🤔धन्यवाद 🙏
फल तो फल ही है ,चाहे कड़वे हो या मीठे ,अनुभव तो अनुभव ही है ,चाहे सरल हो या तीखे ,मीठे फल भूख मिटाते ,दे शक्ति तन को ,ऊर्जावान बनाते ,कड़वे फल भी तो दवा बनाते ,हर व्याधियां तन का ,नयी ऊर्जा का संचार कराते ,अनुभव भी तो यही है यारों ,सरल अनुभव जीना सिखाती ,तीखे अनुभव जीवन में सुधार कराती ,ये दोनों ही
अधूरी ही सही ,मगर दिलकश अंदाज का ,आगाज होगा ,जिस तरफ भी ,देखेगी तुम्हारी नज़र ,छोटा ही सही ,लेकिन हर तरफ लफ्ज़ो की ,निशान बरकरार होगा ,भूल कर भी कोशिश ना करो ,इन्हें मिटाने की दोस्तों ,सोचो ! बिना आत्मा ,तेरा पहचान क्या होगा !!🤔धन्यवाद 🙏 ____संजय निराला ✍
ऐ मेरा शील और संस्कार ,खा के लाखों घाव हजार ,कैसे करूं आश्रितों पर वार ,मेरा सहनशीलता ही मेरी पहचान ,कैसे करूं ना समझो पर वार ,ना समझ मुझे कायर की औलाद ,मैं हूँ सनातनी ,मानवता ही सिर्फ मेरी पहचान ,मैं नहीं कोई जिहादी की औलाद ,जो करूं आश्रय देने वालों पर वार ,पहुंचा जहां भी तेरे कदम ,वहां की संस्कृत
हाड़ मांस के पुतलों की यही कहानी ,हार ना माने करे हर बार यही नादानी ,कभी अतीत को पीठ पे लादे ,कभी भविष्य को बाहों में उठाएं ,अनादि काल से ,अपनी उलझनों से ,लड़ रहा है ,पा हथियार चलते रहने का ,बन अभिमानी इठला रहा है ,तर-बतर पसीने से ,आंसुओ से लथपथ हुए ,जीवन पथ को तब्दील कर अग्निपथ में ,कल से कल तक का
उत्तर प्रदेश का एक ऐसा गांव जहां विधवाओं की शोषण और दमन के अलावा कुछ नहीं होता हम बात कर रहे हैं परासी चकलाल गांव की, जो देवरिया जिला में अवस्थित है, जहां होती है केवल विधवाओं की दमन और शोषण । यह विधवाओं के दमन और शोषण का सिलसिला दशकों से जारी है । पर अफशोस इस पर रोक लगाने की दिशा में सरकार और प्रशा
करना कोई चाहता कहां त्याग है ,तभी तो ऐ हाल है ,पक रहे सिर्फ ख्वाबी पुलाव है ,थाली में तो सिर्फ ,अब सुखी रोटी के ही निशान हैं ,जब भूला के सावरकर के पराक्रम को ,चरखा का हाथ थामा था ,बिक गया स्वाभिमान तुम्हारा ,जयचंदो ने इठलाया था ,उनको तो सर्वार्थ प्यारा ,शौर्य गाथा से क्या नाता था ,तुम सब भी शिकार हु
किचड़ में खिला कमल,देख के सबके दिल में , उत्सव का उमंग भरा ,नोट बंदी , बेनामी सम्पत्तियों ने ,जब भ्रष्टाचार को रोकने का दम भरा ,खिल उठी थी चेहरे जन जन की ,नयी उम्मीद की जो किरण दिखा ,तभी एक नारे ने ,एक जोश भरा ,जब बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का ,लाल किले से उद्घोष हुआ ,टूट गई वो उम्मीद भी ,जब कटुआ , उन्नाव
दोस्तों जब हम कभी भी एकांत में बैठते हैं तो ख्याल अपने अतीत पर जाना लाजिमी ही होता है । नहीं चाहते हुए भी आदमी अपने बीते हुए लम्हों के पल मे झांकने लगता है तथा अगर उसके बीते हुए लम्हें खुशनुमा हो तो वो बार बार उस लम्हों से सानिध्य बनाये रखता है , लेकिन अगर उसके बीते हुए लम्हे दुखनिमा हो तो वो बार बा
दोस्तों एक राजा अपने राज्य में जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था ।वह अपने प्रजा के हितों का बहुत ध्यान देता था ।उन्हें हर प्रकार की सुख सुविधा उपलब्ध कराने के लिए हरदम प्रयासरत था । एक बार उनके एक मंत्री ने कहा राजन ग्रीष्म ऋतु आई गई , बावड़ी का निर्माण हो जाय तो दृश्य में मनोरम रहेगा । लोग स्नान इत्यादि
दोस्तों कांग्रेस की देन ही तो हम सब भुगत रहे हैं , जो हमारे पुर्वजों ने आजादी के क्रांतिकारियों को दरकिनार कर चरखे को थाम नेहरु के गुलाब का गुणगान करने लगे , नतीजा आपके हमारे क्या सबके सामने है , सिर्फ स्वार्थी महत्त्वाकांक्षी के अलावा स्वाभिमान और आत्मसम्मान नगण्य कुपूतों की बाढ़ आ गई । लोग मतलबपरस
निराश ना करो ,मन को ,निज पर ही ,विश्वास करों ,ये दुनिया ,है सतरंगी ,मत ,इनकी बात करो ,लत हो जिनको ,सिर्फ पकड़ने की ,मत उनसे ,नैतिकता की आश करों ,खो चुके हैं जो ,आज अपने अस्तित्व को ,मत उनसे ,अस्तित्व की बचाने की राय धरो ,खोज ना पाए ,जो आजतक कारण ,अपनी अस्तित्व के खोने का ,वो क्या तुम्हारे अस्तित्व ,
उजड़ते रहे गुलशन दूसरों के खुशी मे , कुचलते रहे गुलाब दूसरों के प्यार मे , पर सिखा ना मानव कुछ निराला, इन गुलशन और गुलाबों से , हरदम मरता रहा अपनी ही खुशी मे ।। धन्यवाद
अन्याय और अत्याचार के पराकाष्ठा पर ,भावनाओं के प्रचंड आवेग ,को ना दबावों तुम ,दे कर हवाल ,कमजोर बाहुबल का ,मानव मन को न समझाओ तुम ,डटकर करो मुकाबला ,अपने मन को बतलाओ तुम ,अनादि हो , अनंत हो ,विश्व में नहीं कोई ऐसा शत्रु ,जो मार सके तुमको ,दमन उत्पीड़न और अत्याचार के ,खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराओ तुम ,
सर्द रातों का सफर ,कहीं अपने तो ,कहीं परायों का कहर ,उल्फत में नहीं ,नफ़रत में ही सही ,अपना दिल जलाएं रखना ,सर्द रातें है ,ठिठुर न जाए बदन ,मशाल को अपने लहू से ,पिलाएं रखना ,सरकारें तो आएगी ,चली जाएगी ,कृतियों का क्या ,स्थापित होंगे ,या बिखर जाएंगे ,पर जींदगी ,तो एक सफ़र है ,अपना वजूद बचाएं रखना !!�
समय द्वंद का इस धरा पर ,शायद ही कभी रूके ,शेर गीदड़ से होती तुलना ,शायद ही कभी मानव की छूटे ,दाल आटे की उदाहरण से ,शायद ही कभी रिश्तों की छूटे ,समर द्वंद का इस धरा पर ,शायद ही कभी रूके ,आशा और निराश की ,उपेक्षा और अपेक्षा की ,महत्वकाक्षां की तृष्णा की ,ऐ सफर शायद ही कभी रूके ,अमीर गरीब की ऐ खाई ,लिं
दोस्तों बचपन में एक कथा सुना था एक साधे सब सधैं । उस समय बचपन की अल्पज्ञान की बजह से कुछ समझ में नहीं आया । जिसका परिणाम सिर्फ भटकने के सिवा कुछ नहीं मिला , कभी अपनी गरीबी का हवाला देकर , कभी अपनी शारीरिक क्षमताओं पर संदेह कर । कभी मंदिरों , गिरजाघरों, कभी मस्जिदों , पीर मजारों पर माथा टेक सिर्फ अपन
मैं प्रजातंत्र का ,वो मुख्य स्तंभ हूँ ,अपनी ही महत्त्वकांक्षा ,के आकांक्षा का ,एक दिन का राजा हूँ ,पर सत्य तो ऐ ही है ,सदियों से खड़ा ,हाथ फैलाए हुआ एक रंक हूँ ,जो बहता है भावनाओं में ,जाति , पंथ , सम्प्रदाय ,और मजहबी विचारों में ,मैं प्रजातंत्र का ,वो मुख्य स्तंभ हूँ ,लोट पोट हो जाता ,नेताओं के लोक
सुनो गौर से ऐ मेरे भाई ,मत गांधी का गुणगान करो ,आजादी नहीं मिली , उनकी बदौलत ,मत झुठा प्रचार करों ,ऐ देश है वीर शहीदों ,मत उनका अपमान करों ,रोडी बिंदी चुड़ी को ,जब देवियों ने तज दिया ,मिली आजादी तब ,जब बहनों ने राखी दान किया ,गांधी ने तो सिर्फ ,कायरता का पाठ पढ़ाया था ,स्वार्थी लोगों ने ही ,अहिंसा क
ऐ जग तो है ,माया की नगरी ,तु काहे इसमें मन भटकाये ,स्वामी तो तेरा बैठा भीतर ,तु काहे मल मल तन चमकाएं ,कर्म की बदरी बरस रही हैं ,अब काहे तू मूंह बिचकाये ,क्रिया की होती प्रतिक्रिया ,वेद पुराण विज्ञान ,यही तो समझाएं ,विचलित हो अब काहे ,तू नीर बहाए ,जो जैसा करें ,वैसा ही फल पावे ,ऐ जग तो है ,माया की नग
था बहुत दिन तक चुप,सुनता रहा आप सबके विचार ,सिर्फ करता रहा मनन ,सोचता रहा किसे कहते है आप ,साकारात्मक व्यक्ति की पहचान ,हमने तो सोचा था ,जिनके दिल में हो प्रेम ,जिनके होठों पर हो मुस्कान ,जो कराते आनंद का एहसास,लेकिन समझ आयी ,और आज हुयी मूर्खता को एहसास ,आपकी नजर मे है ,साकारात्मक सोच की पहच
रो रही है आंखें ,फिर देख वो जज़्बात ,जिसके चलते अखंडता ,खंड खंड हो चुकी है एक बार ,अब तो रुकते नहीं आंसू ,ये देख के हालात ,अब तो सब कुपुत्र ही है ,मैं तो खंड खंड हो चुकी हुँ ,जब थे थोड़े ही कुपुत्र ,जिन्होंने किया था उत्पातपट गयी थी गलियां लाशों से ,लथपथ हो गई थी आंचल ,निरपराध के खूनों से ,तुम तो भू
ऐ तपिश की कैसी अगन ,जल रही है वसुंधरा ,मंद मंद मुस्कराते ऐसे ,जैसे हो धरा गैरों का ,स्वार्थ ने इनको ,ऐसे पाला मारा ,जैसे तन ठिठुरा हो ,जाड़ों की कंपकंपाती रातों से ,दे कर लकड़ियां ,जाति मजहब , ऊंच नीच ,अमीर गरीब , भेद-भाव ,ताप रहे अलाव ,जैसे बच रहे हो जाड़ों से ,ऐ तपिश की कैसी अगन ,जल रही है वसुंधरा
कहीं भूख लाचार है ,पेट की जिस्मों की ,कहीं प्यास लाचार हैं ,ओंठ की रिश्तों की ,कहीं आस लाचार है ,महत्त्वकांक्षा की सहायता की ,सब तो खड़े हैं ,कोठे की बाजार में ,सिर्फ कीमत के मोहताज ,बिकने को तैयार हैं ,बिक जाय अगर कोई ,तो अफसोस ना कर ,तु कहां अछुता है ,स्वार्थ की बाजार में ।🤔धन्यवाद 🙏
मेरे भूल ही मेरे स्वभिमान को ,कलंक लगा गये,हुआ चुक विश्वास करके,जो लापरवाही का आत्मबोध करा गये,गिर गया आज खुद की ही नजरों में,क्या कहूं मिला था सिख बचपन में भी,एक बार फिर आज,विश्वास के हाथों ही छल गये ,बचपन में भी निर्दोष हो कर ,जैसे अपने जन्मदाता का कहर झेल गये ,था बचपना वो ,ना स्वाभिमान का झमेला
ऐ धन दौलत ,शोहरत और औलादें ,तो सिर्फ एक बहलावा है ,आत्मसात हो जा बन्दे ,ईश्वर ही तो ,तुम्हारे परलोक का सहारा है ,मत कर नादानी ,भटक कर इन मोहपाश की राहों में ,दिन बीत जायेगा ,गाते रह जाओगे ,चिड़िया चुग गई खेत श्मशानों में ।🤔धन्यवाद 🙏 ____संजय निराला ✍
ऐ चांदनी रातों का सफर ,अनगिनत तारों के सायों में ,अपनों और परायों के बीच में ,पेंडुलम की तरह लटकता हुआ ,ऐ जिंदगी का सफर ,खींज कर नाम जो भी दें ,मजबूरी का सफर ,या वशीभूत सर्वार्थ का हमसफर ,आखिर है तो ऐ ,खुद के ही महत्वकांक्षाओं का सफर ,अपनों के खोने का सफर ,या गैरों के कहर से बचने का सफर ,बात जो भी ह
स्व से स्वच्छता ,स्व से स्वाभिमान ,स्व से स्वालंबन ,स्व से स्वरोजगार ,फिर ये कैसी स्वतंत्रा ,जिसमें नहीं हो कहीं स्व का आभास ,चिंतन करों ,मनन करों ,या तुम कुछ भी करों यार ,इन चारों के बिना ,हरदम परालंबन के तरफ ही अग्रसर हो मेरे यार ,चलो उठो ,अपनी चिर निद्रा से बाहर निकलो ,होता है आसान जब शत्रु कोई ब
क्या नाहक ढूंढ़े इन रिश्तों मे गहराई को , जब ये है खुद पेंदी फूटे मटके समान , कोई गर्ज रही तो चलते ये , पुरी ना हो तो टूट जाय तिनके समान , क्या कहना इनकी हकीकत को , इससे ज्यादा कुछ भी नही इनकी बनावट मे ।। धन्यवाद
धरने की चाह में ,धरने का बोलबाला है ,जो भी आया ,यहां वो अपने ,महत्त्वाकांक्षाओं का मारा है ,कण कण में ,राम के तर्ज पे ,पत्थर का पूजना ,पांचो वक्त का अज़ान ,तो प्यारा है ,पर स्वाद और चाह में ,कोई आहार तो ,कोई शत्रु हमारा है ,चिंता नहीं ,चिंतन करो ,आखिर क्यों ?विचार और व्यवहार में ,अंतर ही तुमको प्यार
न्याय की देवी खो गई ,धर्म वर्ग जाति के ,संविधान में ,कुचलती चली गई ,कमजोर गरीब असहाय मजलूमों को ,बांध के काली पट्टी आंखों पर ,हैसियत और औकात की ,मजलूमों के घिसते ,तलवों का ख्याल नहीं ,कब्र में सिसकती ,आत्माओं का आभास नहीं ,झुक रहा है ,तराजू का पलड़ा ,सिर्फ असर्फियों के बोझ से ,शायद ये भी ,अब अभ्यस्त
कब तलक तुम मुझे ,यूं ही दफनाओगे ,आज तो मैं हूं यहां ,कल तुम ही पाये जाओगे ,कांप उठेगी रुहें तुम्हारी ,कल जब तुम दफनाये जाओगे ,कल जब तुम दफनाये जाओगे ,खोद लो आज तुम भी खड्डे यारों ,कल तुम कहां खोद पाओगे ,कब तलक तुम मुझे ,यूं ही दफनाओगे ,बहेगी सिर्फ खारे जल की ही नदियां ,कल तुम कहां उसको रोक पाओगे ,का
क्या चिंतन ,क्या मनन करूं,ऐ जिंदगी तेरे लिए,जब जब तेरी तरफ देखा,एक हृदय विदारख चीख कानों में गुंजा,पूछ रही मुझसे ,क्यों भाग रहे हो ,छोड़ इस हाल में मुझको,है क्या कसूर मेरा,जो आस किया तुझसे,मैं भी तो निस्वार्थ खड़ा ,था साथ तेरे ,तुमने भी तो वही परम्परा निभाई,सिर्फ सत्ता हस्तांतरण ही है खेल,राजनीति की
देखो ऐ कैसी ,घड़ी बन आई ,आतुरता ने ,अधीरता दिखलाई ,गांठ ने भी अपनी ,व्याकुलता अपनाई ,देखो ऐ कैसी ,घड़ी बन आई ,ठाठ की ,अब ना पुछ ,ऐ मेरे भाई ,हर तरफ तो हमने ,सिर्फ व सिर्फ ,चिता सजाई ,देखो ऐ कैसी ,घड़ी बन आई।🤔धन्यवाद 🙏 ____संजय निराला ✍
एक विचारना गिरवी हो स्वाभिमान हमारा,क्या हम सब है इसके लिए तैयार,दोस्तों जब हम किसी से उधार लेते हैं तो सामान्यतः हमें तो ऐसा महसूस होता है कि हमने अपना स्वाभिमान गिरवी रख दिया , शायद आपको भी ये महशूस होता होगा । और सामान्यतः हर कोई उस लिये कर्जे की भरपाई कर अपना स्वाभिमान वापस पाना चाहता है । लेक
घर घर की यही कहानी ,सबके जुबानी ,जाये ना ,कोई तह तक ,सिर्फ करें अपनी ,मुख बखानी ,पिता सिर्फ कहें ,ये सब पुत्र हैं मेरे ,लेकिन पहला पुत्र ही ,सबसे बड़ा ,चाहे क्यों ना हो ,दुर्जन अज्ञानी ,माता कहें ,ये छोटा ही ,तो मेरा सबकुछ ,क्योंकि ये मेरे कोख ,की अंतिम निशानी ,अब बेचारे बीच वाले ,जाये किधर ,हो चाह
मानवीय संवेदना को आहत करता ये एक ऐसा समाज है ,जहाँ स्त्री को सिर्फ हमेशा अपनी स्वार्थी महत्वाकांक्षाओं को पूर्ति का सिर्फ जरीया ही मानता है । चाहे वो हिन्दू समाज हो या मुसलिम समाज । पर है वो समाज ही , दोस्तों जबतक लगाव भावात्मक होता है तो समाज मे सामंजस्य बना रहता है और मानवीय संवेदनाओ
ऐ नदियां और जीवन की ,अजब कहानी ,एक ही परिस्थिति ,एक ही समस्या की भी है ,समान निशानी ,नाही पथ ही सुगम ,नाही मंजिल की निशानी ,दोनों कलरव कर चलते ,हिचकोले ले आगे बढ़ते ,उबर खाबड़ रास्ते ऐसे ,जैसे हो जाति-पाति , ऊंच नीच ,और लिंगानुसार का भेद भाव ,होता सामना चट्टानों से ऐसे ,जैसे बीच खड़ा ,अमीरी गरीबी का
बंद बोतल हो या ग्लास ,अभिमान कहाँ दोनों को यार ,तभी तो सब उतर रहे है उसमे ,बन शराबी की पहचान ,पर विडम्बना है इनकी ,आभास कहां इनको ,बोतल और ग्लास की निश्छल प्रवृति का ,तभी तो सब गिर रहे हैं गटर में ,चूर मद के मदहोशी में जनाब !🤔धन्यवाद 🙏 _______संजय निराला ✍
कांटों से अलग कहां ,चाहे मानव की हो ,या गुलाब की जींदगी ,रिश्ते निभाने की ,सब गुण इनमें ,एहसास और संवेदना ,दोनों की एक समान ,टुट कर बिखर जाते ,जब होता इसका आभाव ,प्रेम की धारा बहती ,दोनों में निर्विकार अपरम्पार ,फर्क सिर्फ प्रवृत्तियों का जनाब ,निस्वार्थ प्रेम सुगंध छोड़ जाता ,सर्वार्थ प्रेम अपने अस
स्कूल से घर आते ,,पिता ने पुत्री को देखा ,,कांप उठा उसका हृदय ,,मन चिंघाड़ कर बोला ,,बेटी इतनी जल्दी जवान ना हो ,,अभी समर्थ नहीं एक और दुख सहने की ,,अभी घाव भरे नहीं देख बहन पर अत्याचार के ,,अभी आंसू रुके नहीं देख उसपर शोषण के बौछार के ,,अभी बाप को लड़ लेने दो इन जालिम चट्टानों से ,,उसपर छोड़ी पुरुष
गोद ही गोद है ,चाहे उत्पन्न हो या अंत ,अपनत्व तो दोनों जगह ,चाहे आंचल हो या कफ़न ,ममत्व ही ममत्व है ,चाहे आंगन हो या शमशान ,फिक्र तो दोनों जगह ,चाहे कोख हो या चिता ,एहसानमंद हूँ ,हे प्रभू मैं तेरा ,तु सचमुच कितना महान ,ऐ तो मौज ही मौज है ,चाहे जीवन हो या मौत ,शोक व्यथा सब हर लिए ,करके मुझपर ऐ उपकार
छोड़ गांव ,शहर के हो गए ,ना जाने कब ,सर्वार्थ में खो गये ,इंसा तो इंसा परिंदे भी ,रोटी के लिए पलायन कर गए ,आया मानसून ,तो अपने घर को लौट गए ,हो जाता गुजर बसर ,पुरखों की ही जमीन से ,पर ना जाने कब ,महत्त्वाकांक्षाओं के अधीन हो गये ,मानसून की निमंत्रण को ,टाल टाल कर ,होली दीवाली पर ,यूं आते जाते रहे ,स
पंचतत्व से बना शरीरा ,कैसे तेरा कैसे मेरा ,पंचतत्व है महाभूत ,क्षिति तो ठोस है ,आप द्रव का रूप ,पावक तो उष्ण है ,समीरा अनिश्चित गति समान ,है गगन ऐ शुन्य ही तो ,मिश्रित हो ,हो गया विशुद्धि फैलाव ,ऐ अटल सत्य है ,मूल तत्व यही श्रृष्टि के निर्माण ,इनसे बना सब जड़ है ,जड़ ही तो निर्जीव है ,बिन आत्मा सब
किस मुंह से देते नवरात्रि की शुभकामनाएँ , जब औरतों और बेटियों के हक का दोहन करते आज , मंदिर मे आरती करते , दरवाजे पे गाली देते महिलाओं को आज , जाप करते सर्वजन हिताय, कर्म करते स्वार्थी सुखाय , जब ऐसी सोच का बढ़ावा देते , क्यों करते हो ढकोसला देकर शुभकामनाएँ नवरात्र
रोते हुए को देख ,निराला मन बिचल गया ,पुछा जब क्या हुआ ,बोला मुंह लटकाए ,बिन रोये दुध कहां मिले ,जाकर पूछ भी तो लो ,किसी माता से आज ,रहती थी फिकर जिन्हें ,जब मैं कोख में था ,कहां गया वो ममत्व ,जब मैं गोद में हूँ ,होती है अब इंतजार ,मेरे रोने की ,लगता है इन्हें थी ,बस अपनी ही फिक्र ,नाम सिर्फ मेरे सेह
बंद करो राग अलापना तुम आजादी के सिरमौर नहीं अंग्रेजों के सोची समझी साज़िशो केतुम आखिरी स्तम्भ थेतुमने तो सिर्फ अपनी महत्त्वाकांक्षा की रोटी सेका थाआजादी के नाम पर तुमने तो हिन्दुस्तान को बहलाया था1857 की क्रांतिकारियों ने ,जब हिन्दुस्तान को जगाया था ,बन सेफ्टि बाल्ब अंग्रेजो के ,तुमने देश को भरमाया
जीवन ही तो पथ है राही ,चलना तेरा कर्म ,चढ़ाव उतार प्रारब्ध तेरे ,क्यों होता अधीर ,आत्मकेंद्रित हो भोग ले राही ,ये देंगे सुखद आनंद ,हो जायेगा पूर्ण सफर ऐ ,फिर ना कोई सफर का फेर ,ना कोई शत्रु तेरा ,ऐ राही ना कोई है मित्र ,है ऐ तभी तक ,जब तक आसक्ति होय ,रिश्ते नाते है तन के राही ,बस मन के माया के फेर ,
बांट कर धरा को ,,कैसे वसुंधरा बचाओगे,,बंट कर सिर्फ जमीनों में,,तुम अपनी अस्तित्व को भूल जाओगे,,जब तुम जाति मजहब में उलझकर,,अपनी अस्तित्व के लिए लड़कर मर जाओगे,,फिर कैसे तुम हिन्दूस्तान की कवच कहलाओगे,,कुछ सोच विचार करो ,,मेरे बंधु मेरे भाई,,वसुन्धरा की पहचान धरा से,,जमीन के टुकड़ों से नहीं,,है तुम्ह
तु ही तो मेरा लक्ष्य ,तु ही मेरा उद्देश्य ,है वादा तुमसे मेरा ,एक रोज मिलूंगा जरूर ,नव्ज जब डूबने लगे ,दर्द जब बढ़ने लगे ,निंद के आगोश में ,जब आंख मुदने लगे ,पीला चेहरा लिए ,जब चांद क्षितिज को पहुंचे ,दिन अपनी रवानगी में हो ,रात अपनी परवानगी पे हो ,ना अंधेरे का जाल हो ,ना उजाले का साम्राज्य हो ,ना ह
!! मेरे विचार और नया साल !!दोस्तों बीता साल गुज़र गया ,और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है मित्र कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदाई करें तो तुम्हें दुख देन
पल वही जो एहसास कराये ,उन पलों का क्या ,जो पल पल बदलते जायें ,पलों को जब एहसास की ,कसौटी पर कसते जाय ,सिर्फ दो ही पल , खड़े उतर पायें ,बाकी पर सिर्फ ,निरर्थक ही समझ आएं ,मुख्यत पल तो दो ही है ,प्रत्येक जीवों का ,एक व्यक्त कर जाएं ,एक अव्यक्त ही रह जाएं ,निर्णय स्वंय ही का यारों ,कौन व्यक्त ?और कौन अ
ऐ रूपयों पैसों का घेराऐ उँचे महलों का डेराऐ स्वाद मिठे पकवानी ऐ रौब मस्तानीदेख तु क्यों करता मनमानीबस है सिर्फ चंद दिनों की मेहरबानीजान बुझ क्यों बनता अनजानी दिन तेरे है गिने चुनेसफर ही है तेरी कहानी क्यों बन रहा विरामीतु ठहरा जो अविरामी ।।🤔धन्यवाद🙏👉 संजय निराला✍
तन को सुखावो ,मन को भिगावो ,पुड़िया से मिटेगी ,ना कुंठाग्रस्त मानसिकता ,बहुत बार आई गई ,ऐ होली का त्यौहार निराला ,मगर कटुता का ,घर घर बढ़ता ही गया झमेला ,बहुत बार भींग के ,रंगीन हुए चेहरे ,पर मन पर बदरंग ,का साया गहरे ही रहे ,तन को सुखावो ,मन को भिगावो ,ना फिर अपने ही रूठे ,ना फिर सपने ही टूटे ,परोप
थमा कहां दौरे नसीहतों का ,छुटे कहां फितरते नाकामियों की , वक्त हूँ अपने आप से कभी घबराता नहीं,पर खामखां सामने से आईना यूं ही हटता नही ,क्योंकि अपेक्षा और उपेक्षा से परे हूँ नही ,पर चापलूसी , बेईमानी और दगा ,ऐसा कोई फन आता नही ,बात हो सकता है की ये कड़वी लगे,पर क्या करूँ झूठ बोला जाता नही ,दिल तो करता
जड़ता मानव की भूल है ,चाहे रिश्तों की हो ,चाहे जीवन की हो ,चाहे ज्ञान की हो ,चाहे अज्ञान की हो ,चाहे धन सम्पदा से हो ,चाहे प्रेम से हो ,क्योंकि रिश्तों की जड़ता आदमी को अभिमान बढ़ाती है ,जीवन की जड़ता आदमी को महत्त्वकांक्षी बनाती है ,ज्ञान की जड़ता आदमी को आत्मविश्वास बढ़ाती हैअज्ञान की जड़ता आदमी क
कर एहसान ,आज एहसान को तरस गई,दे पहचान तुझे,आज अपने पहचान को रो गई,बड़ी ममत्व लुटा,तुझको पाल पोस कर,आज खुद ही तुम्हारे रहमो करम की दास बन गई,कर न्योछावर तुझपर अपने ममता को,आज खुद ही दया को तक गई,अब तो अदा कर मेरे कर्ज को,कर्ज देकर आज मैं क्यों कर्जदार हो गई,दे कर अस्तित्व तुझे इस जहां में,आज खुद ही इ
नजर जहां में ,जहाँ तक पहुँची ,सिर्फ दिखा हरतरफ ,ज्ञान का भंडार ,चला बढ़ने मैं भी ,अर्जित करने को ज्ञान ,कांप उठा तन बदन ,हृदय में हो गया ,कोलाहल का संचार ,जब "मैं" ने देखा बारम्बार ,पढ़ लिख कर सब ने किया ,सिर्फ एक मापदंड ,परिधि का निर्माण ,चाहे गीता , बाइबिल , कुरान हो ,या कोई वेद , ग्रंथ , पुराण ,श
नारी का अपमान ,है बहुत ही नीच काम ,चाहे वो किसी की ,बेटी हो , पत्नि हो , मां हो जनाब ,क्योंकि सब मजहबों सब धर्मों से ,और सभी जाति पंथ से परे है वो ,कर अपमान तुम उनका ऐ मेरे बंधु ,खुद ही प्रश्नचिंह लगाते हो ,अपने संस्कार और संस्कृति पर ,चाहे जिस जाति धर्म से बिलौंग करते हो आप जनाब।🤔धन्यवाद 🙏
निशब्द तेरी हर बात रे मानव ,निशब्द ही तेरी हर विचार ,निशब्द तेरी आंसू रे मानव ,निशब्द ही तेरी हर भाव ,रूदन कुंदन करने सब लगे ,नेता मिडिया सोशल नेटवर्किंग बेसुमार ,जब नशे में आपा खो कर ,वाद टाब में कोई सेलेब्रिटी डुब मरी आज ,कान पर जिनके जूं तक ना रेगें ,जब एक प्लेट चावल के लिए ,कत्ल कर दिया गया था
स्तब्ध होना ही ,तेरा मेरा फितरत बंधु ,क्योंकि मानव नहीं कोई कलाकार ,कर ले चाहे तू ,कितना भी उम्दा अदा ,पर है नहीं मेरा तेरा कोई पहचान ,ऐ भीड़ , ऐ मजमें ,है सिर्फ दिखावा मेरा तेरा ,जब तक नहीं है ,तुझको मुझको आत्मबोध ज्ञान ,बिना आत्मबोध मानव ,दर्शक ही तो है बंधु ,स्तब्ध रहना ही ,दर्शक की फितरत और पहचा
बलात शोषण होता कहां ,यहां तो सिर्फ सर्वार्थ में ही ,शोषण कराये जाते हैं ,कर कर के नीति और ज्ञान की बातें ,यहां रसोईघर में सिर्फ स्वाद के लिए ,बेजुबान निरपराध पकाये जाते हैं ,माफी मांगता कोई गुनाहगार कहां ,यहां पढ़ के नमाज सिर्फ मस्जिदों में ,माफी की रश्में निभाई जाती है , फिक्र कहां किसीको किसीका यह
आओ चलें ,होलिका जलाएं ,असत्य को जलाएं ,सत्य को बचाएं ,सत्य की आड़ में ,न असत्य को बचाएं ,असत्य पे सत्य ,के खोल को हटाएं ,आओ चलें ,होलिका जलाएं ,चमन को उजाड़ ,बहुत पेड़े जलाएं ,गोबर के कंडे को ,बहुत घीएं पिलाएं ,आओ चलें ,होलिका जलाएं ,हिंसा पर चढ़ी ,अहिंसा के लेप को गलाएं ,भूख भ्रष्टाचार अशिक्षा भेदभ
असमंजस में हूँ,,क्या कहूं ,,वजूद तेरा तो हरदम रहा,,मैं ही था लापरवाह ,,तभी तो ढूंढता रह गया,,कभी मैयखानो में जाम बनकर,,कभी पगडंडियों की धूल बनकर,,कभी किताबों की तकरीर बनकर,,कभी मंदिरों के घंटों में,,कभी मस्जिदों के आजानो में,,सिर्फ खो कर रह गया ,,कभी अपनापन की दिखावे में ,,कभी गैरों से शत्रुता निभान
अति शब्दो की बन जाती है अपशब्द ,आवेशित मन ही हो जाती है निशब्द ,शब्द ही है शक्ति ,शब्द ही है भाव ,सदा अनमोल शब्द ही ,जो कराये व्यक्तित्व की पहचान ,असहज खुद ही हो जाता है ,रुबरु जब छोटी बड़ी ,असहज घटनाओं से होता है ,रोजमर्रा की जिंदगी में ,अपने आसपास , खुद के साथ ,पड़ोस में परिवार में ,दोस्तों के साथ
दोस्तों प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले जजों को मेरी शुभकामनाएं और बधाइयां और कुछ चंद लाइनें प्रस्तुत है , आप भी पढ़ें और उन तक पहुंचाने में मेरी मदद करें -------बंद करो ये हाहाकार ,कहां खतरे में है लोकतंत्र मिलार्ड ,याचिका ठुकरा काशमीरी पंडितों की ,दर्द बांटते रहे रोहिंग्या मुसलमानों के मिलार्ड ,बेच कर
वक्त तो रेत है ,,फितरत तो है इसका फिसलना यारों ,,जीवन तो एक कारवां है ,,दस्तूर तो है इसका गुजरना यारों ,,जड़ता ना बन तू मैं की ,,शून्य से उत्पन्न ,,शून्य का ही अंश हो ,,पहचान ही तेरी शून्य है प्यारों ,,चल मुसाफिर अपने धुन में ,,धुन ही तो है परम आनंद यारों ,,ऐ चिज़ नहीं है प्रर्दशन की ,,ऐ तो आत्मसंतो
हर तरफ गूंज उठी ,बेजुबान निरपराधों की चिखे भाई,पट गई नालियां खुनो से ,तुमने ये कैसी खुशी मनायी ,छिन जीवन ,कितने निरपराध आत्माओं का ,भाई तुने ये कैसी बकरीद मनाई ,है कितना जीवन ये अनमोल ,तुमने इस बच्चे से भी ,सीख नहीं पाई भाई ,आपको ही मुबारक हो ,ये खुशियां की बरसात करती त्यौहार भाई।।🤔धन्यवाद🙏👉संजय
आओ चलें मिल कर मनाएं ,आ गया अब नया साल है ,प्रस्फुटित हो गई ,सारी सृष्टि और वनस्पति ,पके मिठे अन्न के दानों सेे ,आम की मन को लुभाती खुशबुओं से ,गणगौर पूजती कन्यायों और नारियों के ,हाथों की हरी-हरी दूबो से ,बसंत दूत कोयल की ,गूंजती स्वर लहरियों से ,आओ चलें मिल कर मनाएं ,आ गया अब नया साल है ,चारों ओर
उदास लम्हों का ,कहां कद्र होता है ,निशां उसी का रहता है ,जिसका वजूद ,तुफां में भी बरकरार रहता है ,बस यही सोच कर ,तुम अपना ख्याल रखना ,किसीकी जिंदगी में आज भी ,तुम्हारी खुशियों का इंतजार रहता है ,होती कहां जिंदगी फुलों की ,उनकी जिंदगी तो सिर्फ ,दूसरों के खुशी पर कुर्बान होता है ,मसलकर कर देख लो ऐ दोस
कैसे अजीब रिश्ते हैं इस दुनियां में ,मिलते हैं दो पल के लिए ,साथ चलते हैं कुटिल मुस्कान लिए ,बचके निकलते हैं सब ,जब कोई मोड़ आए ,कैसे अजीब धुन है अपने आप की ,सब है दिवाने सिर्फ अपने ही धुन की ,किसको पड़ी है किसकी ,सबके लबों पे है ,सिर्फ अपने ही फंसाने ,ख्वाबों की ये है दुनिया ,सिर्फ ख्वाब ही प्यारे
कहीं जात-पात की डगर,,कहीं अपने पराये का सफर,,कहीं मजहबों का अंम्बार,,कहीं रिश्तेदारों की भरमार,,बन पगडंडियों की जाल,,ढक लिये सड़कों को आज ऐसे,,लगे जैसे हो मकड़ी का जाल,,मानव उस बिच फंसा हो ऐसे,,लगे मच्छड़ फंसा हो मकड़ी के जाल में जैसे,,सोचने की विडम्बना ही ,,व्यथा हो गई,,एक के जाल ने,,अपना भोजन तलाश
सब्र करले बंदे ,तेरे हर सवाल का , जवाब होगा ,मत बन अपने ,स्वार्थी महत्त्वाकांक्षाओं का ,गुलाम कंधार जैसा ,खंड खंड बंट रही भारती का ,अखंड निर्माण होगा ,हंसी उड़ा ले ,कहकर मुझे भक्त मोदी का ,होकर कुंठित मानसिकता का ,शिकार नंद वंश के सम्राट घनानंद जैसा !🤔धन्यवाद 🙏जय हिंद 🇮🇳 _____संजय नि
चादर चढ़ा मुर्दों पर ,खिला के लाखों भोग पाकवान पत्थरों को ,ऐ कैसा रिवाज बना डाला ,पत्थर हो गये खुद ही ,मानवता को कुचल डाला ,तोड़ मरोड़ कर वेद पुराण शास्त्रों को ,ऐ कैसा अर्थ निकाल डाला ,गाली दे दूसरों को ,शोषित कर मजलूमों को ,कर इजाफा बलात्कार में ,अभिव्यक्ति , पुरुषार्थ और महिला सशक्तिकरण का ,क्या
तुम भी तो अंश हो ,तुम में भी रब समाया है ,उठते क्यों नहीं तेरे हाथ ,जब किसी और को कोई दबाता है ,आज जो तुम कहके प्रचारित करते ,भगतसिंह थे नास्तिक ,उसने तो अपना फर्ज निभाया था ,देकर अपना शीश बलिदान ही ,अंग्रेजों को ललकारा था ,स्वराज्य की मांग कर ,सोते हुए को जगाया था ,कांप गई थी उनकी रुहें ,जो राम नाम
मिलकर बिछुड़ना लोगों का जिदंगी का दस्तूर बन गया , जिंदगी का वो हर एक पल जीवन का इतिहास बन गया , कारवां गुजर गया पढते पढ़ते इस इतिहास को , मालूम हु यी ना राज बिछुड़ने का , सिर्फ ये प्रकृति के बदलाव का बहाना बन गया ।। धन्यवाद
बाप दादाओं के लगाएं पेड़ों से ,कबतक फल को तोड़ोगे ,तुम भी तो कुछ पेड़ लगाओ ,अपने पसीने से ,इस धरा को भिगाओ ,खुशबू बन महक जाओगे ,अन्यथा भटककर जाति-पाति में ,वर्णसंकरित हो जाओगे ,ना रहेगी पहचान तुम्हारी ,परजिवि बनकर तुम ,सिर्फ सभाओं और मंचों पर ,दलित सवर्ण चिल्लाओगे ।🤔😔धन्यवाद 🙏 _____स
जीवन के सफर में ,ऐ रिश्तों की लड़ियां सुहानी ,माता पिता, भाई बहन , पति-पत्नी , पिता पुत्र , चाचा-चाची , गुरु छात्र की ,अनगिनत मोतियों की कहानी ,फिर भी बनता नहीं माला यारों ,जब तक जुड़ता नहीं अनमोल मोती ,जो है मित्रों की निशानी ,है ये गजब कहानी इनकी ,मिल जाते हर जगह यूं ही ,चाहे ट्रेन का वीराना सफर ह
पक रहे हैं हर तरफ ,कहीं गेहूं के बाले ,कहीं पांवों के छाले ,कहीं कुंठा की खुमारी ,कहीं रंग बिरंगी सपने ,कहीं अभावों के लड़ियां ,कहीं अरमानों के आंसू ,कहीं महत्त्वाकांक्षाओं के चाभूक ,कहीं निराशा के दीपक ,कहीं आशा की बाती ,सबको तो छिन्न भिन्न हो जाना है ,कुछ को तो बीज बन उग जाना है ,कुछ को सड़ गल नष्
पेंदी में छेंद देख कर भी , निराश ना हुआ , ना पाया सामर्थ्य सुरक्षित रखने का , पर कभी हताश न हुआ ,कर इकट्ठा कंकण पत्थर ,लगा कर ढेर मिट्टी रेत का ,उसके अवगुणों को छान गयाहो कर निर्जीव भी ,मटका अपना अस्तित्व बचा गया ।।🤔धन्यवाद 🙏
दर्द तो स्वंय मचल गया ,इसमें गीतों का अपराध नहीं ,हम तो स्वंय ही वेघर हुए ,इसमें तेरा गुनाह नहीं ,जो कुछ भी मिला ,उसमें ही संतोष किया ,घिरा अभावों की सीमा में ,फिर भी तो परितोष किया ,पर अब अकुलाया सा धीरज ,देख तेरी कुंठा ग्रस्त मानसिकता को ,असहयोग करने को आतुर ,आंसू बन लुढ़क गया ,पलकों का भी अपराध न
सोचो और विचार करों ,गलती तुम्हारी और सजा ,कोई और क्यों भुगते ,धर्म मजहब चाहे जो भी ,हर चक्की मे नारी ही क्यों पिसे ,कभी विधवा हो ,श्रृंगार क्यों तजें ,कभी सतित्व के नाम पर ,चिता में क्यों जले ,आपा खो अपना ,तुम तलाक का ऐलान करो ,सौंप तन वो दूसरे को ,हलाला का घुटन क्यों सहे ,पुरूष हो तुम ,है ऐ पुरुष प
किसको पड़ी है ,सत्य और न्याय की ,किसको पड़ी है ,मानव और ईमान की ,किसको पड़ी है देश और मानवता की ,कहीं बिहारी ,कहीं पंजाबी ,कहीं बंगाली ,कहीं मलयालम ,कहीं कन्नड़ ,कहीं उड़िया , तमिल और मराठी की ,कहीं मुस्लिम ,कहीं हिन्दू , क्रिस्चियन और पारसी की ,कहीं क्षत्रीय ,कहीं वैश्य और शूद्र की ,ढूंढने वाले ढूं
कुंद कुंद मुस्काता जीवन मंद मंद बिचलित करताकभी हताशा कभी निराशा में भी पथ निर्मित करतानरेंद्र कपोलों का आगमन हरदम खुशी खुशी करताजर्जर खंडहर हो चुके महलों कापरित्याग दुःखी दुःखी करताहरदम निर्मित कर दोष किसी परअपना पतन स्वयं करताकर्म फल को श्रृष्टि चक्र बताअपना मन सिर्फ हर्षित करतादेख व्याथा की ऐ प्रक
दोस्तों जिंदगी अगर शतरंज है ,तो मुकाबला भी खुद से ही है ,फिर ऐ शिकन की रेखाएं क्यों ,क्योंकि अपने हिसाब से ,चलता नहीं खेल ,हर रणनीति सफल हो ,ये कोई जरूरी नहीं ,चाल पीछे भी लेनी पड़ती है ,मकसद के साथ होती है चाल ,बड़े मोहरे ही नहीं जिताते ,धर्य रखना भी जरूरी है ,हार भी तो गलती ,सुधारने की पथ निर्माण
कण कण में ब्रह्म बसेंजन जन में परमानंद ,प्राणों को भय डसे ,मन में बसे सिर्फ सर्वार्थ ,मानो या ना मानो ,है आपकी मर्जी जनाब , लेकिन कर लेना एक बार विचार ,नहीं खोना दो चीजों को ,चाहे छुट जाए संसार ,यही दो अटल है ,अन्न के कण , और ,आनंद के क्षण ,बाकी सब मोह-माया का तिक्रमजाल ,🤔हमेशा मुस्कुराते रहिए
टुट रहा हूँ ,जूझ रहा हूँ ,अपनी ही नादानियों से ,काश अगर बच सकता ,जड़ता की प्रवृतियों से ,आज टूट जूझ नहीं रह ,रहा होता अपनी ही नादानियों से ,निंद नहीं है आंखों में ,चैन खोया अपनी ही बातों से ,काश कभी बरी हो पाता ,अपने पराये के भेदों से ,नींद चैन आज नहीं खोता ,अपनी ही लब्जो के कारगुज़ारियों से ,जीवन क
जिन्दगी नीरस है,,या ऐ निराश है ,,ये मुस्कान जिंदादिली की पहचान है ,,या कुटिलता की निशान है ,,ये देख कर निराला उदास है ,,या ये आपकी सोच का परिणाम है ,,पर कोई बात नही प्यारे ,, ऐ दिल आपका शुक्रगुजार है ,,जो आपके अनछुए लमहों का एहसास है !!🤔धन्यवाद🙏
हे प्रभु आज जो ,तेरा प्रमुख अविष्कार था ,वो ही आज तुम पर ,अपने कर्मों और कर्त्तव्यों से , प्रश्नचिंह लगा गया ,करके आज अपने ,नैतिकता का पतन ,आज तेरे अस्तित्व पर ,भी सवाल उठा गया ,या तो तेरा कथन वो झुठा ,या हो सकती होगी ,मेरी अज्ञानता भी ,लेकिन ये तो सच ही है ,आठ माह की बच्ची में भी ,सिर्फ दिखी हैवानो
जानता हूँ ,पर मानता क्यों नहीं ,हो सकता अभिशप्त हिन्दू भी ,होकर अपनी सहिष्णुता का गुलाम ,जानना क्या मेरे भय की पहचान ,नहीं मानना क्या मेरे आत्मा की आवाज ,शायद हो सकता हो ,क्योंकि भय तो वहम मन का ,जिसको सिर्फ भटकाना काम ,आत्मा ही तो अजर अमर ,जिसको नहीं कोई पहचान की दरकार ,फिर कैसे मौन साध लूं बंधु ,ज
खुद ही ब्रह्म के अंश है ,फिर दूसरे की छाया ,का क्यों प्रतिविम्ब बने ,दूसरे की आक्षेपो से ,निराशा को क्यों धरे ,तजके सुख चैन को ,अशांति को क्यों धरे ,निराशा तो आशा का ,प्रति फल प्रसाद है ,अपेक्षा और उपेक्षा ,जैसे वृक्षों का ,खट्टा मीठा फल ,का उपहार है ,क्यों नहीं ,तज दे निराशा को ,और अपने कर्त्तव्य प
बना कर मंदिर और मस्जिद , ईश्वर को इंसान बना दिये , रहकर सानिध्य मे उनके , मानव आज इंसान न बने , पढ़ के गीता और कुरान , आज महान बन गये , लाद कर सारी जिम्मेदारी, भगवान पर , खुद पालनहार बन गये ।। धन्यवाद
किंचित मात्र ,भी चिंतित नहीं ,हो रहे ,संस्कृति और संस्कारों के ,ऊपर प्रहारों से ,ऐ तो होना ही था ,वर्णसंकरित स्वार्थी समाजों से ,मगर ऐसा नहीं ,व्यथित नहीं ,देख कर हालातों को ,हैं नहीं नैतिकता जिनमें ,संस्कारों का तेज नहीं ,जानता हूँ ,चिर निद्रा में मदहोश हो ,अब तुम क्या जागोगे ,बिक चुका है ,आत्मसम्म
मन कौतूहल है ,थर-थर कांपता तन है ,तिल तिल खत्म होती ,यौवन घी का भय है ,या बुझने को आतुर ,दीपों का धुंधला पन है ,बात जो भी है ,लेकिन बोझिल मन ,और उदास लम्हों के ,क्षण के साथ ,घुटता जीवन का निरलापन तो है !!🤔धन्यवाद 🙏 __संजय निराला ✍
उत्पन्न होते अनेक पुष्प ,इस धरा के उपर ,वैसे ही तो पलते भ्रूण ,माता की कोख में आकर ,कुछ सूख जाते हैं ,मौसम की थपेड़ों से ,समझौता कर के ,जैसे कुछ खप मिट जाते हैं ,स्वार्थी महत्त्वाकांक्षाओं में पड़ कर ,कुछ अमर हो जाते हैं ,भगवान के चरणों में चढ़कर ,जैसे कुछ शहिद हो जाते ,दमन अत्याचार और अन्याय से लड़
दोस्तों जब भी कोई भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को हाईजैक कर , सिर्फ ये कहता है कि अहिंसा से , या कहें कि सिर्फ गाल पर थप्पर खाने से आजादी मिली , तो ये बहुत ही दुखद है । क्योंकि उसका मकसद सिर्फ आजादी का श्रेय सिर्फ गांधी जी को दे कर गांधी नाम को महिमा मंडित कर अपना सर्वार्थ सिद्ध करना चाहता है । उसका मकस
मैं तो मजदूर हूँ जी ,उसूलों को ढोने ,को मजबूर हूँ जी ,तोड़ता हूँ पत्थर ,बहाकर अपने लहू पसीने में ,ढोता हूँ बोझ अपने कंधों पर ,भूखे पेट भी रहकर ,बनाकर अनेकों इमारतें ,इन्हीं हाथों से ,खुले छत में सोने को ,मजबूर हूँ जी ,ना जाने कितने ,छू ली आसमान ,मेरे भूखे पेट पर ,पैर रखकर ,लुढ़कता ही रहा ,मैं तो ,लु
हे भगवान ,कैसे कैसे ,प्रवृत्तियों का निर्माण किया ,तुने इस जहां में ,कहीं बच्चों पे जूलूम ,कहीं चिर हरण कर अबला का ,थकते नहीं हाथ ,इस जहां में ,अटल है तेरी बात निराली ,मृत्यु ही सत्य ,जीवन की कहानी ,फिर भी कहा ,कांपती हाथे ,मजलूमों पर करते अत्याचार से ,सब कहते हैं फर्क होता ,अपने और परायों में ,लेकि
वाह रे प्रजातंत्र ,वोट देने के अधिकार में ,अपना हक भी खो गए ,कहने को तो राजा है ,पर आज रंक भी ना रहे ,मांगा जो रोटी पेट के लिए ,मिला जवाब यही हरबार ,वोट देने का अधिकार तो दे दिए ,अब तुम्हीं ही तो राजा हो ,रोटी के लिए ,हाथ पसारे क्यों खड़े हो रहे ,वाह रे प्रजातंत्र !!🤔😔😈धन्यवाद 🙏 __
भौतिकता के जमाने में ,मानव आज सद्व्यवहार ही भूल गया,अंधभक्त हो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का,भविष्य क्या ?वर्तमान में ही ,एक दूसरे का घोर विरोधी हो गया,हुआ विकास वर्तमान में ,ऐसी धार्मिकता रहित शिक्षा का,मानव आज दानवता की ओर, अग्रसर हो गया ,होने लगे हर तरफ ,ऐसे आण्विक अस्त्रो का अविष्कार ,जैसे मानव ही
गुण हमेशा भारी रुपों पर ,यही सत्य का विधान रहा ,कोकिला की मीठी कुक से ,चारों दिशाएं गुंजायमान रहा ,अपनी बलिदानी गाथा से ,इस धरा की पताका ,हमेशा आसमां में फहरा रहा ,पालन करों अहिंसा परमो धर्म की ,पर धर्म हिंसा तथेव च का ध्यान रखो ,धर्म नहीं है खान पान की ,रंगों की मोहताज नहीं ,नैतिक मूल्यों का न हो ह
लपर लपर कर , जीभ चलत हैं ,चपर चपर कर मुंह ,मचल मचल कर ,ऐसे चलत है ,भों भों कुत्ते ,जैसे करत उद्घोष हो भैया ,जैसे करत उद्घोष ,सब तो इसमें ही ,मगन हो भैया ,कौन निभावत है मानव धर्म ,शोषण , बलात्कार ,आम बात हो गईल है ,राजा हो या रंक ,आत्मसम्मान और स्वाभिमान ,मोल बिकत है ,पैसा ही हो गईल ,सबकुछ हो भैया ,
क्या खोया ,क्या पाया ,कौन बराती ,कौन साथी ,आंकलन में ,आंख मूंद गई ,आंख खुली तो ,शमशान में ,जल रही थी ,लाश हमारी ,हो गई ,सफर पूरी ,बस इस मलाल में ,काश आंख ,खुली होती ,जब लाश थी ,इस जहां में ।🤔धन्यवाद 🙏 _____संजय निराला ✍
बचपन गुजरा सुन सुन कर,यही कड़वा सत्य पुरानी,बुंद बुंद से भरता घड़ा ,पर करता हर कोई नादानी,देख कर जवान हुए,बारिश का ये टिप टिप बुंदाबांदी,फिर भी अज्ञानतावश सिर्फ,कुछ ज्यादा की उम्मीद लिए,सिर्फ खिन्नता के भाव लिए,भागदौड़ में बीत गयी जिंदगानी, कभी अपनों को रूशवा कर,कभी तोड़ भरोसा गैरों का,विचरण करते रह
तम रज सत से ,उत्पन्न ऐ तन ,पंचतत्व के मिश्रण से ,अस्तित्व में आएं ,गुण व तत्वों की यही विशेषता ,अपनी प्रवृत्ति की महत्ता दिखाएं ,उत्पन्न जिससे ,उसमें ही मिलकर ,इस तन का अस्तित्व गंवाए ,आत्मा तो है अजर अजन्मा ,ऐ कहां किसी के पकर में आएं ,जकड़ ना पाए जिसको कोई ,समझ ना आए ,काहे तू उसके लिए नीर बहाए ,सु
मैं आग भी ,अलाव भी ,छेड़ोगे तो ,जल जाओगे ,पास नहीं तो ,ठिठुर जाओगे ,भूल न कर ,मुझे धर्म समझने की ,मैं इस धरा का ,सब धर्मों का विस्तार हूँ ,मैं हूँ सनातन ,निष्काम और निर्विकार हूँ ,बन बैठे हो ,जो तुम अभिमानी ,संधि विच्छेद कर ,मुझको धर्मों में ,मैं नहीं परिभाषित तुमसे ,दिख रहा तुम्हारे कर्मों से ,बंट
अदभूत नजारों के ,ऐ अदभूत विचारें ,उत्पन्न उसी से ,उसी के इज्जत उतारें ,देख व्यथित हुई ,श्रृष्टि के तत्व सारे ,कहीं तुफान , कहीं बरसे ,आसमान से शोले कहीं धरती उगले लावे ,अब तो सम्भलो ,हे पुत्र हमारे ,कहकर माता तुमको पुकारे ,अदभूत नजारों के ,अदभूत विचारे ,अब तो सम्भलो ,हे पुत्र हमारे ।🤔धन्यवाद 🙏
स्वभावतः सब कहते है कि जबतक बच्चा रोयेगा नही तब तक मां को एहसास नही होगा कि उसका बच्चा भूखा है , अगर इस प्रकार मां की सोच क्या मां की ममत्व पर प्रश्नचिन्ह नही है ? क्यों करते हो बहाना अपनी नाकामियों को छिपाने मे , पड़ के अपने स्वार्थ मे क्यों लगाते हो प्रश्नचिन्ह उस ममत्व के ऊपर जो अपनी
दिन गये अब रोने के भैया ,हंसने की बारी आई ,एक मंच पर सब दिखे ,भ्रष्टाचारी लाचार खड़े ,जब हिन्दुस्तान की जनता जागी ,बात नहीं अब दाल रोटी की ,पेट्रोल डीजल पर बात आई ,एक बार और विश्वास करों ,पहले तो दर दर बिलख रही थी ,अम्मा स्वंय अपने अस्तित्व और सम्मान को ,इससे अच्छा दिन और क्या ?जब अपने नवजात विकास प
धर्म तुम्हारे ,जो भी हो प्यारे ,है तुम्हारी मर्जी , पर तेरे कर्म से ही ,निर्धारित होती ,तु कितना निष्ठावान ,हो प्यारे !!🤔धन्यवाद 🙏जय हिंद 🇮🇳वंदे मातरम् ____संजय निराला ✍
दोस्तों स्वार्थ से प्रेरित किसी भी सृजन का फल उत्तम नहीं होता । ऐ स्वार्थ केवल स्वतः का ही नहीं बल्कि समुदाय का भी हो सकता है । यह न केवल समाज के लिए बल्कि किसी भी राष्ट्र के लिए भी घातक हो सकता है अतः इसका विरोध प्रत्येक कदम पर तथा दृढ़ता के साथ होना चाहिए । कल्पना नहीं थोड़ा विचार किजिए , क्योंकि क
जमाने के ऐसे कालकूट की कराल में,उम्मीद की किरणें कहाँ से लाएं आज,इस भय से अगर हार बैठे हो दोस्तों,कैसे खुद को आशावादी कहते हो यारों,जो देखना चाहते हैं फूल इस जहां में,उनके लिए ही मौजूद होता फूल इस धरा पे,प्रश्न आपका भी लाजिमी है यारों,उम्मीद की कोई वजह तो हो प्यारों,कोई एक छोर तो मिले ,पकड़ जिसको ऊप
मदहोश ना हो ,आवेग के आवेसों में ,प्रभावित ना हों ,मन के उद्वेगो से ,कुंठित ना हो ,अभावों के समस्याओं से ,पथ है पथरीले ,चलना थम थम के ,राह है अनजाने ,चलना संभल संभल के ,ऐ धुंध तो छटेंगे ,ऐ घटा तो हटेंगे ,बार बार उमड़ के ,फिर भी ना टिकेंगे ,निराश ना हो राही ,लालिमा की खोल से ,ऐ सूर्य तो निकलेंगे ,कहीं
तप रही है धरा ,सर्वार्थी तत्त्वों की तपिश से , जल उठे तन बदन ,पर निवृत्ति ना मिली ,स्वार्थी तत्वों के महत्वकाक्षांओं से ,किसको दोष दे ,किसको नहीं ,सब तो ग्रसित ही है ,स्वार्थी महत्त्वाकांक्षाओं की बिमारी से ,समझ न पाता ,कैसे लगी ये बिमारी ,जो वर्षों जकड़ ,लहुलुहान हुआ हो ,गुलामी की जंजीरों से ,वेद प
ऐ जग तो है भुल भुलैया ,तु काहे इसमें भुलाए रे ,मालिक बैठा घर के भीतर ,काहे बाहर आश लगाए रे ,शनै शनै ऐ बीत रहा पल ,चेत धरो अब तो जागो ,फिर पाछे पश्चाप की घड़ी आये रे ,नीर रुकेंगे ना अंखियों से तेरे ,अब जो समय गंवाए रे ,ये जग तो है भूल भुलैया ,तु काहे इसमें भूलाए रे ,छोड़ ऐ गठरी भावनाओं की ,आस्था की न
सरकार बदलीना ही बदली कायाबदल गये अधिकारी गणना ही बदली तुष्टीकरण की नीति और नीयत का पिटारा लग गये सिर्फ पोस्टर और बैनर"सबका साथ सबका विकास का"फिर भी न्याय को तरसती रहीआज भी कमजोर , लाचार , गरीबों , अबलाओं की काया ,कहीं ये सत्ता का हस्तांतरण का खेल तो नहीं सपा का जाना बीजेपी का आनाजैसे अंग्रेजो का जान
रात गई ,सब लटके तारें ,अब तो जाग ,मुसाफिर प्यारे ,लालिमा की हुई अलंकारे ,देखो रथ पर चढ़ ,अब रवि पधारे ,चिर निद्रा में ,तुम अब भी खोए ,देख चहक रही पक्षी सारे ,रात गई ,सब लटके तारें ,अब तो जाग ,मुसाफिर प्यारे ,ऐ दुनिया तो है रैन बसेरा ,चल कर अपना सफर प्यारे ,रात गई ,सब लटके तारें ,अब तो जाग ,मुसाफिर प
दूर छितिज पर उड़ता परिंदा ,मन मोहे हर कोय ,थक हार जब गिर पड़े ,पत्थर मारे सब कोय ,होती पूछ हरे भरे पेड़ों की ,जो मिठे फल देते भरपूर ,कट के अलाव में जल जाते ,चाहे घास फूंस झाड़ी ही ,हरे क्यों न होय ,है ये तथ्य ,जो साबित करते ,दूर के ढोल सुहावन लगते ,पूजा होती उनकी ही ,जो सिर्फ देते रहते ,फिर किस धुन
रात की आगोश में ,प्रकृति की गोद में ,दर्द से वसीभूत ,जब सर रख कर सोया ,गर्मा गरम हवाओं ने ,प्रकृति की विपदाओं ने ,टकरा कर मुझसे कहा ,दुखी क्यों हो अपने दर्द से ,ऐ दर्द भी तो ,तेरे अनियंत्रित श्रम का फल है ,जिसको तुमने मुझको दिया है ।धन्यवाद 🙏 ____संजय निराला ✍
ऐ शहर हमारा,ऐ गलियां हमारी,आज क्यूं लगे अजनबी परायी,माना सर्वार्थ में अंधा हूँ,पर भूत नहीं,चौराहों पर खड़ा रहूं,स्नेहपूर्वक पाला पोसा इन गलियों ने,खुदगर्ज नहीं ,जो इनकी आह सुन भी ना हो पाऊं,उठो जागो ऐ मेरे बंधु,चिर निद्रा अब त्यागो,अपने पराये का भेद भूला के,ऊंच नीच , अमीरी गरीबी का,राग द्वेष मिटा के
बांट दिया ,धरा को तुमने ,फिर भी धरा ने ,धैर्य ना खोया ,तृप्त किया देकर ,अन्न जल फल तुमको ,फिर भी तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा ,पर लगाम नं लगा ,पॉलिथीन कार्बन डाइऑक्साइड ,और अम्ल की बरसातों से ,फिर भी तुम्हारा दिल न भरा ,काट कर पेड़ पौधों को ,प्रकृति को असंतुलित किया ,लो भुगतों अपने कर्म फल को ,बदल गई चा
खुद की तलाश में ,सफरों के सफर में ,बिन हमसफर चल पड़े ,सुनसान डगर ,अनजान सफर ,ना रहनुमा कोई ,सिर्फ कटीली झाड़ियों के बीच ,संकिर्ण पथरीली डगर ,पर निकल पड़े ,एक आस बस तूं ही प्रभू ,ना सपने में कोई ,ऐ क्या राह बतायें किसीको ,जिन्हें अपने राह का पता नहीं ,ऐ तो खुद ही भटक गए ,मान खुद को भगवान !🤔धन्यवाद
कौन जुदा किससे यारा ,सबने तो सिर्फ ,एक दूसरे के लिए ,जीया और मरा ,रात को भी हरदम ,इंतजार सुबह का यारा ,चांद को भी हरदम ,इंतजार सूर्य का यारा ,खुशबू भी कब कहां ,जुदा मौसमों से यारा ,ऐ तो बने ही है ,एक दूसरे के पूरक ,निमित्त भी एक दूसरे ,के लिए ही है यारा ,अस्तित्व भी इनकी ,एक दूसरे के लिए ही ,फिर तो
ऐ तन मेरा ,हाड़ मांस का लोथड़ा ,जैसे गारा मिट्टी से बना ,एक काल कोठरी समान ,आत्मा उसमें दीप सा ,जैसे आसमान में ,टिमटिमाता तारा समान ,मन तो है ज्वार भाटा ,आंधी तूफान जैसे ,हरदम चाहे उसको बुताय ।🤔धन्यवाद 🙏 ____संजय निराला ✍
भरोसे का दर्पण ,आज टूट के ,चकनाचूर हो गया ,न्याय की ,जहां से आश थी ,आज वो मंदिर ,बाजार हो गया ,जालिमों ने अदा कर दी ,मजलुमो की आहों की किमत ,सच सिसक रहा है ,झूठ के सिर ,आज फिर सेहरा बंध गया ,हक की आवाज ,इस दौर में भी ,अब उठाना जुर्म है यारों ,यहां तो सिंहासन ,सौदागरों की जागीर हो गया ,भूख बिलख रहे ब
कुछ भी नहीं यहां तो अपना ,सबकुछ तो यहां पराया है ,है ये गुमान किसका ,सबकुछ तो यहां ,दूसरों से ही पाया है ,माता ने जन्म दिया ,पिता ने दिया तुमको सहारा है ,गुरुओं से ज्ञान पा ,देख कैसे बनता ज्ञान वाला है ,पृथ्वी ने तुझे अन्न दिया ,नदियों ने तुझे सींचा है ,वृक्षों ने तुझे सांस दी ,रवि ने तुझे ऊर्जावान
हमने देखा नाकामियों को ,बहुत कुछ मिलते हुए,और कर्म प्रधानता को ,हमेशा उम्मीद करते हुएजैसे शहीदों को ,दो गज जमीन को तरसते हुए,और सर्वार्थियों के मजार पर,संगमरमर लगते हुए,बड़ी बिचित्र ऐ कहानी है,कड़वा सत्य है आज का,लेकिन निंव तो ये पुरानी है,चापलूसों के सिवा ,यहां किसी की जय जयकार नहीं होती,चाटुकारिता
कुछ भी नहीं है यहां तो अपना ,सबकुछ तो है यहां पराया ,किस बात का तुमको ,अभिमान रे भाया ,किस बात में है तुम भुलाया ,किस बात में है तुम भुला रे भैया ,छोड़ के सब कुछ तो है ,यहां से जाना ,यहां से जाना ,माता पिता ऐ रिश्ते नाते ,सब तो जने है तन के भाया ,सब तो जने है तन के भाया ,रहने का इसका औचित्य कहां रे
वाह वाह ऐ युग पुरषों ,क्या बात है तेरे पुरुषार्थ की ,जब खुद के हाथों में ,नहीं था जोर शस्त्र उठाने की ,गीता के श्लोक का ,आधा गुणगान कर गए ,दम नहीं था जब लड़ने का ,सिर्फ अहिंसा परमो धर्म कह ,लोगों को नपुंसक बना गये ,थे अगर इतने ही बड़े संत ,तो पूर्ण श्लोक क्यों ,नहीं बताया लोगों को ?""अहिंसा परमो धर्
मनवा रे , मनवा रे ,काहे भटकाए ,काहे करें रे झमेला ,बार बार भटकूं मैं जग में ,काहे बनाये ऐ बेला ,काहे बनाये ऐ बेला ,वेद पुराण ॠषि मुनि ज्ञानी ,कह गए यही सब ,अमृत वाणी ,तूं चंचल अति पवन समाना ,मोह माया का बड़ा रे खजाना ,स्वार्थ ना तजे तू ही ,तन को भी उलझाया ,मोहपाश के बंधन में भरमाया ,बंधन में भरमाया
दीप के प्रकाश की उजालों में !सारा जहां जगमग रौशन हो गया !छायी ऐसी जगमगाहट दुनिया में !आंखों पर अंधेरा छा गया !कहीं दीपों के अंम्बार लगे!कहीं एक दीप को तरस गया!कहीं पके लाखों पाकवान लाजवाब!तो कहीं चुल्हे एक दाने को तरस गया!शोरगुल हुयी पटाखों का ऐसा!एक चिख घूंट कर दम तोड़ गया !कह कर क्या संकल्प लें !श
इंसाफ बचा रहा ,इंसान मरते रहे ,हृदयाघात होते रहे ,गर्दन बचते रहें ,वो फुले नहीं समाये ,बांध कर आंखों पर पट्टी ,चौखट पे जिनके ,अपने किस्मत को कोस कर ,तलवे घिसते रहे ,होती रही जिनकी बलात्कार ,उनके के ही घर में ,सबको न्याय देने का ,दम भरते रहे ,जैसे बैठ चकलाघरों में ,कोई पतिव्रता का ,स्वांग रचती रही !�
ऐ मालिक , कितना सुंदरतम ये जहां बनाया , प्यार के पैरोकारों मे , जहाँ गुलाब को नवाजा , वही मानवता के पैरोकारों मे, मानव को अव्वल बनाया , होकर आत्मसात ये गुलाब, अपना किरदार बखूबी निभा गया , देकर दूसरों को खुशी , पैरों से कुचल गया , वही मानवता के धनी , खोकर चेहरों की चमक मे , अपने किरदार को भूल गया
चेहरों मे क्या रखा है , ऐ तो एक दिन जल के खाक हो जायेगा , किरदार निभा ले यारों , ये मरने के बाद भी अमिट छाप छोड़ जायेगा धन्
बड़ी कशमकश मे है रिश्तों का सफर , हर तरफ दाव पर है कर्तव्य और फर्ज , लाचार खड़ा है मानव इस बीमार समाज मे आज , धन्यवाद
हर तरफ गूंज उठी ,बेजुबान निरपराधों की चिखे भाई,पट गई नालियां खुनो से ,तुमने ये कैसी खुशी मनायी ,छिन जीवन ,कितने निरपराध आत्माओं का ,भाई तुने ये कैसी बकरीद मनाई ,है कितना जीवन ये अनमोल ,तुमने इस बच्चे से भी ,सीख नहीं पाई भाई ,आपको ही मुबारक हो ,ये खुशियां की बरसात करती त्यौहार भाई।।🤔धन्यवाद🙏👉संजय
एलार्म की सोर ने,,मुझको झकझोर दिया,,उठ जा प्यारे सुबह हुई,,कह कर मेरे सपनों को तोड़ दिया,,रूष्ट हो क्रोध से,,जब घड़ी को देखा,,सिहर उठी घड़ी,,कांप कर उसके सुईयों ने दर्शाया,,कांपते कदमों से चलकर,,टिक टिक कर बोली,,रुष्ट क्यों होते हो प्यारे,,भूलकर अपने अतीत को,,अधीर हो कर अपने वर्तमान में,,हमने तो अपन
बलात शोषण हो ,तो कोई बात हो ,यहां तो सिर्फ सर्वार्थ में ही ,शोषण कराये जाते ,चूस कर खुन मजलुमो का ,यहां तो मंदिर में सिर्फ ,प्रसाद चढ़ाये जाते हैं ,राग अलाप कर सिर्फ भेदभाव का ,कभी जाति कभी मजहब ,कभी पंत सम्प्रदाय के नाम पर ,सिर्फ वोट उगाये जाते हैं ,फिक्र कहां किसी को इस धरा का ,यहां तो सिर्फ सर्वा
पोथी पढ़ पढ़ ,सब ज्ञानी हुए ,करके एक एक मापदंड ,परिधि का निर्माण ,मिट गयी मानवता तबसे ,जब से आया ज्ञान का अभिमान ,मैं भी चिंतित ,तू भी चिंतित ,चिंताग्रस्त सारा संसार ,मिटे तो मिटे ,ऐ चिंता कैसे ,जब तक ना रूके ,मापदंड परिधि का निर्माण ,हिन्दू कहें मैं बड़ा ज्ञानी ,वेद पुराण मेरी पहचान ,मुस्लिम कहें म