दोस्तों आप भी मानते होंगे या नहीं ये तो मैं नहीं जानता लेकिन मैं तो मानता हूं मनुष्य एक सचेतन आत्मा का घर है । इसमें शायद ही भिन्नता हो , मनुष्य जन्म में स्वंय को जानने का , स्वंय को निखारने का पुरा अधिकार है । अब जो जितना कर्म करता है , उसके अनुसार वो फल पाता है । जैसे कोई मेहनत करता है उस अनुसार मेहनताना पाता है । जिससे वो अपनी जरुरतों को पुरा करता है । बंधु जहां तक मैं समझता हूं हमारे पुर्वजों ने हमें कुछ टास्क दिये है । ताकि हम अपनी काबिलियत सिद्ध करे । वो ये प्रतिक है जो पुर्वजों ने इंगित कर छोड़ा है । हम लोग इसमें अपनी काबिलियत प्रर्दशित भी कर रहे । अब बात है कि कोई कुछ विचार व्यक्त करता है , कोई कुछ । सब एक दूसरे के भिन्न है , लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिना अपना कुछ कर्म किए , बहकावे के मुरीद बनें हुए हैं । मेरा कहने का ये मतलब नहीं की आप वही सही कहें जो मैं कहता हूं , मेरा तो तात्पर्य है आप अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास कर समाज को अपने विचार द्वारा गौरवान्वित करें । अब विचार और चिंतन आपका नैतिक कर्तव्य है । आप इससे असहमत नहीं हो सकतें । बहुत दिन से एक प्रश्न बार बार कुछ कथित बुद्धिजीवियों द्वारा कहा जाता है , यहा कथित बुद्धिजीवी का अर्थ है सिर्फ पहचान , डिग्री । वैसे ही समाज में जिस प्रकार सरनेम का खेल है । छोड़िए इस पचड़े में मैं नहीं पड़ना चाहता , मेरा तो अपना विचार एवं चिंतन है जो आप लोगों के साथ साझा कर रहा हूं । जैसे एक चित्र है जिसे ब्रह्मा के रूप में सभी धार्मिक किताबों में दर्शाया गया है । और उस चित्र में ब्राह्मण को मुख से , क्षत्रिय को बाजू से , वैश्य को पेट से , शुद्र को पैर से इंगित किया गया है । जिसका लोग अपने अपने बौद्धिक क्षमता द्वारा समय समय पर व्याख्या भी किये है और करते हैं । लेकिन हमें तो लगता है सभी लोगों ने इसे समझने का प्रयास नहीं किया है , कुछ ने किया भी तो वो यही मानने लगे की यही आखरी सत्य है । और वो अपने बौद्धिक क्षमता का प्रदर्शन करते हुए अपने जीवन जापन का इससे प्रबंध कर लिए । और तथ्य दिया गया है कि आर्यों ने चालाकी से अपने अधिपत्य स्थापित करने के लिए ऐसा कुचक्र रचा । लेकिन मेरा अपना अनुभव आधारित चिंतन है । यहां मैं अनुभव आधारित कहने का तात्पर्य है , क्योंकि मैं खाता बही लेकर नहीं बैठा हूं , मैंने जो समाज में देखा और मैं उसी के आधार स्वरुप अपने को केन्द्रित रखता हूं । इसका ये भी कारण हो सकता है कि मेरे पास डिग्री नहीं है , और ना ही मैं पहचान का आदी हूं , और ना ही मै अपने आप को इसका हकदार समझता हूं । लेकिन मेरा अपना अनुभव आधारित चिंतन के विचार है , बिना ब्रह्म के ज्ञानी ब्राह्मण नहीं है , बिना पौरुष शक्ति के कोई क्षत्रिय नहीं , बिना कौशल के कोई वैश्य नहीं , बिना सेवा कोई शुद्र नहीं । इस बात का हि उल्लेख बाबा साहेब आंबेडकर जी ने संविधान निर्माण के बाद अपने दिए गए समापन समारोह में कहा , कि संविधान बुरा है या अच्छा इसका कोई मतलब नहीं । ये तो उस संविधान को चलाने वाले पर निर्भर है , वो कैसे इसको समाज में परोसता है ।
अब उस प्रतिक चिन्हों पर विचार करते हैं । ब्राह्मण का मुख्य से दर्शाना ज्ञान का धोतक है न की उत्पत्ति का । इसका मतलब साफ है कि वाणी द्वारा जो समाज में ज्ञान शिक्षा , नैतिकता का विकास समाज में करता है वही ब्राह्मण है । जो अपने बाहु बल द्वारा समाज में धर्म अहिंसा और नैतिकता का रक्षा कवच पहनाता है वहीं क्षत्रिय है । समाज में जो सबके जीने का सामान का रंग रखाव कर आवश्यकता अनुसार समाज में दे कर समाज को कुपोषित होने से बचाता है , वही वैश्य है । जो समाज में सेवा का अलख जगाता है वहीं शुद्र है । और ये सभी मनुष्यों का नैतिक कर्तव्य है । यहां पुर्वजों ने इसे एक तस्वीर में दर्शाया जिसका तात्पर्य है ये एक आदमी के अन्दर निहित है । लेकिन हम अपनी काबिलियत पर स्वार्थी स्वाद को महत्व देते हुए , इसे अलग अलग समुदाय में बांटा और इसके बाद सरनेम का जामा पहना जातियों में । बंधु विचारणीय तथ्य है , रावण पंडित का प्रतिनिधित्व करते हुए भी तिवारी , मिश्रा पांडेय चौबे नहीं थे , राम क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर सिंह सरनेम से सुशोभित नहीं थे । लेकिन फिर हम नहीं समझे ,
तो फिर प्रकृति ने श्री कृष्ण का आगमन का आयोजन किया जिन्होंने ने इसकी पुरा व्याख्या अपने जीवन चरित्र द्वारा प्रर्दशित कर हमें बताया लेकिन हम तो अपने स्वार्थ के स्वाद में लीन अपने कर्त्तव्यों से कन्नी काटते हुए अपने आप को समुदाय , जातियों में बट अपने आपको कथित बुद्धिजीवी होने का प्रमाण देते रहे । बंधु हम जहां रहते थे वहां किसी को दंडवत प्रणाम किया जाता था । लेकिन अब तो ये गुड मॉर्निंग , गुड नाईट के मैसेज से क्रियान्वित हो रहा है । इससे इसका चिंतन तो बेईमानी है । बंधु मैं कोई बुद्धिजीवी नहीं जो शब्दों का जाल फैला अपनी रोटी सेंकने का प्रबंध करु । जैसा कि भगवत गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन दिग्भ्रमित न हो , धर्म शास्त्र और नियम कभी नहीं बदलते । ये हमेशा ही अटल है । लेकिन कुछ बुद्धिजीवी अपने बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल कर वो अपने खाने कमाने के लिए इसमें कुछ बातों को जोड़ अपने भरण पोषण का इंतजाम कर लेते हैं । हम लोगों के साथ वही हो रहा है । हमें जरूरत है बहकावे में न आकर अपने बौद्धिक क्षमता का विकास करने की । आखिर हमारे जन्म का उद्देश्य क्या ?
उसको खोजने का प्रयास हो । और अंत में मैं इतना ही कहुंगा ,
"प्रवृतियां ही महान है ,
राम व रावण भी तो ,
कंस और कृष्ण भी तो ,
जने गये समान है " ।
धन्यवाद 🙏
सुप्रभात 🙏
____संजय निराला ✍️