***ग़ज़ल***
दरिया किनारे फिसलती रेत पर,
बनाना मत कभी सपनो के घर।
यकीं मत कीजिये इक अजनबी पर,
रख कसौटी पर जरुरी हो अगर।
फरेबी,झूठे मक्कारों के दिन हैं,
उठाओ ले चलो अपने समेंट कर।
बुझेगी आग घर जलने के बाद,
तमाशा देखलो हथेली सेंक कर।
धज्जी-धज्जी हो गये हैं पैरहन,
कुछ हो गए नंगे मौसम देखकर।
ला-इलाजे मर्ज का पुख्ता ईलाज,
ज़ख्म-ए- नासूर कर दिया कुरेद कर।
थक-हार करके खामोश बैठे हैं,
अंजर-पंजर सब्र के पुर्जे बटोरकर।