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अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग' के बारे में

संपर्क -- + ९१९५५५५४८२४९ ,मैं अपने विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य की विभिन्न गतिविधियों में संलग्न रहा|आगरा वि.वि.से लेखा शास्त्र एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की ,फिल्म निर्देशन व पटकथा लेखन में व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त की |सर्वप्रथम मुंबई को अपना कार्यक्षेत्र बनाया |लेखक-निर्देशक श्री गुलजार के साथ सहायक फिल्म निर्देशक के रूप में कार्य किया|पटकथा लेखन में श्री कमलेश्वर के साथ टी.वी.के लिए कार्य कर दिल्ली वापस लौट आया|तत्पश्चात दिल्ली दूरदर्शन में दूरदर्शन निदेशक डॉ.जॉन चर्चिल,श्री प्रेमचंद्र आर्या के साथ कार्य किया|साथ ही साथ आकाशवाणी आगरा,दिल्ली,नजिवाबाद केन्द्रों से काव्यपाठ एवं नाटक,एकांकी के लिए कार्य किया |२००२ से अपना व्यवसाय करते हुए साहित्यक कार्यक्रमों में मेहमान वक्ता-प्रवक्ता एवं दिग्दर्शक के रूप में स्वतंत्र रूप से सेवारत हूँ । संपर्क - ९१९५५५५४८२४९

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अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग' की पुस्तकें

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इस आयाम में हिंदी में समाहित क्षेत्रीय ,राष्ट्रीय ,अंतर्राष्ट्रीय ,भाषाओँ से प्रयुक्त शब्दों में रचित-लिखित लेखों का ही सम्मिलन करेंगे |

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इस आयाम में मेरी कोशिश रहेगी की हिंदी में समाहित शब्दकोष और उन शब्दों में लिखित रचनाएं !

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अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग' के लेख

अजनबी क्यों हो गया

12 नवम्बर 2021
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<div>फिर अचानक अजनबी क्यों हो गया,</div><div>क्यों जागाने वाला शहर भी सो गया।</div>

करती रही दुनिया

17 अक्टूबर 2018
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लकीरों के फकीरों को नमन करती रही दुनिया,हुनर की आहुति देकर हवन करती रही दुनिया।शतानन हो गया है अब दशानन हर किसी में है,अभी तक कौन सा रावण दहन करती रही दुनिया।अभी तक भर रहा हूँ आपके खोदे हुए गड्ढ़े,वतन को बेचकर जो घर चमन करती रही दुनिया।दिलासा कैसे दूँ दिल को मेरे अपने ही क़ातिल हैं,हमेशा राम का ही वन

शहर की

16 अक्टूबर 2018
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शहर की बत्तीयां गुल हैं हुक़ूमत के इशारों पर,हवाओं पे लगा इल्ज़ाम फिर बरखा फुहारों पर।हक़ीक़त जानते हैं सब परेशां आम जनता है,नहीं सुनवाई होती है गरीबों की गुहारों पर।लगी है रौशनी भी आजकल महलों की खिदमत मेंयकीं कम हो गया है चाँद सूरज अब सितारों पर।मिटा दोगे मेरी हस्ती नहीं औक़ात में हो

घुला है ज़हर

15 अक्टूबर 2018
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घुला है ज़हर नदियों में तो पावनता कहाँ ढूंढूं,लगी है आग घर-घर में तो शीतलता कहाँ ढूंढूं।सुना है भूख की लोरी सुनी फिर सो गए बच्चे,बहुत मजबूर है मैया मेंरी ममता कहाँ ढूंढूं।उड़ाए बोझ सपनों का खड़े बाज़ार में बच्चे,मैं बचपन की शरारत और चंचलता कहाँ ढूंढूं।यहाँ हर आदमीं मगरूर या वहशी नज़र आये,सभी के हा

गज़ल

14 अक्टूबर 2018
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किसी की शान में झूठे क़सीदे मत पढो,लड़ाएंगे तुम्हें आपस में हरगिज़ मत लड़ो।चलो तो यूँ चलो की रास्ते भी राह दें,झुकाओ आसमानों को सँभल के मत डरो।अधिकतर भेड़िये खद्दर पहन कर आये हैं,शिकारी कूकरों के जाल में तुम मत फंसो।फंसी गुमराहियों के दौर में क़ाबिल जवानी,संवारो तुम इन्हें अपना-पराया मत करो।भ

ग़ज़ल

13 अक्टूबर 2018
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ले लिया संकल्प तो पूरा करो,मुश्किलों से ठोकरों से ना डरो।तोड़ कर चट्टान निकलेगी नदी,मत इरादा मोम का रख्खा करो।सब डराएंगे अंधेरों से तुम्हें,आप सूरज की तरह निकला करो।क्या मिला है क्या मिलेगा सोच ना,खुद को इतना दीजिए छलका करो।रंग खुशबू और हवाओं का हुनर,जोश रग-रग में भरो पैदा करो।जीत हो या हार

जब इरादा नेक है तो देर फिर किस बात की

27 अप्रैल 2018
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जब इरादा नेक है तो देर फिर किस बात की,आओ मिल-जुल के बदल दें सूरतें हालात कीवक़्त से कहदो जरा वो साथ दे खुलकर मेरा,फ़िक्र करना छोड़ दो दिल ख्वाहिशें जज्बात की। ढेर हैं बारूद के चिंगारियों को दूर रख,बंद रख अपनी जुबां मत बात कर औकात की.अपने लहू से सींचते हम सर-ज़मींने-हिन्द की,हम नहीं परवाह करते हैं कभी द

मेरे बिखरे हुए एहसास ये हालात तो देखो

26 फरवरी 2017
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मेरे बिखरे हुए एहसास ये हालात तो देखो,गिरे खंजर पे जाकर फिर मेरे जज्बात तो देखो। उठा कर ले गए वो थे मेरे सम्मान के टुकड़े, रही आँखों से होती बे-हिसां बरसात तो देखो। नहीं बुझती मेरी सांसें ज़हर पी-पी के ज़िन्दा हैं,गुजरते बेखुदी में क्यों मेरे दिन-रात तो देखो। मेरे इखित्यार में अब तो मेरी साँसे नहीं य

रेत का दरिया है साहिल रेत का

25 फरवरी 2017
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रेत का दरिया है साहिल रेत का,डूबा पैमानों में मन्ज़िल रेत का।निकलीं आँखों की उमींदे बेवफा, ढाल-तलवारों का कातिल रेत का। ओढ़कर सोता रहा जो उम्र भर,आस्ती का सांप कम्बल रेत का। पैरहन मेरा कफ़न बन जायेगा,जिस्म से लिपटा है मलमल रेत का।दोस्तों तबियत ना पूछो आज तुम,क़तरा-क़तरा दाग़ पागल रेत का।जिस्म पथराई हुई

हार का जश्न खुलकर मनाते हैं हम

24 फरवरी 2017
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हार का जश्न खुलकर मनाते हैं हम,पर कई मर्तबा टूट जाते हैं हम,हम रुकेगे नहीं हम थकेगे नहीं,जीत के गीत यूँ गुनगुनाते हैं हम।मंजिले अब हमारा जुनूं बन गईं,रास्तों को बनाते मिटाते हैं हम ।जिंदगी से गिला कोई शिकवा नहीं,सिर्फ उम्मीद को थपथपाते

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