प्रफुल्ल नागडा (जैन):
आखिर क्या है कश्मीर के इस्लामीकरण की कहानी...!!!
भाग : १
लोग इन गलतियों की चर्चा करते समय मुख्यतः १९४७ के बाद जवाहरलाल नेहरू का नाम लेते हैं। निःसंदेह उनकी भूल का खामियाजा देश अब तक भुगत रहा है और न जाने कब तक भुगतेगा, लेकिन इतिहास पर दृष्टि डालें तो १९४७ से पहले की भूलों और गलतियों के प्रसंग भी कुछ कम नहीं हैं।
७२४ से ७६१ ईसवी तक कश्मीर में राज्य करने वाले प्रतापी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ ने अपने मंत्रिमंडल में एक तुर्क को रखा हुआ था। पता नहीं उस विदेशी में उन्हें क्या विशेषता दिखायी दी थी..?? उनकी मृत्यु के बाद कश्मीर में अनेक शासक हुये, इनमें रानी दिद्दा का नाम उल्लेखनीय है। दिद्दा के बाद उनका भांजा संग्रामराज तथा फिर संग्रामराज का पुत्र हर्ष कश्मीर का राजा बना। उसने अपनी सेना में हर सौ सैनिकों के ऊपर एक मुसलमान अधिकारी नियुक्त किया था। इस काम के लिए उसने "देवोत्पतन नायक" नाम से एक विशेष पद का प्रावधान तक किया था। कश्मीर में अपना प्रभाव बढ़ाने को आतुर मुसलमानों ने इसका भरपूर लाभ उठाया। अफगानिस्तान की ओर से मुसलमानों के दल कश्मीर में आने लगे और धर्मांतरण का क्रम चालू हो गया। हर्ष के बाद अगले १५० वर्षो तक उसके सभी उत्तराधिकारी नाममात्र के राजा थे। वस्तुतः उन्हें मुसलमान अधिकारियों से दब कर ही रहना पड़ता था।
१३०१ ईसवी में सहदेव नामक राजा ने प्रशासन के प्रमुख पदों पर भी विदेशी मुसलमानों को नियुक्त कर दिया था। इस दौरान तातार सरदार डुलचू ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। युद्ध करने के बजाय कायर राजा सहदेव भाग खड़ा हुआ। इससे सेना और जनता हतोत्साहित हो गयी। इसका लाभ उठाकर डुलचू ने कश्मीर में भयानक नरसंहार किया। सहदेव की सेना में तिब्बत से आया एक बौद्ध सेनानी रिंचेन (लाचेन रिग्याल बू रिनचेन) भी था। राजा को भागता देख पहले वो भी भाग गया, परंतु डुलचू के लौट जाने के बाद वह वापस आकर कश्मीर का शासक बन गया। कश्मीर के इतिहास में एक कूटनीतिज्ञ महिला कोटारानी की भी चर्चा होती है। राजा बनने के बाद रिंचेन ने कोटारानी से विवाह कर लिया। यद्यपि रिंचेन ने ही कोटारानी के पिता रामचंद्र की हत्या की थी, पर कश्मीर के हित में कोटारानी उसकी पत्नी बन गयी। उसके आग्रह पर रिंचेन सनातन हिन्दू धर्म स्वीकार करने को तैयार हो गया, पर कुछ मूर्ख कश्मीरी पंडित विशेषतः कश्मीरी शैव गुरु ब्राह्मण देवस्वामी इसमें बाधक बन गये। यदि वे यह बात मान लेते, तो कश्मीर का इतिहास कुछ और ही होता। उनकी जिद से नाराज होकर रिंचेन मुसलमान बन गया और उसने अपना नाम मालिक सदरुद्दीन रख लिया। इस प्रकार वह कश्मीर का प्रथम मुस्लिम सुल्तान हुआ।
१३२३ ईसवी में सदरुद्दीन की मृत्यु के समय उसका बेटा हैदर बहुत छोटा था। अतः दरबारियों ने सहदेव के छोटे भाई उद्यानदेव को कश्मीर का राजा बना दिया। वह भी अपने भाई जैसा कायर और आलसी था। उसने राजा बनकर कोटारानी से विवाह कर लिया। उसकी निष्क्रियता के कारण शासन के सारे सूत्र कोटारानी और शाहमीर नामक एक प्रमुख अधिकारी ने अपने हाथ में ले लिए। सनद रहे यह वही शाहमीर था, जिसने कभी स्वात घाटी से भागकर १३१५ ईसवी में कश्मीर में शरण ली थी।
१३३८ ईसवी में उद्यानदेव की मृत्यु के पश्चात सत्ता पूरी तरह से शाहमीर ने हथिया ली। कोटारानी को अपने पक्ष में करने के लिये उसने उससे निकाह करना चाहा। कोटारानी ने अपने वस्त्रों में एक कटार छिपायी और श्रृंगार कर उसके पास आ गई। जैसे ही शाहमीर ने उसे अपने आलिंगन में लेना चाहा, कोटारानी ने अपने पेट में कटार भोंककर आत्मघात कर लिया। इसके बाद तो शाहमीर सर्वेसर्वा हो गया। उसने खुरासान, तुर्किस्तान आदि से तब्लीगियों के दल बुलाकर कश्मीर का भारी इस्लामीकरण किया। इनमें सर एक सैयद ताजुद्दीन ने गरीब ब्राह्मणों को आर्थिक सहायता दी तथा अपने खानकाहों में अध्यापक बनाकर "मुस्लिम ब्राह्मण" नामक एक नया वर्ग पैदा कर दिया। शाहमीर शमशुद्दीन डायनेस्टी का पहला सुल्तान था। इस डायनेस्टी ने लगभग २२२ वर्ष तक कश्मीर पर शासन किया। १४०५ को सुल्तान सिकंदर बुतशिकन कश्मीर का राजा बना, जिसने हैवानियत की सारी सीमायें लांघ दी थी। अनंतनाग के प्रसिद्ध मार्तण्ड सूर्य मन्दिर का विध्वंस भी इसके हाथों हुआ।
काश! हर्ष और सहदेव आदि ने अपनी सेना के प्रशासन में मुसलमानों को न रखा होता...!!!
काश! रिंचेन को हिन्दू धर्म स्वीकार करने की अनुमति मिल गयी होती...!!!
काश! कोटारानी ने बजाय अपने, शाहमीर के पेट में कटार भौंक दी होती...!!!
काश! वे ब्राह्मण लालच में न आये होते...!!!
मगर अफसोस, इतिहास ऐसे निर्मम प्रश्नों के उत्तर नहीं देता।
कुछ मुसलमान शासकों ने हिन्दुओं को भी अपने शासन में अच्छे पद दिये, पर उनकी स्थिति सदैव दूसरे दर्जे की ही रहती थी। शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न से त्रस्त होकर राज्य के एक प्रमुख अधिकारी पंडित वीरबल धर और उनके पुत्र राजा काक जम्मू में जाकर राजा गुलाब सिंह से और फिर पंजाब में
राजा रणजीत सिंह से मिले। उनकी व्यथा सुनकर राजा रणजीत सिंह ने अपने ३०,००० सैनिक वीर हरि सिंह नलवा के साथ भेज दिये। इन्होंने जम्मू के तत्कालीन प्रशासक राजा गुलाब सिंह के नेतृत्व में युद्ध कर मुस्लिम शासक आजम खां को भागने पर मजबूर कर दिया। इस प्रकार २० जून १८१९ को कश्मीर पर राजा गुलाब सिंह का अधिकार हो गया।
हिन्दू सैनिकों को मुसलमानों द्वारा किये गये अत्याचारों का पता था, अतः वे भी क्रोध में आकर मुसलमानों को लूटने लगे । जब वे कश्मीर में इस्लामीकरण के पुरोधा शाह हमदानी की कब्र तोड़ने लगे तो उन्हीं वीरबल धर ने अपनी सद्गुण विकृति के कारण उन्हें रोक दिया, जिनके सैकड़ों पुरखे और रिश्तेदार कत्ल और धर्मांतरित किये गये थे।
राजा रणजीत के देहांत के बाद सिख सरदारों के आपसी संघर्ष के कारण पंजाब पर सिखों की पकड़ ढीली पड़ गयी। इधर अंग्रेजों का प्रभाव लगातार बढ़ रहा था। ऐसे में जम्मू के राजा गुलाब सिंह ने ७५ लाख रुपये अंग्रेजों को देकर पूरा जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख अपने अधीन कर लिया। राजा गुलाब सिंह के समय हिन्दू मंदिरों एवं तीर्थों का पुनरुद्धार हुआ। गुलाब सिंह के पुत्र का राजा रणबीर सिंह का कार्यकाल १८५७ से १८८५ ईसवी तक रहा। उनके समय का एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है।
पुँछ, राजौरी और श्रीनगर क्षेत्र के अनेक प्रमुख मुसलमानों ने राजा रणबीर सिंह के सम्मुख निवेदन किया कि उन्हें फिर से हिन्दू बनने की अनुमति दी जाये। उन्होंने बताया कि उनके पुरखे अपनी जान तथा बहू-बेटियों की लाज बचाने के लिये मजबूरी में मुसलमान बने थे, पर अंतर्मन से वे हिन्दू ही रहे। उनके घरों में अनेक ताम्रपत्र सुरक्षित थे, जिनपर उनके पूर्वजों ने यह व्यथा-कथा लिखते हुये अपने वंशजों को निर्देश दिया था कि इस अत्याचारी मुस्लिम राज्य की समाप्ति और हिन्दू राज्य की स्थापना के बाद वे फिर से हिन्दू बन जायें। ऐसे अनेक ताम्रपत्र लेकर वे राजा रणबीर सिंह के पास आये थे।
राजा को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने राज्य के पंडितों से बात की, पर हिन्दुओं और देश के दुर्भाग्य ने यहां भी पीछा नहीं छोड़ा। सरकारी सुख-सुविधाओं की मलाई खा रहे उन पंडितों ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने कहा, "महाराज, जैसे दही को फिर से दूध नहीं बनाया जा सकता, ऐसे ही एक बार मुसलमान बन चुका व्यक्ति फिर से हिन्दू नहीं बन सकता।"
इस पर राजा ने कठोर होकर कहा कि यदि तुम परावर्तन नहीं कराओगे तो मैं काशी से विद्वानों को बुलाकर यह कार्य सम्पन्न कराऊंगा। इस पर उन नाराज उन पंडितों ने राजा को धमकी देते हुये कहा कि यदि आपने ऐसा कुछ किया तो हम डल झील में कूदकर अपने प्राण त्याग देंगे और इस ब्रम्हहत्या का पाप आपको एवं आपकी भावी पीढ़ियों को लगेगा। राजा रणबीर सिंह धर्मप्रेमी तो थे, पर धर्मभीरु भी थे। भयभीत होकर उन्होंने हिन्दू बनने को इच्छुक उन मुसलमानों को बैरंग वापस लौटा दिया। काश! राजा उन मूर्ख पंडितों के हाथ-पैर बांध कर स्वयं उन्हें डल झील में फिंकवा देता तो आज कश्मीर की यह दुर्दशा नहीं होती। आज कश्मीरी हिन्दू जिस दुरावस्था में देश के अनेक भागों में शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, वह उनके पूर्वजों का ही कुफल है।
१३३९ से १८१९ तक के ५०० वर्ष के कालखंड में कश्मीरी हिन्दुओं का पांच बार पलायन हुआ और अंत में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से आजाद भारत में १९९० ई. को सारी घाटी हिन्दू विहीन हो गई। यह अकेले कश्मीर की ही कहानी नहीं है, अपितु दो-चार अपवादों को यदि छोड़ दिया जाये, तो शेष भारत की भी यही कहानी रही है, चाहे वो विजयनगर साम्राज्य हो या फिर सिंध, चाहे वो राजपूताना हो या फिर बुंदेलखंड। चाहे वो गुजरात हो या फिर बिहार। उत्तर भारत की दशा तो शुरू से ही अति विदीर्ण रही है। कमोबेश यही हालात आज भी अविरल जारी है।
ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने।
लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।।
Sachin Tyagi
साभार