प्रफुल्ल नागडा (जैन):
#मानव_को_बचना_है_तो_गिद्धो_को_बचाना_होगा!
भारत और अफ्रीका के गावों की बात करें तो हम पाएंगे कि पिछले 15 सालों में टीबी के मरीजों के औसत संख्या में इजाफा हुआ है तो दूसरी तरफ चूहों की तादात बढी है। भारत के खेत-खलिहान की बात करू तो पहले चूहे अधिकांशतः खेतों में मिलते थे लेकिन अब अधिकतर घरों में धमा चौकडी करते नजर आ जाते हैं। आप जानते है, इसके मूल मे क्या कारण है ? गिद्धो की दिन प्रतिदिन घटती जनसंख्या इसके मूल मे से एक मुख्य कारण है। मुझे पता है कि कुछ लोगों को मेरी इस बात पर भरोसा नही हो रहा होगा लेकिन यह बिल्कुल सच है। पिछले दो दशकों से गंवई जनजीवन में एक और जटिलता आई है। वह है,
गाँव के पांच साल से कम आयु के बच्चो में मुंह, हाथ,पैर पर लाल छाले पड़ जाना! ज्यादातर बच्चे बहुत ही नाज़ुक उम्र में इस बिमारी का शिकार हो रहे हैं,इस बिमारी को सामान्य बोलचाल की भाषा में मुंहपका या खुरपका (फूट माऊथ) रोग भी कहते हैं।आपको जानकर हैरानी होगी कि इस बिमारी की जड मे भी गिद्धों की घटती संख्या है। भारत में गिद्धों की आबादी घटती तो भी ग़नीमत थी लेकिन अब तो ये तेजी से लुप्तप्राय होने की कगार पर पहुंच गए हैं। गिद्ध जिस इलाके में रहते हैं,उन इलाकों में जानवरों का मांस खाकर,उनमे मौजूद टीबी,फुट माऊथ, ब्रूसल्लोसीस की बिमारियों के कीटाणुओं को नियंत्रण में रखते है।
भारत का साहित्य भी गिद्धो से अटा-पड़ा है। गिद्ध जैसी दृष्टि,गिद्ध हो,गिद्ध मत बनो,गिद्ध जैसी शक्ल क्यो बना रखी है? जैसे अनेक उदाहरण, मुहावरे और उपमाये आम तौर पर प्रचलन में है। ये भारतीय साहित्य को और भी समृद्ध बनाती है।गिद्धो पर तो कई लोक गीत भी बने हैं,जो बिहार राजस्थान,उत्तर प्रदेश,छत्तीसगढ़ में आम तौर पर सुनने को मिल जाते हैं। भारतीय साहित्य और संस्कृति मे गिद्ध शक्ती और गति का भी प्रतिक है।
जानते हैं गिद्धो की घटती आबादी के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? भारतीय और अफ्रीकी अर्थ व्यवस्था कृषि प्रधान है,ग्रामिण जन जीवन में पशुपालन एक मुख्य व्यवसाय है। गावों में जब पशु बिमार होते हैं,कुछ कारणों से इनको दर्द महसूस होता है तो गांव के डाक्टर या कई बार कह लें,झोला छाप डाक्टर अथवा स्थानिय लोग सबसे आसानी से मिलने वाली "डॉयक्लोफिनाक " दवा का इन जानवरों पर बडे धडल्ले से इस्तेमाल करते हैं। यह दवाई दर्द निवारक है,कुछ हद तक बुखार पर भी असर करती है। अधिक दूध के लालच में पशुपालक पशुओ को "ऑक्सीटोसीन" दवाई की सुई लगाते हैं। यह दवाई पशुओं के मांस में घर करती जाती है, समय के साथ-साथ,धीरे-धीरे वहा जमा होती रहती है। जब पशु मरते हैं तो गिद्ध इन्हे खाते है। मरे हुए पशु के मांस में जमा " डॉयक्लोफिनाक" और " ऑक्सीटोसीन " दवा अपना असर गिद्धो के गुर्दे पर दिखाती है,जिसकी वजह से गिद्धो के गुर्दे सामूहिक रूप से फेल होने लगते हैं और वे असमय ही काल की गाल में समा जाते हैं।
अब भारतीय गांवों के परिवेश में विशाल वृक्ष कम होते जा रहे हैं। बरगद,पीपल,पकडी के पेड़ अब कम ही देखने को मिलते हैं।अब तो लोगों का रुझान नगदी पेड़ो की तरफ मुड गया हैं,फलदार बडे वृक्ष भी कम होते जा रहे हैं।षइन्ही विशाल पेड़ों पर गिद्ध अपना घोंसला बना कर रहते है,ताकि शिकारी प्रवृति के जानवरों से अपने नौ-निहालों की रक्षा कर सकें लेकिन गावों, कस्बो मे बडे-बडे पेड़ काट दिये गये हैं या फिर नये पेड लगाये नही जा रहे हैं,अगर जो एक आध पेड़ है भी तो खोखले हो चुकने व सुख जाने के कारण गिद्धो के घोसले के उपयुक्त नही है।ऐसे में गिद्धो की नई पीढ़ी के लिए मुश्किलें पैदा हो रही है। बडे पेड़ो की अंधाधुंध कटाई की वजह से बसेरो मे आई कमी भी इन शानदार पक्षियों की संख्या पर दबाव बना रही है और इनकी आबादी दिनो दिन कम होती जा रही है।
खेती मे प्रयोग होने वाले कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से भी गिद्धो की आबादी पर असर पडा है। खेती मे अतिरिक्त कीटनाशक सिंचाई के समय आप-पास के जल श्रोतों मे जमा होते हैं,इन जल श्रोतों का पानी पीने पर गिद्ध इन कीटनाशकों के बुरे प्रभाव से आ जाते है तो दुसरी तरफ कीटनाशकों की कुछ मात्रा चारे के रूप मे पशुओं के पेट में जाती हैं और उनकी अंतडीयों की दीवारों पर स्थाई रूप से जम जाती हैं। जानवरों के मरने के बाद उनका मांस खाते समय गिद्धो के ह्रदय पर इनका बुरा प्रभाव पड़ता है, उनकी मृत्यु का कारण बनता है। जो इनकी जनसंख्या को प्रभावित करता है।
वर्तमान भारतीय समाज में गिद्धो को हेय दृष्टि से देखा जाता है। डरावनी शक्ल और मरे हुए जानवरों का मांस खाने की वजह से इनको सम्मान व दया की नजरों से नही देखा जाता है। पूर्वांचल में गिद्ध अगर किसी के घर की मुंडेर या छत पर बैठा हुआ नजर आ जाता था तो लोग घर को पूजा पाठ करके गंगा जल से पवित्र करते थे या फिर घर ढहा कर नया घर बनाते थे। आज तो बेचारे गिद्ध ही नजर नही आते तो इसी बहाने अंधविश्व
ास पर भी काफी हद तक लगाम लगा है और उनके द्वारा घर को अपवित्र करने की तोहमत भी नहीं लगती है। मुर्दाखोर होने की वजह से गिद्ध पर्यावरण को साफ सुथरा रखते हैं। सडे हुए मांस की वजह से होने वाली कई बीमारियों की रोकथाम कर वातावरण को शुद्ध बनाने और उसके संतुलन साधने मे सहायता करते हैं। इसलिए भी गिद्धो को प्रकृति का सफाई कर्मचारी कहा जाता है।
आज भले ही भारत के ज्यादातर स्थानो में गिद्धो को नफ़रत भरी निगाहों से देखा जाता है लेकिन कभी इन्ही गिद्धों को भारतीय संस्कृति मे आदर,सम्मान दिया जाता था,इनको पूजनीय माना जाता था! पक्षियों मे जिस पक्षी को सबसे श्रेष्ठ, सबसे बुद्धिमान,सबसे शक्तिशाली,सबसे गतिमान माना जाता है, वह गरूड पक्षी,गिद्ध की ही एक नस्ल है,जो भगवान विष्णु की सवारी है। जिन्होंने भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्त किया था। गरूड नस्ल के गिद्ध सदियों पहले नष्ट हो गये हैं। हिंदुओ मे गरुण पुराण नाम से एक पवित्र ग्रंथ भी है। पुष्पक विमान में माता सीता का हरण करके ले जाते समय जिस पक्षी ने रावण से युद्ध किया था, वह जटाऊ,गिद्ध ही था। जटाऊ को भगवान श्रीराम की राह में शहीद होने वाले पहले सैनिक का सम्मान प्राप्त है। गिद्धो का हिंदु,पारसी,यूनानी,तिब्बती और अफीकी संस्कृति में धार्मिक महत्व है। इन संस्कृतियों में गिद्धो के पूजा स्थल भी मिलते हैं।
गिद्ध एक ऐसा शानदार और रूवाबदार पक्षी होता है,जिसकी खान-पान की आदतें परिस्थतिकी तंत्र या ईको सिस्टम के लिए बहुत जरूरी है। हालांकि इसके लिए गिद्धो को शायद ही कभी श्रेय दिया जाता रहा है लेकिन इनकी लुप्तप्राय हो रही आबादी के बाद इंसान आज इनके महत्व को समझ पाया है। इंसान को जब तक गिद्धो का महत्व समझ आता,तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इनके संरक्षण के लिए जल्दी ही कोई बडे कदम नही उठाएं गये तो ये जानदार रहस्यमयी पक्षी विलुप्त हो जाएंगे। तब शायद मनुष्य को किसी अकस्मात महामारी के रूप में बहुत बडी किमत चुकानी पडे या फिर प्रकृति के ईको सिस्टम को बहुत बडे नुकसान दायक बदलावों से गुज़रना पडे ?....हर हाल में हार मनुष्य की ही होगी !
😊जय हिंद 🇮🇳
Arun Shukla