प्रफुल्ल नागडा (जैन):
SANJEEV MISRA
आज दो तरह के सिख हैं, एक वो जो बड़ा स्पष्ट कहता है कि हम हिन्दू नहीं हैं और दूसरे वो जो कहते हैं कि हमारी जड़ें तो सनातन में हैं पर.......
इस "पर" का क्या अर्थ है?
पहले वाले का तो पक्ष स्पष्ट है, पर दूसरे वाले का स्टेटमेंट कि हमारी जड़ें सनातन में हैं, बेहद चालाकी भरा स्टंट है, ये दरअसल यह बताना चाहते हैं कि भैया ! जैसे दही दूध से ही बनी है पर वो वापस दूध तो नहीं बन सकती न, उसी तरह हम हिन्दुओं से निकले तो जरूर हैं पर हम वापस हिन्दू नहीं हो सकते......
और इसी कुंठा को साबित करने के लिए ऐसे लोग ऐसे-ऐसे अबूझ प्रसंग खोज कर लाते हैं, जिसे सेकुलरिज्म की मिसाल के रूप में परोसते हुए कहा जाए कि हमारी पंथ शिक्षा तो ये है जी जो बिलकुल भी सांप्रदायिक और हिन्दू-मुस्लिम करने वाली नहीं है....
जबकि सच ये है कि सिख पंथ की शिक्षा हिंदुत्व की मूल शिक्षा का ही विशद हो जाना है; और इसलिए जब किसी ने सिखी में जड़ता लाने की कोशिश की, उसे हिंदुत्व की मूल धारा से अलग दिखाने के कोशिश की तो उनके अंदर ही विरोध, विद्रोह और अलगाव तीनों हो गया और वो तत्व हावी हुआ जो अलगाववादी और कट्टर था।
बाबा बंदा सिंह बहादुर ने स्पष्ट कहा था कि मैं एक कट्टर वैष्णव होते हुए भी गुरु का सिंह रह सकता हूँ तो कट्टरपंथियों ने उनका बहिष्कार कर दिया और सिखी में एक और विभाजन हो गया (इसके पहले विभाजन कब-कब और क्यों हुआ था इसका वर्णन नहीं करना चाहता), खालसा पंथ बंधई ख़ालसा और तत-ख़ालसा में विभक्त हो गया, निर्मल सिखों को त्याज्य घोषित कर बाहर कर दिया गया, फिर उनके अंदर से गोभक्ति के मामले में विभाजन शुरू हुआ तो नामधारी सन्तों को पंथ से बहिष्कृत कर दिया गया और बाबा रामसिंह जी को पंथ-द्रोही घोषित कर दिया गया। फिर सिखों के अंदर से निरंकारी लहर उठी; जिसके साथ खूनी संघर्ष का अपना इतिहास है। फिर अकाली दल के अंदर कम से कम चार विभाजन हुए और आज सिख पंथ अपने उद्गम के पाँच सौ साल पूरे करते-करते इतना विभाजित हो चुका है कि उसकी शाखों की लंबी लिस्ट बन जायेगी।
प्रश्न हैं कि क्या ऐसे विभाजन हिन्दुओं में नहीं हुए? हमेशा हुए पर हिंदुत्व की आंतरिक शक्ति ने ऐसे रास्ते खोजे हुए हैं; जहाँ तमाम मतभेदों के बाबजूद ऐसी कोई संस्था नहीं बनी जो वैचारिक मतभेद को लेकर किसी को पंथ-द्रोही, धर्मद्रोही, मुर्तद या तनखैया घोषित कर दे.......हममें भी मतभेद हुए पर हमने स्पष्ट कहा कि तुम अपनी आध्यात्मिकता की प्यास चाहे गंगा में बुझाओ या यमुना में बुझाओ या सिन्धु के जल से खुद को तृप्त करो या फिर गोदावरी, कावेरी या नर्मदा में जाकर डुबकी लगाओ, हम ये मान लेंगे कि ये डुबकी तुमने हिंदुत्व के महासागर में ही लगाई है।
13 तो अखाड़े हमारे अंदर हैं; पर हमने कुंभ जैसी आध्यात्मिक जुटान का सृजन किया जहाँ सब आते हैं, सब जुटते हैं....हमने तमाम विभेदों के बिन्दुओं को, तत्वों को हिंदुत्व के प्रेशर कुकर में डालकर खौला दिया जिसकी सीटी हिंदुत्व के एकता की ही आवाज़ निकालती है।
दुर्भाग्य से ये सिख पन्थ अपने अंदर विकसित नहीं कर सका, इसलिए नहीं कर सका क्योंकि उनके बौद्धिकों ने अपने गहरे अहंकार में ये माना कि हुंह...हमने अहमदशाह अब्दालियों से इन हिन्दुओं की रक्षा की है, ये हमें पन्थ सिखायेंगे......हम इनसे तो इतने अलग हैं जितने अग्नि से पानी।
एक समय था जब हिन्दू महंत गुरूद्वारे में ग्रंथी हुआ करते थे, "गुरुद्वारा सुधार एक्ट" लाकर सबको बाहर कर दिया गया। एक समय था जब हरिद्वार के कुंभ में लाखों सिख स्नान करने आते थे, आज सिखों में से विरला ही कोई कुंभ आता है, एक समय था जब नैना देवी मंदिर में सिख हवन करवाते थे, बाद में इन्हीं लोगों ने अबोहर आर्य समाज मंदिर के हवन कुंड में मूत्र विसर्जन किया। एक समय था जब नितनेम की पोथियों पर हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र शोभित शोभित हुआ करते थे, एक समय आया जब उनकी मूर्तियों को निकाल-निकाल कर बाहर फेंका गया, एक समय था जब रामजन्मभूमि रक्षार्थ निहंगों ने आंदोलन किया था, अब यही लोग राम और माता सीता के ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिसे सुनने में लज्जा को भी लज्जा आ जाए.....एक समय था जब पिता दशमेश ने गौ घात के पाप मिटाने को अपने आने का उद्देश्य बताया था, एक समय आज है कि किसी गाय की हत्या होने पर ये हंसते हैं और हिन्दुओं को मूतपीनी कौम कहकर चिढ़ाते हैं।
एक हिन्दू जब ये सब देखता है तो उसे गुस्सा नहीं आता बल्कि पीड़ा होती है कि ये पंथ अलगाववाद के जिस दोराहे पर खड़ा है; उसका दोनों ही रास्ता विनाश को जाता है.......
प्रबुद्ध सिखों को ये बात समझना होगा कि हमसे पृथक पहचान का रास्ता केवल और केवल विनाश को जाता है, जड़ों से दुराव हो जाए तो फिर टहनी सूख ही जाती है, नहरों का संबंध नदी से टूट जाए तो उसकी जिन्दगी उतनी ही देर रहती है जितनी देर में सूर्य की अग्नि-किरणें उसे सोख न ले.......
आज हमारा पंजाब नशे की आमद से लेकर, मिश
नरियों की उन्मुक्त चारागाह और ISI के षड्यंत्रों की प्रयोग-स्थली बना हुआ है और हम नहीं चाहते कि हमारे गुरुओं के त्याग, तपस्या और बलिदान से सिंचित पंथ इस विनाशकारी राह की ओर प्रवृत हो............समय रहते नहीं संभले तो मुझे अपने एक मित्र की उक्ति का स्मरण करना होगा जिन्होंने कहा था कि "विधाता ने जिस उद्देश्य से इस पंथ का सृजन किया था जब वही उद्देश्य लोप हो गया है तो हरगिज ये नामुमकिन नहीं कि कल को ये पंथ भी परमात्मा की दिव्य-ज्योति में विलीन हो जाये।"
आगे हरि इच्छा