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बिसाहड़ा वाया मलकपुर

7 दिसम्बर 2015

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हो गया वो ही बवंडर द्वार पर आकर खड़ा ,

मलकपुर से था चला जो आ गया बिसाहड़ा .

डर  तो था मन  में की इक दिन आएगा शायद ज़रूर ,

देखता है क्योंकि वो बस आदमी कोई छड़ा .

मै अकेला कब तलक छिपता फिरूंगा लाहिजाब ,

ढूंढ मुझको ही रहा है गाँव का हर इक धड़ा  .

क्यों कहा , किसने कहा , क्या  कहा  और क्या सुना , 

हाँ मगर सुनकर उसे कोई किसी से था लड़ा  .

फुसफुसा रहे थे वो सब आप में यूँ  आज क्यों ,

देखकर उस जिस्म को जो था मोहल्ले में पड़ा .

वो मलकपुर का मवेशी कैसे आया फिर निकल ,

हमनें तो देखा वहाँ उसको  ज़मी में था गड़ा .

रो-रो के अम्मा कह रहीं थीं ये मेरा अखलाक है  ,

पर मसनिया ले के भाला नरबलि पर था अड़ा .

और जो होना था , होकर ही रहा आंसू बहे ,

मलकपुर रोया  था  तब अब रो रहा बिसाहड़ा .   

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रचनाएँ
sahityaanurag
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कथा , कविता , ग़ज़ल , व्यंग्य
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बिसाहड़ा वाया मलकपुर

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हो गया वो ही बवंडर द्वार पर आकर खड़ा ,मलकपुर से था चला जो आ गया बिसाहड़ा .डर  तो था मन  में की इक दिन आएगा शायद ज़रूर ,देखता है क्योंकि वो बस आदमी कोई छड़ा .मै अकेला कब तलक छिपता फिरूंगा लाहिजाब ,ढूंढ मुझको ही रहा है गाँव का हर इक धड़ा  .क्यों कहा , किसने कहा , क्या  कहा  और क्या सुना , हाँ मगर सुनकर उसे

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