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भाग 38

2 अगस्त 2022

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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य घोरतर दुर्भिक्ष और दारिद्र्य के साथ शासन करने लगा। चारों ओर से अभिशाप और क्रंदन की वर्षा होने लगी।

जिस सिंहासन पर गोविन्दमाणिक्य बैठते थे, जिस शैया पर गोविन्दमाणिक्य शयन करते थे, जो सब लोग गोविन्दमाणिक्य के प्रिय सहचर थे, वे जैसे रात-दिन चुपचाप छत्रमाणिक्य की भर्त्सना करने लगे। यह धीरे-धीरे छत्रमाणिक्य को असहनीय लगने लगा। उसने गोविन्दमाणिक्य से जुड़े समस्त चिह्नों को अपनी आँखों के सामने से हटाना शुरू कर दिया। गोविन्दमाणिक्य द्वारा व्यवहार की जाने वाली सामग्री नष्ट करके फेंक दी और उनके प्रिय अनुचरों को भगा दिया। वह गोविन्दमाणिक्य की नाम-गंध जरा भी सहन नहीं कर पाता था। गोविन्दमाणिक्य का कोई उल्लेख होते ही उसे लगता था, सभी उसे ही लक्ष्य करके यह उल्लेख कर रहे हैं। हमेशा लगता रहता, सभी राजा के रूप में उसे पर्याप्त सम्मान नहीं दे रहे हैं; इसी कारण अचानक अकारण गुस्सा हो उठता था, सभासदों को बहुत परेशान रहना पड़ता था।

वह राज-कार्य जरा भी नहीं समझता था; किन्तु कोई सत्परामर्श देने आता, तो चिढ़ कर कहता, "मैं इसे समझता नहीं! क्या मैं तुम्हें मूर्ख लगता हूँ!"

उसे लगता, सिंहासन का अनधिकारी और राज्य का अपहरणकर्ता समझ कर मन-ही-मन सभी उसकी अवहेलना कर रहे हैं। इसी कारण वह बलपूर्वक अत्यधिक राजा हो उठा; असंगत आचरण करते हुए सभी जगह अपने एकाधिपत्य का प्रदर्शन करने लगा। वह जिसे रखना चाहे, रख सकता है, जिसे मारना चाहे, मार सकता है, इसे विशेष रूप से प्रमाणित करने के लिए, जिसे रखना उचित नहीं था, उसे रख लिया - जिसे मारना उचित नहीं था, उसे मार डाला। प्रजा अन्न के अभाव में मर रही है, किन्तु उसके दिन-रात के समारोहों का अंत नहीं - अहर्निश नृत्य-गीत-वाद्य-भोज। इसके पहले किसी राजा ने सिंहासन पर बैठ कर राज्य-शासन के सम्पूर्ण पंखों को फैला कर ऐसा अपूर्व नृत्य नहीं किया था।

प्रजा-जन चारों ओर असंतोष प्रकट करने लगे - इससे छत्रमाणिक्य अत्यधिक जल-भुन गया; उसने सोचा, यह केवल राजा के प्रति असम्मान का प्रदर्शन है। उसने असंतोष के दुगुने कारण उत्पन्न करते हुए बलपूर्वक उत्पीड़न करके भय दिखा कर सभी के मुँह बंद कर दिए, सम्पूर्ण राज्य में निद्रित निशा के समान सन्नाटा छा गया। वही शांत नक्षत्रराय छत्रमाणिक्य बन कर सहसा इस प्रकार का आचरण करेगा, इसमें आश्चर्य वाली कोई बात नहीं थी। बहुत बार दुर्बल हृदय वाले प्रभुत्व पाने पर इसी तरह प्रचण्ड और स्वेच्छाचारी हो उठते हैं।

रघुपति का काम पूरा हो गया। उसके हृदय में प्रतिहिंसा वृत्ति अंत तक समान रूप से जगी हुई थी, ऐसा नहीं है। धीरे-धीरे प्रतिहिंसा का भाव मिटा कर, हाथ में लिए काम को संपन्न कर डालना ही उसका एकमात्र व्रत हो उठा था। नाना कौशलों से समस्त बाधा-विपत्तियों को पार करके अहर्निश एक उद्देश्य की पूर्ति में लगे रह कर वह एक प्रकार का मादक सुख अनुभव कर रहा था। अंतत: वह उद्देश्य सिद्ध हो गया। अब संसार में और कहीं भी सुख नहीं।

रघुपति ने अपने मंदिर में जाकर देखा, वहाँ कोई जन-प्राणी नहीं है। यद्यपि रघुपति अच्छी तरह जानता था कि जयसिंह नहीं है, तब भी मंदिर में प्रवेश करके मानो दूसरी बार नए सिरे से जाना कि जयसिंह नहीं है। एक-एक बार लगने लगा कि जैसे है, उसके बाद याद आने लगा कि नहीं है। सहसा हवा से किवाड़ खुल गए, उसने चौंकते हुए घूम कर देखा, जयसिंह नहीं आया। जयसिंह जिस कमरे में रहता था, लगा कि उस कमरे में जयसिंह हो भी सकता है - लेकिन बहुत देर तक उस कमरे में प्रवेश नहीं कर पाया, मन में डर लगने लगा कि अगर जाकर देखने पर जयसिंह वहाँ न हुआ!

अंत में जब गोधूलि के धुँधलके में जंगल की छाया गाढ़ी छाया में मिल गई, तब रघुपति ने धीरे-धीरे जयसिंह के कमरे में प्रवेश किया - शून्य निर्जन कमरा समाधि-भवन के समान निस्तब्ध है। कमरे में एक किनारे लकड़ी का एक संदूक और संदूक के बगल में जयसिंह के एक जोड़ा खड़ाऊँ धूल में मैले पड़े हैं। दीवार पर जयसिंह के अपने हाथ से आँका गया काली का चित्र है। कमरे के पूरब के कोने में धातु का एक दीपक धातु के आधार-स्तंभ पर रखा है, पिछले बरस से इस दीपक को किसी ने नहीं जलाया - वह मकड़ी के जाले से ढक गया है। पास की दीवार पर दीपा-शिखा का काला दाग पड़ा हुआ है। कमरे में पूर्वोक्त कुछ चीजों के अलावा और कुछ नहीं है। रघुपति ने गहरा दीर्घ निश्वास छोड़ा। वह निश्वास शून्य कक्ष में ध्वनित हो उठा। धीरे-धीरे अंधकार में और कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया। केवल एक छिपकली बीच-बीच में टिक् टिक् करने लगी। जाड़े की हवा खुले दरवाजे से कमरे में आने लगी। रघुपति संदूक पर बैठ कर काँपने लगा।

इसी प्रकार इस निर्जन मंदिर में एक माह व्यतीत किया, किन्तु ऐसे अधिक दिन नहीं कटते। पौरोहित्य छोडना पड़ा। राज-सभा में पहुँचा। राजकाज में हस्तक्षेप किया। देखा, अन्याय, उत्पीड़न और अव्यवस्था छत्रमाणिक्य के नाम पर शासन कर रहे हैं। उसने राज्य में व्यवस्था स्थापित करने की चेष्टा की। छत्रमाणिक्य को परामर्श देने लगा।

छत्रमाणिक्य चिढ़ कर बोला, "ठाकुर, तुम राज-शासन-कार्य के बारे में क्या जानो? ये सब विषय तुम जरा भी नहीं समझते।"

रघुपति राजा का प्रताप देख कर अवाक् रह गया। देखा, वह नक्षत्रराय और नहीं रहा। धीरे-धीरे राजा के साथ रघुपति की खटपट होने लगी। छत्रमाणिक्य ने सोचा, रघुपति केवल यही समझ रहा है कि उसी ने उसे राजा बनाया है। इसीलिए रघुपति को देखने पर उसे असह्य प्रतीत होने लगता।

अंत में एक दिन साफ-साफ बोला, "ठाकुर, तुम अपने मंदिर का काम देखो। राजसभा में तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं है।"

रघुपति ने छत्रमाणिक्य पर जलती हुई तीव्र दृष्टि डाली। छत्रमाणिक्य थोड़ा लज्जित होकर मुँह फेर कर चला गया।

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रचनाएँ
राजर्षि
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राजर्षि'। 'राजर्षि' में कर्तव्य अकर्तव्य की कसौटी पर पापपुण्य की विवेचना करते हुए घर्मांधता के विरुद्ध जिहाद छेड़ने का प्रयास किया गया है। साथ ही रूढ़ियों को धिक्कारते हुए धर्म, प्रकृति एवं समाज को नए परिपेक्ष्य में देखा गया है। राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है।
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राजर्षि (उपन्यास) : सूचना

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राजर्षि के सम्बन्ध में कुछ कहने का अनुरोध किया गया है। कहने को विशेष कुछ नहीं है। इस बारे में मुख्य वक्तव्य यही है कि यह मेरा स्वप्न में उपलब्ध उपन्यास है। बालक पत्रिका की संपादिका ने मुझे इस मासिक क

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राजर्षि भाग 1

2 अगस्त 2022
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भुवनेश्वरी मंदिर का पत्थर का घाट गोमती नदी में जाकर मिल गया है। एक दिन ग्रीष्म-काल की सुबह त्रिपुरा के महाराजा गोविन्दमाणिक्य स्नान करने आए हैं, उनके भाई नक्षत्रराय भी साथ हैं। ऐसे समय एक छोटी लडकी अप

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भाग 2

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उसके अगले दिन से नींद टूट जाने के बाद, सूर्य उगने पर भी राजा का प्रभात नहीं होता था; उनका प्रभात तभी होता होता था, जब वे दोनों छोटे भाई-बहनों का चेहरा देख लेते थे। वे प्रतिदिन उन लोगों को फूल चुन कर द

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भाग 3

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राज-सभा बैठी है। भुवनेश्वरी देवी मंदिर का पुरोहित कार्यवश राज-दर्शन को आया है। पुरोहित का नाम रघुपति है। इस देश में पुरोहित को चोंताई संबोधित किया जाता है। भुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौदह दिन बाद देर

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भाग 4

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भुवनेश्वरी देवी मंदिर का सेवक जयसिंह जाति से राजपूत, क्षत्रिय है। उसके पिता सुचेत सिंह त्रिपुरा राज घराने में पुराने सेवक थे। सुचेत सिंह की मृत्यु के समय जयसिंह एकदम बालक था। इस अनाथ बालक को राजा ने म

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भाग 5

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प्रात:काल नक्षत्रराय ने आकर रघुपति को प्रणाम करके पूछा, "ठाकुर, क्या आदेश है?" रघुपति ने कहा, "तुम्हारे लिए माँ का आदेश है। चलो, माँ को प्रणाम करो।" दोनों मंदिर में गए। जयसिंह भी साथ-साथ गया। नक्षत्

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भाग 6

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नक्षत्रराय के चले जाने पर जयसिंह ने कहा, "गुरुदेव, ऐसी भयानक बात कभी नहीं सुनी। आपने माँ के सम्मुख माँ का नाम लेकर भाई के हाथों भाई की हत्या का प्रस्ताव कर दिया, और मुझे खड़े होकर वही सुनना पड़ा।" रघ

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भाग 7

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जयसिंह को पूरी रात नींद नहीं आई। जिस विषय पर गुरु के साथ चर्चा हुई थी, देखते-देखते उसकी शाखा-प्रशाखाएँ निकालने लगीं। अधिकांश समय आरम्भ हमारे अधिकार में होता है, अंत नहीं। चिन्ता के सम्बन्ध में भी यही

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भाग 8

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गोमती नदी का दक्षिणी किनारा एक स्थान पर बहुत ऊँचा है। बारिश की धारा और छोटे-छोटे सोतों ने इस ऊँची भूमि को नाना गुहा-गह्वरों में बाँट दिया है। इसके कुछ दूर बडे-बड़े शाल और गाम्भारी1 वृक्षों ने लगभग अर्

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भाग 9

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मंदिर बहुत दूर नहीं है। लेकिन जयसिंह निर्जन नदी के किनारे से होते हुए बहुत घूम कर धीरे-धीरे मंदिर की ओर चला। उसके मन में भारी चिन्ता उठने लगी। एक जगह नदी के किनारे पेड़ के नीचे बैठ गया। दोनों हाथों से

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भाग 10

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महाराज ने महल लौट कर नियमित राज-काज निबटाया। प्रात:कालीन सूर्यालोक ढक गया है। मेघों की छाया से दिन में ही अंधकार घिर आया है। महाराज अत्यंत अनमने हैं। और दिन नक्षत्रराय राजसभा में उपस्थित रहता है, आज न

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भाग 11

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नक्षत्रराय जब राजा का हाथ पकड़े जंगल से घर लौट रहा था, तब आकाश से थोड़ा-थोड़ा उजाला आ रहा था - किन्तु नीचे जंगल में घना अंधेरा छा रहा है। मानो अंधकार की बाढ़ आ रही है, केवल पेड़ों की चोटियाँ ऊपर से बच

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भाग 12

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जयसिंह उसके अगले दिन मंदिर में लौट कर आया। अब तक पूजा का समय निकल चुका है। रघुपति दुखी चेहरा लिए अकेला बैठा है। इसके पहले कभी ऐसा नियम भंग नहीं हुआ था। जयसिंह गुरु के निकट न जाकर अपने बगीचे में चला ग

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भाग 13

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मंदिर में अनेक लोग एकत्र हो गए हैं। खूब कोलाहल हो रहा है। रघुपति ने रूखे स्वर में पूछा, "तुम लोग क्या करने आए हो?" वे नाना कण्ठों में बोल पडे, "हम लोग ठकुराइन(देवी के काली रूप को ठकुराइन भी कहा जाता

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भाग 14

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उसके अगले दिन आषाढ़ की उनतीसवीं तिथि। आज रात चतुर्दश देवताओं की पूजा है। आज जब प्रभात में ताड़-वन की ओट से सूरज उठ रहा है, तो पूर्व दिशा में बादल नहीं हैं। जब जयसिंह स्वर्णकिरणों से भरे आनंदमय कानन मे

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भाग 15

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चतुर्दशी तिथि। बादल भी छाए हैं, चन्द्रमा भी निकला है। आकाश में कहीं आलोक है, कहीं अंधकार। कभी चन्द्रमा निकल रहा है, कभी चन्द्रमा छिप रहा है। गोमती के किनारे वाला जंगल चन्द्रमा की ओर देख कर अपनी गहन अं

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भाग 16

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राजा के आदेश के अनुसार नक्षत्रराय प्रजा के असंतोष का कारण खोजने के लिए प्रभात-काल में स्वयं बाहर निकला। उसे चिन्ता होने लगी, मंदिर कैसे जाए! रघुपति के सामने पड़ जाने पर वह कैसा सकपका जाता है, अपने को

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भाग 17

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।" नक्षत्र

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भाग 18

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अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे

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भाग 19

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प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।" नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर क

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भाग 20

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विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, न

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भाग 21

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विजयगढ़ पहाड़ पर है। विजयगढ़ का जंगल दुर्ग के आसपास जाकर समाप्त हो जाता है। रघुपति ने जंगल से बाहर निकल कर अचानक देखा, मानो पत्थर का विशाल दुर्ग नीले आकाश की अवहेलना करते हुए खड़ा है। अरण्य जिस प्रकार

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भाग 22

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किसी प्रकार शाहशुजा को मुट्ठी में करना ही रघुपति का उद्देश्य था। उसने जैसे ही सुना, शुजा दुर्ग पर आक्रमण करने में जुटा है, वैसे ही सोच लिया, मित्र भाव से दुर्ग में प्रवेश करके किसी तरह दुर्ग पर आक्रमण

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भाग 23

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चाचा साहब के लिए क्या आनंद का दिन है। आज दिल्ल्लीश्वर के राजपूत सैनिक विजयगढ़ के अतिथि हुए हैं। प्रबल प्रतापी शाहशुजा आज विजयगढ़ का बंदी है। कार्तवीर्यार्जुन के बाद से विजयगढ़ को ऐसा बंदी और नहीं मिला

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भाग 24

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सुचेत सिंह को चाचा साहब के चंगुल से छूटने में अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा। कल प्रात: बंदी सहित सम्राट की सेना के कूच का दिन निर्धारित हुआ है, यात्रा की तैयारी के लिए सैनिक नियुक्त हुए हैं। शाहशुजा कै

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भाग 25

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गुजुरपाड़ा ब्रह्मपुत्र के किनारे छोटा-सा गाँव है। एक छोटा-सा जमींदार है, नाम है, पीताम्बर राय; बाशिंदे अधिक नहीं हैं। पीताम्बर अपने पुराने चण्डीमण्डप में बैठा स्वयं को राजा कहता रहता है। उसकी प्रजा भी

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भाग 26

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रघुपति ने पूछा, "यह सब क्या हो रहा था?" नक्षत्रराय ने सिर खुजलाते हुए कहा, "नाच हो रहा था।" रघुपति ने घृणा से मुँह सिकोड़ते हुए कहा, "छी छी!" नक्षत्र अपराधी के समान खड़ा रहा। रघुपति ने कहा

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भाग 27

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दीर्घ पथ। कहीं नदी, कहीं घना जंगल, कहीं छायाहीन प्रांतर - कभी नौका पर, कभी पैदल, कभी टट्टू घोड़े पर - कभी धूप, कभी बारिश, कभी कोलाहल भरा दिन, कभी रात्रि का निस्तब्ध अंधकार - नक्षत्रराय बिना रुके चलता

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भाग 28

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अंतत: राजधानी पहुँच गए। पराजय और पलायन के बाद शुजा नवीन सैन्य-संगठन की कोशिश में लगा है। किन्तु राज-कोष में अधिक धन नहीं है। प्रजा-जन कर के भार से पीड़ित हैं। इसी बीच दारा को पराजित और निहत करके औरंगज

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इस उपन्यास के आरम्भ काल से अब तक दो वर्ष हो गए हैं। तब ध्रुव दो बरस का बालक था। अब उसकी उम्र चार बरस है। अब वह बहुत बातें सीख गया है। अब वह अपने को बहुत बड़ा आदमी समझता है; यद्यपि सारी बातें साफ-साफ न

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भाग 30

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इस साल त्रिपुरा में एक अभूतपूर्व घटना घटी। सहसा उत्तर से झुण्ड के झुण्ड चूहे त्रिपुरा के खेतों में आ पहुँचे। सारी फसल बर्बाद कर डाली, यहाँ तक कि किसानों के घरों में जितना कुछ अनाज इकट्ठा था, वह भी अधि

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भाग 31

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नक्षत्रराय मुगल सैनिकों का स्वामी बना रास्ते में तेंतुले नाम के एक छोटे-से गाँव में विश्राम कर रहा था। प्रात:काल रघुपति ने आकर कहा, "महाराज, यात्रा पर निकलना है, तैयार हो जाइए।" रघुपति के मुँह से स

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भाग 32

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जब त्रिपुरा में चूहों का उत्पात शुरू हुआ था, तब श्रावण माह था। उस समय खेतों में केवल भुट्टे फल रहे थे और पहाड़ी खेतों में धान में दाने आने प्रारम्भ हुए थे। किसी तरह तीन महीने कट गए - अगहन के महीने में

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बिल्वन ठाकुर ढेरों कामों में डूब गया। उसने चट्टग्राम के पहाड़ी क्षेत्रों में विविध प्रकार के उपहारों के साथ द्रुतगामी दूत भेज दिए। वहाँ के कुकी ग्राम-मुखियाओं से कुकी सैनिकों के रूप में सहायता की प्रा

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नक्षत्रराय सैनिकों के साथ आगे बढ़ने लगा, कहीं तिलभर भी बाधा नहीं आई। त्रिपुरा के जिस भी गाँव में उसने कदम रखा, वही गाँव उसकी राजा के रूप में अगवानी करने लगा। पग-पग पर राजत्व का आस्वाद पाने लगा - क्षुध

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गोविन्दमाणिक्य नक्षत्रराय का उत्तर सुन कर बहुत मर्माहत हुए। बिल्वन ने सोचा, शायद महाराज अब आपत्ति प्रकट नहीं करेंगे। किन्तु गोविन्दमाणिक्य बोले, "यह बात कभी भी नक्षत्रराय की नहीं हो सकती। यह उसी पुरोह

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बिल्वन ने लौट कर देखा, इस बीच राजा ने कुकियों को विदा कर दिया है, उन्होंने राज्य में उपद्रव आरम्भ कर दिया था। सैनिकों के दल को लगभग भंग कर दिया है। युद्ध की कोई विशेष तैयारी नहीं है। बिल्वन ने लौट कर

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नक्षत्रराय ने सैन्य-सामंतों के साथ पूर्व के द्वार से राजधानी में प्रवेश किया, थोड़ा-सा धन और कुछेक अनुचर लेकर गोविन्दमाणिक्य ने पश्चिम वाले द्वार से यात्रा प्रारम्भ की। नगर के लोगों ने बाँसुरी फूँक कर

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नक्षत्रराय ने छत्रमाणिक्य नाम धारण करके विशाल समारोह में राजपद ग्रहण किया। राजकोष में अधिक धन नहीं था। प्रजा-जनों का सर्वस्व छीन कर वायदे के अनुसार धन देकर मुगल सैनिकों को विदा करना पड़ा। छत्रमाणिक्य

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भाग 39

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रामू के दक्षिण में राजाकूल के निकट मगों का जो दुर्ग है, वे अराकान के राजा की अनुमति लेकर वहीं रहने लगे। गाँववालों के जितने बाल-बच्चे थे, सब के सब दुर्ग में गोविन्दमाणिक्य के पास आ जुटे। गोविन्दमाणिक्

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भाग 40

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(यह परिच्छेद में  बंगाल का इतिहास से संग्रहीत) इधर शाह शुजा अपने भाई औरंगजेब की सेना द्वारा उत्पीड़ित होकर भागा फिर रहा है। इलाहाबाद के निकट युद्ध क्षेत्र में उसकी पराजय हो गई। विपक्षियों से पराक्रां

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भाग 41

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जिस दुर्ग में गोविन्द माणिक्य रहते थे, एक दिन वर्षा के अपराह्न में उसी दुर्ग के मार्ग से एक फकीर के साथ तीन बालक और एक वयप्राप्त भारवाही चले आ रहे हैं। बालक अत्यधिक थके दिखाई पड़ रहे हैं। हवा तेज बह र

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