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स्वतंत्रता की बात

6 अगस्त 2022

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विषय, विचार और कामनाओं की मुक्ति ही स्वंतत्रता है 
             _______ आर सी यादव

     नीतिगत निर्णय लेना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है । यह एक ऐसी नैसर्गिक प्रतिभा जिसके बिना पर मनुष्य अपने गुण-अवगुण , यश-कीर्ति, हानि-लाभ और उचित-अनुचित का  विश्लेषण करता है और उसी के आधार पर अपने भविष्य की योजनाओं को अमल में लाता है । मनुष्य सर्वगुणसंपन्न नहीं है लिहाजा उसका मन समय-समय पर उद्वेलित होता रहता जिसका अंकुश लगाना बेहद जरूरी है। मनुष्य स्वच्छंद विचरण करने वाला एक ऐसा सामाजिक प्राणी जो अपनी इंद्रियों के वशीभूत होकर कुछ भी करने को तत्पर रहता है । कुछ कार्य तो अकारण ही होते हैं जिनका न कोई आधार होता है और न ही कोई उपयोगिता । ऐसे कार्य मनुष्य को सिर्फ क्षणिक आनन्द देता है । व्यक्तिगत प्रसन्नता के लिए मनुष्य खुद की मान-मर्यादा और सामाजिक प्रतिष्ठा की बलि दे देता है ।
           स्वतंत्रता को लेकर महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा था, "स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और हम इसे लेकर रहेंगे" । परंतु उन्होंने यह कभी  नहीं कहा कि स्वतंत्रता के नाम पर अनैतिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए । जैसा कि आजकल शहरों में देखा जा रहा है कि स्वतंत्रता के नाम पर अवैध रिश्तों और समाजिक कुरीतियों को बढ़ावा मिल रहा है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक द्वारा स्वतंत्रता को जन्मसिद्ध अधिकार बताने का अभिप्राय देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति मात्र से नहीं था बल्कि उनका मानना था कि देश के नागरिक खुद को भी तमाम वासना और विकारों से मुक्त रखें । वे चाहते थे कि भारत एक ऐसे समाज के राष्ट्र के रुप में स्थापित हो जहां वासना और विकारों के लिए कोई जगह नहीं हो । 
      स्वतंत्रता का सही मायने में  अभिप्राय मनुष्य का खुद के विकारों को दूर करने से है । विषय , विचार और कामना हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए बाधक हैं । यह मानव जाति के लिए ऐसी बेड़ियां हैं जो उसे कभी स्वतंत्र नहीं होने देती । विषयगत तथ्यों पर गौर करें तो हमारा समाज ऐसी बातों को तवज्जो देता है जो श्रवणीय हो जो आत्मसात कर जीवन में धारण करने योग्य हो । इसलिए मनुष्य को बात-विचार करते समय ऐसे विषय का चयन करना चाहिए जो समाज के लिए हितकर हो , जिसे सुनकर अन्य लोग लाभान्वित हों और जो समाज पर सार्थक प्रभाव डालने में सक्षम हो । मन में उत्पन्न अनावश्यक जिज्ञासा ही अनुचित विषयों को जन्म देती है । फलस्वरूप साधारण वाद-विवाद उग्र रूप धारण कर लेता है जो मनुष्य के लिए हितकर नहीं होता । विषय का विकार सामान्यतः तब उत्पन्न होता है जब मन में अनावश्यक भावनाओं का जन्म होता है । फलत: मन की भावनाओं नियंत्रित करना आवश्यक है । 
      विचारों की अभिव्यक्ति हमारी विरासत है । हमारे अच्छे विचार सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा है । उत्तम विचारों के आधार पर ही मनुष्य दैनिक जीवन में सफलता प्राप्त करता । विचारों की उत्कृष्टता हृदय की विशालता और संवेदनशीलता का सूचक है । मनुष्य के विचार जितने उत्तम होंगे उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा उतनी ही गौरवशाली होगी और उसका जीवन खुशहाल और वैभवशाली होगा । परंतु जब विचारों में विकार उत्पन्न होते हैं तो मनुष्य की श्रेष्ठता का पतन हो जाता है । विचारों का विकार सामान्यतः तब उत्पन्न होता है जब मस्तिष्क में अनावश्यक तार्किक बातें उत्पन्न होती है । मनुष्य वह सब कुछ करना चाहता है जो निरर्थक और उद्देश्यहीन होता है । चूंकि मनुष्य मन में उत्पन्न विचारों की प्रासंगिकता को समझ नहीं पाता लिहाजा वह अनाप-शनाप बातों को तवज्जो देता है । वह दूसरों के साथ वार्तालाप करते समय अपनी ही बातों को सर्वोपरि रखना चाहता है । जैसी किसी सामाजिक मुद्दे पर बात करते समय विचारों को प्रकट करने का प्रयास तभी किया जाना चाहिए जब आपको उक्त विषय की सही जानकारी हो । यदि अधूरी जानकारी के आप किसी बहस का हिस्सा बनते हैं और अपने विचारों को दूसरों के ऊपर थोपते हैं तो वह विचार नहीं बल्कि विकार की श्रेणी में आता है । हम ऐसे देश में निवास करते हैं जहां धर्म और मत पर अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता है । यहां चार्वाका नाम से  एक ऐसे भी ऋषि हुए जो *खाओ, पीओ और मौज करो* को भी विचारों की स्वतंत्रता की बात कही थी । परंतु शायद आज के समय में किसी भी मनुष्य के लिए यह श्रेयस्कर नहीं होगा ।
ऐसी बातों से सहमत अथवा असहमत होना मनुष्य के विवेक पर निर्भर करता है । विचारों की स्वतंत्रता का मतलब खाओ, पीओ और मौज मस्ती करने से होना चाहिए । यदि ऐसा हो सकता है तो आम जन को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । जबकि ऐसा नहीं है । मनुष्य को जीवनपर्यंत सुख सुविधाओं की तलाश में संघर्षशील रहना पड़ता है । इसलिए मनुष्य को अपने अंतःकरण में ऐसी विचारधारा को जन्म देना चाहिए जिससे उसका और पूरे समाज के साथ-साथ देश का विकास हो ।
             विषय और विचारों से अलग संसार में एक ऐसी भी बीमारी है जिससे लगभग हर व्यक्ति से ग्रस्त है । इस बीमारी को कामनाओं की बीमारी की संज्ञा दी गई है । कामना अर्थात इच्छा का विलासिता पूर्ण जीवन हमारे रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है । कामनाएं हमारे मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाली वह लालसा है जिसे पूरा करने के लिए मनुष्य हर संभव प्रयास करता है । इस प्रयास में वह सफल भी होता है और कभी-कभी असफल भी । कामनाओं की पूर्ति होने के बाद भी मनुष्य का मन शान्त नहीं होता । उसके मन-मस्तिष्क में अन्य दूसरी कामनाएं बलवती हो जाती हैं जिसकी पूर्ति के लिए वह हाथ-पैर मारने लगता है । तात्पर्य यह कि मनुष्य की कामनाओं का कोई अंत्य छोर नहीं है । कभी-कभी तो मनुष्य कामनाओं को पूरा करते-करते  अनैतिकता की ओर चल देता है । यही नहीं मन में इच्छित कामनाओं की पूर्ति न होने पर मनुष्य इस कदर बेचैन हो जाता है कि वह उसे पूरा करने के लिए उचित-अनुचित कदम उठाने को भी तैयार हो जाता है  । कामनाओं को लेकर महाभारत में कहा गया है : *"कामबंधनमेवैकं नान्यदस्तीय बंधनम्"* अर्थात , संसार में कामना ही एक बंधन है और कोई बंधन नहीं है । महाभारत में यह भी कहा गया है कि ,"*अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम्*" अर्थात मनुष्य की  कामनाएं कभी पूरी नहीं होती । मनुष्य की कामनाओं को पूरा होने से पूर्व ही मौत आकर घेर लेती है । यानी अपनी कामनाओं को पूरा करते-करते मनुष्य का पूरा जीवन बीत जाता है लेकिन उसकी कामनाएं कभी समाप्त नहीं होती । दूसरे शब्दों में *"न पूर्वे नापरे जातू कामनामंतमाप्रुवन"* अर्थात् तीनों लोकों में मनुष्य ने कभी भी कामनाओं का अंत नहीं पाया ।
            मनुष्य को अपने शारीरिक और मानसिक संतुलन को बनाए रखने के लिए मन की स्वतंत्रता जरूरी है। इसके लिए उसे अपनी भावनाओं , विषय , विचार और कामनाओं पर नियंत्रण करना जरूरी है । मन-मस्तिष्क के असंतुलित होने पर मनुष्य का जीवन अव्यवस्थित हो जाता है । विषय, विचार और कामनाओं की स्वतंत्रता के लिए वह स्वच्छंद विचरण करना चाहता है । अपनी दैनिक दिनचर्या में मनुष्य अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए अनावश्यक विचारों को जन्म देता है । वास्तव में मनुष्य के मन-मस्तिष्क में उपजे अनावश्यक विचार वासना की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है जिससे वह अनैतिक कार्यों को करने से भी संकोच नहीं करता । सभ्य और जागरूक समाज में कामवासनाओं की कोई जगह नहीं है । यदि मनुष्य अपने विषय विकारों को त्याग देता और अपनी कामनाओं पर नियंत्रण कर लेता है तो वह सही मायने में स्वतंत्र है । ऐसे मनुष्य का जीवन सुखी, समृद्धशाली, आत्मनिर्भर, निष्कंटक, निष्पाप और प्रगतिशील होता है ।

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