जुलाई में शादी हो गई चिरंजीवी संजय और आयुष्मती सोनल की - कोर्ट में।
न बारात, न बाजा-गाजा!
प्रीतिभोज के लिए न्यौता आया था रघुनाथ के नाम भी, पर वे नहीं गए!
ऐसी चोट लगी थी रघुनाथ और शीला को जिसे न वे किसी को दिखा सकते थे, न किसी से छिपा सकते थे। ऐसी जगहों पर जाना उन्होंने बंद कर दिया था जहाँ दो चार लोग बैठे हों। उन्होंने मान लिया था कि दो बेटों में से एक बेटा मर गया। जब माँ-बाप की प्रतिष्ठा की चिंता नहीं तो मरा ही समझिए!
सितंबर में वे अमेरिका जाएँ चाहे जहन्नुम - इससे कोई मतलब नहीं।
इसी दिन के लिए उन्होंने पाल पोस कर बड़ा किया था, पढ़ाया-लिखाया था, पेट काटे थे, कर्जे लिए थे, खेत रेहन रखे थे और दुनिया भर की तवालतें सही थीं!
इनके लाख मना करने के बावजूद राजू गया था। राजू यानी संजय का भाई धनंजय! लौटा तो हाथ में एक ब्रीफकेस था रघुनाथ के लिए जिसे सक्सेना ने भिजवाया था।
रघुनाथ कालेज की तैयारी कर रहे थे। बेमन से ब्रीफकेस को देखा और कहा - 'रख दो!'
'अरे? ऐसे कैसे रख दूँ? अपने संदूक में रखिए!'
बाबा आदम के जमाने की संदूक जिसमें जाने क्या-क्या रखते थे रघुनाथ और उसकी ताली किसी को नहीं देते थे। बिना कुछ बोले उन्होंने उसकी ओर ताली फेंक दी!
राजू ने ब्रीफकेस संदूक में रखा और ताली उन्हें पकड़ाते हुए कहा - 'और कुछ नहीं पूछिएगा?'
शीला उदास मन दरवाजे पर खड़ी थी, अंदर चली गई!
'आप लोग तो ऐसा सन्न मारे हुए हैं जैसे गमी हो गई हो!'
राजू हँसते हुए माँ के पीछे पीछे अंदर चला - 'बहू ऐसी कि लाखों में एक। माँ, चिंता न करो। सब करेगी वो जो संजू बोलता था! हाथ पाँव दबाएगी वो, मूँड़ दबाएगी वो, बरतन माँजेगी वो, झाड़ू लगाएगी वो, खाना पकाएगी वो - जो जो चाहिए, सब करेगी! जरा अमेरिका से लौट तो आने दो। अभी तो हनीमून पर जा रही है दार्जिलिंग, वहाँ से दमदम एयरपोर्ट, फिर वहाँ से अमेरिका। बच गई तुम, अगर आई होती तो मुँहदिखाई देनी पड़ती। यल्लो। तुम्हारे लिए फोटो भिजवाया है रिसेप्शन का!'
राजू और भी न जाने क्या क्या बोलता रहा, वह सुनती भी रही, नहीं भी सुनती रही!
फोटो जोड़े का वहीं पड़ा था जहाँ वह बैठी थी। एक मन कह रहा था - 'देखो।' दूसरा कह रहा था - 'छोड़ो, जाने दो!'
सारी साधें धरी रह गई थीं।
रात ढल चुकी थी।
गाँव में सोता पड़ चुका था!
एक दिन पहले जम कर पानी बरसा था! सिवान गुलजार हो गया था। झींगुरों की झनकार से पूरा गाँव झनझना रहा था। बादल उसके बाद भी छाए रहे। दूर आकाश में बिजली भी चमकती रही। उधर कहीं बारिश हुई हो तो हुई हो, इधर नहीं हुई।
रघुनाथ का घर दुआर गाँव के बाहरी हिस्से में था! घर का अगला हिस्सा दुआर, पिछला घर। दुआर का मतलब दालान और बरामदा! इसी बरामदे में सोते थे रघुनाथ और राजू! राजू के सो जाने के बाद चुपके से आधी रात को रघुनाथ अंदर आए, ढिबरी जलाई और संदूक खोल कर ब्रीफकेस निकाला!
जब वे ढिबरी और ब्रीफकेस ले कर शीला के बगलवाली कोठरी में गए तो याद आया कि राजू ने इसकी चाबी नहीं दी है। उन्होंने धीरे से राजू को जगाया। राजू ने बताया कि वह ताली से नहीं, नंबर से खुलेगा - इन नंबरों से! और बड़बड़ाते हुए सो गया!
रघुनाथ ने ब्रीफकेस खोला तो भाव विभोर! बेटे संजय के प्रति सारी नाराजगी जाती रही! रुपयों की इतनी गड्डियाँ एक साथ एक ब्रीफकेस में अपनी आँखों के सामने पहली बार देख रहे थे और यह कोई फिल्म नहीं, वास्तविकता थी।
रघुनाथ की छवि गाँववालों की नजर में झंगड़ा झंझट से दूर रहनेवाले जितने शरीफ आदमी की थी उतनी ही सोंठ आदमी की एक रुपैया में आठ अठन्नी भुनानेवाले आदमी की। लोग यह भी कहने लग गए थे कि बहुत लोभ न किया होता तो यह दिन उन्हें न देखना पड़ता।
रघुनाथ ने मेज को पास खींचा - पहले सौ सौ के नोटों की गड्डियाँ गिनना शुरू किया! वे एक एक बंडल की संख्या नोट करते जाते। फिर पाँच-पाँच सौ की गड्डियाँ उठाईं और अलग नोट करना शुरू किया। गिनते गिनते आधी रात हो गई और टोटल किया तो चार लाख साठ हजार!
उनका दिल धड़का! चिंता हुई। अगर गिनने में गलती भी हुई हो तो इतनी कैसे? वे उठ कर गए और दुबारा संदूक में झाँक आए। आते समय रसोई से कटोरी में पानी ले रहे थे तो शीला जाग गई। उन्होंने नए सिरे से उँगली भिगो-भिगो कर फिर गिनना शुरू किया। अबकी फिर टोटल किया तो वही - चार और साठ!
उन्होंने सिर को हाथों में थाम लिया।
'क्या बात है?' शीला ने पूछा!
'पाँच लाख में कम हैं चालीस हजार! किसी ने संदूक तो नहीं खोला था?'
'ताली तो तुम्हारे पास थी, खोलेगा कौन?'
'कोई और तो नहीं आया था घर में?'
'तुम्हीं और राजू आए गए, और तो कोई नहीं।'
थोड़ी देर बाद जाने क्या सोच कर वे उठे और राजू को जगा कर ले आए! राजू आँखें मलते हुए आया!
'ब्रीफकेस किसने दिया था तुम्हें?' संजू ने कि सक्सेना ने?
'क्यों, क्या बात है?'
'बताओ तो! कम हैं पाँच लाख में?'
राजू हँसा - 'मँगनी की बछिया के दाँत नहीं गिनते! संतोष कीजिए, जितना मिल गया मुफ्त का समझिए!'
वे एकटक राजू को देखते रहे - 'तुमने तो कुछ इधर उधर नहीं किया!'
'मैं जानता था यही शक करेंगे आप! स्वभाव से ही शक्की हैं।'
'चुप्प!' शीला ने झिड़का 'यही तमीज है बाप से बात करने की!'
'समझ गया। इसी ने चुराया है, बताया नहीं!'
'पहले ही समझ जाना चाहिए था। चोर कभी बताता है कि चोरी उसी ने की है?' राजू बोला।
रघुनाथ ने आश्चर्य से देखा उसकी ओर - 'क्या हो गया है इस लौंडे को? इसका भाई कंप्यूटर इंजीनियर! उसने कभी इस तरह से बातें नहीं कीं अपने बाप से?'
'बातें नहीं कीं, इसीलिए तो चुपके से शादी कर ली और बाप को खबर तक नहीं दी।'
झनझना उठे क्रोध से रघुनाथ। मन हुआ - उसे घर से निकल जाने को कहें लेकिन जाने क्या सोच कर खुद ही उठे और आँगन में आ गए। कोने में बँसखट पड़ी थी, उसी पर बैठ गए। उन्होंने ईश्वर के लिए सिर उठाया आसमान की तरफ।
आसमान धुला-धुला और उजला-उजला लग रहा था - जैसे भोर होने को हो!
'देखो माँ! मैं साल डेढ़ साल से कहता रहा हूँ इनसे कि मोटरबाइक ले दो। घराने के सभी लड़कों के पास है, एक मेरे ही पास नहीं है। इनका कहना था कि हाथ पाँव तोड़ना है क्या? सिर फोड़ना है क्या? चोरी चकारी और लफंगई करनी है क्या? डाके डालने हैं क्या? किसका हाथ पैर टूटा है बोलो तो? तो संजू ने मुझसे पूछा - तुम्हें भी कुछ चाहिए? जब हम वहाँ से आने लगे तब! मैंने कहा - 'हाँ, मोटरबाइक! उसने मुझे रुपए थमा दिए। उसने ब्रीफकेस में से दिया या कहाँ से दिया मुझे नहीं पता!'
'सरासर झूठ! यह जानता है कि संजय अब नहीं आनेवाला। हम नहीं पूछ पाएँगे उससे।' रघुनाथ को यह झूठ बर्दाश्त न हुआ!
शीला खड़ी-खड़ी ढिबरी की मद्धिम रोशनी में सुबक रही थी। वह अपने बेटे के इस रूप से अनजान थी!
'और बताएँ! हमारे बापजान के दो बेटे - संजू और मैं! इन्होंने एक आँख से हमें देखा ही नहीं। सारी मेहनत और सारा पैसा इन्होंने उस पर खर्च किया। पढ़ाया, लिखाया, कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और मेरे लिए? कामर्स पढ़ो। जिसे पढ़ने में न यह मेरी मदद कर सकते थे, न मेरा मन लगता था! किसी तरह बीकाम किया तो कोचिंग करो, ये टेस्ट दो, वह टेस्ट दो! मैं थक गया हूँ टेस्ट देते देते! इनसे कहो, ये रुपए कहीं इधर उधर खर्च न करें, डोनेशन के लिए रखें। बिना डोनेशन के कहीं एडमीशन नहीं होनेवाला! साफ-साफ बता दे रहा हूँ।'
'अगर डोनेशन के पैसे न दूँ तो?'
'तो कभी मत पूछिएगा कि यह क्या कर रहे हो? क्यों कर रहे हो?'
'क्या करोगे? डाका डालोगे? तस्करी करोगे? गाँजा हेरोइन बेचोगे? कत्ल करोगे?'
'क्या बक-बक कर रहे हैं आप? फालतू?' झल्ला कर शीला बोली - 'और तू चुप रह? अनाप-शनाप बोल रहा है बाप से।'
राजू ने कमरे से बाहर निकलते हुए पिता को देखा - 'बस कह दिया।'
'सुनो-सुनो! भागो मत! अपने ही बारे में सोचते हो या कभी अपनी बहन के भी बारे में सोचा? जब होता है तभी जाते हो हजार पाँच सौ मार लाते हो उससे? उसकी शादी के बारे में भी सोचते हो कभी?'
'देख रही हो इनका?' वह माँ की ओर मुड़ा - 'जिससे कहना था, उससे नहीं कहा; कह मुझसे रहे हैं जो अभी पढ़ाई कर रहा है। डोनेशन की बात आई तो दीदी याद आ रही है। पहले तो इनसे कहो कि ये कंजूसी और दरिद्रता छोड़ें अब! हँसी उड़ाते हैं लोग। यह ढिबरी और लालटेन छोड़ें और दूसरों की तरह तार खिंचवा के - कम से कम आँगन और दरवाजे पर लट्टू लगवा लें। रोशनी हो घर में! इसके साथ फोन भी लगवा रहे हैं लोग। घर में फोन होगा तो संजू भी जब चाहेगा, बात कर लेगा। तुम भी सरला दीदी से बातें कर लिया करोगी! दीदी से ही क्यों, भाभी से भी!'
माथा पीटते हुए फिर बैठ गए रघुनाथ - 'हाय रे किस्मत। जिनके लिए कंजूसी की, उन्हीं के मुँह से यह सुनना बदा था।'
'और एक बात कह दें तुमसे भी और इनसे भी। फिर ऐसी बेवकूफी न करें जैसी संजू के समय की थी। दीदी से साफ-साफ बात कर लें कि वह इनकी तय की हुई शादी करेंगी भी या नहीं। यह तो भाग-दौड़ करके कहीं तय कर आएँ और वह कह दें कि मुझे नहीं करनी। फिर भद पिटे इनकी!'
'यह तुम कैसे कह रहे हो?'
'इसलिए कि मैंने एक आदमी को अक्सर उनके साथ देखा है! कौन है वह, नही जानता!'
'देखा? इसे शरम नहीं अपनी बहन के बारे में इस तरह बात करते हुए?' रघुनाथ ने दाँत पीसते हुए वहीं से कहा!