पूरे रामायण कथा में सबसे चालक , समझदार व्यक्ति हमें श्रीमान जीकेवट लगे हैं। ऐसी सौदेबाजी किये हैं कि तपस्वी भी न कर पाएं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह समझ गये कि यह ईश्वर हैं। अच्छे अच्छे धार्मिक , आध्यात्मिक लोग इसमें विफल रहते हैं।
दूसरा यह कि वह बिल्कुल इस चक्कर मे नहीं पडे़ कोई भौतिक वस्तु मांगें !धन वैभव परिवार कुछ नहीं । उनके सामने भगवान राम ही नहीं हैं , रघुवंश के उत्तराधिकारी भी खड़े हैं। आज नहीं तो कल उनको सब कुछ मिल सकता था।
उन्होंने पूरी बुद्धि लगा दी कि गुरु यही मौका है, अपना उद्धार कर लो। इसको सूक्ष्मता से देखिये तो वह हर शब्द में अपनी बुद्धि लगाई है।
भगवान उनको दे रहे हैं अंगूठी लेकिन वह बिना मांगें ही सब कुछ ले रहें है।
क्या कहते हैं -
नाथ आजु मैं काह न पावा
मिटे दोष , दुख , दरिद्र दावा।
सबसे पहले उन्होंने ईश्वर से अपने को कर्मों के फल से मुक्त कराया - दोष , दुख , दरिद्रता ! हस्ताक्षर हो गया।
फिर क्या कहते हैं -
बहुत काल मैं किन्हीं मंजूरी..
अब आगे का भी हस्ताक्षर हो गया कि यहाँ मैंने आपको पार किया , वहाँ मेरा उद्धार करियेगा।
अब भी यह जटिल भक्त मान नहीं रहे हैं । बोले -
फिरती बार मोहि जो देबा
सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा।
अब देखिये सब कुछ मिल चुका है लेकिन कह रहे हैं -
प्रभु जब आप वन से लौटेगें , जो देंगें उसको सिर झुकाकर ले लूँगा।
अब दूसरी बार भी दर्शन कि व्यवस्था कर लिये।
यह बात भगवान भूले नहीं , जब लंका से वापस आ रहे थे तो रुककर ऋषि भरद्वाज और श्रीमान केवट जी से मिले थे। श्रीमान केवट जी भगवान राम के राज्याभिषेक में उनके साथ ही बगल में बैठे थे।
ऐसे भक्त बहुत कम होंगें। भगवान तो मर्यादापुरुषोत्तम है ही।