प्रकाण्ड विद्वान अष्टावक्र
अष्टावक्र इतने प्रकाण्ड विद्वान थे कि माँ के
गर्भ से ही अपने पिताजी "कहोड़"को
अशुद्ध वेद पाठ करने के लिये टोंक दिए,
जिससे क्रुद्ध होकर पिताजी ने आठ जगह से
टेढ़े हो जाने का श्राप दे दिया था।
पौराणिक_कथा
अष्टावक्र अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण ग्रन्थ
अष्टावक्र गीता के ऋषि हैं। अष्टावक्र गीता
अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
'अष्टावक्र' का अर्थ 'आठ जगह से टेढा' होता
है। कहते हैं कि अष्टावक्र का शरीर आठ
स्थानों से टेढ़ा था।
उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतु
था। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम
कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान
देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ
अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता
का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद
सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़
वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से बालक
ने कहा कि पिताजी! आप वेद का गलत पाठ
कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर
बोले कि तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा
है, इसलिये तू आठ स्थानों से वक्र (टेढ़ा) हो
जायेगा।
हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनक के दरबार
में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी
हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें
जल में डुबा दिया गया। इस घटना के बाद
*अष्टावक्र* का जन्म हुआ। पिता के न होने के
कारण वह अपने नाना *उद्दालक* को अपना
पिता और अपने मामा *श्वेतकेतु* को अपना
भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक
की गोद में बैठा था तो श्वेतकेतु ने उसे अपने
पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा
तू यहाँ से, यह तेरे पिता का गोद नहीं है।
अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और
उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर
अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता
ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।
अपनी माता की बातें सुनने के पश्चात्
अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बंदी
से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के
यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें
रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को
जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले
कि अरे द्वारपाल! केवल बाल श्वेत हो जाने
या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा
व्यक्ति नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो
और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा
होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की
सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के
लिये ललकारा।
राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के
लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस
अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन
सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है ?
राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्टावक्र
बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः
ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन
सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा
करे। अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा
जनक ने फिर प्रश्न किया कि वह कौन है
जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द
नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी
चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय
विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला हैं।
है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक!
सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं
रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल
नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और
वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।
अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक
प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ
की अनुमति प्रदान कर दी। बंदी ने अष्टावक्र
से कहा कि एक सूर्य सारे संसार को प्रकाशित
करता है, देवराज इन्द्र एक ही वीर हैं तथा
यमराज भी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र
और अग्निदेव दो देवता हैं। नारद तथा पर्वत
दो देवर्षि हैं, अश्वनीकुमार भी दो ही हैं। रथ
के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो
सहचर होते हैं। बंदी ने कहा कि संसार तीन
प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का
प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में
यज्ञ होता है तथा तीन लोक और तीन
ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रम चार
हैं, वर्ण चार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार,
आकार, उकार तथा मकार ये वाणी के प्रकार
भी चार हैं। बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार
के होते हैं, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ
पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं,
पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्ति छंद में पाँच
पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः
गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन
सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं
और साधस्क भी छः ही होते हैं। बंदी ने कहा
कि पालतू पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य
पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षि
सात हैं और वीणा में तार भी सात ही होते हैं।
अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के
स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं। बंदी ने कहा
कि पितृ यज्ञ में समिधा नौ छोड़ी जाती है,
प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा वृहती
छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र
बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं,
बच्चा दस माह में होता है और दहाई में भी
दस ही होता है। बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्र
हैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं
की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले
कि बारह आदित्य होते हैं बारह दिन का
प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह
अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही
होता है। बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम
होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं ........
इतना कहते कहते बंदी श्लोक की अगली
पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर
अष्टावक्र ने श्लोक को पूरा करते हुये कहा
कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद
कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों
तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।
इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने
पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन्! यह हार गया
है, अतएव इसे भी जल में डुबो दिया जाये।
तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुण का
पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को
अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी
उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता
हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ
में हार जाने के पश्चात जल में डुबोये गये सारे
ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये जिनमें
अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।
अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये।
तब कहोड़ ने प्रसन्न होकर कहा कि पुत्र! तुम
जाकर समंगा नदी में स्नान करो, उसके
प्रभाव से तुम मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे।
तब अष्टावक्र ने इस स्थान में आकर समंगा
नदी में स्नान किया और उसके सारे वक्र
अंग सीधे हो गये।।
महर्षि अष्टावक्र का विवाह.....
एक बार महर्षि, अष्टावक्र, महर्षि वदान्य की कन्या के रूप पर मोहित हो गये। उन्होंने उसके पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की। तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा, ‘‘पुत्र! मैं अवश्य तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा और तुम्हारे साथ ही अपनी कन्या का पाणिग्रहण करूँगा; लेकिन इसके लिए तुम्हें मेरी एक आज्ञा माननी पड़ेगी।’’
अष्टावक्र ने कौतूहल से पूछा, ‘‘वह क्या महर्षि?’’
महर्षि वदान्य ने कहा, ‘‘तुम्हें उत्तर दिशा में जाना होगा। अलकापुरी और हिमालय पर्वत के आगे जाने पर तुम्हें कैलाश पर्वत मिलेगा। वहाँ महादेव जी अनेक सिद्ध चारण, भूत-पिशाच गणों के साथ विचरण करते हैं। उस स्थान के पूर्व और उत्तर की ओर छहों ऋतुएँ, काल, रात्रि, देवता और मनुष्य आदि महादेव जी की उपासना किया करते हैं। इस स्थान को लाँघने के बाद तुम्हें मेघ के समान एक नीला वन मिलेगा। उस स्थान पर एक वृद्धा तपस्विनी रहती है। तुम उसके दर्शन करके लौट आना। मैं उसी क्षण अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ कर दूँगा।’’
अष्टावक्र ने महर्षि वदान्य की बात स्वीकार कर ली और यात्रा के लिए चल पड़े। पहले तो वे हिमालय पर्वत पर पहुँचे और वहाँ धर्मदायिनी बाहुदा नदी के पवित्र जल में स्नान और देवताओं का तर्पण करके उसी पवित्र स्थान पर कुशासन बिछाकर विश्राम करने लगे। वहीं रात भर सुखपूर्वक सोये। वहीं प्रातःकाल अग्नि प्रज्वलित करके उन्होंने यज्ञ किया। वहीं पास में एक तालाब था जहाँ शिव-पार्वती की मूर्ति थी। अष्टावक्र ने मूर्ति के दर्शन किये और फिर अपनी यात्रा पर चल दिये।
चलते-चलते वे कुबेर की नगरी में पहुँचे। उसी समय मणिभद्र के पुत्र रक्षक राक्षसगण के साथ उधर आये। ऋषि ने उन्हें देखकर कहा, ‘‘हे भद्र! आप जाकर कुबेर को मेरे आने की सूचना दे दें।’’
मणिभद्र ने कहा, ‘‘महर्षि, आपके आने का समाचार तो भगवान कुबेर को पहले ही प्राप्त हो चुका है। वे स्वयं आपका समुचित सत्कार करने के लिए आ रहे हैं।’’
कुबेर ने आकर महर्षि अष्टावक्र का स्वागत किया और उन्हें अपने भवन में ले गया। आमोद-प्रमोद के कितने ही साधन ऋषि के चित्त को प्रसन्न करने के लिए जुटाये गये। गन्धर्वों ने मधुर कण्ठ से गीत गाये। अप्सराएँ नाचीं और चारों ओर तरह-तरह के वाद्यों की ध्वनि से पूरा प्रासाद मस्ती से भर गया।
तपस्वी अष्टावक्र इसी तरह के आमोद-प्रमोद से घिरे हुए एक वर्ष तक कुबेर के यहाँ रुके रहे। फिर उन्हें महर्षि वदान्य की आज्ञा की याद आयी और उन्होंने कुबेर से चलने की आज्ञा माँगी। कुबेर ने और ठहरने का ऋषि से काफी आग्रह किया लेकिन अष्टावक्र अपनी यात्रा पर चल पड़े।
वे कैलास, मन्दर और सुमेरु आदि अनेक पर्वतों को लाँघकर किरातरूपी महादेव के स्थान की प्रदक्षिणा करके उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। कुछ ही आगे जाने पर एक सुन्दर वन उन्हें दिखाई दिया। उस वन में एक दिव्य आश्रम था। उस आश्रम के पास अनेक रत्नों से विभूषित पर्वत, सुन्दर तालाब और तरह-तरह के सुन्दर पदार्थ थे। देखने में वह कुबेर की नगरी से भी कहीं अधिक शोभायमान दीख पड़ता था। वहीं अनेक प्रकार के सोने और मणियों के पर्वत दिखाई देते थे जिन पर सोने के विमान रखे हुए थे। मन्दार के फूलों से अलंकृत मन्दाकिनी कलकल निनाद करती हुई बह रही थी। चारों ओर मणियों की जगमगाहट से उस दिव्य वन की कल्पना श्री से ऊँची उठ जाती थी लेकिन उसकी समता कहीं भी मस्तिष्क खोज नहीं पाता था।
अष्टावक्र यह देखकर आश्चर्यचकित-से खड़े थे। वे सोच रहे थे कि यहीं ठहर कर आनन्द से विचरण करना चाहिए। इससे अधिक सुख और ऐश्वर्य और कहाँ मिल सकता है? अब वे अपने लिए एक उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने लगे। और बढ़कर उन्होंने देखा कि यह तो एक पूरा नगर है। इस नगर के द्वार पर जाकर उन्होंने पुकारकर कहा, ‘‘मैं अतिथि हूँ। इस नगर के प्राणी मेरा उचित स्वागत करें।’’
उसी समय द्वार से सात परम सुन्दरी कन्याएँ अतिथि के स्वागत के लिए निकल आयीं। वे कन्याएँ इतनी अधिक सुन्दर थीं कि उन्हें देखकर अष्टावक्र ठगे-से खड़े हो गये। जिसकी तरफ आँख उठाकर देखते उसे ही देखते रह जाते। इस तरह कुछ देर तक कामदेव ने ऋषि के अन्तर में कोलाहल-सा मचा दिया। वे कामावेश में आकर उन सुन्दरियों की ओर देखने लगे लेकिन फिर उन्होंने अपने तपोबल से अपने मन को वश में कर लिया।
उन सुन्दरियों ने कहा, ‘‘आइए भगवन्! पधारिए। हम आपका स्वागत करती हैं।’’
महर्षि एक भव्य प्रासाद के अन्दर चले गये। वहाँ उन्हें सामने ही एक वृद्धा बैठी मिली। वह स्वच्छ वस्त्र पहने थी और उसके शरीर पर अनेक तरह के आभूषण थे। महर्षि को देखते ही वह वृद्धा उठकर खड़ी हो गयी और उनका समुचित स्वागत करके बैठ गयी। महर्षि भी वहीं पास में बैठ गये। उन्होंने उन सुन्दरी कन्याओं की तरफ बढ़कर कहा, ‘‘हे कन्याओ! तुममें से जो बुद्धिमती और धैर्यवती हो वही यहाँ रहे, बाकी सब यहाँ से चली जाएँ।’’
एक को छोड़कर सभी कन्याएँ वहाँ से चली गयीं। वृद्धा वहीं बैठी रही। रात होने पर महर्षि के लिए एक स्वस्थ शैया की व्यवस्था कर दी गयी। जब महर्षि सोने लगे तो उन्होंने उस वृद्धा से भी जाकर अपनी शैया पर सोने के लिए कहा। उनके कहने पर वृद्धा अपनी शैया पर जाकर लेट गयी।
रात्रि का एक ही प्रहर बीता होगा कि वृद्धा जाड़े का बहाना करती हुई काँपती हुई महर्षि की शैया पर आ लेटी। महर्षि अष्टावक्र ने आदर के साथ उसे लेट जाने दिया। थोड़ी देर बाद ही वह वृद्धा कामातुर होकर अष्टावक्र के शरीर का आलिंगन करने लगी। यह देखकर महर्षि काष्ठ के समान कठोर और निर्विकार पड़े रहे।
अष्टावक्र को इस तरह अविचलित देखकर वृद्धा ने कहा, ‘‘हे भगवन्! पुरुष के शरीर का स्पर्श करने मात्र से ही स्त्री के अंग-अंग में कामोद्दीपन हो उठता है। स्त्री उस समय किसी तरह अपने मन को अपने वश में नहीं रख सकती। यही उसका स्वभाव है। इसलिए आपके शरीर से स्पर्श के कारण मैं काम-पीड़ा में जल रही हूँ। अब आप मेरे साथ रमण करके मेरी इच्छा को पूर्ण कीजिए।
‘‘हे ऋषि! मैं जीवन भर आपकी कृतज्ञ रहूँगी। यही आपकी तपस्या का अभीष्ट फल है। मेरी यह सारी सम्पत्ति आपकी ही है। आप यहीं मेरे पास रहिए। देखिए, हम यहाँ लौकिक और अलौकिक अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए रहेंगे।
‘‘हे नाथ! अब इस तरह मेरा तिरस्कार न कीजिए क्योंकि इससे मेरी आत्मा को बड़ा कष्ट पहुँचेगा। पुरुष-संसर्ग से बढ़कर स्त्रियों के लिए श्रेष्ठ सुख नहीं है। काम से पीड़ित होकर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी हो जाती हैं। उस समय तपी हुई बालू पर या कठोर शीत में विचरण करने से भी उनको तनिक भी कष्ट नहीं होता। आप किसी भी तरह मेरी अतृप्त कामना को तृप्त कीजिए।’’
वृद्धा की प्रार्थना सुनकर अष्टावक्र बोले, ‘‘हे देवी! मैं एक तपस्वी हूँ और बचपन से अभी तक पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रहा हूँ। किसी भी स्त्री का शरीर मैंने स्पर्श नहीं किया। धर्मशास्त्र में व्यभिचार की बड़ी निन्दा की गयी है, इसलिए किसी तरह का पाप करते हुए डरता हूँ। मेरा उद्देश्य तो विधिपूर्वक विवाह करके पुत्र उत्पन्न करना है और उसी हेतु मैं अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करूँगा। इसके अतिरिक्त परायी स्त्री से विषय-भोग करना पाप है।
‘‘हे शुभे! तुम उसकी ओर मुझे प्रवृत्त न करो।’’
यह सुनकर वृद्धा ने कहा, ‘‘हे महर्षि! यह तो आप जानते ही हैं कि स्त्रियाँ स्वभाव से ही कामातुर होती हैं। उनको पुरुष का संसर्ग देवताओं की आराधना से भी कहीं अधिक प्रिय और सुखकर होता है। तुम पतिव्रता की बातें करते हो तो हे स्वामी! सच तो यह है कि हजारों स्त्रियों में कहीं एक पतिव्रता स्त्री दिखाई पड़ती है और सती तो लाखों में एक होती है। जब स्त्रियों का कामोन्माद चढ़ जाता है तो वे इसके सामने पिता, माता, भाई, पति, पुत्र आदि किसी की भी परवाह नहीं करती हैं और अपनी काम-वासना की तृप्ति के उपाय सोचा करती हैं। यहाँ तक कि कुछ भी करके वे अपनी इच्छा पूरी करके ही मानती हैं।
‘‘हे भगवन्! काम के वश होकर ही स्त्री कुलटा हो जाती है।’’
वृद्धा की बात सुनकर अष्टावक्र मन ही मन घबरा रहे थे लेकिन फिर भी अपने को दृढ़ रखकर उन्होंने अविचलित भाव से उत्तर दिया, ‘‘हे देवी! मनुष्य जिस विषय का स्वाद जानता है उसी के लिए उसकी तीव्र इच्छा होती है। मैं तो विषय-भोग जानता ही नहीं, फिर मैं किसी भी हालत में तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त जो भी आज्ञा दो, मैं करने के लिए तैयार हूँ।’’
वृद्धा ने कहा, ‘‘यह न कहें नाथ! आप यहाँ कुछ दिन ठहरिए, तब अपने आप ही आपको सम्भोग-सुख का स्वाद मिल जाएगा। तब मैं और आप पूर्ण सुख के साथ रहा करेंगे।’’
इस पर अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे देवी! जब तक तुम कहोगी तब तक मैं यहाँ ठहर जाऊँगा लेकिन मैं नहीं जानता किस तरह तुम्हारे काम आ पाऊँगा।’’
यह कहने के पश्चात् महर्षि अष्टावक्र उस वृद्धा के अंगों पर दृष्टि डालने लगे। वृद्धा भी कामातुर होकर आलिंगन के लिए उद्यत हुई लेकिन किसी भी अंग को देखने से महर्षि अष्टावक्र के हृदय में कामासक्ति जाग्रत नहीं हुई। वे सोचने लगे कि यह वृद्धा इस तरह काम से पीड़ित क्यों है। तभी उनके हृदय में संशय जागा कि हो सकता है कि यह कुछ समय पूर्व इस प्रासाद की अधिष्ठात्री देवी कोई युवती हो और किसी शाप के कारण इस तरह कुरूप वृद्धा हो गयी हो। यह संशय पैदा होते ही उन्होंने उसकी कुरूपता और वृद्धावस्था का कारण पूछना चाहा लेकिन सीधे ही वृद्धा से प्रश्न करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी।
एक दिन बीत गया। सन्ध्या होने पर वृद्धा ने आकर कहा, ‘‘हे महर्षि! वह देखिए, सूर्य अस्त हो रहा है। अब आपकी क्या आज्ञा है?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! जाओ, स्नान करने के लिए जल ले आओ। स्नान करके मैं सन्ध्यावन्दन करूँगा।’’
वृद्धा जाकर जल ले आयी और उसके साथ सुगन्धित तेल और वस्त्र भी लेती आयी। महर्षि से आज्ञा लेकर वह उनके शरीर में तेल मर्दन करके लगी और फिर अपने हाथों से ही उनके शरीर को मलकर उनको स्नान कराने लगी। महर्षि बड़े आनन्द से स्नान करते रहे। स्नान करते-करते सारी रात बीत गयी। प्रातःकाल जब सूर्य की किरणें स्नानागार में आने लगीं तो ये चौंक पड़े और इसे कोई माया समझकर वृद्धा से कहने लगे।
‘‘शुभे! क्या भोर हो गयी? या यह किसी तरह का छल है?’’
वृद्धा ने कहा, ‘‘भगवन्! वास्तव में भोर हो गयी। देखिए सूर्य भगवान प्राची में निकल आये हैं।’’
महर्षि स्नान कर चुके। इसके बाद वृद्धा ने पूछा, ‘‘हे भगवान्! अब मैं क्या करूँ?’’
अष्टावक्र कुछ भी उत्तर नहीं दे पाये और चिन्तामग्न होकर सोचने लगे। इसी बीच उत्तर की प्रतीक्षा न करती हुई वृद्धा उठी और अन्दर से एक थाल में सजाकर स्वादिष्ट भोजन ले आयी। महर्षि भोजन करने लगे। फिर भोजन करते-करते उन्हें पूरा दिन बीत गया। रात्रि आयी। वृद्धा ने अलग-अलग पलंग बिछवा दिये। महर्षि जाकर अपने पलंग पर लेट गये और कुछ देर बाद उनको नींद आ गयी। आधी रात्रि के समय वृद्धा फिर सम्भोग की इच्छा रखती हुई उनके पलंग पर आ गयी।
महर्षि सहसा जागकर कहने लगे, ‘‘हे देवी! तुम व्यर्थ प्रयत्न न करो। परस्त्री के साथ सम्भोग के लिए मेरा हृदय गवाही नहीं देता। यह कार्य मुझे धर्म-विरुद्ध लगता है, इसलिए इसे त्याज्य समझकर मैं इसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होऊँगा।’’
इस पर वृद्धा कहने लगी, ‘‘हे भगवन्! आपकी शंका निर्मूल है। मैं स्वाधीन स्त्री हूँ। माता-पिता या पति किसी का भी मेरे ऊपर अधिकार नहीं है। मेरे साथ सहवास करने से आपको परस्त्री-गमन का दोष क्यों लगेगा?’’
अष्टावक्र वृद्धा के तर्क के सामने परास्त होने लगे, तब सहसा उन्हें याद आया और उन्होंने पूर्ण दृढ़ता के साथ कहा, ‘‘हे देवी! तुम्हारा यह कहना कि तुम स्वाधीन हो, निराधार है। प्रजापति ने कहा है कि स्त्री जाति कभी स्वाधीन नहीं हो सकती।’’
वृद्धा ने कौतूहलवश पूछा, ‘‘क्यों?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! प्रजापति ने कहा है कि लोक में कोई भी स्त्री स्वाधीन नहीं है। बाल्यावस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र स्त्रियों की रक्षा करते हैं, इसलिए वे इन्हीं के अधीन रहती हैं। फिर बताओ, तुम किस प्रकार स्वतन्त्र हो?’’
अष्टावक्र के तर्क के साथ किसी तरह न उलझते हुए वृद्धा ने दूसरा पैंतरा लेकर कहना प्रारम्भ किया, ‘‘हे देव! मैं इस समय काम से पीड़ित हूँ और आपके साथ सम्भोग की कामना करती हूँ। कामातुर स्त्री की इच्छा को यदि पुरुष पूर्ण नहीं करता है तो उसे पाप लगता है।’’
वृद्धा के इतना कह देने पर भी अष्टावक्र अडिग रहे और उसी दृढ़ता के साथ कहने लगे, ‘‘हे शुभे! साधारणतया मनुष्य काम, क्रोध आदि दोषों के वशीभूत होकर इस संसार में कितने ही जघन्य पाप करता है लेकिन मैंने कठोर संयम से अपने मन को अपने वश में कर लिया है। तुम किसी भी तरह उसको विचलित नहीं कर पाओगी, इसलिए तुम्हारा इस तरह आग्रह करना व्यर्थ है। जाओ, अपने पलंग पर चली जाओ।’’
अब तो वृद्धा को गहरा धक्का लगा लेकिन फिर भी उसने धैर्य नहीं छोड़ा और फिर वह आशा लेकर अष्टावक्र से बोली, ‘‘हे महर्षि! यदि आप मुझे परस्त्री समझते हैं और इसी कारण पाप समझकर सम्भोग करते हुए डरते हैं तो मुझे अपनी स्त्री बना लीजिए। मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। आप विश्वास रखिए, मैं अभी तक कुँवारी हूँ। इससे आपको किसी तरह का पाप नहीं लगेगा और मेरी काम-पीड़ा भी शान्त हो जाएगी।’’
अब तो अष्टावक्र एक अजीब पसोपेश में पड़ गये। उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझ पड़ा। चिन्ता के भार से उन्होंने अपना सिर नीचे झुका लिया। कुछ ही क्षणों बाद जब उन्होंने कुछ कहने के लिए अपना मुँह ऊपर उठाया और उनकी दृष्टि उस स्त्री पर पड़ी तो महान आश्चर्य के कारण वे सहसा हिल उठे। वह वृद्धा अब एक सोलह वर्ष की अत्यन्त सुन्दरी कन्या का रूप धारण करके सामने बैठी मुस्करा रही थी।
अष्टावक्र ने अधीर होकर पूछा, ‘‘हे देवी! यह तुम्हारा कैसा रूप? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि तुम कौन हो। तुम्हारा रूप देखकर तो अब मेरे रोम-रोम में एक मादकता भर गयी है और मेरे अन्दर कामोद्दीपन हो उठा है लेकिन मुझे महर्षि वदान्य की सुन्दरी कन्या का भी ध्यान है, जिसके कारण मैं इस कठिन परीक्षा के लिए अपने स्थान से चला हूँ। इसलिए मैं तुम्हारे साथ किसी प्रकार का संसर्ग तो नहीं कर सकता लेकिन तुम्हारा परिचय प्राप्त करने के लिए अवश्य लालायित हूँ। बताओ कल्याणी! तुम कौन हो?’’
उस कन्या ने मुस्कराते हुए ही कहा, ‘‘हे महर्षि अष्टावक्र! स्वर्ग, मृत्यु आदि सभी लोकों के स्त्री-पुरुषों में विषय वासना पायी जाती है। मैं परस्त्री-गमन के लिए आपके मन को विचलित करके आपकी परीक्षा ले रही थी लेकिन अपने कठोर संयम के कारण आपने धर्म की मर्यादा को नहीं छोड़ा। इसलिए मेरा विश्वास है कि जीवन में आप कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं भोगेंगे।
‘‘मैं उत्तर दिशा हूँ। स्त्रियों के चपल स्वभाव का प्रदर्शन करने के लिए ही मैंने यह वृद्धा का रूप रखा था। इससे आप यह जान लीजिए भगवन् कि इस संसार में वृद्धावस्था को प्राप्त स्त्री-पुरुषों को भी काम सताता है। मुझे प्रसन्नता है कि आपने स्त्री की कितनी भी चंचलता देखकर अपने ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं छोड़ा, इसलिए ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता आप पर अत्यन्त प्रसन्न हैं। जिस काम के लिए महात्मा वदान्य ने आपको यहाँ भेजा है वह अवश्य पूरा होगा। महर्षि की कन्या से आपका अवश्य विवाह होगा और वह कन्या पुत्रवती भी होगी।’’
अष्टावक्र यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उस देवी से चलने की आज्ञा माँगने लगे। उत्तर दिशा ने आदर के साथ अष्टावक्र को विदा कर दिया। जब वे लौटकर महर्षि वदान्य के पास आये तो उन्होंने उनसे उनकी यात्रा का सारा वृत्तान्त पूछा और फिर अपने मन में पूर्णतः सन्तुष्ट होते हुए अपनी कन्या का पाणिग्रहण उनके साथ कर दिया।