बद्ध!
ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से।
आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से?
मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी
किस ललकार भरे स्वर में कहता है : 'बन्दी! बन्दी!'
इस घन निर्जन में एकाकी प्राण सुन रहे, स्तब्ध
हहर-हहर कर फिर-फिर आता एक प्रकम्पित शब्द
बद्ध!