होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का
असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से
वही जिया। पा गया अर्थ।
बार-बार जो जिये-मरे
यह नहीं कि वे सब
बार-बार तरवार-घाट पर
पीते रहे नये अर्थों का पानी।
अर्थ एक है: मिलता है तो एक बार: (गुड़-सा गूँगे को!)
और उसे दोहराना
दोहरे भ्रम में बह जाना है।