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क्वाँर की बयार

13 जुलाई 2022

16 बार देखा गया 16

इतराया यह और ज्वार का

क्वाँर की बयार चली,

शशि गगन पार हँसे न हँसे

शेफाली आँसू ढार चली !

नभ में रवहीन दीन

बगुलों की डार चली;

मन की सब अनकही रही

पर मैं बात हार चली !

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रचनाएँ
"अज्ञेय" जी की रोचक कविताएँ
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अज्ञेय जी का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 में उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ। इस कविता का संदेश है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए व्यक्ति का गुण उसका कौशल उसकी रचनात्मकता समाज के काम आनी चाहिए। जिस तरह एक दीपक के लिए अकेले जलने से बेहतर है, दीपकों की कतार में जलना। उसी तरह व्यक्ति के लिए समाज से जुड़े रहकर अपने जीवन को सार्थक बनना चाहिए। इस कविता में दीपक प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रतीक है और पंक्ति समाज का प्रतीक है। अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है। उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।” जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है।
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उधार

13 जुलाई 2022
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सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी। मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी? मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी

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मेरे देश की आँखें

13 जुलाई 2022
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नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें  नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं.   तनाव से झुर्

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शिशिर ने पहन लिया

13 जुलाई 2022
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शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल गंध बन उड़ रहा पराग धूल झूल काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल अरे! ऋतुराज आ गया।

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नया कवि : आत्म-स्वीकार

13 जुलाई 2022
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किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ में जोड़ दिया । कोई मधुकोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया । किसी की उक्ति में गरिमा थी मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया, किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैंने द

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देखिये न मेरी कारगुज़ारी

13 जुलाई 2022
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अब देखिये न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी पर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दुकान से किराया वसूल कर लाया हूँ । थैली वाले को थैली त

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सत्य तो बहुत मिले

13 जुलाई 2022
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खोज़ में जब निकल ही आया सत्य तो बहुत मिले । कुछ नये कुछ पुराने मिले कुछ अपने कुछ बिराने मिले कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले कुछ अकड़ू कुछ मुँह-चुराने मिले कुछ घुटे-मँजे सफेदपोश मिले कुछ ईमानदार ख़

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चांदनी जी लो

13 जुलाई 2022
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शरद चांदनी बरसी अँजुरी भर कर पी लो ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी ओ प्रिय कुमुद ताकते अनझिप क्षण में तुम भी जी लो । सींच रही है ओस हमारे गाने घने कुहासे में झिपते चेहरे पहचाने खम्भों पर

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मैंने आहुति बन कर देखा

13 जुलाई 2022
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मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

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मैंने आहुति बन कर देखा

13 जुलाई 2022
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मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

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जो कहा नही गया

13 जुलाई 2022
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है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया । उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई। अधूरी हो पर सहज थी अनुभूत

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ताजमहल की छाया में

13 जुलाई 2022
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मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ, या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ । साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ। पर वह क्या कम कवि

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ये मेघ साहसिक सैलानी

13 जुलाई 2022
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ये मेघ साहसिक सैलानी! ये तरल वाष्प से लदे हुए द्रुत साँसों से लालसा भरे ये ढीठ समीरण के झोंके कंटकित हुए रोएं तन के किन अदृश करों से आलोड़ित स्मृति शेफाली के फूल झरे! झर झर झर झर अप्रतिहत स्

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सर्जना के क्षण

13 जुलाई 2022
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एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति शिखायें वहीं तुम भी चली जाना शांत तेजोरूप! एक क्षण भर और लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! बूँद स्वाती

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उड़ चल हारिल

13 जुलाई 2022
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उड़ चल हारिल लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका उषा जाग उठी प्राची में कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में छूट न जाय यह चाह सृजन की शक्ति रहे तेरे हाथों में रुक न जाय यह गति जीवन क

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यह दीप अकेला

13 जुलाई 2022
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यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ति को दे दो यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा? यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सु

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वन झरने की धार

13 जुलाई 2022
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मुड़ी डगर मैं ठिठक गया वन-झरने की धार साल के पत्ते पर से झरती रही मैने हाथ पसार दिये वह शीतलता चमकीली मेरी अंजुरी भरती रही गिरती बिखरती एक कलकल करती रही भूल गया मैं क्लांति, तृषा, अ

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वसंत आ गया

13 जुलाई 2022
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मलयज का झोंका बुला गया खेलते से स्पर्श से रोम रोम को कंपा गया जागो जागो जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली नीम के भी बौर में मिठास देख ह

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शरद

13 जुलाई 2022
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सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली शरद की धू

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सारस अकेले

13 जुलाई 2022
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घिर रही है साँझ हो रहा है समय घर कर ले उदासी तौल अपने पंख, सारस दूर के इस देश में तू है प्रवासी! रात! तारे हों न हों रव हीनता को सघनतर कर दे अंधेरा तू अदीन! लिये हिय में चित्र ज्योति प्रदेश

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मैं ने देखा, एक बूँद

13 जुलाई 2022
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मैं ने देखा एक बूँद सहसा उछली सागर के झाग से; रंग गई क्षणभर, ढलते सूरज की आग से। मुझ को दीख गया: सूने विराट् के सम्‍मुख हर आलोक-छुआ अपनापन है उन्‍मोचन नश्‍वरता के दाग से!

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प्रतीक्षा-गीत

13 जुलाई 2022
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हर किसी के भीतर एक गीत सोता है जो इसी का प्रतीक्षमान होता है कि कोई उसे छू कर जगा दे जमी परतें पिघला दे और एक धार बहा दे। पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत जिसे मैने ब

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वसीयत

13 जुलाई 2022
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मेरी छाती पर हवाएं लिख जाती हैं महीन रेखाओं में अपनी वसीयत और फिर हवाओं के झोंकों ही वसीयतनामा उड़ाकर कहीं और ले जाते हैं। बहकी हवाओ ! वसीयत करने से पहले हल्‍फ उठाना पड़ता है कि वसीयत करने

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मैं वह धनु हूँ

13 जुलाई 2022
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मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने में प्रत्यंचा टूट गई है। स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि दिग्दिगन्त में फूट गई है प्रलय-स्वर है वह, या है बस मेरी लज्जाजनक पराजय, या कि सफलता ! कौन कहेगा क्या उस में है

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पानी बरसा

13 जुलाई 2022
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ओ पिया, पानी बरसा ! घास हरी हुलसानी मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती झर पड़े जीते पीत अमलतास चातकी की वेदना बिरानी। बादलों का हाशिया है आस-पास बीच लिखी पाँत काली बिजली की कूँजों के डार-- कि असाढ़

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पराजय है याद

13 जुलाई 2022
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भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।

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दूर्वांचल

13 जुलाई 2022
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पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैं ने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन य

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कतकी पूनो

13 जुलाई 2022
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छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले, पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती ! कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़

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क्वाँर की बयार

13 जुलाई 2022
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इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे शेफाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही पर मैं बात हार चली !

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प्रथम किरण

13 जुलाई 2022
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भोर की प्रथम किरण फीकी। अनजाने जागी हो याद किसी की अपनी मीठी नीकी। धीरे-धीरे उदित रवि का लाल-लाल गोला चौंक कहीं पर छिपा मुदित बनपाखी बोला दिन है जय है यह बहुजन की। प्रणति, लाल रवि, ओ जन-जी

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उषा-दर्शन

13 जुलाई 2022
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मैंने कहा डूब चांद। रात को सिहरने दे कुइँयों को मरने दे। आक्षितिज तन फ़ैल जाने दे। पर तम थमा और मुझी में जम गया। मैंने कहा उठ री लजीली भोर-रश्मि, सोई दुनिया में तुझे कोई देखे मत, मेरे भीतर स

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हवाएँ चैत की

13 जुलाई 2022
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बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की कट गईं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की।

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साँप

13 जुलाई 2022
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साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना विष कहाँ पाया?

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खुल गई नाव

13 जुलाई 2022
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खुल गई नाव घिर आई संझा, सूरज         डूबा सागर-तीरे। धुंधले पड़ते से जल-पंछी भर धीरज से         मूक लगे मंडराने, सूना तारा उगा चमक कर         साथी लगा बुलाने। तब फिर सिहरी हवा लहरियाँ का

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योगफल

13 जुलाई 2022
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सुख मिला  उसे हम कह न सके। दुख हुआ: उसे हम सह न सके। संस्पर्श बृहत का उतरा सुरसरि-सा  हम बह न सके । यों बीत गया सब : हम मरे नहीं, पर हाय ! कदाचित जीवित भी हम रह न सके।

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सर्जना के क्षण

13 जुलाई 2022
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एक क्षण भर और रहने दो मुझे अभिभूत फिर जहाँ मैने संजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति शिखायें वहीं तुम भी चली जाना शांत तेजोरूप! एक क्षण भर और लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते! बूँद स्वाती

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शब्द और सत्य

13 जुलाई 2022
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यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है  दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है  दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं मैं कब, कैसे,

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रात में गाँव

13 जुलाई 2022
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झींगुरों की लोरियाँ सुला गई थीं गाँव को, झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं धीमे-धीमे उजली कपासी धूम-डोरियाँ।

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औद्योगिक बस्ती

13 जुलाई 2022
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पहाड़ियों पर घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर धुआँ उगलती जाती हैं। भीतर जलते लाल धातु के साथ कमकरों की दु:साध्य विषमताएँ भी तप्त उबलती जाती हैं। बंधी लीक पर रेलें लादें म

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मैं ने देखा : एक बूंद

13 जुलाई 2022
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मैं ने देखा एक बूंद सहसा उछली सागर के झाग से रंगी गई क्षण-भर ढलते सूरज की आग से। -मुझ को दीख गया  सूने विराट के सम्मुख हर आलोक-छुआ अपनापन है उन्मोचन नश्वरता के दाग से।

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अनुभव-परिपक्व

13 जुलाई 2022
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माँ हम नहीं मानते अगली दीवाली पर मेले से हम वह गाने वाला टीन का लट्टू लेंगे हॊ लेंगे नहीं, हम नहीं जानते हम कुछ नहीं सुनेंगे। कल गुड़ियों का मेला है, माँ। मुझे एक दो पैसे वाली काग़ज़ की फिरक

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आंगन के पार द्वार खुले

13 जुलाई 2022
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आंगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आंगन भवन के ओर-छोर सभी मिले उन्हीं में कहीं खो गया भवन  कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन।

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नाता-रिश्ता-1

13 जुलाई 2022
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तुम सतत चिरन्तन छिने जाते हुए क्षण का सुख हो (इसी में उस सुख की अलौकिकता है)  भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई भावना का अर्थ (वही तो अर्थ सनातन है)  वह सोने की कनी जो उस अंजलि भर रेत में थी ज

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नाता-रिश्ता-2

13 जुलाई 2022
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तो यों, इस लिए      यहीं अकेले में      बिना शब्दों के      मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूँजने दो      मौन में लय हो जाने दो       यहीं जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं      केवल मरु का रेत-लदा झोंका

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नाता-रिश्ता-3

13 जुलाई 2022
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यहीं, यहीं और अभी इस सधे सन्धि-क्षण में इस नए जन्मे, नए जागे, अपूर्व, अद्वितीय...अभागे मेरे पुण्यगीत को अपने अन्त:शून्य में ही तन्मय हो जाने दो यों अपने को पाने दो !

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नाता-रिश्ता-4

13 जुलाई 2022
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वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? हाँ-- बातों के बीच की चुप्पियों में हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में तीर्थों की पगडंडियों में बरसों पहले गुज़रे हुए यात

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नाता-रिश्ता-5

13 जुलाई 2022
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उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ  उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें

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घर-1

13 जुलाई 2022
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मेरा घर दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है मेरा घर दो दरवाज़ों के बीच है उसमें किधर से भी झाँको तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होगे तुम्हें पार का दृश्य दीख जाएगा घर नहीं दीखेगा

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घर-2

13 जुलाई 2022
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तुम्हारा घर वहाँ है जहाँ सड़क समाप्त होती है पर मुझे जब सड़क पर चलते ही जाना है तब वह समाप्त कहाँ होती है ? तुम्हारा घर.

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घर-3

13 जुलाई 2022
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दूसरों के घर भीतर की ओर खुलते हैं रहस्यों की ओर जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं शहरों में होते हैं दूसरों के घर दूसरे के घरों में दूसरों के घर दूसरों के घर हैं

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घर-4

13 जुलाई 2022
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घर हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं घर की बातें सबकी अपनी हैं घर की बातें कोई किसी से नहीं करता जिनकी बातें होती हैं वे घर नहीं हैं 

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घर-5

13 जुलाई 2022
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घर मेरा कोई है नहीं घर मुझे चाहिए घर के भीतर प्रकाश हो इसकी भी मुझे चिंता नहीं है प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो इसी की मुझे तलाश है ऐसा कोई घर आपने देखा है ? देखा हो तो मुझे भी उसका पता द

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वासंती

13 जुलाई 2022
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मेरी पोर-पोर गहरी निद्रा में थी जब तुमने मुझे जगाया। हिमनिद्रा में जड़ित रीछ हो एकाएक नया चौंकाया-यों मैं था। पर अब! चेत गयी हैं सभी इन्द्रियाँ एक अवश आज्ञप्ति उन्हें कर गयी सजग, सम्पुजित; पूरा

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फूल की स्मरण-प्रतिमा

13 जुलाई 2022
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यह देने का अहंकार छोड़ो । कहीं है प्यार की पहचान तो उसे यों कहो  'मधुर ये देखो फूल । इसे तोड़ो; घुमा-फिरा कर देखो, फिर हाथ से गिर जाने दो  हवा पर तिर जाने दो (हुआ करे सुनहली) धूल ।' फूल की

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अलाव

13 जुलाई 2022
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माघ : कोहरे में अंगार की सुलगन अलाव के ताव के घेरे के पार सियार की आँखों में जलन सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन सब मुझे याद है : मैं थकता हूँ पर चुकती नहीं मेरे भीतर की भटकन !

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कदम्ब-कालिन्दी-1

13 जुलाई 2022
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टेर वंशी की यमुन के पार अपने-आप झुक आई कदम की डार। द्वार पर भर, गहर, ठिठकी राधिका के नैन झरे कँप कर दो चमकते फूल। फिर वही सूना अंधेरा कदम सहमा घुप कलिन्दी कूल !

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कदम्ब-कालिन्दी-2

13 जुलाई 2022
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अलस कालिन्दी-- कि काँपी टेर वंशी की नदी के पार। कौन दूभर भार अपने-आप झुक आई कदम की डार धरा पर बरबस झरे दो फूल। द्वार थोड़ा हिले झरे, झपके राधिका के नैन अलक्षित टूट कर दो गिरे तारक बूंद। फ

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जो पुल बनाएंगे

13 जुलाई 2022
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जो पुल बनाएँगे वे अनिवार्यत पीछे रह जाएँगे। सेनाएँ हो जाएँगी पार मारे जाएँगे रावण जयी होंगे राम, जो निर्माता रहे इतिहास में बन्दर कहलाएँगे।

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याद

13 जुलाई 2022
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याद : सिहरन : उड़ती सारसों की जोड़ी याद : उमस : एकाएक घिरे बादल में कौंध जगमगा गई। सारसों की ओट बादल बादलों में सारसों की जोड़ी ओझल, याद की ओट याद की ओट याद। केवल नभ की गहराई बढ़ गई थोड़ी। कैसे

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काँपती है

13 जुलाई 2022
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पहाड़ नहीं काँपता, न पेड़, न तराई; काँपती है ढाल पर के घर से नीचे झील पर झरी दिये की लौ की नन्ही परछाईं।

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विपर्यय

13 जुलाई 2022
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जो राज करें उन्हें गुमान भी न हो कि उनके अधिकार पर किसी को शक है, और जिन्हें मुक्त जीना चाहिए उन्हें अपनी कारा में इसकी ख़बर ही न हो कि उनका यह हक़ है।

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क्योंकि मैं

13 जुलाई 2022
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क्योंकि मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे उस आदमी से कुछ नहीं है जिसकी आँखों के आगे उसकी लम्बी भूख से बढ़ी हुई तिल्ली एक गहरी मटमैली पीली झिल्ली-सी छा गई है, और जिसे चूंकि चांदनी से कुछ नहीं है, इसल

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पक गई खेती

13 जुलाई 2022
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वैर की परनालियों में हँस-हँस के हमने सींची जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था घृणा की आज उसमें पक गई खेती फ़सल कटने को अगली सर्दियाँ

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हीरो

13 जुलाई 2022
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सिर से कंधों तक ढँके हुए वे कहते रहे कि पीठ नहीं दिखाएंगे और हम उन्हें सराहते रहे। पर जब गिरने पर उनके नकाब उल्टे तो उनके चेहरे नहीं थे।

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शोषक भैया

13 जुलाई 2022
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डरो मत शोषक भैया : पी लो मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है हृद्य है पी लो शोषक भैया : डरो मत। शायद तुम्हें पचे नहीं-- अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है। मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हल्का भी हो

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रात होते-प्रात होते

13 जुलाई 2022
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प्रात होते  सबल पंखों की मीठी एक चोट से अनुगता मुझ को बना कर बावली को  जान कर मैं अनुगता हूँ  उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी श्रुता (?) हूँ  उड़ गया वह पंछी बावला पंछी सुनहला

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देना-पाना

13 जुलाई 2022
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दो?हाँ, दो बड़ा सुख है देना! देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा पर गिरेगा नहीं, और फिर बोध यह लायेगा कि देना नहीं है नि:स्व होना और वह बोध, तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा। लो? हाँ लो! सौभाग

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प्राण तुम्हारी पदरज़ फूली

13 जुलाई 2022
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प्राण तुम्हारी पदरज फूली मुझको कंचन हुई तुम्हारे चरणों की यह धूली! आई थी तो जाना भी था  फिर भी आओगी, दुःख किसका? एक बार जब दृष्टिकरों के पद चिह्नों की रेखा छू ली! वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी,

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पराजय है याद

13 जुलाई 2022
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भोर बेला--नदी तट की घंटियों का नाद। चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद। नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद।

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चाँदनी चुपचाप सारी रात

13 जुलाई 2022
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चाँदनी चुपचाप सारी रात सूने आँगन में जाल रचती रही । मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम आँच पर तचती रही । व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही । मैं दम साधे

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तुम्हारी पलकों का कँपना

13 जुलाई 2022
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तुम्हारी पलकों का कँपना । तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । मानो दीखा तुम्हें किसी कली के खिलने का सपना । तुम्हारी पलकों का कँपना । सपने की एक किरण मुझको दो ना, है मे

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सम्भावनाएँ

13 जुलाई 2022
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अब आप हीं सोचिये कि कितनी सम्भावनाएँ हैं कि मैं आप पर हँसूं और आप मुझे पागल करार दे दें. याकि आप मुझ पर हँसें और आप हीं मुझे पागल करार दे दें. या कि आपको कोई बताए कि मुझे पागल करार किया गया और आप

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कलगी बाजरे की

13 जुलाई 2022
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हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरे बाजरे की। अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृद

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मैंने पूछा क्या कर रही हो

13 जुलाई 2022
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मैंने पूछा यह क्या बना रही हो ? उसने आँखों से कहा धुआँ पोछते हुए कहा  मुझे क्या बनाना है ! सब-कुछ अपने आप बनता है मैंने तो यही जाना है । कह लो भगवान ने मुझे यही दिया है । मेरी सहानुभूति में

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शरणार्थी-6 समानांतर साँप

13 जुलाई 2022
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केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो। छल मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो। साँप के विष-दाँत तोड़ उघाड़ दो। आजकल यह चलन है, सब जंतुओं की खाल पहने हैं- गले गीदड़ लोमड़ी की बाघ की है खाल काँधों पर दिल ढँका

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नया कवि: आत्म स्वीकार

13 जुलाई 2022
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किसी का सत्य था, मैंने संदर्भ से जोड़ दिया। कोई मधु-कोष काट लाया था, मैंने निचोड़ लिया। किसी की उक्ति में गरिमा थी, मैंने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था मैंने दूर ह

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इशारे ज़िंदगी के

13 जुलाई 2022
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ज़िंदगी हर मोड़ पर करती रही हमको इशारे जिन्हें हमने नहीं देखा। क्योंकि हम बाँधे हुए थे पट्टियाँ संस्कार की और हमने बाँधने से पूर्व देखा था हमारी पट्टियाँ रंगीन थीं ज़िंदगी करती रही नीरव इशारे  ह

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नंदा देवी

13 जुलाई 2022
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नंदा, बीस-तीस-पचास वर्षों में तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर हम उस पर अखबार छाप चुके होंगे तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक, तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे

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जियो, मेरे

13 जुलाई 2022
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जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें। (पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी

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कहीं की ईंट

13 जुलाई 2022
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कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानमती ने कुनबा जोड़ा कुनबे ने भानमती गढ़ी रेशम से भाँड़ी, सोने से मढ़ी कवि ने कथा गढ़ी, लोक ने बाँची कहो-भर तो झूठ, जाँचो तो साँची

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आज थका हिय-हारिल मेरा

13 जुलाई 2022
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इस सूखी दुनिया में प्रियतम मुझ को और कहाँ रस होगा? शुभे! तुम्हारी स्मृति के सुख से प्लावित मेरा मानस होगा! दृढ़ डैनों के मार थपेड़े अखिल व्योम को वश में करता, तुझे देखने की आशा से अपने प्राणों मे

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आशी:(वसंत का एक दिन)

13 जुलाई 2022
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फूल काँचनार के, प्रतीक मेरे प्यार के! प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली, पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली। आए फिर दिन मनुहार के, दुलार के -फूल काँचनार के! सुमन-वृंत बावले बबूल के!

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शक्ति का उत्पात

13 जुलाई 2022
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क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा: विप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा। जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पात भर है: स्वर्ग की हो-माँगती भागीरथी भी है किनारा।

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पावस-प्रात, शिलांग

13 जुलाई 2022
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भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक की विजन को पकड़ती-सी क्लांत बेसुर डाक 'हाक्! हाक्! हाक्!' मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना रहेगी बस एक मुठ्ठी खाक! 'थाक्! थाक्! थाक्!'

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सागर किनारे

13 जुलाई 2022
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तनिक ठहरूँ। चाँद उग आए, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आए। न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं

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दूर्वाचल

13 जुलाई 2022
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पाश्र्व गिरि का नम्र, चीड़ों में डगर चढ़ती उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा। विहग-शिशु मौन नीड़ों में। मैंने आँख भर देखा। दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा। (भले ही बरस-दिन-अनगिन युगो

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शरणार्थी: जीना है बन सीने का साँप

13 जुलाई 2022
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हम ने भी सोचा था कि अच्छी चीज़ है स्वराज हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज अपने ही बल के अपने ही छल के अपने ही कौशल के अपनी समस्त सभ्यता के सारे संचित प्रपंच के

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हरी घास पर क्षणभर

13 जुलाई 2022
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आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो। तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्ने

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मैं देख रहा हूँ

13 जुलाई 2022
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मैं देख रहा हूँ झरी फूल से पँखुरी -मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते। मैं चुप हूँ वह मेरे भीतर वसंत गाता है।

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सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान

13 जुलाई 2022
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हे महाबुद्ध! मैं मंदिर में आयी हूँ रीते हाथ फूल मैं ला न सकी। औरों का संग्रह तेरे योग्य न होता। जो मुझे सुनाती जीवन के विह्वल सुख-क्षण का गीत- खोलती रूप-जगत् के द्वार जहाँ तेरी करुणा ब

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नीमाड़: चैत

13 जुलाई 2022
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1. पेड़ अपनी-अपनी छाया को आतप से ओट देते चुपचाप खड़े हैं। तपती हवा उन के पत्ते झराती जाती है। 2. छाया को झरते पत्ते नहीं ढँकते, पत्तों को ही छाया छा लेती है।

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देखिए न मेरी कारगुज़ारी

13 जुलाई 2022
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अब देखिए न मेरी कारगुज़ारी कि मैं मँगनी के घोड़े पर सवारी कर ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दूकान से किराया वसूल कर लाया हूँ थैली वाले को थैली तो

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नंदा देवी

13 जुलाई 2022
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ऊपर तुम, नंदा! नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड़ को दुलार से टेरती-सी गड़रिए की बाँसुरी की तान: और भी नीचे कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से नए खनि-यंत्र की भठ्ठी से उठे धुएँ

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सभी से मैंने विदा ले ली

13 जुलाई 2022
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सभी से मैं ने विदा ले ली घर से, नदी के हरे कूल से, इठलाती पगडंडी से पीले वसंत के फूलों से पुल के नीचे खेलती डाल की छायाओं के जाल से। सब से मैं ने विदा ले ली एक उसी के सामने मुँह खोला भी, पर

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गीति-1

13 जुलाई 2022
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माँझी, मत हो अधिक अधीर। साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर, नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर, किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर किंकिणि-नूपुर शब्द लिये आता है मन्द समीर। थोड़ी

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गीति-2

13 जुलाई 2022
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छोड़ दे, माँझी! तू पतवार। आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार, काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार मानो वन में तांडव करती

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प्रात: कुमुदिनी

13 जुलाई 2022
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खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!

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अकाल-घन

13 जुलाई 2022
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घन अकाल में आये, आ कर रो गये। अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर, उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये। घन अकाल में आये, आ कर रो गये। जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्

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बद्ध-1

13 जुलाई 2022
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बद्ध! हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध! हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर, पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर; व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार खंडित जो कर सकता वह जगव्यापी

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बद्ध-2

13 जुलाई 2022
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बद्ध! ओ जग की निर्बलते! मैं ने कब कुछ माँगा तुझ से। आज शक्तियाँ मेरी ही फिर विमुख हुईं क्यों मुझ से? मेरा साहस ही परिभव में है मेरा प्रतिद्वन्द्वी किस ललकार भरे स्वर में कहता है : 'बन्दी! बन्दी!'

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बन्दी और विश्व

13 जुलाई 2022
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मैं तेरा कवि! ओ तट-परिमित उच्छल वीचि-विलास! प्राणों में कुछ है अबाध-तनु को बाँधे हैं पाश! मैं तेरा कवि! ओ सन्ध्या की तम-घिरती द्युति कोर! मेरे दुर्बल प्राण-तन्तु को व्यथा रही झकझोर! मैं तेरा कवि

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अन्तिम आलोक

13 जुलाई 2022
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सन्ध्या की किरण परी ने उठ अरुण पंख दो खोले, कम्पित-कर गिरि शिखरों के उर-छिपे रहस्य टटोले। देखी उस अरुण किरण ने कुल पर्वत-माला श्यामल बस एक शृंग पर हिम का था कम्पित कंचन झलमल। प्राणों में हाय, पु

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तन्द्रा में अनुभूति

13 जुलाई 2022
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तंद्रा में अनुभूति उस तम-घिरते नभ के तट पर स्वप्न-किरण रेखाओं से बैठ झरोखे में बुनता था जाल मिलन के प्रिय! तेरे। मैं ने जाना, मेरे पीछे सहसा तू आ हुई खड़ी झनक उठी टूटे-से स्वर से स्मृति-शृंखल की क

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बन्दी-गृह की खिड़की

13 जुलाई 2022
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ओ रिपु! मेरे बन्दी-गृह की तू खिड़की मत खोल! बाहर-स्वतन्त्रता का स्पन्दन! मुझे असह उस का आवाहन! मुझ कँगले को मत दिखला वह दु:सह स्वप्न अमोल! कह ले जो कुछ कहना चाहे, ले जा, यदि कुछ अभी बचा है! रिपु

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धूल-भरा दिन

13 जुलाई 2022
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पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा, पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा! मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है, हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।

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मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ

13 जुलाई 2022
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प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम? साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! विमुख-उन्मुख से

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चिन्तामय

14 जुलाई 2022
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आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं; निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है। आज स्मृतियों की नदी से शब्द

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रहस्यवाद-1

14 जुलाई 2022
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मैं भी एक प्रवाह में हूँ लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है, मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ अभिभूत होना चाहता हूँ जो मेरे भीतर है। शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु ह

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रहस्यवाद-2

14 जुलाई 2022
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लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है? और मिलना है भूल जाना, जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना, जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना, मेरी माँग स्वयं अ

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रहस्यवाद-3

14 जुलाई 2022
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असीम का नंगापन ही सीमा है रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे असीम बना देते हैं। ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता, यद्यपि मिलन अनुभूति का क्षेत्र है, अनुभूति कहती है क

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ओ मेरे दिल!-1

14 जुलाई 2022
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धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली, हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली, ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक उ

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ओ मेरे दिल!-2

14 जुलाई 2022
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धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके; सिद्धार्थ हुआ, जब बुद

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ओ मेरे दिल!-3

14 जुलाई 2022
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धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामर्थ्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! बीते युग में जब किसी दिवस प्रेयसि के आग्रह से बेबस, उस आदिम आदम ने पागल, चख लिया ज्ञान का वर्जित फल, अपमानित विधि हु

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उड़ चल, हारिल

14 जुलाई 2022
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उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका। ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाय यह चाह सृजन की; शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाय यह गति जीवन की!

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रजनीगन्धा मेरा मानस

14 जुलाई 2022
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रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस लो, पुलक उठी मेर

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वसन्त-गीत

14 जुलाई 2022
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मलय का झोंका बुला गया खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो! पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली, सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली; नीम के भी बौर में मिठास

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उषाकाल की भव्य शान्ति

14 जुलाई 2022
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निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण: आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता अस्पृष्ट किन्तु अनुभूत: दूर किसी मीनार-क्र

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क्षण-भर सम्मोहन छा जावे!

14 जुलाई 2022
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क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे! मेरा ध्यान अकम्

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मिट्टी ही ईहा है

14 जुलाई 2022
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मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: 'मिट्टी से निरीह' और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था। किन्तु वसन्त के उस

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हिमन्ती बयार

14 जुलाई 2022
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(1) हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में, दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में- तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में! (2) सिहर-सिहर झरते पत्ते

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बिकाऊ

14 जुलाई 2022
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खोयी आँखें लौटीं: धरी मिट्टी का लोंदा रचने लगा कुम्हार खिलौने। मूर्ति पहली यह कितनी सुन्दर! और दूसरी अरे रूपदर्शी! यह क्या है यह विरूप विद्रूप डरौना? “मूर्तियाँ ही हैं दोनों, दोनों रूप: जग

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खिड़की एकाएक खुली

14 जुलाई 2022
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खिड़की एकाएक खुली, बुझ गया दीप झोंके से, हो गया बन्द वह ग्रन्थ जिसे हम रात-रात घोखते रहे, पर खुला क्षितिज, पौ फटी, प्रात निकला सूरज, जो सारे अन्धकार को सोख गया। धरती प्रकाश-आप्लावित! हम म

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साधना का सत्य

14 जुलाई 2022
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यह जो दिया लिये तुम चले खोजने सत्य, बताओ क्या प्रबन्ध कर चले कि जिस बाती का तुम्हें भरोसा वही जलेगी सदा अकम्पित, उज्ज्वल एकरूप, निर्धूम?

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वह क्या लक्ष्य

14 जुलाई 2022
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वह क्या लक्ष्य जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया? वह कैसा पथ-दर्शक जो सारा पथ देख स्वयं फिर आया और साथ में-आत्म-तोष से भरा मान-चित्र लाया! और वह कैसा राही कहे कि हाँ, ठह

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घाट-घाट का पानी

14 जुलाई 2022
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होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से वही जिया। पा गया अर्थ। बार-बार जो जिये-मरे यह नहीं कि वे सब बार-बार तरवार-घाट पर पीते रहे नये अर्थों क

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नये कवि से

14 जुलाई 2022
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आ, तू आ, हाँ, आ, मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर, मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता आ, तू आ। तेरा कहना है ठीक: जिधर मैं चला नहीं वह पथ था: मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर सदा जिस

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पाठक के प्रति कवि

14 जुलाई 2022
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मेरे मत होओ पर अपने को स्थगित करो जैसा कि मैं अपने सुख-दुःख का नहीं हुआ दर्द अपना मैं ने खरीदा नहीं न आनन्द बेचा; अपने को स्थगित किया मैं ने, अनुभव को दिया साक्षी हो, धरोहर हो, प्रतिभू हो जि

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चक्रान्त शिला – 1

14 जुलाई 2022
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यह महाशून्य का शिविर, असीम, छा रहा ऊपर नीचे यह महामौन की सरिता दिग्विहीन बहती है। यह बीच-अधर, मन रहा टटोल प्रतीकों की परिभाषा आत्मा में जो अपने ही से खुलती रहती है। रूपों में एक अरूप सदा खिल

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चक्रान्त शिला – 2

14 जुलाई 2022
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वन में एक झरना बहता है एक नर-कोकिल गाता है वृक्षों में एक मर्मर कोंपलों को सिहराता है, एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे झरे पत्तों को पचाता है। अंकुर उगाता है। मैं सोते के साथ बहता हूँ, पक्षी के

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चक्रान्त शिला – 3

14 जुलाई 2022
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सुनता हूँ गान के स्वर। बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार, एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर। मैं वन में हूँ। सब ओर घना सन्नाटा छाया है। तब क्वचित् कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है।

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चक्रान्त शिला – 4

14 जुलाई 2022
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किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन। किरण बोली: भला? ऐसा! तुम्हीं को तो खोजती थी मैं तुम्हीं से मन्दिर गढ़ूँगी तुम्हारे अन्तःकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूँगी। स्तब्ध मुझ

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चक्रान्त शिला – 5

14 जुलाई 2022
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एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ दाह खोती लीन होती हैं। उसी में रवहीन तेरा गूँजता है छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है। एक काले घोल की-सी रात जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ सब पिघल जातीं ओट पात

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चक्रान्त शिला – 6

14 जुलाई 2022
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रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली, परम गीतिमय। और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार, अरे, तुम अभी तक नहीं जागे, और वह मुक्

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चक्रान्त शिला – 7

14 जुलाई 2022
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हवा कहीं से उठी, बही ऊपर ही ऊपर चली गयी। पथ सोया ही रहा किनारे के क्षुप चौंके नहीं न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी। अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी। वन-खंडी में सधे खड़े पर अपनी ऊँचाई में खोये

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चक्रान्त शिला – 8

14 जुलाई 2022
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जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकती है उतना ही मैं प्रेत हूँ। जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ रेत हूँ। फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिमा मेरे अनजाने, अनपहचाने अपने ही मनमाने अंकुर उपजाती है-बस, उतन

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चक्रान्त शिला – 9

14 जुलाई 2022
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जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा हमें हरसाता हुआ, -माटी में रीत गया। आह! जो हमें सरसाता है वह छिपा हुआ पानी है हमारा इस जानी-पहचानी माटी के नीचे का। -रीतता नहीं बीतता नहीं।

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चक्रान्त शिला – 9

14 जुलाई 2022
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जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा हमें हरसाता हुआ, -माटी में रीत गया। आह! जो हमें सरसाता है वह छिपा हुआ पानी है हमारा इस जानी-पहचानी माटी के नीचे का। -रीतता नहीं बीतता नहीं।

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चक्रान्त शिला – 10

14 जुलाई 2022
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धुन्ध से ढँकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजली हमारी। कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई छाया जब-तब दिख जाती है, उत्कंठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है बिजली की जलती रेखा-सी क

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चक्रान्त शिला – 11

14 जुलाई 2022
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तू नहीं कहेगा? मैं फिर भी सुन ही लूँगा। किरण भोर की पहली भोलेपन से बतलावेगी, झरना शिशु-सा अनजान उसे दुहरावेगा, घोंघा गीली-पीली रेती पर धीरे-धीरे आँकेगा, पत्तों का मर्मर कनबतियों में जहाँ-तहाँ फ

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चक्रान्त शिला – 12

14 जुलाई 2022
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अरी ओ आत्मा री, कन्या भोली क्वाँरी महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं। अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा सम्भ्रम-अवगुंठित अंगों को उस का ही मृदुतर कौतूहल प्रकाश की किरण छुआएगा। तुझ से रहस्य की

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चक्रान्त शिला – 13

14 जुलाई 2022
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अकेली और अकेली। प्रियतम धीर, समुद सब रहने वाला; मनचली सहेली। अकेला: वह तेजोमय है जहाँ, दीठ बेबस झुक जाती है; वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूँज वहाँ चुक जाती है। शीतलता उस की एक छुअन भर से स

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चक्रान्त शिला – 14

14 जुलाई 2022
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वह धीरे-धीरे आया सधे पैरों से चला गया। किसी ने उस को छुआ नहीं। उस असंग को अटकाने को कोई कर न उठा। उस की आँखें रहीं देखती सब कुछ सब कुछ को वात्सल्य भाव से सहलाती, असीसती, पर ऐसे, कि अयाना है स

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चक्रान्त शिला – 15

14 जुलाई 2022
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जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य, जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार, मैं बीन-बीन कर लाया। नैवेद्य चढ़ाया। पर यह क्या हुआ? सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया, मुरझाया: कुछ भी तो उस ने हाथ बढ़ा कर नहीं

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चक्रान्त शिला – 16

14 जुलाई 2022
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मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा, सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय। मैं सच लिखता हूँ : लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ। तू काव्य: सदा-वेष्टित यथार्थ चिर-तनित, भारहीन, गुरु, अव्यय। तू छलता है पर

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चक्रान्त शिला – 17

14 जुलाई 2022
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न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर शून्य में जा विलय होगा किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है। तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है? मुझे फिर आतंक किस का है? शून्य

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चक्रान्त शिला – 18

14 जुलाई 2022
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अन्धकार में चली गयी है काली रेखा दूर-दूर पार तक। इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ बार-बार द्वार तक : ठिठक गया हूँ वहाँ: खोज यह दे सकती है मार तक। चलने की है यही प्रतिज्ञा पहुँच सकूँगा मैं प्रका

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चक्रान्त शिला – 19

14 जुलाई 2022
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उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर, जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन, बिछुड़न, गति-निगति-विलय के अन्तहीन चक

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चक्रान्त शिला – 20

14 जुलाई 2022
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ढूह की ओट बैठे बूढ़े से मैं ने कहा: मुझे मोती चाहिए। उस ने इशारा किया: पानी में कूदो। मैं ने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या? उस ने एक मूठ बालू उठा मेरी ओर कर दी। मैं ने कहा : इस में स

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चक्रान्त शिला - 21

14 जुलाई 2022
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यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी  एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है जिसे चाहो तो मान लो कहानी। और दे भी क्या सकता हूँ हवाला उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का?

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चक्रान्त शिला - 22

14 जुलाई 2022
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ओ मूर्ति! वासनाओं के विलय अदम आकांक्षा के विश्राम। वस्तु-तत्त्व के बन्धन से छुटकारे के ओ शिलाभूत संकेत, ओ आत्म-साक्ष्य के मुकुर, प्रतीकों के निहितार्थ। सत्ता-करुणा, युगनद्ध! ओ मन्त्रों के शक्त

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चक्रान्त शिला - 23

14 जुलाई 2022
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व्यथा सब की, निविडतम एकान्त मेरा। कलुष सब का स्वेच्छया आहूत; सद्यधौत अन्तःपूत बलि मेरी। ध्वान्त इस अनसुलझ संसृति के सकल दौर्बल्य का, शक्ति तेरे तीक्ष्णतम, निर्मम, अमोघ प्रकाश-सायक की।

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चक्रान्त शिला - 24

14 जुलाई 2022
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उसी एकान्त में घर दो जहाँ पर सभी आवें: वही एकान्त सच्चा है जिसे सब छू सकें। मुझ को यही वर दो उसी एकान्त में घर दो कि जिस में सभी आवें-मैं न आऊँ। नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को मुझे ही जो छुए, घेरे

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चक्रान्त शिला - 25

14 जुलाई 2022
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सागर और धरा मिलते थे जहाँ सन्धि-रेखा पर मैं बैठा था। नहीं जानता क्यों सागर था मौन क्यों धरा मुखर थी। सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना देखता था सागर को किन्तु धरा को सुनता था। सागर की लहरों में जो कुछ

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चक्रान्त शिला – 26

14 जुलाई 2022
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आँगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आँगन। भवन के ओर-छोर सभी मिले-उन्हीं में कहीं खो गया भवन। कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन।

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चक्रान्त शिला - 27

14 जुलाई 2022
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दूज का चाँद मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में सहमा-सा रख दिया गया।

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झर गये तुम्हारे पात

14 जुलाई 2022
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झर गये तुम्हारे पात मेरी आशा नहीं झरी। जर गये तुम्हारे दिये अंग मेरी ही पीड़ा नहीं जरी। मर गयी तुम्हारी सिरजी जीवन-रसना-शक्ति-जिजीविषा मेरी नहीं मरी। टर गये मेरे उद्यम, साहस-कर्म, तुम्हारी कर

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सब के लिए-मेरे लिए

14 जुलाई 2022
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बोलना सदा सब के लिए और मीठा बोलना। मेरे लिए कभी सहसा थम कर बात अपनी तोलना और फिर मौन धार लेना। जागना सभी के लिए सब को मान कर अपना अविश्राम उन्हें देना रचना उदास, भव्य कल्पना। मेरे लिए कभी एक छोटी

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बाहर-भीतर

14 जुलाई 2022
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बाहर सब ओर तुम्हारी/स्वच्छ उजली मुक्त सुषमा फैली है भीतर पर मेरी यह चित्त-गुहा/कितनी मैली-कुचैली है। स्रष्टा मेरे, तुम्हारे हाथ में तुला है, और/ध्यान में मैं हूँ, मेरा भविष्य है, जब कि मेरे हाथ में

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चढ़ने लगती है

14 जुलाई 2022
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ओ साँस! समय जो कुछ लावे सब सह जाता है: दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन कहा-अनकहा रह जाता है। बहू हो गयी ओझल: नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली: वेणी आँचल से रेती

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फोकिस में औदिपौस

14 जुलाई 2022
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राही, चौराहों पर बचना! राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं: उन की ललकारों से आदि

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ज्योतिषी से

14 जुलाई 2022
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उस के दो लघु नयन-तारकों की झपकी ने मुझ को-अच्छे-भले सयाने को!-पल भर में कर दिया अन्धा मेरा सीधा, सरल, रसभरा जीवन एकाएक उलझ कर बन गया गोरख-धन्धा और ज्योतिषी! तुम अपने मैले-चीकट पोथी-पत्रे फैला

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विदाई का गीत

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यह जाने का छिन आया पर कोई उदास गीत अभी गाना ना। चाहना जो चाहना पर उलाहना मन में ओ मीत! कभी लाना ना! वह दूर, दूर सुनो, कहीं लहर लाती है और भी दूर, दूर, दूरतर का स्वर, उसमें हाँ, मोह नहीं,

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हथौड़ा अभी रहने दो

14 जुलाई 2022
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हथौड़ा अभी रहने दो अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया। धरा की अन्ध कन्दराओं में से अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया। और फिर वह ज्वाला कहाँ जली है जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा- जिस में मैल जला

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हथौड़ा अभी रहने दो

14 जुलाई 2022
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हथौड़ा अभी रहने दो अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया। धरा की अन्ध कन्दराओं में से अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया। और फिर वह ज्वाला कहाँ जली है जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा जिस में मैल जलाय

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बेल-सी वह मेरे भीतर

14 जुलाई 2022
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बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है। उस की कलियाँ हैं मेरी आँखें, कोंपलें मेरी अँगुलियों में अँकुराती हैं; फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है! साँस उस की पँखुड़ियाँ सहलाती हैं। बाँहें उसी के वल

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हाइकु

14 जुलाई 2022
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याद (1) कैसे कहूँ कि किसकी याद आई? चाहे तड़पा गई। (2) याद उमस एकाएक घिरे बादल में कौंध जगमगा गई। (3) भोर की प्रथम किरण फीकी अनजाने जागी हो याद किसी की

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नन्दा देवी-1

14 जुलाई 2022
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ऊपर तुम, नन्दा! नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड को दुलार से टेरती-सी गड़रिये की बाँसुरी की तान  और भी नीचे कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से नये खनि-यन्त्र की भट्ठी से उठे धु

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नन्दा देवी-1

14 जुलाई 2022
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 ऊपर तुम, नन्दा! नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड को दुलार से टेरती-सी गड़रिये की बाँसुरी की तान  और भी नीचे कट गिरे वन की चिरी पट्टियों के बीच से नये खनि-यन्त्र की भट्ठी से उठे ध

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नन्दा देवी-2

14 जुलाई 2022
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 वहाँ दूर शहर में बड़ी भारी सरकार है कल की समृद्धि की योजना का फैला कारोबार है, और यहाँ इस पर्वती गाँव में छोटी-से-छोटी चीज़ की भी दरकार है, आज की भूख-बेबसी की बेमुरव्वत मार है। कल के लिए हमे

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नन्दा देवी-3

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तुम वहाँ हो मन्दिर तुम्हारा यहाँ है। और हम हमारे हाथ, हमारी सुमिरनी यहाँ है और हमारा मन वह कहाँ है?

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नन्दा देवी-4

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वह दूर शिखर यह सम्मुख सरसी वहाँ दल के दल बादल यहाँ सिहरते कमल वह तुम। मैं यह मैं। तुम यह एक मेघ की बढ़ती लेखा आप्त सकल अनुराग, व्यक्त; वह हटती धुँधलाती क्षिति-रेखा सन्धि-सन्धि में बसा विक

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नन्दा देवी-5

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समस्या बूढ़ी हड्डियों की नहीं बूढ़े स्नायु-जाल की है। हड्डियाँ चटक जाएँ तो जाएँ मगर चलते-चलते; देह जब गिरे तो गिरे अपनी गति से भीतर ही भीतर गलते-गलते। कैसे यह स्नायु-जाल उसे चलाता जाये आयु के

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नन्दा देवी-6

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नन्दा, बीस-तीस-पचास वर्षों में तुम्हारी वन-राजियों की लुगदी बना कर हम उस पर अखबार छाप चुके होंगे तुम्हारे सन्नाटे को चींथ रहे होंगे हमारे धुँधआते शक्तिमान ट्रक, तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंग

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नन्दा देवी-7

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पुआल के घेरदार घाघरे झूल गये पेड़ों पर, घास के गट्ठे लादे आती हैं वन-कन्याएँ पैर साधे मेड़ों पर। चला चल डगर पर। नन्दा को निहारते। तुड़ चुके सेब, धान गया खलिहानों में, सुन पड़ती है आस की गमक

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नन्दा देवी-8

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यह भी तो एक सुख है (अपने ढंग का क्रियाशील) कि चुप निहारा करूँ तुम्हें धीरे-धीरे खुलते! तुम्हारी भुजा को बादलों के उबटन से तुम्हारे बदन को हिम-नवनीत से तुम्हारे विशद वक्ष को धूप की धाराओं से धुल

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नन्दा देवी-9

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कितनी जल्दी तुम उझकीं झिझकीं ओट हो गईं, नन्दा ! उतने ही में बीन ले गईं धूप-कुन्दन की अन्तिम कनिका देवदारु के तनों के बीच फिर तन गई धुन्ध की झीनी यवनिका।

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नन्दा देवी-10

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 सीधी जाती डगर थी क्यों एकाएक दो में बँट गयी? एक ओर पियराते पाकड़, धूप, दूर गाँव की झलक, खगों की सीटियाँ बाँसुरी में न जाने किस सपनों की दुनिया की ललक दूसरी ओर बाँज की काई-लदी बाँहों की घनी छा

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नन्दा देवी-11

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 कमल खिला दो कुमुद मुँदे नाल लहरायी सिहरती झील गहरायी कुहासा घिर गया। हंस ने डैने कुरेदे ग्रीवा झुला पल-भर को निहारा विलगता फिर तिर गया।

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नन्दा देवी-13

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 यूथ से निकल कर घनी वनराजियों का आश्रय छोड़ कर गजराज पर्वत की ओर दौड़ा है पर्वत चढ़ेगा। कोई प्रयोजन नहीं है पर्वत पर पर गजराज पर्वत चढ़ेगा। पिछड़ता हुआ यूथ बिछुड़ता हुआ मुड़ता हुआ जान गया है क

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नन्दा देवी-12

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 ललछौंहे पाँकड़ के नीचे से गुज़रती डगर पर तुम्हारी देह-धार लहर गयी धूप की कूची ने सभी कुछ को सुनहली प्रभा से घेर दिया। देख-देख संसृति एक पल-भर ठहर गयी। फिर सूरज कहीं ढलक गया, साँझ ने धुन्ध-धू

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धूप

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सूप-सूप भर धूप-कनक यह सूने नभ में गयी बिखर: चौंधाया बीन रहा है उसे अकेला एक कुरर।

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पहाड़ी यात्रा

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मेरे घोड़े की टाप चौखटा जड़ती जाती है आगे की नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आस-पास  मैं एक चित्र में लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूँ ।

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चुप-चाप

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चुप-चाप चुप-चाप झरने का स्वर हम में भर जाए चुप-चाप चुप-चाप शरद की चांदनी झील की लहरों पर तिर आए, चुप-चाप चुप चाप जीवन का रहस्य जो कहा न जाए, हमारी ठहरी आँख में गहराए, चुप-चाप चुप-चाप हम पुल

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सोन-मछली

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हम निहारते रूप काँच के पीछे हाँप रही है, मछली । रूप तृषा भी (और काँच के पीछे) हे जिजीविषा ।

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जीवन-छाया

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पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ, अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल पर तल-पर, भीतर, नीचे पथरीले-रेतीले थल पर अरे, उसे ये पल-पल भेद-भेद जाती है कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियाँ।

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जीवन-छाया

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पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ, अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल पर तल-पर, भीतर, नीचे पथरीले-रेतीले थल पर अरे, उसे ये पल-पल भेद-भेद जाती है कितनी उज्ज्वल रंगारंग मछलियाँ।

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अंगार

14 जुलाई 2022
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एक दिन रूक जाएगी जो लय उसे अब और क्या सुनना? व्यतिक्रम ही नियम हो तो उसी की आग में से बार-बार, बार-बार मुझे अपने फूल हैं चुनना। चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं। तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने कि

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सम्पराय

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हाँ, भाई, वह राह मुझे मिली थी; कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई। यहाँ चुक गई डगर: उलहना नहीं, मानता हूँ पर आज वहीं हूँ ज

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जिस में मैं तिरता हूँ

14 जुलाई 2022
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कुछ है जिस में मैं तिरता हूँ। जब कि आस-पास न जाने क्या-क्या झिरता है जिसे देख-देख मैं ही मानों कनी-कनी किरता हूँ। ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे यादों के खंडहर हैं। अब मैं नहीं जानता किधर द्वार

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धड़कन धड़कन

14 जुलाई 2022
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धड़कन धड़कन धड़कन दाईं, बाईं, कौन सी आँख की फड़कन मीठी कड़वी तीखी सीठी कसक-किरकिरी किन यादों की रड़कन? उँह! कुछ नहीं, नशे के झोंके-से में स्मृति के शीशे की तड़कन!

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मन बहुत सोचता है

14 जुलाई 2022
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मन बहुत सोचता है कि उदास न हो पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए? शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले, पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए! नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े, खुली घासों म

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एक दिन चुक जाएगी ही बात

14 जुलाई 2022
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बात है: चुकती रहेगी एक दिन चुक जाएगी ही — बात । जब चुक चले तब उस विन्दु पर ! < विन्दु ही है इसे बिन्दु न करें, विन्दु का मतलब भी यही होता है  जो मैं बचूँ (मैं बचूँगा ही !) उस को मैं कहूँ इस मो

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जो रचा नहीं

14 जुलाई 2022
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दिया सो दिया उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं। पर अब क्या करूँ कि पास और कुछ बचा नहीं सिवा इस दर्द के जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं बल्कि मुझ से अँचा नहीं इसे कहाँ धरूँ ज

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हेमन्त का गीत

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भर ली गई हैं पुआलें खलिहानों में: तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें। उतर चुके हैं अंगूर—गुच्छे के गुच्छे, हो चुके पहली पेराई के मेले लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख चली बे

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काँच के पीछे की मछलियाँ

14 जुलाई 2022
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उधर उस काँच के पीछे पानी में ये जो कोई मछलियाँ बे-आवाज़ खिसलती हैं उनमें से किसी एक को अभी हमीं में से कोई खा जाएगा, जल्दी से पैसे चुकाएगा चला जाएगा। फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आएगा,

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विदा के चौराहे पर: अनुचिन्तन

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यह एक और घर पीछे छूट गया, एक और भ्रम जो जब तक मीठा था टूट गया। कोई अपना नहीं कि केवल सब अपने हैं: हैं बीच-बीच में अंतराल जिन में हैं झीने जाल मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले पर सच म

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प्रस्थान से पहले

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हमेशा प्रस्थान से पहले का वह डरावना क्षण जिस में सब कुछ थम जाता है और रुकने में रीता हो जाता है गाड़ियाँ, बातें, इशारे आँखों की टकराहटें, साँस: समय की फाँस अटक जाती है (जीवन की गले में) हमे

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स्वप्न

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धुएँ का काला शोर: भाप के अग्निगर्भ बादल: बिना ठोस रपटन में उगते, बढ़ते, फूलते अन्तहीन कुकुरमुत्ते, न-कुछ की फाँक से झाँक-झाँक, झुक कर झपटने को बढ़ रहे भीमकाय कुत्ते। अग्नि-गर्भ फैल कर सब लील लेत

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यात्री

14 जुलाई 2022
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प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा! वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों, मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों, देवता उनमें जो विराजें परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों कराल हों, स्त्रैण हों,

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कालेमेग्दान

14 जुलाई 2022
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इधर परकोटे और भीतरी दीवार के बीच लम्बी खाई में ढंग से सँवरे हुए पिछले महायुद्ध के हथियारों के ढूह: रूण्डे टैंक, टुण्डी तोपें, नकचिपटे गोला-फेंक सब की पपोटे-रहित अन्धी आँखें ताक रहीं आकाश। उध

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फ़ोकिस में ओदिपौस

14 जुलाई 2022
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राही, चौराहों पर बचना! राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं: उन की ललकारों से आदिम

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