तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है)
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ
(वही तो अर्थ सनातन है)
वह सोने की कनी जो उस अंजलि भर रेत में थी जो
धो कर अलग करने में
मुट्ठियों में फिसल कर नदी में बह गई
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)
तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं
यही सब हमारा नाता-रिश्ता है-- इसी में मैं हूँ
और तुम हो
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।