किस्मत का साथ ना देना तो अक्सर सुना है पर किस्मत का सूद समेत हिसाब वसूलना कम ही देखने को मिलता है। अवनीश मोहन की आध्यात्म, धर्म, योग व् आयुर्वेद में रूचि थी पर नौकरीपेशा होने के कारण इनमे कम समय दे पाता था। किसी विषय में रूचि होने से आप स्वतः अपने जाननेवालो में उस विषय के अंधों में काणे राजा बन जाते है। विषय के अंधो से वर्षो तक लगातार मिलती तारीफ़ से ऐसे काणे स्वयं को महाज्ञानी-स्कॉलर समझने का भ्रम पाल लेते है। धीरे-धीरे अवनीश में ये अहंकार विकराल रूप धर चुका था। अब अपनी रूचि से बाहर की बातों में भी वो घुसपैठ कर देता और अपनी बातें, निष्कर्ष सामने वाले पर बड़े आक्रामक अंदाज़ में थोपता था। अपनी बात काटे जाने पर तो वो आग उगलता ड्रैगन बन जाता। कभी कबार सब निष्फल होने पर अपना पक्ष ऊपर रखने के लिए उसका आखरी दांव होता कि "अभी बच्चे/नादान हो! मुझे 23 वर्ष का अनुभव है फलाना फील्ड का..."
उनकी यह स्वघोषित ख्याति स्थानीय चैनल में पहुँची और एक विदेशी अनुसंधानकर्ता से योग व आयुर्वेद पर चर्चा हेतु उन्हें आमंत्रित किया गया। निमंत्रण के बाद फूल के डायनासोर हुए अवनीश द्वारा कब चर्चा को बहस में बदल दिया गया पता ही नहीं चला। विदेशी स्कॉलर ने उनकी अनेक धारणाएं, भ्रम गलत साबित किये और उनके ज्ञान को सुपरफिशियल (सतही) करार दिया। इतनी कॉम्प्रीहेंसिव हार के बाद आदतानुसार अवनीश के मुँह से जादुई शब्द निकले - "मुझे 23 साल का अनुभव है ...", सामने बैठे स्कॉलर ने हँसते हुए कहा - "वर्षो में अनुभव को नापा नहीं जा सकता, फिर भी मुझे 23 दुनी 46 वर्षो का अनुभव है इन विषयों के अध्यन्न, अनुसंधान का।"
जीवन की सबसे बड़ी हार और धूलधूसरित अहंकार के साथ दुखी मन से अवनीश घर को चले और रास्ते में खुद को ढाँढस बंधाया कि इंग्लिश प्रोग्राम ज़्यादा लोग नहीं देखेंगे और वह अपने सर्किल के अंधों में काणे राजा बने रहेंगे।
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