दो या अधिक लोगों, गुटों में किसी विषय पर मतभेद होने की स्थिति के बाद वाली चिल्ल-पों को बहस कहते हैं। वैसे कभी-कभी तो विषय की ज़रुरत ही नहीं पड़ती है। दूसरी पार्टी से पुराने बैकलॉग की खुन्नस ही बिना मतलब की बहस करवा देती है। बहस में उलझे लोगों के व्यक्तित्व निर्भर करते हैं कि बहस अनियंत्रित होकर उनकी नींदें ख़राब करेगी, पुलिस में रिपोर्ट करवायेगी, ऑनलाइन माध्यम से जूते-घुसंड तक की नौबत आ जायेगी या दूसरे मत का सम्मान करते हुए बात 2-4 मिनट बाद भुला दी जायेगी। इंटरनेटिया बहस और बहस करने वालों के कई प्रकार हैं….इतने हैं कि लेख क को खुद नहीं पता कितने हैं। जितने पता हैं उनपर मंथन शुरू करते हैं।
*) - धप्पा बहस - इस बहस में पड़ने वालो के पास बहस के लिए समय नहीं होता पर बहस में पड़ने का अद्भुत नशा वो छोड़ना नहीं चाहते। जिसपर उन्हें गुस्सा आ रहा होता है उन्हें एक या दो रिप्लाई का धप्पा मारकर ये लोग निकल जाते हैं। नोटिफिकेशन नहीं आई तो ये बहस जीत गये और अगर आई तो इन्होने तो अपनी तरफ से धप्पा का फ़र्ज़ निभा दिया न? तो भी ये स्वयं को जीता हुआ मान लेते हैं।
*) - लिहाज़ बहस - इस बहस को कर रहे लोग ऐसे बंधन या मजबूरी मे होते हैं कि खुलकर सामने वाले को कुछ कह नहीं सकते। कहना तो दूर सार्वजनिक प्लेटफार्म पर कन्विंसिंग रूप से हरा भी नहीं सकते। जैसे कोई व्यापार ी और उसका पुराना क्लाइंट, फूफा जी जिनका घर में अक्सर आना होता है, स्कूल का जिगरी यार आदि। लिहाज़ बहस में बातों का दंश तोड़ दिया जाता है कि काटना बस औपचारिकता लगती है, उल्टा पोपले दंश से सामने वाले को गुलगुली होती है।
*) - शान में गुस्ताख़ी बहस - दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिन्हे लगता है कि उनके जन्म पर ग्रहों का यूँ सधा अलाइनमेंट हुआ कि वो कभी ग़लत हो ही नहीं सकते। उनसे मत भिन्न होना आपके विचार नहीं हैं बल्कि एक महापाप है। “पृथ्वी को भगवान की देन…हमसे बहस!” इस महापाप की सज़ा देने का प्रण लेते हैं और बहस के बाहर आपके पीछे पड़ जाते हैं। बिना बहस के अगर उन्हें उनकी मान्यता से नयी या अलग जानकारी मिलती है तो उनके ट्रांसमीटर की रेंज हाथ जोड़ लेती है। अगर वो अपने सर्किल में सबसे ऊपर हैं तो पूरा जीवन दम्भ में गुज़र जाता है।
*) - लाचार बहस - एक व्यक्ति के पास अपना संतुलित दिमाग है। उसने आम मुद्दों पर अपना मत बना रखा है पर बॉस, घरवाले, प्रेमी-प्रेमिका के दबाव में उसे मजबूरी में बहस में कूदना पड़ता हैं। कई बार तो ऐसे झगडे में जिसमे उसे सामने वाली पार्टी की बात ज़्यादा सही लग रही होती है। ऐसा लगता है कि 2 मुँह एक ही बात बोल रहे हैं। अगर करीबी व्यक्ति को उसका पासवर्ड पता है तो वह अपने प्रियजन की ओर से खुद को वोट तक डाल आता है।
*) - छद्म बहस - कुछ लोग अपना खाली समय ऑनलाइन और असल जीवन में गुर्गे बनाने में लगाते हैं। धीरे-धीरे ये लोग अपने बड़े समूह के सदस्यों का ऐसा स्नेह जीतते हैं कि फिर ये बहस में सीधे नहीं पड़ते। सही भी तो है, कौन अपना समय बर्बाद करे? ये लोग अपने सिपाहियों को लड़ने भेजते हैं। इतना ही नहीं अगर सिपाही नौसिखिया हो या जंग हार रहा हो तो उसके गुरु मैसेज और फ़ोन पर उससे अपना अनुभव बाँटकर विजयी बनाते हैं। बाहरी दुनिया के लिए इनकी छवि एक सुलझे हुए, निष्पक्ष व्यक्ति की होती है जबकि अंदर ही अंदर ये पूरा कण्ट्रोल रूम चलाने का आनंद ले रहे होते हैं।
*) - ग़लतफ़हमी बहस - अगर ग़लत या कम जानकारी की वजह से कोई बहस में पड़ जाये तो सार्वजानिक माफ़ी माँगना भारी लगने लगता है। अब अपना चेहरा बचाने के लिए वह तरह-तरह के ध्यान बँटाऊ टैक्टिस अपनाते हैं। हालाँकि, कुछ लोग संभल जाते हैं पर कई पुरानी गलतियों से सीख ना लेते हुए ग़लतफ़हमी में धूल धूसरित हो अपनी छवि ही ग़लत बनवा बैठते हैं।
*) - टाइमपास बहस - जीवन से निर्वाण प्राप्त करने के बाद बहुत कम चीज़ें बचती हैं जो एक व्यक्ति को सांसारिक मोह में बाँधे रखती हैं। ज़िन्दगी के हर पहलु से बोर होने के बाद एक ख़ास प्रजाति के लोग बहस कला साधना में लीन होना चाहते हैं। इसके लिए एक सेल्स पर्सन की तरह वो जगह-जगह अपनी बहस की पिच देते हैं और 10 में से एक-दो लोग उनकी कामनापूर्ति कर उनके दिन का रियाज़ करवाते हैं।
*) - अनुसंधान बहस - हज़ारों लोगो के सामने बार-बार मुँह की खाने के बाद भी कइयों की भूख नहीं मरती। कुछ को हारने की ज़रुरत नहीं पड़ती उनके अंदर कुछ डिग्री का ओ.सी.डी. होता है। तो ये लोग मुद्दों के अलावा बहस में आने वाले संभावित लोगो की जाँच-पड़ताल करते हैं। जैसे कोई व्यस्त रहता है, कोई कम पढ़ा-लिखा है, कोई एक विषय पर एक बार समझाने के बाद वापस नहीं आता, किसी को फलाना क्षेत्र की कम जानकारी है, कोई इस जगह नहीं गया आदि। इस जानकारी के आधार पर कुशल कारीगर की तरह ये अपनी बहस के तर्क बनाते हैं। चाहे इनका मत सही हो या गलत पर कालजयी रिसर्च से बहस के मामले में इनका विन-लॉस रिकॉर्ड बड़ा अच्छा हो जाता है।
*) - पिकी बहस - मान लीजिये किसी मुद्दे से जुड़े 10 बिन्दुओं में से पाँच साहब #01 के सही हैं और पाँच पर साहब #02 की बातें भारी हैं। अब साहब #01 क्या करते हैं कि अपने सही बिन्दु चुन, हर बिन्दु के सहारे महल खड़ा कर उन्ही पर बातें बढ़ाने के प्रपंच रचते हैं। बाकी साहब #02 की सही बातें गयीं गन्ने की मशीन में…जैसे बचपन में बच्चे को नहलाते हुए मम्मी-पापा बोलते हैं - “अच्छी-अच्छी बाबू की! छी-छी कौवे की!” बड़ो की उस बात को ये ऐसी दिल से लगते हैं कि हमेशा अपनी अच्छी-अच्छी के गिफ्ट, शाबाशी लेने कूद पड़ते हैं लेकिन छी-छी की ज़िम्मेदारी नहीं लेते।
इनके अलावा अनगिनत बहसों में ऑफ-टॉपिक बहस जिसमें बातों की धारा का कहाँ से बहकर कहाँ चली जाना, ऑनलाइन ट्रोल सेनाओं की महाभारत बहस, हफ्तों चलने वाली टेस्ट मैच बहस आदि शामिल हैं। अंत में यही सलाह है कि अगर बातें आपराधिक, हिंसा भड़काने वाली नहीं हैं तो दूसरों के विचारों का सम्मान करना सीखें। जैसे संभव है एक व्यक्ति किसी छोटे उद्देश्य में लगा हो जिसके लिए दुनिया में काफी कम लोग चाहिए हों पर इसका मतलब ये नहीं अपने बड़े उद्देश्य (जिसके पीछे करोड़ों लोग हैं) की आड़ लेकर आप उसका उपहास उड़ायें या उसके काम को मान्यता ही ना दें। जीवन को समय दें कोई आपकी बहस जीतने-हारने का स्कोर नहीं रख रहा।
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