कल कंपनी की क्वार्टर क्लोजिंग होने के कारण संदीप, राघव और प्रखर को देर रात तक रुक कर काम और खाते निपटाने के आदेश मिले थे। त्यौहार की लगातार छुट्टियों के तुरंत बाद क्लोजिंग उनके शिथिल शरीरों और दिमागों को अल्सर की तरह दर्द दे रही थी। दफ्तर, बॉस, फाइल्स, लैपटॉप, बांग्लादेशी प्रवासी, केंद्र सरकार, ससुर-साले-पडोसी सबको जी भर कोसते हुए, मन मसोस कर तीनो सहकर्मी काम पर लगे। आधी रात के बाद तक काम पूरा कर तीनों घर जाने से पहले ऑफिस के पास चाय की दुकान पर रुके।
राघव ने थकी आवाज़ में कहा - "तीन चाय और बंद-मक्खन।"
चाय वाले के बारह वर्षीय साहबज़ादे बाहर आये - "अभी बापू लेट गए, कल आना।"
"अच्छा अब ऐसे लोग भी अकड़ दिखाएंगे हमें।" प्रखर की गुस्से भरी हुंकार निकली।
राघव की थकान को उसके अहं ने दबाया - "नहीं आना कल से यहाँ, ना किसी ऑफिस वाले को आने देंगे। सर पे चढ़ा लो तो औकात ही भूल जाते है लोग।"
संदीप ने भी अपना मतदान किया - " भक @#$%^! उठा अपने बाप को। चरसी कहीं के, लोट जायेंगे जब मन करे। कभी इतनी मेहनत, ओवरटाइम करना पड़े तब पता चले।"
अँधेरे की आड़ में चाय वाले के पडोसी रिक्शाचालक ने कहा - "बाबूजी, गरीब पर दया करो! आपके ऑफिस में ओवरटाइम महीने-दो महीने में होता है, उसके ऑफिस में तो रोज़ ओवरटाइम है।"
"छोटे" मुंह से निकली बड़ी बात को समझने में कुछ क्षण लगे संदीप, प्रखर और राघव को पर डेढ़ गरीबों पर तीन भोकाली युवको का जनमत हावी हुआ और खुद को सही घोषित करते हुए, गालियां देते हुए तीनो सहकर्मियों ने प्रस्थान किया।
- मोहित शर्मा