एक कलाकार अपने जीवन में कई चरणों से गुज़रता है। कभी वह अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट रहता है तो कभी कई महीने या कुछ साल तक वो खुद पर शक-सवाल करता है कि क्या वह वाकई में कलाकार है या बस खानापूर्ति की बात है। इस संघर्ष में गिरते-पड़ते उसकी कला को पसंद करने वालो की संख्या बढ़ती चली जाती है। अब यह कला लेखन, कैमरा, चित्रांकन, शिल्प आदि कुछ भी हो सकती है। अपनी कला को खंगालते, उसमे सम्भावनाएं तलाशते ये कलाकार अपनी कुछ शैलियाँ गढ़ते है। धीरे-धीरे इन शैलियों की आदत इनके प्रशंषको को पड़ जाती है। कलाकार की हर शैली प्रशंषको को अच्छी लगती है। अब अगर कोई नया व्यक्ति जो कलाकार से अंजान है, वह उसके काम का अवलोकन करता है तो वह उन रचनाओं, कलाकृतियों को पुराने प्रशंषको की तुलना में कम आंकता है। बल्कि उसकी निष्पक्ष नज़र को उन कामों में कुछ ऐसी कमियां दिख जाती है जो आम प्रशंषक नहीं देख पाते।
इन शैलियों की आदत सिर्फ प्रशंषको को ही नहीं बल्कि खुद कलाकार को भी हो जाती है। इस कारण यह ज़रूरी है कि एक समय बाद अपनी विकसित शैलियों से संतुष्ट होकर कलाकार को प्रयोग बंद नहीं करने चाहिए। हाँ, जिन बातों में वह मज़बूत है अधिक समय लगाए पर अन्य शैलियों, प्रयोगों में कुछ समय ज़रूर दे। साथ ही हर रचना के बाद खुद से पूछे कि इस रचना को अगर कोई पुराना प्रशंषक देखे और कोई आपकी कला से अनभिज्ञ, निष्पक्ष व्यक्ति देखे तो दोनों के आंकलन, जांच और रेटिंग में अधिक अंतर तो नहीं होगा? ऐसा करने से आपकी कुछ रचनाओं औेर बातों में पुराने प्रशंषको को दिक्कत होगी पर दीर्घकालिक परिणामों और ज़्यादा से ज़्यादा लोगो तक अपनी रचनात्मकता, संदेश पहुँचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।
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