कुबूलनामा (नज़्म) - मोहित शर्मा (ज़हन)
एक दिलेर कश्ती जो कितने सैलाबों की महावत बनी,
दूजी वो पुरानी नज़्म उसे ज़ख्म दे गयी।
एक बरसो से घिसट रहा मुकदमा,
दूजी वो पागल बुढ़िया जो हर पेशी हाज़िरी लगाती रही।
मय से ग़म गलाते लोग घर गए,
ग़मो की आंच में तपता वहीँ रह गया साकी,
अपने लहज़े में गलत रास्ते पर बढ़ चले,
.....और रह गया कुछ राहों का हिसाब बाकी।
वीरानों में अक्सर हैरान करती जो घर सी खुशबू ,
आँचल में रखी इनायत घुल रही है परदेसी आबशार में...
मेरे गुनाह गिनाना शगल है जिसका,
फ़िर भी बैर नहीं करती लिपटी रोटी उस अखबार में।
रोज़ की शिकायत उनकी,
बेवजह पुराने सामान ने जगह घेर रखी....
काश अपनी नज़र से उन्हें दिखा पाता,
भारी यादें जमा उन चीज़ों पर धूल के अलावा।
उलट-सुलट उच्चारण के तेरे मंत्र-आरती चल गए,
रह गए हम प्रकांड पंडित फीके...
दुनियादारी ने चेहरों को झुलसा दिया,
उनमे उजले लगें नज़र के टीके।
समाप्त! #mohitness