देश में इस वक़्त चारों तरफ एक मुद्दा गर्म है और वह है लोकतंत्र में खतरे का और खतरा कैसा? वैसा ही जैसा हमारे माननीय चार न्याधीशों ने हमें बताया है ,चलिए मान लेते हैं कि लोकतंत्र खतरे में है और मानना सामान्यतः थोड़े ही है विशेष रूप से क्योंकि संविधान ने हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भों में से वरिष्ठ स्तम्भ का दर्जा दिया है और इसकी बागडोर सँभालने वाले चार न्यायाधीश ही जब यह कहने लगें कि लोकतंत्र खतरे में है तो न मानने लायक कुछ रह ही नहीं जाता .हमारे चारों ये न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश हैं और ऐसा ये केवल कल्पना से नहीं कह रहे वरन अपनी आत्मा की आवाज़ पर ही कह रहे हैं .उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ इन्होने मोर्चा खोला है और ऐसा करते वक्त इनकी जो बात सबसे ज्यादा ध्यान देने लायक है वह यह है कि ''हम नहीं चाहते कि 20 साल बाद कोई यह कहे कि हमने अपनी आत्मा बेच दी थी .''आज जब दुनिया में सब कुछ बिक रहा है ऐसे घोर कलियुग में न्यायाधीशों का अपनी आत्मा पर कलंक को लेकर सक्रिय होना प्राचीन बहुत कुछ याद दिला रहा है .
हनुमान जी द्वारा लंका को जलाया जाना और फिर भगवान श्री राम द्वारा वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण देख विभीषण जी को यह लगा कि जब तीनों लोकों के स्वामी ही महाराजा रावण से युद्ध के लिए आ गए हैं तो लंका का विध्वंस निश्चित है और इसीलिए उन्होंने पहले रावण से माता सीता को प्रभु श्री राम को लौटा देने की अनुनय विनय की किन्तु उसके द्वारा भरी सभा में लात मारकर बाहर निकाल देने पर लंका की प्रजा की उन्हें चिंता हुई और उन्होंने माता कैकसी से अपने मन की बात कही ''कि भैय्या रावण की काम-पिपासा के कारण लंका की निर्दोष जनता क्यों मारी जाये इसलिए मेरे मंत्रियों ने मुझे प्रभु श्री राम की शरण में जाने को कहा है ,तो क्या माता मुझे यह करना चाहिए ? तब माता कैकसी द्वारा उन्हें उनके पिता द्वारा बहुत पहले ही उनके बारे में की गयी भविष्यवाणी के बारे में बताया गया जिसमे ऋषि विश्रवा द्वारा बहुत पहले ही विभीषण की धर्मज्ञता के विषय में बताया गया था ,हमने रामायण पढ़ी भी है और जिस अनपढ़ जनता तक वह नहीं पहुँच सकती थी वहां तक हमारे साधु-संतो ने प्रवचनों द्वारा व् रामानन्द सागर ने रामायण धारावाहिक बनाकर पहुंचायी है और अब सब भली भांति जानते हैं कि विभीषण ने जो भी किया लंका की प्रजा के हितार्थ किया ,उनकी राज्य पाने की कोई लालसा नहीं थी और अगर थी भी तो क्या थी ? वे सत्य का साथ दे रहे थे ,भगवान का साथ दे रहे थे किन्तु उन्हें इसका क्या परिणाम मिला यही कि उनके माथे ''घर का भेदी '' का कलंक लगा और दुनिया में कोई भी अपने बच्चे का नाम विभीषण रखना पसंद नहीं करता जबकि रावण की अनैतिकता को जानते हुए भी भारत तक में कुछ जगह उसकी पूजा की जाती है .
ऐसे में भले ही यह कदम हमारे इन न्यायाधीशों ने मुख्य न्यायाधीश के कार्यों को गलत समझते हुए उठाया हो ,भले ही उन्हें इस स्थिति में लोकतंत्र खतरे में लग रहा हो किन्तु सर्वमान्य कदम यह होता कि वह पहले राष्ट्रपति जी के सामने यह स्थिति रखते और अगर वहां पर भी इन्हे संतोषजनक जवाब नहीं मिलता तो आत्मा की आवाज़ को उठाने के लिए संविधान की बेड़ियों से निकलना ज़रूरी था अर्थात अपने न्यायाधीश के पद से त्यागपत्र देकर ही वे अपनी आत्मा की आवाज़ को पुरजोर तरीके से उठा सकते थे क्योंकि अपने पद पर बने रहकर मुख्य न्यायाधीश पर कीचड़ उछालने का साफ मतलब उन्हें ''इमोशनल ब्लैकमेल'' करना ही है और इनके अनुसार अगर वे कुछ खास नहीं हैं तो ये भी कौनसे खास हैं वे नंबर वन हैं तो जिन्हे वे काम दे रहे हैं वे भी किसी न किसी नंबर पर हैं वे भी इनसे छोटे कैसे हो गए ?ये अगर दो,तीन,चार ,पांच नंबर के हैं तो अन्य भी तो किसी न किसी नंबर पर हैं फिर इनका विरोध क्या मायने रखता है केवल उसी स्थिति में जिसमे ये स्वयं इस सिस्टम से अलग होकर इसकी वास्तविकता बताएं, ऐसे नहीं कि मीडिया को जोड़कर ये मुख्य न्यायाधीश को धमकाएं ऐसे में इनकी स्थिति, ये भले ही कितनी कोशिश कर लें स्वयं को भ्रष्टाचार के खिलाफ जंगी बन जाने की, जनता की नज़र में ''घर के भेदी '' की ही है और इसलिए विभीषण जी की ही तरह इनकी आत्मा को कलंकित करने वाली है.
शालिनी कौशिक
[कौशल ]