इलाहाबाद हाई कोर्ट ने तीन तलाक के मुद्दे पर तल्ख़ टिप्पणी करते हुए कहा -''मुस्लिम महिलाओं से क्रूरता है तीन तलाक ''.आरम्भ से हम सुनते आये कि मुसलमानों में बस पति ने कहा ''तलाक-तलाक-तलाक'' और हो गया तलाक ,आज ये मुद्दा चर्चाओं में आया है जब कहर के तूफ़ान मुस्लिम महिलाओं पर बहुत बड़ी संख्या में ढा चुका ,पर यही सोचकर संतोष कर लेते हैं कि ''चलो कुफ्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके ''.
''तीन तलाक '' मुस्लिम महिलाओं के लिए जीवन में एक नश्तर के समान है ,नाग के काटने के समान है जिसका काटा कभी पानी नहीं मांगता ,साइनाइड जहर के समान है जिसका क्या स्वाद है उसे खाने वाला व्यक्ति कागज पेन्सिल लेकर लिखने की इच्छा लेकर उसे चाहकर भी नहीं लिख पाता,ऐसा विनाशकारी प्रभाव रखने वाला शब्द ''तीन तलाक'' मुस्लिम महिलाओं के जीवन की त्रासदी है .अच्छी खासी चलती शादी-शुदा ज़िन्दगी एक क्षण में तहस-नहस हो जाती है .पति का तलाक-तलाक-तलाक शब्द का उच्चारण पत्नी के सुखी खुशहाल जीवन का अंत कर जाता है और कहीं कोई हाथ मदद को नहीं आ पाता क्योंकि मुस्लिम शरीयत कानून पति को ये इज़ाज़त देता है .
कानून का जो मजाक मुस्लिम शरीयत कानून में उड़ाया गया है ऐसा किसी भी अन्य धर्म में नज़र नहीं आता .बराबरी का अधिकार देने की बात कर मुस्लिम धर्म में महिलाओं को निम्नतम स्तर पर उतार दिया गया है .मुस्लिम महिलाओं को मिले हुए मेहर के अधिकार की चर्चा उनके पुरुषों की बराबरी के रूप में की जाती है फिर निकाह के समय '' क़ुबूल है '' भी महिलाओं की ताकत के रूप में वर्णित किया जाता है किन्तु यदि हम गहनता से इन दोनों पहलुओं का विश्लेषण करें तो ये दोनों ही इसे संविदा का रूप दे देते हैं .और मुस्लिम विधि के बड़े बड़े जानकार इस धर्म की विवाह संस्था को संविदा का ही नाम देते हैं .बेली के सार-संग्रह में विवाह की परिभाषा स्त्री-पुरुष के समागम को वैध बनाने और संतान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिए की गयी संविदा के रूप में की गयी है .[BAILLIE : डाइजेस्ट ,पेज ९४.]
असहाब का कथन है -''विवाह स्त्री और पुरुष की ओर से पारस्परिक अनुमति पर आधारित स्थायी सम्बन्ध में अन्तर्निहित संविदा है .''
कुछ लेखकों और विधिशास्त्रियों ने मुस्लिम विवाह को केवल सिविल संविदा बताया है और उनके अनुसार इसमें संविदा के सभी आवश्यक लक्षण मिलते हैं .उदाहरण के लिए -
१- विवाह में संविदा की ही तरह एक पक्ष द्वारा प्रस्ताव [इज़ाब ]और दूसरे पक्ष द्वारा स्वीकृति [कबूल ]होना आवश्यक है .इसके अलावा शादी कभी भी स्वतंत्र सहमति के बिना नहीं हो सकती है और ऐसी सहमति प्रपीड़न ,कपट अथवा असम्यक प्रभाव द्वारा प्राप्त नहीं होनी चाहिए .
२-यदि कोई संविदा अवयस्क की ओर से उसका अभिभावक करता है तब अवयस्क को यह अधिकार होता है कि वयस्क होने के बाद उसे निरस्त कर सकता है ,ठीक उसी प्रकार मुस्लिम विधि में भी वयस्क होने पर शादी निरस्त हो सकती है यदि वह अवयस्क होने पर संरक्षक द्वारा की गयी थी .
३-यदि मुस्लिम विवाह के पक्षकार विवाह संस्कार के पश्चात् ऐसा अनुबंध करते हैं जो युक्तियुक्त और इस्लाम विधि की नीतियों के विरुद्ध न हो तब विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है .इसी प्रकार की स्थिति संविदा में होती है .
महत्वपूर्ण वाद अब्दुल कादिर बनाम सलीमन [१८४६]८ इला.१४९ में न्यायाधीश महमूद ने और न्यायाधीश मित्तर ने सबरून्निशा के वाद में मुस्लिम विवाह को संविदात्मक दायित्व के रूप में बल दिया है और मुस्लिम विवाह को विक्रय संविदा के समान बताया है .
मुस्लिम विवाह की प्रकृति का वर्णन करते हुए न्यायाधीश महमूद ने कहा - '' मुसलमान लोगों में शादी एक संस्कार नहीं है अपितु पूर्ण रूप से एक सिविल संविदा है यघपि सामान्य रूप में शादी संपन्न होते समय कुरान का सुपठंन किया जाता है फिर भी मुस्लिम विधि में इस विशिष्ट अवसर के लिए विशिष्ट सेवा सम्बंधित कोई प्रावधान नहीं है .यह परिलक्षित होता है कि विभिन्न दशाओं में जिसके अन्तर्गत शादी संपन्न होती है अथवा शादी की संविदा की उपधारणा की जाती है वह एक सिविल संविदा है .सिविल संविदा होने के उपरांत लिखित रूप से संविदा हो आवश्यक नहीं है .एक पक्षकार द्वारा इस सम्बन्ध में घोषणा अथवा कथन और दूसरे पक्षकार द्वारा सहमति और स्वीकृति होनी चाहिए अथवा उसके प्राकृतिक या विधिक अभिभावक द्वारा सहमति दी जानी चाहिए .यह सहमति सक्षम और साक्षीगण के सम्मुख व्यक्त होनी चाहिए .इसके अलावा परिस्थितियों के अनुसार निश्चित प्रतिबन्ध भी आरोपित किये जा सकते हैं .'' सिर्फ यही नहीं कि इसमें प्रस्ताव व् स्वीकृति ही संविदा का लक्षण है बल्कि इसमें मेहर के रूप में संविदा की ही तरह प्रतिफल भी दिया जाता है .मुस्लिम विधि में मेहर वह धन है अथवा वह संपत्ति है जो पति द्वारा पत्नी को शादी के प्रतिफल के रूप में दिया जाता है अथवा देने का वचन दिया जाता है ------मुस्लिम विधि में मेहर रोमन विधि के dinatio propter nuptias के समरूप है जिसे अंग्रेजी विधि में वैवाहिक अनुबंध के नाम से जाना जाता है .
मुस्लिम विवाह संपन्न होने के समय किसी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान विधितः आवश्यक नहीं है .विवाह के समय काज़ी या मुल्ला की उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है किन्तु ये विवाह वैध व् मान्य तभी है जब कुछ आवश्यक शर्तों का पालन हो जाये .अन्य संविदाओं के समान विवाह भी प्रस्ताव [इज़ाब ] एवं स्वीकृति [कबूल ] से पूर्ण होता है .यह आवश्यक है कि विवाह का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से विवाह करने का प्रस्ताव करे .जब दूसरा पक्षकार प्रस्ताव की स्वीकृति दे देता है तभी विवाह पूर्ण होता है इस प्रकार यही निष्कर्ष सही दिखाई देता है - ''कि व्यावहारिक संस्था के रूप में विवाह की वही स्थिति है जो किसी अन्य संविदा की .''[अमीर अली ]
मुस्लिम विवाह संविदा है ये तो इन विधिवेत्ताओं की राय से व् न्यायालयों के निर्णयों से स्पष्ट हो चुका है पर मजाक यहाँ ये है कि यहाँ बराबरी की बात कहकर भी बराबरी कहाँ दिखाई गयी है .मुस्लिम विधि में जब निकाह के वक़्त प्रस्ताव व् स्वीकृति को महत्व दिया गया तो तलाक के समय केवल मर्द को ही तलाक कहने का अधिकार क्यों दिया गया .संविदा तो जब करने का अधिकार दोनों का है तो तोड़ने का अधिकार भी तो दोनों को ही मिलना चाहिए था लेकिन इनका तलाक के सम्बन्ध में कानून महिला व् पुरुष में भेद करता है और पुरुषों को अधिकार ज्यादा देता है और ये तीन तलाक जिस कानून के अन्तर्गत दिया जाता है वह है -तलाक -उल-बिद्दत -
" तलाक - उल - बिददत को तलाक - उल - बैन के नाम से भी जाना जाता है. यह तलाक का निंदित या पापमय रूप है. विधि की कठोरता से बचने के लिए तलाक की यह अनियमित रीति ओमेदिया लोगों ने हिज्रा की दूसरी शताब्दी में जारी की थी. शाफई और हनफी विधियां तलाक - उल - बिददत को मान्यता देती हैं यघपि वे उसे पापमय समझते हैं. शिया और मलिकी विधियां तलाक के इस रूप को मान्यता ही नहीं देती. तलाक की यह रीति नीचे लिखी बातों की अपेक्षा करती है -
1- एक ही तुहर के दौरान किये गये तीन उच्चारण, चाहे ये उच्चारण एक ही वाक्य में हों-"जैसे - मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूं. " अथवा चाहे ये उच्चारण तीन वाक्यों में हों जैसे -" मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं. "
2-एक ही तुहर के दौरान किया गया एक ही उच्चारण, जिससे रद्द न हो सकने वाला विवाह विच्छेद का आशय साफ प्रकट हो :जैसे" मैं तुम्हें रद्द न हो सकने वाला तलाक देता हूं."
और अमान्य व् निंदित होते हुए भी ये तलाक आज ही नहीं बहुत पहले से मुस्लिम महिलाओं की ज़िन्दगी को तहस नहस कर रहा है .इलाहाबाद हाई कोर्ट इनके मामले को लेकर भले ही संवेदनशील दिखाई दे लेकिन हमारा इतिहास साक्षी रहा है कि अंग्रेजों ने भी इनके पर्सनल कानून में कभी कोई दखलंदाजी नहीं की और सुप्रीम कोर्ट में भी हमें नहीं लगता कि कोई दखलंदाजी इसमें की जाएगी और इसमें कोई फेरबदल हो पायेगा .कमल फारूकी जो इस वक़्त आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य हैं वे इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं और कहते हैं -'' तीन तलाक का मसला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है .लिहाजा शीर्ष अदालत ही अंतिम फैसला देगी .तीन तलाक का मसला सिर्फ मुस्लिमों तक सीमित नहीं है .यह उन सभी धर्मों का सवाल है जिन्हें संविधान के मुताबिक अपनी आस्था और धर्म का पालन करने की गारंटी दी गयी है .''
इसलिए नहीं लगता कि इस देश में मुस्लिम महिलाओं का उत्पीडन कभी रुक पायेगा क्योंकि यहाँ दूसरे के कानून में हस्तक्षेप संविधान के मुताबिक ही गैरकानूनी है भले ही वह उसी धर्म की महिलाओं का जीवन नरक बना रहा हो .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]